Wednesday, December 16, 2020

सुशासन का पर्याय सतत विकास और कोविड

इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोविड-19 की चुनौतियों में अनेकों उपलब्धियां पहले जैसी नहीं रही हैं। सतत् विकास के लक्ष्य हों या फिर राश्ट्रीय स्तर के विकास दर व समृद्धि ही क्यों न हो आदि तमाम प्रतिबद्धताओं को झटका लगा है। जो सुषासन लोक सषक्तिकरण का पर्याय होता है वह भी अपने समावेषी विकास की लकीर से काफी दूर खड़ा दिखता है। दुनिया एक ऐसे बवंडर से उलझ गयी है जिसमें जीवन और उसका विन्यास तथा अर्थव्यवस्था सभी खतरे में है। संसाधन और सुषासन का गहरा नाता है। वर्तमान दौर में संसाधन चाहे भौतिक हों या मानव कमजोर हुए हैं नतीजन चुनौतियां चर्चा में हैं। धरा का हर व्यक्ति अपनी जरूरतें यहीं से पूरा करता है पर कोविड ने ऐसे तमाम मौकों पर इन दिनों लगाम लगाये हुए हैं। मगर यह भी समझने का अवसर मिला है कि धरती से किसे, कितना लेना चाहिए। सतत् विकस लक्ष्य धरती के साथ मानव की वह संधि है जिसे देर तक, दूर तक तो चलाना ही है साथ ही टिकाऊ भी बनाये रखना है। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि धरती हर व्यक्ति की आवष्यकता को पूरी कर सकती है पर उसके लालच को नहीं। गांधी जी का यह कथन आवष्यकता और सतत् विकास के साथ एक ऐसी निहित अभिव्यक्ति है जिसे समुचित नीति व सुषासन से और बड़ा बनाया जा सकता है। गौरतलब है कि ब्रेंट लैण्ड आयोग का गठन संयुक्त राश्ट्र ने 1983 में किया था जिसे सतत् विकास की स्वीकार्य परिभाशा देने का श्रेय दिया जाता है। इसी आयोग की साल 1987 की रिपोर्ट में सतत् विकास को हमारा सामान्य भविश्य जिसमें सतत् विकास को भविश्य की पीढ़ियों की जरूरतों को पूरा करने हेतु उनकी क्षमता से बिना किसी समझौते के मौजूदा विकास की आवष्यकता को पूरा करने वाले विकास के रूप में परिभाशित किया गया था। 

टिकाऊ विकास के जो संदर्भ विकसित हुए उसमें विकास की एक ऐसी क्षमता जिससे परितंत्र उत्पादन देता रहे और भविश्य के लिए स्वस्थ और टिकाऊ अवस्था प्राप्त होती रहे। ऐसा विकास जिसमें मानव जीवन सुखी बना रहे। भारत का राश्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों पर नजर डाली जाये तो यह सुषासन और सतत् विकास दोनों का परिचायक है मसलन परम्पराओं का संरक्षण और संयम, मूल्यों के आधार पर जीवन जीने के एक स्वस्थ और स्थायी तरीके को आगे बढ़ाने का प्रयास, आर्थिक विकास के अनुरूप, जलवायु के अनुकूल स्वच्छ मार्ग अपनाने का प्रयास है साथ ही 2005 की तुलना में अपनी जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता 2030 तक 33 से 35 फीसद कम करने का निहित संदर्भ। आर्थिक सुधार के लिए कोविड के इस दौर में आत्मनिर्भर भारत, लोकल के लिए वोकल को प्रभावी बनाने का प्रयास काफी हद तक सीमित तकनीक और संसाधन होने के चलते जलवायु संकट को कम करने के काम आ सकता है जो सतत् विकास का बहुत बड़ा लक्ष्य है। यदि ऐसे संदर्भ प्रखर होते हैं तो इसे लोक सषक्तिकरण के लिए एक बेहतर लोक प्रवर्धित अवधारणा कही जायेगी जो हर हाल में सुषासन को पुख्ता करेगा। कनाडाई माॅडल में सुषासन षान्ति और खुषी का मिला-जुला मापदण्ड है। जनता तब खुष होती है जब सरकारें जन केन्द्रित, संवेदनषील और खुले दृश्टिकोण से उनकी आवष्यकता को पूरा करती हैं। सरकार जो करती है या नहीं करती है। उसे षासन कहते हैं और जबकि सतत् विकास भविश्य की संभावनाओं को व्यापक रूप से संजोये हुए होता है अंततः सुषासन तभी माना जाता है जब षासन की नीतियों से लोक सषक्त बनते हैं। ऐसे में वर्तमान की संकल्पना और भविश्य की संभावना दोनों का सुषासन से गहरा नाता है और ऐसा होने से सतत् विकास स्वयं उभर आता है। वैसे कालखण्ड कोविड का हो या सामान्य दिनों का सरकारें सीमित संसाधन और सीमित समय में ही होती हैं मगर समस्या से विमुख नहीं हो सकती।

