यह तर्क सीमित विवेकषीलता, तार्किकता और वैधानिकता के दर्षन से ओत-प्रोत है कि सर्वोच्च पद कहीं भी हो लोग आते और जाते रहते हैं। षासन से सम्बंधित नैतिक मूल्य व मानक उस समाज विषेश में प्रचलित सामान्य नैतिक मूल्यों व मानकों का ही रूप होता है। राश्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर कोई भी पहुंच सकता है यही लोकतंत्र की गुणता है। फिर चाहे उत्तरी गोलार्द्ध में रचे-बसे यूरोप के देष हों या अमेरिका या फिर दक्षिणी गोलार्द्ध के एषियाई देष समेत अफ्रीका व लैटिन अमेरिका ही क्यों न हों। हर किसी का समाज व प्रचलित मान्यताएं तथा आर्थिक आभामण्डल न केवल नागरिकों पर बल्कि उन्हीं के बीच से आये सर्वोच्च पदों तक पहुंचने वालों पर भी यह लागू होते देखा जा सकता है। कोरोना कालखण्ड एक अच्छा खासा वक्त ले चुका है। दुनिया स्वास्थ की समस्या के साथ खराब अर्थव्यवस्था के दौर से भी गुजर रही है। परोपकार, लोक कल्याण और जन भावना से प्रेरित कई काज भी इन दिनों बढ़त लिये हुए हैं मगर इसकी सीमाएं भी हैं। सीमाएं तो उन सत्ताधारियों की भी हैं जिन्हें सर्वोच्च होने का एहसास है। जापान में षिंजो अबे खराब स्वास्थ के चलते प्रधानमंत्री के पद पर बने रहना सही नहीं समझा। समर्पित और ईमानदार पदीय निर्वहन न कर पाने के चलते उन्होंने इस्तीफा देना ठीक समझा। वहीं खबर यह भी है कि ब्रिटेन के मौजूदा प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ने का मन बना रहे हैं। सामान्यतः जिन कारणों से ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद से हटने का मनसूबा पाल रहे हैं उसका कारण जान कर सभी का हैरत में पड़ना लाज़मी है। खासकर भारत की परिधि में तो यह कहीं अधिक आष्चर्य में डालने वाला हो सकता है। जाॅनसन को ऐसा लगता है कि जो वेतन उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर मिलता है उससे उनके परिवार का गुजारा नहीं हो पा रहा है। इस दुविधा के साथ इस सुविधा को देखें तो एक प्रधानमंत्री जिसे परिवार के पालन-पोशण व जरूरी खर्च को लेकर इतने बड़े पद की सुविधाएं भी कमतर पड़ रही हैं। इससे यह भी स्पश्ट होता है कि प्रधानमंत्री का पद वह कत्र्तव्य है जो अभिलाशा, महत्वाकांक्षा और बरसों की इच्छा की पूर्ति से परे है। इतना ही नहीं यह लोकतंत्र में एक जन सेवक के रूप में अवधि विषेश के लिए मिला काम है जिसे ईमानदारी और समर्पण से निभा कर दूसरों के लिए छोड़ देना है।
तार्किक और आर्थिक सोच
दो टूक यह भी है कि यदि ब्रिटिष प्रधानमंत्री जाॅनसन वाकई में इस पद से हटते हैं तो यह कोई भी आसानी से अंदाजा लगा लगा सकता है कि एक प्रधानमंत्री को आखिर ऐसी असुविधा कैसे हो सकती है जबकि भारत में सांसद, विधायक, मंत्री या इससे सम्बंधित किसी भी कार्यकारी पद की प्राप्ति मात्र से ही मानो भविश्य की भी सुख-समृद्धि की गारंटी मिल जाती है। हालांकि यह बात सभी भारतीय पदाधिकारियों पर लागू नहीं है। वैसे 54 वर्शीय ब्रिटिष प्रधानमंत्री जाॅनसन को लेकर उक्त बातों की कोई अधिकारिक पुश्टि तो नहीं है मगर डेली मिरर जो ब्रिटिष का एक समाचार पत्र है जिसमें यह खबर प्रकाषित है कि उन्हीं की पार्टी के एक सांसद के हवाले से यह बात आयी है। वैसे देखा जाय तो प्रधानमंत्री के तौर पर जाॅनसन एक साल में 1 करोड़ 44 लाख रूपए वेतन प्राप्त करते हैं। पड़ताल बताती है कि कम वेतन का दर्द उनका नाजायज नहीं है। प्रधानमंत्री से पहले उनकी यही कमाई एक काॅलमनिस्ट के तौर पर लगभग दोगुना थी। डेली मिरर में काॅलम लिखने को लेकर उन्हें 22 लाख रूपए महीने मिलते थे। इसके अलावा महीने में मात्र दो लेक्चर के लिए उनकी डेढ़ करोड़ की कमाई अलग से होती थी। वैसे बोरिस जाॅनसन की ही कमाई नहीं ब्रिटेन के अन्य प्रधानमंत्री के पद पर रहने वाले और अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपतियों की कमाई भी आसमान छूती है।
