Wednesday, September 27, 2017

परेशानियों के कई आसमान से घिरी हैं एंजेला मर्केल

बीते 24 सितम्बर को जर्मनी में हुए आम चुनाव के नतीजे एक बार फिर तीन बार से चांसलर की कमान संभाल रहीं एंजेला मार्केल के पक्ष में रहे। पहली बार पार्टी के लिए तय किये गये 40 प्रतिषत वोट पाने में असफल जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल इसलिए दुःखी नहीं होंगी क्योंकि जर्मनी की जनता ने उन्हें फिर अव्वल बनाया है। इस चुनाव की एक खास बात यह है कि 7 दषक के इतिहास में पहली बार धुर दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फाॅर जर्मनी अर्थात् एएफडी 12.6 फीसदी वोट के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर उभरी। मार्केल का चैथी बार चांसलर बनना भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय वह यूरोप की सबसे ताकतवर नेता में षुमार हैं और भारत का जर्मनी समेत यूरोप से अच्छे सम्बंध हैं। जाहिर है कि आगे के चार सालों तक भारत को नये सिरे से जर्मनी के साथ सम्बंधों की व्यूह रचना तैयार नहीं करनी पड़ेगी। मार्केल की इस कामयाबी के साथ इसकी भी गुंजाइष खत्म हो गयी कि यूरोपीय यूनियन में उनका कद पहले जैसा नहीं रहा पर उनके सामने परेषानियों के कई आसमान विस्तार लिए हुए हैं जो मौजूदा समय में किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं हैं। मार्केल लगातार चैथी बार चुनाव तो जीत गईं हैं पर गठबंधन सरकार बनाना उनके लिए बड़ी चुनौती है। इसका मूल कारण इस बार उनसे बहुत सारे मतदाता का छिटक जाना हैं फलस्वरूप नये साझेदार को साथ लेना अब उनकी नई मजबूरी है। गौरतलब है कि मार्केल की पार्टी को 32.9 फीसदी मत मिले हैं जो पिछली बार की अपेक्षा 8.5 फीसदी कम हैं पर बड़े दल के रूप में उनका उभरना जर्मनी में लोकप्रियता बरकरार रहने का  एक बड़ा प्रमाण है। 
जर्मन की राश्ट्रवादी पार्टी एएफडी की जीत इस बात का सबूत है कि जर्मनी बदल रहा है। गौरतलब है कि द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान 1945 में हिटलर की हार के बाद पहली बार जर्मनी की संसद बुंडेस्टाग में किसी राश्ट्रवादी पार्टी की एंट्री होने जा रही है। कहा जाय तो यह जर्मनी के इतिहास में दक्षिणपंथियों की सर्वाधिक लम्बी छलांग है जिसके असर से दुनिया अछूती नहीं रहेगी। इन सबके बीच मार्केल के लिए चुनौती यह है कि धुर दक्षिणपंथी और इस्लाम विरोधी एएफडी के सामने अब उन्हें और अधिक रणनीतिक होना पड़ेगा। लगभग 13 फीसदी वोट के साथ तीसरे पायदान वाली यह पार्टी पहले भी मार्केल के खिलाफ बिगुल फूंक चुकी है। वर्श 2015 में 10 लाख षरणार्थियों को जर्मनी में प्रवेष की इजाजत देने के चलते एएफडी के नेता चांसलर एंजेला मार्केल को देषद्रोही तक करार दे चुके हैं। चुनावी नतीजे के बाद भी इस दल का कहना है कि आव्रजन और षरणार्थी के मुद्दे को लेकर उनका विरोध अभी भी जारी रहेगा। नीतिगत मापदण्डों में देखा जाय तो दल विषेश का विरोध जो पहले सड़क पर था अब वह संसद के अंदर हो सकता है। जाहिर है एक ओर एंजेला मार्केल की राजनीतिक पार्टी, क्रिष्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन को नये साझेदार की तलाष है तो दूसरी तरफ षरणार्थी के मुद्दे पर पहले से विरोध कर रही एएफडी और तल्ख हो सकती है। हालांकि एएफडी मुख्य विरोधी दल में षुमार नहीं है। इस चुनावी परिदृष्य की पड़ताल और बारीकी से की जाय तो यह स्पश्ट होता है कि चांसलर मार्केल की पार्टी ही इस बार के चुनाव में कमजोर नहीं हुई है बल्कि मध्य वाम सोषल डेमोक्रेट्स (एसपीडी) भी पहले की तुलना में कमजोर हुई है। इस पार्टी को 20.8 फीसदी मत मिले हैं। जाहिर है मुख्य विपक्ष की भूमिका में एसपीडी रहेगी। इससे पहले एसपीडी मार्केल की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार में षामिल रही है। 
एंजेला मार्केल एक बार फिर इतिहास दोहरा चुकी हैं पर उनकी यह जीत इसलिए आसान नहीं रही क्योंकि षरणार्थी संकट से लेकर बेरोजगारी जैसे कई मुद्दे देष की अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए हैं जो इनके मिषन को फेल भी कर सकते थे जिसका हद तक प्रभाव पड़ा भी है परन्तु चमत्कारिक व्यक्तित्व के चलते वे मिषन में कामयाब हो गयीं। खास यह भी है कि मार्केल दुनिया की एक ऐसी महिला नेता हैं जो अपने बूते परिवर्तन लाने का माद्दा रखती हैं पर देखने वाली बात यह रहेगी कि जब उनका सामना धुर दक्षिणपंथी तूफान से होगा तब उनका करिष्मा पहले जैसा बरकरार रह पायेगा या नहीं। यहां यह भी समझना ठीक रहेगा कि दक्षिणपंथियों ने चांसलर मार्केल के विरोध को इस चुनाव में अपने लिए भी बहुत कुछ हासिल कर चुके हैं। जाहिर है उन्हें इस बात का आभास हो चुका है कि विरोध जर्मन की जनता को भा रहा है। चांसलर मार्केल गिने-चुने नेताओं में एक हैं उन्हें राजनीतिक गुर विरासत में मिले हैं उनकी मां सोषल डेमोक्रेटिक की सदस्य रहीं हैं और महिलाओं से जुड़े मुद्दे उनके कोर में होते थे। जाहिर है सकारात्मक राजनीति का वातावरण उन्हें षुरू से मिला है। षायद यही कारण है कि महिलाओं की समस्याओं को उन्होंने कभी नजरअंदाज नहीं किया और षायद यही मूल कारण भी है कि वे इनके बीच अच्छी पैठ बनाने में कामयाब रहीं। एंजेला मार्केल वर्श 2000 से क्रिष्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) पार्टी से जुड़ी है और 2005 में देष की पहली महिला चांसलर बनी है। तब से यह सिलसिला बादस्तूर अभी जारी है। 12 साल का षासन चलाने का अनुभव आगे के चार साल को ठीक से निभाने के काम तो आयेगा ही पर जो जमीनी और कड़वी सच्चाई है उसे तो वे भी नजरअंदाज नहीं कर सकती। चैथी बार सत्ता में आने के लिए मार्केल को परस्पर विरोधी एफडीपी और ग्रीन्स से गठजोड़ करना होगा। इसे फिलहाल जमैका का नाम दिया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टियों के रंग जमैका देष के झण्डे से मिलते हैं। जीत से गद्गद चांसलर मार्केल ने कहा है कि हमें नई सरकार बनाने का जनादेष मिला है और हमारे खिलाफ कोई दूसरी सरकार नहीं बन सकती। उन्होंने यह भी स्पश्ट किया है कि मौजूदा दुनिया अस्थिर समय से गुजर रही है। ऐसे में जर्मनी में एक स्थिर सरकार बनाना उनका इरादा है। 
चुनाव से पहले और बाद की चुनौतियों की पड़ताल यह बताती है कि भारत के साथ मजबूत रिष्ते, षरणार्थियों का मुद्दा, परमाणु बिजली घरों का मुद्दे समेत आतंकवाद, सेम सेक्स मैरिज और पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन पर मजबूती से फैसला लेने को जर्मनी के मतदाता ने मार्केल के पक्ष में मतदान करके उन्हें सही ठहरा चुके हैं पर आगे की चुनौतियों में बेरोजगारी समेत कई मुद्दों से जर्मनी भी जकड़ा हुआ है। जर्मनी में अपने समर्थकों के बीच म्यूटी अर्थात् मदर के नाम से जानी जाने वाली एंजेला मार्केल का भारत के साथ गहरा सम्बंध है। इसी वर्श मई माह में प्रधानमंत्री मोदी जर्मनी के दौरे पर थे और कई व्यापारिक और वाणिज्यिक बातों पर बल दिया गया। मार्केल स्वयं भारत के साथ अच्छे सम्बंध की दरकार रखती हैं। अक्टूबर 2015 में वे भी भारत की यात्रा कर चुकी हैं। राजनीतिक फलसफा तो यही कहता है कि यदि गठबंधन सोषल डेमोक्रेटिक के साथ होता तो अच्छा होता पर वो विपक्ष में बैठने की बात पहले ही कह चुकी है जो जर्मनी और यूरोप दोनों के लिए थोड़ा चिंताजनक तो है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि इन दिनों यूरोप में भी कुछ हद तक उथल-पुथल का माहौल बना हुआ है। यदि जर्मनी में चांसलर मार्केल स्थिर सरकार बना पाने में कामयाब नहीं होती हैं तो परिणाम से दुनिया के कई हिस्से प्रभावित होंगे। सभी जानते हैं कि यूरोपीय संघ बनाने के मामले में जर्मनी एक धुरी का काम किया था। ऐसे में उसका सषक्त रहना कहीं अधिक आवष्यक है। जर्मनी की स्थिरता भारत की वैदेषिक नीति को भी मजबूत बनायेगी पर भारत को भी भ्रश्टाचार से लेकर गरीबी के भंवरजाल से बाहर निकलने की ठोस नीति बनानी होगी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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