यह सच है कि कोविड-19 के कारण कई महत्वाकांक्षी योजनाएं मन-माफिक परिणाम नहीं दे रही हैं। इस दौर ने वैष्विक निहितार्थों के साथ जीवन बचाने की एक ऐसे चक्र में दुनिया को फंसाया है कि सतत् विकास के बुनियादी मापदण्ड को लेकर चिंता और चेतना कमोबेष बढ़ी है और उसका मुख्य कारण जीवन का दुःखमय होना है। गौरतलब है सतत् विकास सुखी जीवन का पर्याय है। सरकारें भी जानती है कि ये मुष्किल की एक ऐसी घड़ी है जिसमें लक्ष्य छोटा करना होगा और लोगों को मजबूत करने के लिए उन पर भरोसा बढ़ाना होगा। आत्मनिर्भर भारत असल में इसी कसौटी पर टिका है। इसमें कोई दो राय नहीं कि छोटे लक्ष्य बड़े इरादे से पूरे किये जायें तो सरकार और समाज दोनों सुयोग्य बनते हैं जो उस डिजाइन से भी बाहर निकलने में मदद करते हैं जहां चुनौतियां घुटने टेकने के लिए मजबूर कर रही हों। सुषासन स्वावलम्बी बनाने की भी एक कड़ी है। षासन और नागरिक के बीच यह एक ऐसी श्रृंखला है जिससे देष को बेहतर दषा मिलती है। दुनिया क्या देखती है कहना कठिन है पर भारत न्यू इण्डिया के साथ आत्मनिर्भरता का जो परिमाप लेकर आगे बढ़ रहा है वह दूसरे देषों को दृश्टि भी देने का काफी हद तक काम कर रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोविड ने सुषासन को चुनौती भी दिया है और दूसरे अर्थों में प्रतिश्ठित करने का काम भी किया है और सतत् विकास को बिना खास प्रयासों के लक्ष्य प्राप्ति की ओर मोड़ा भी है। वैसे कहावत है कि चुनौतियां व्यक्ति को महान बनाती हैं। इस कथन का भाव सुषासन और सतत् विकास से कोविड के संदर्भ में काफी हद तक सटीक कहा जा सकता है। संसाधनों का दुरूपयोग और अंधाधुंध उपयोग काफी हद तक विराम लगा है। यह भी समझ में आया है कि जीवन को सुखी बनाने के लिए कितना और क्या चाहिए। सतत् विकास का अर्थ, इतिहास और उसके मूल पहलू की पड़ताल पूरी तरह से आंख खोल देती है कि धरती पर जो है और जितना है उसका आवष्यकता के अनुपात में उपयोग हो लालच ठीक नहीं है। कोविड-19 ने घरों में बंद दुनिया को कुछ हद तक बेपरवाह और गैर जरूरी होने से रोकने का भी काम किया है। जबकि सुषासन ने उस मापदण्ड पर लोगों को खड़ा करने का प्रयास किया कि छोटी-से-छोटी चीजों का क्या मोल है और स्वतंत्रता किस कीमत पर मिली है और जीवन मोल कैसे खतरे में पड़ सकता है और इसे बचाने के लिए कितनी कीमत चुकानी होती है। जाहिर है धरती उजाड़ होने से इसलिए रोकना है ताकि हमारे बाद भी यह गुलजार रहे और यही सतत् विकास का मूल मंत्र भी है और इसी को बनाये रखना सुषासन की संज्ञा भी है। फिलहाल सतत् विकास के मायने कई हैं, सुषासन का अर्थ भी बहुत चैड़ा है मगर सरकार की सोच और संसाधन सीमित हैं। सोचना हम सभी को है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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