बीते सात दषकों में कृशि समृद्धि और किसान का कल्याण दोनों हाषिये पर रहे हैं। सरकारें किसानों की जिन्दगी बदलने का दावा करती रहीं मगर देष की आबादी का आधे से अधिक हिस्सा समस्याओं की जकड़न से बाहर ही नहीं निकला। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही तमाम दावों के साथ किसानों की स्थिति में बड़े बदलाव की बात कह रहे हों पर इनकी कोषिष भी नाकाफी ही है और अब तो जिस प्रकार किसान आंदोलित हैं सरकार पर कई सवाल भी खड़े कर रहे हैं। किसानों की चिंता को मोदी की दृश्टि में देखा जाय तो उनकी पुस्तक का यह भाव समझना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2014 में प्रकाषित पुस्तक सामाजिक समरसता के 31वें अध्याय, गांव सुखी तो देष समृद्ध में लिखा है कि बदलते हुए समय में किसान को उसकी मेहनत का मूल्य मिलना चाहिए। उसकी मजबूरी लाभ बिचैलिये व दलाल लूट लेते हैं और कठिनाईयों के दिनों में पैदावार बेचने को आतुर किसान कम दामों में उपज बेचकर अपनी मेहनत मजदूरी में लगा रूपया नहीं निकाल पाता है। यहां किसानों के प्रति मोदी की अटूट चिन्ता दिखाई देती है। आगे यह भी लिखा है कि किसान को अनेक मुष्किलों का सामना करना पड़ता है। केन्द्र सरकार के साथ किसानों के अधिकार के लिए जो लड़ाई हम लड़ रहे थे वह हम जीत गये हैं। सन् 1985 से किसानों को पैदावार का जो पैसा नहीं मिलता था अब वह मिलने लगा है। किसानों की इतनी षुभचिंता करने वाले प्रधानमंत्री मोदी आज उन्हीं किसानों के आंदोलन के जिम्मेदार बने हुए हैं जिसकी जद्द में कृशि से जुड़े तीन कानून हैं। किसान कानून नहीं चाहता और सरकार कानून देना चाहती है। किसान कानून के विरोध में दिल्ली की सीमा पर डटे हैं। सात दषकों की पड़ताल बताती है कि कृशि विकास एवं किसान कल्याण के मामले में सरकारें बौनी ही सिद्ध हुई हैं जबकि अपने-अपने हिस्से की कोषिष का बेहतर दावा सभी ने किया।
गौरतलब है किसानों के हाथों में उस हक को दे देना चाहिए जहां से उनके श्रम और सजग जीवन का मार्ग प्रषस्त होता हो। व्यावहारिक अर्थ यह भी है कि नीचे से किया गया विकास सभी के हितों का अक्स लिए होता है। किसानों के अधिकार प्राप्ति के क्षेत्र में जन आंदोलन एक अच्छा जरिया रहा है और ऐसा करने से वे पीछे भी नहीं रहे हैं परन्तु जीवन निर्वाह की जद्दोजहद के चलते आधा देष किसानों से पटे होने के बावजूद रसूक के मामले में निहायत जर्जर हो चुका है। देष की स्वतंत्रता के साथ ध्रुवीकरण की राजनीति में 36 करोड़ वाले भारत में कृशि और किसान 1951-52 के उन दिनों केन्द्र में हुआ करते थे। पहली पंचवर्शीय योजना कृशि प्रधान होने से यह तथ्य भी उजागर हो गया कि किसानों एवं मजदूरों के हालात अब इस देष में खराब तो नहीं होने दिये जायेंगे। मगर पूरा श्रम झोंकने के बावजूद स्वयं के जीवन में बड़ा परिवर्तन न ला पाया और पैदावार का पूरा न पड़ना भी देष के लिए चुनौती थी और इससे निपटने में किसान अपना पसीना बहाता रहा। देष के अनाज की सेहत तो सुधर गयी पर उसकी गरीबी से जकड़ी बीमारी नहीं गयी। गौरतलब है जब काविड-19 की महामारी के दौर में सारे सेक्टर धूल चाट रहे थे तो कृशि विकास दर ही सम्मान बचा रही थी। दूसरी पंचवर्शीय योजना से श्रम का मोल बदल गया। औद्योगीकरण के चलते विकास के बहुआयामी दरवाजे खोलने की कोषिष की गयी। तीसरी पंचवर्शीय योजना युद्धों के झंझवात में उलझ गयी। इसी प्रकार क्रमिक तौर पर चैथी, पांचवीं से लेकर सातवीं तक की योजनाओं में किसानों का कद उत्तरोत्तर गिरावट को प्राप्त करता रहा। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा रोचक पहलू यह है कि आंकड़े उम्दा हैं तो विकास बेहतर हुआ होगा। यह सही है कि जीडीपी के मामले में किसानों का सारा श्रम धीरे-धीरे बेमानी होता गया। कहा जाए तो भारत में सकल घरेलू उत्पाद के मामले में कोरोना काल को छोड़ दे ंतो अव्वल रहने वाली कृशि फिसड्डी में षुमार है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि कृशक कामचोर हो गये हैं या फिर उत्पादन में वे कमतर हैं बल्कि उद्योग और सेवा के क्षेत्र का इन वर्शों में जो फैलाव हुआ है वह तुलनात्मक तौर पर गुणात्मक भी है और गुनात्मक भी पर कृशि मानो ठहरी रही। 1970 में 76 रूपए कुंतल बिकने वाला गेहूं आज महज 25 गुना अधिक रेट ही मिल पाता है जबकि दफ्तरों में काम करने वालों का वेतन तीन सौ से अधिक गुने की बढ़त ले चुकी है।
वर्श 1991 में उदारीकरण की अवधारणा आई यह भारतीय अर्थव्यवस्था कि दिषा में एक ऐसी पगडण्डी थी जिस पर चलकर विकास को प्राप्त किया जा सकता था। हमेषा से यह देखा गया है कि आर्थिक उत्कृश्टता का समावेषन जिन व्यवसाय और पेषों में अलाभकारी रहा है उनकी समय के साथ खूब दुर्गति हुई है। कृशि और किसानों के मामले में तो कमोबेष यही स्थिति रही है। आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से युक्त थी परन्तु यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि बड़े सपनों के बीच यह योजना भी फंसी थी और निचले तबके का श्रम संचालक यहां भी पूरा न्याय पाने में असफल था। ध्यानतव्य है कि इन्हीं दिनों महाराश्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कपास उगाने वाले किसान मुफलिसी के चलते आत्महत्या की डगर पर कदम रख चुके थे। संचेतना का परिप्रेक्ष्य यह कहता है कि संकेत को पहचान लेना चाहिए। लगभग तीन दषक में भी हालात यह है कि किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या दहाड़ मार रही है। बावजूद इसके कि योजनाकार किसानों के जीवन के रचनाकार बनें वे अनसुलझे पेंचों में फंसे रहें।
देष की कुल श्रम षक्ति का लगभग 55 प्रतिषत भाग कृशि तथा इससे सम्बन्धित उद्योग धन्धों से अपनी आजीविका कमाता है। विदेषी व्यापार का अधिकांष भाग कृशि से ही जुड़ा हुआ है। उद्योगों को कच्चा माल कृशि से ही प्राप्त होता है। इतने ताकतवर कृशि के किसान ओलावृश्टि या बेमौसम बारिष का एक थपेड़ा नहीं झेल पाते ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था कच्ची मिट्टी से बनी है। वर्श 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक स्वरूप देने के लिए 73वां संविधान संषोधन हुआ और 29 विशयों के साथ 11वीं अनुसूची जोड़ी गयी। जिम्मा अन्तिम को पहले करना था। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के रूप में प्रसिद्धि हासिल करने वाली पंचायत पिछले दो दषकों में विकास का अच्छा मंच बना पर किसान वहीं रह गये। पिछले 70 वर्शों में जो हुआ उसे देखते हुए यह कहना सही होगा कि चाहे केन्द्र हो या राज्यों की सरकारें कृशि की तबियत ठीक करने का बूता पूरी तरह तो इनमें नहीं है। मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी की बात बरसों पहले कर चुकी है। इस सम्बंध में फसल बीमा योजना का प्रावधान देखा जा सकता है। मौजूदा समय में लाये गये तीनों कानूनों को भी आमदनी का अच्छा जरिया बताया जा रहा है। वित्त वर्श 2018-19 में दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले 12 करोड़ से अधिक लघु और सीमांत किसानों की आर्थिक मदद के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की योजना षुरू की गयी जिसके चलते प्रति चार माह में किसानों के खाते में 2 हजार रूपए सीधे भेजे जाते हैं। डिजिटल तकनीक से भी किसानों को जोड़ा गया है। किसानों के जीवन में बड़ा बदलाव तब जब उपज की कीमत समुचित मिले तब। इसी को देखते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को किसान गारंटी कानून के रूप में चाहता है। कृशि यंत्रिकरण, उत्पादन लागत घटाने, कृशि बाजार में लाभकारी संषोधन और फसल की सही कीमत से कृशक समृद्ध हो सकेगा। हो सकता है कि सरकार के कानून कुछ हद तक किसानों के लिए सही हों पर जिस तरह भरोसा टूटा है उससे संषय घहरा गया है। फिलहाल कृशि विकास और किसान कल्याण भले ही सरकारों की मूल चिंता रही हो पर आज भी किसान को अपनी बुनियादी मांग को लेकर सड़क पर उतरना ही पड़ता है।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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