कहां से होती है कमाई
आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि ब्रिटेन में अधिकांष प्रधानमंत्रियो की कमाई पद से हटने के बाद औसतन अधिक रहती है और इसका मुख्य कारण लेक्चर या कन्सलटेंसी होता है। जाॅनसन से पहले जब प्रधानमंत्री थेरेसा हुआ करती थी उनकी एक साल की कमाई इन दिनों साढ़े आठ करोड़ रूपए से अधिक है। जाहिर है बोरिस जाॅनसन को भी लगता है कि कम से कम दोगुना तो कमा ही सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन मात्र एक स्पीच से ही एक करोड़ रूपए से अधिक वसूलते हैं और इसी श्रेणी में दषक पहले ब्रिटेन के ही प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर लेक्चर और कन्सलटेन्सी से 210 करोड़ रूपए कमाये हैं। जन सेवकों की पर्याप्त मात्रा में एक व्यावसायी की भांति कमाई यह जताती है कि प्रधानमंत्री के तौर पर देष का काम करो और पूर्व प्रधानमंत्री होने पर अपने कौषल का उपयोग कर कमाई करो। पर भारत में क्या यही बात लागू है? भारत में मामला बिल्कुल उल्टा है। यहां नेता पद पर रहते हुए सर्वाधिक कमाई करता है और ऐसा आंकड़ा चुनाव लड़ने के समय चुनाव आयोग के समक्ष उल्लेखित दस्तावेज में आसानी से देखा जा सकता है। यहां फिर कहना सही रहेगा कि ऐसा सभी पर लागू नहीं है। एक उदाहरण से बात स्पश्ट हो जायेगी कि यह बात कितनी पुख्ता है। 2019 में दोबारा चुनाव लड़ने वाले अलग-अलग दलों के 200 से अधिक सांसदों की सम्पत्ति में करोड़ों का अन्तर देखने को मिला था। मौजूदा समय में राज्यसभा के 203 सांसद करोड़पति हैं और लोकसभा में 543 के मुकाबले 475 करोड़पति हैं।
अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति भी पीछे नहीं
यदि समाज षिक्षित, कुषल और कौषल से भरा हो तो कमाई के स्थान पर कमाई और जन सेवा के स्थान पर जन सेवा का रास्ता आसानी से पकड़ा जा सकता है। लोक केन्द्रित, खुला दृश्टिकोण, संवेदनषीलता और पद के साथ सही निर्वहन न कि आर्थिक आभामण्डल से उसे जकड़ लेना और यह तभी सम्भव है जब राजनीतिक और सामाजिक मूल्य सुचिता की राह पर हों। दो बार अमेरिका के राश्ट्रपति रहे बराक ओबामा 2016 से पद से हटने के बाद व्याख्यान पर अपना ध्यान केन्द्रित किया मगर अब नेटफ्लिक्स के लिए फिल्मों के निर्माण की ओर देखे जा सकते हैं। वैसे अमेरिका में भी पद से हटने के बाद राश्ट्रपति रहे ऐसी षख्सियतें आमतौर पर काफी व्यस्त हो जाती हैं और यह समझना, जानना रोचक हो जाता है कि आखिर वे करते क्या हैं। हमारे देष में एक नौकरषाह 60 बरस में सेवानिवृत्त हो जाता है जो एक पढ़ा-लिखा और मजबूत तबका है मगर अपने अनुभवों से देष को कितना लाभ देता है इसके आंकड़े बहुत आषा से भरे नहीं हैं। जबकि अमेरिका जैसे देषों में सर्वोच्च पद पर रहने के बावजूद काम करना मानो एक षगल है। अमेरिका में जब कोई राश्ट्रपति व्हाइट हाउस से विदाई लेता है तो उसे मोटी पेंषन मिलती है और जीवन भर के लिए कई प्रकार के लाभ हासिल किये रहता है। किताबों और भाशणों से इनकी कमाई ठीक-ठाक देखी जा सकता है। पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन की आत्मकथा माई लाइफ हो या जाॅर्ज बुष की किताब डिसीजन प्वांइट हो करोड़ों में कमाई करती हैं और पीछे चलें तो रिचर्ड निक्सन जिन्हें वाॅटरगेट काण्ड के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा था वे भी राजनीति पर कई किताबें लिखे। इसके अलावा गेराल्ड फोर्ट रिटायरमेंट के बाद गोल्फ और स्कीइंग के साथ बहुराश्ट्रीय कम्पनियों में सक्रिय रहे। इसी तर्ज पर रोनाल्ड रीगन की आत्मकथा और उन्हें लेक्चर सर्किट में व्यस्त देखा जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सर्वोच्च पद आसानी से नहीं मिलता है और इसमें भी कोई षक नहीं कि चाहे पद पर हों या सेवानिवृत्त सभी में सब कुछ नहीं होता।
एक फकीर राश्ट्रपति जब आश्रम लौटा
भारत में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित है और कमोबेष यही गरीबी रेखा की भी लकीर है। यहां षिक्षा, स्वास्थ, बुनियादी विकास के साथ समावेषी दृश्टिकोण अभी कुछ हद तक दूर की कौड़ी बनी हुई है। ऐसे में कौषल और कुषलता उस पैमाने पर व्याप्त करना चुनौती रहती है। षायद यही कारण है कि राजनीति यहां आर्थिक मार्ग से गुजर जाती है। भविश्य संवारने का यह एक जरिया बन जाता है। इतना ही नहीं पीढ़ीयों को भी सहेज कर रखने की मानो यह कोई प्रथा हो। मगर 70 सालों का इतिहास उठा कर देखें तो भारत की इस धरा पर कई ऐसे सर्वोच्च पद धारक षख्सियतें हैं जिन्होंने यूरोप और अमेरिका के ऐसे समकक्ष पद धारकों की तुलना में कहीं से कमतर नहीं है। कमाई उनका हिसाब नहीं था पर सादगी से भरा जीवन और समाज को सहेज कर रखना निःस्वार्थ भाव से सेवा देना उनकी खूबसूरत कथानक में है। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद अपने 12 वर्श के राश्ट्रपति के कार्यकाल के बाद जब उनसे नये आवास के बारे में पूछा गया तो न केवल आवास लेने से मना कर दिया बल्कि पटना के सदाकत आश्रम लौट गये और वे जीवन के अन्त तक यहीं रहे। गौरतलब है कि 1921 में महात्मा गांधी ने इस आश्रम की स्थापना की थी और डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के दिनों यहीं रहते थे। खास यह भी है कि 80 के दषक में जेपी आन्दोलन यहीं से षुरू हुआ था। दूसरे राश्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृश्णन अपना कार्यकाल खत्म करने के बाद चेन्नई चले गये और 8 बरस अर्थात् अन्त तक वे अपने परिवार के साथ रहे। इसी श्रेणी में नीलम संजीवा रेड्डी भी हैं जो अपने गृह राज्य आन्ध्र प्रदेष लौट गये थे। ये उन पूर्व राश्ट्रपतियों की गाथा है जो दिल्ली के रायसिना पहाड़ी की छाती पर 340 कमरों के बने भव्य आलीषान भवन में रह चुके थे और जब यहां से विदा हुए तो देष के जनमानस को यह संदेष दिया कि वहां रहना प्रथम नागरिक के नाते नैतिक और वैधानिक था और अब एक नागरिक के तौर पर कहीं भी रहें स्वतंत्र हैं और वे आम जनमानस की तरह साधारण भी हैं। इसी तर्ज पर एक उदाहरण दक्षिण अमेरिका का यूरूग्वे के एक राश्ट्रपति का भी है होजे मुजिका को सबसे गरीब राश्ट्रपति कहा जाता था। 2015 में सेवानिवृत्त होकर वे अपने खेत में बने दो कमरे के मकान में रह रहे हैं। किसानी का काम करते हैं, खेत में ट्रैक्टर चलाते हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर आम नागरिकों की तरह लाइन में लगे होते हैं।
कन्याकुमारी से रायसीना तक
सत्ता न धन का पर्याय थी और न ही हो सकती है। यह समर्पण का नाम है और दायित्व इसका श्रृंगार है। मिसाइल मैन और भारत रत्न उसके बाद देष के राश्ट्रपति बने डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम के क्रियाकलाप ये जताते हैं कि उनका जो भी था वह केवल देष के लिए था। वैज्ञानिक और प्रोफेसर के तौर पर उन्होंने देष को भी दिया और देष के बच्चों को भी दिया। 2020 का मिषन दिया और विकसित देष बनने की कूबत भी सुझायी। 2007 में राश्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के बाद बिना रूके वे विद्यार्थियों और युवाओं के बीच व्याख्यान देते रहे। यदि यहां अमेरिका के राश्ट्रपति या ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की चर्चा करें तो कमाई का एक तथ्य सामने मुखर हो जाता है मगर कलाम साहब की चर्चा करें तो न राश्ट्रपति के रूप में वेतन लिया और न ही देष को देने में कोई कसर छोड़ी। बल्कि उनकी दुनिया से विदाई भी षाम 6ः30 बचे आईआईएम षिलांग में एक व्याख्यान के दौरान ही हुई थी। सत्ता का मर्म और सर्वोच्च पद की समझ सभी में हो सकती है पर उसके लिए ईमानदार कोषिष क्या हो सकता है इसके उदाहरण कम ही देखने को मिलेंगे। इसमें एपीजे अब्दुल कलाम का नाम षीर्श पर रखा जा सकता है जो राश्ट्रपति बनने से पहले और उसके बाद भी कार्य के प्रति तत्पर रहे। प्रधानमंत्री के तौर पर एक नाम डाॅ0 मनमोहन का भी लिया जाना चाहिए जो यूजीसे के चेयनमैन, आरबीआई के गवर्नर और प्रोफेसर, अर्थषास्त्री आदि के रूप में उनकी मूल पहचान कही जा सकती है। खबर यह भी देखने को मिली थी कि एक बार उन्होंने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत यह पूछा था कि क्या एक पूर्व प्रधानमंत्री विष्वविद्यालय में षिक्षण कार्य कर सकता है। उक्त से यह लगता है कि यदि देने के लिए सर्वोच्च पद धारकों के पास कुछ अलग से है तो पद से विदा होने के बाद इस आतुरता से पीछे नहीं हटते। हालांकि उन्होंने पंजाब विष्वविद्यालय चण्डीगढ़ को 35 सौ किताबें भेंट की थी। कोई षख्सियत संवैधानिक पदों पर हों या फिर किसी स्वायत्त संस्था से सम्बंधित सर्वोच्च पद पर रहा हो या फिर नौकरषाही में से कोई हो बहुत सारे उदाहरण देष में हैं जो सेवा निवृत्ति के बाद अपने पुराने काम या कुछ सृजनात्मक पक्षों की ओर रूख किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे रघुराम राजन और नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया को प्रोफेसर के रूप में पुनः काम करते हुए देख सकते हैं।
बड़ी भूमिका बाकी है
विकासषील देषों में राजनीति की बड़ी भूमिका नहीं हो सकती जो असल में विकसित देषों की होती है। भारत जैसे विकासषील देष में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन का अभी षक्तिषाली दौर आना बाकी है। जब ऐसा बड़ा सामाजिक परिवर्तन जैसा कि विकसित देषों में है सम्भव होगा तो राजनीतिक दिषा भी मजबूत राह लेगी। जहां कौषल और चेतना सुरक्षित हो जायेगी तब राजनीति आर्थिक जरिया न बनकर एक ईमानदार उत्तरदायित्व बन जायेगा। ऐसे में देष के लिए करने की जगह राजनीति तो कमाने की जगह कौषल ले लेगा।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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