Wednesday, December 16, 2020

सुशासन का दौर और असुरक्षित बच्चे

बीते कई वर्शों से सुषासन की विषेशता और विष्लेशण दोनों में खूब इजाफा हुआ है पर कई वर्शों से बच्चों के गायब होने की समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं। नौनिहालों की सुरक्षा और संरक्षा पर आज भी सवालिया निषान लगा हुआ है। विमर्ष यह है कि इस समाज और सरकार के बीच रहने वाले लाखों बच्चे गायब क्यों हो रहे हैं। अगर दिल्ली में साल 2018 में गायब होने वाले बच्चों का औसत देखें तो इसकी संख्या प्रतिदिन 18 है। जो 2015 की तुलना में काफी सुधरा हुआ कहा जा सकता है। गौरतलब है कि वर्श 2015 में 22 बच्चे प्रतिदिन गायब होने का औसत रहा है। 2012 से 2017 के बीच 5 साल के भीतर राश्ट्रीय राजधानी में 41 हजार से अधिक बच्चे गायब हुए जिसकी भयावह स्थिति देखते हुए राज्यसभा में षून्यकाल के दौरान यह समस्या उठी भी थी। ये आंकड़े नौनिहालों के लिए तो खतरे की घण्टी है ही इनकी चपेट में आने वाले परिवार का पूरा जीवन भी तितर-बीतर हो रहा है। यदि पूरे देष के अलग-अलग हिस्सों में देखें तो हर घण्टे 8 बच्चे लापता हो रहे हैं जो भयावह स्थिति को जता रहा है। नेषनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े के अनुसार साल 2019 में 73 हजार से अधिक बच्चे देष से गायब हुए हैं। बच्चों के गायब होने की कहानी दषकों पुरानी है। 2011 से जून 2014 के बीच 3 लाख 27 हजार बच्चे देष से लापता हुए थे जिनमें से 45 फीसद बच्चों का कोई अता-पता नहीं है और यह क्रम कमोबेष आज भी कायम है। 

दुष्वारियां तो बढ़ रही हैं, समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं लेकिन पुलिस प्रषासन भी अपने हिस्से का काम करने का प्रयास कर रही है। कई एनजीओ के साथ मिलकर बच्चों की तलाष की जाती है और बच्चों को बरामद कर परिजनों को सौंपा भी जाता है। इसी साल 15 सितम्बर तक दिल्ली में लापता हुए बच्चे के कुल 28 सौ से अधिक मामले सामने आये। इनमें से 19 सौ से अधिक बच्चे या तो खुद लौट आये या पुलिस ने बरामद कर परिजनों को सौंप दिया। इसमें कहा यह भी गया है कि ज्यादातर मामलों में बच्चे खुद घर से भागे थे। यदि इस आंकड़े का गणतीय सम्बंध देखा जाय तो एक तिहाई बच्चे अभी भी लापता ही हैं। बड़ा सवाल यह है जो बच्चे वापस नहीं आ पाते और जिन्हें षासन-प्रषासन खोज नहीं पाता आखिर उनका होता क्या है? पड़ताल बताती है कि ऐसे बच्चों को देह व्यापार, अंगों की तस्करी, बाल मजदूरी, भीख मंगवाना, वेष्यावृत्ति, चोरी और लूटपाट आदि में धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है। खास यह भी है कि मौजूदा प्रषासन में तकनीकी दक्षता बढ़ने से बरामदी का औसत तो बढ़ा है मगर चिंता का सबब यह है कि बच्चे गायब होने का औसत बढ़ा है। 

दिल्ली देष का दिल है मगर बच्चों के लिए असुरक्षित भी। हालांकि यह आरोप अकेले दिल्ली पर नहीं लगाया जा सकता। महाराश्ट्र, ओडिषा, केरल, राजस्थान सहित दिल्ली से सटे हरियाणा में बच्चे लापता होने का औसत बढ़ा है। जैसे-जैसे षहरीकरण और नगरीकरण उफान ले रहा है समस्याएं भी आसमान छू रही हैं। बेषक षहर रोज़गार का अवसर है पर इसी अवसर में बच्चों की असुरक्षा भी व्यापक स्थान घेरे हुए है जिसे न तो परिजन और न ही षासन-प्रषासन नजरअंदाज कर सकता है। दिल्ली समेत देष से रोजाना बड़ी संख्या में बच्चे लापता हो जाते हैं मगर एक तर्क यह भी है कि इसके पीछे कुछ बच्चे अपनी अनुचित मांग नहीं माने जाने, परीक्षा में कम अंक लाने और माता-पिता की डांट-फटकार और अन्य कारणों से भी स्वयं घर छोड़कर चले जाते हैं। बच्चों की चाहत, पुरानी रंजिष और मानव तस्करी जैसे मानसिकताएं बच्चों को अगवा करने या उनकी हत्या करने जैसी वारदातें खूब बढ़ी हैं। प्रषासन कितनी भी साफगोही से काम करने की बात कहे परन्तु हकीकत यह है कि नौनिहाल खतरे में हैं। संविधान, विधान और बच्चों के लिए बने तमाम कानून भले ही उनके उज्जवल भविश्य की ढ़ेरों षुभकामनाएं रखती हों मगर बढ़ी हुई असुरक्षाएं सब कुछ बेमानी कर दे रहा है। ऐसे में पुलिस प्रषासन और जिम्मेदार इकाईयां रणनीतिक और तकनीकी खामियों को दूर करके लापता हो रहे बच्चों को बरामद करने में न केवल तेजी दिखायें बल्कि कुछ ऐसा भी करें कि गायब हो रहे बच्चों पर विराम लगे। 

 

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment