Monday, September 25, 2017

महिला आरक्षण का समाजशास्त्र

कई वर्शों से धूल खाती महिला आरक्षण की फाइल एक बार फिर फलक पर आ सकती है। असल में बीते दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने में मदद को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को एक चिट्ठी लिखी है जिसके चलते एक बार फिर यह चर्चा आम है कि संसद में महिलाओं को दिये जाने वाले 33 फीसदी आरक्षण विधेयक अब अधिनियमित हो सकते हैं। गौरतलब है कि वर्श 2010 में राज्यसभा द्वारा पारित यह विधेयक लोकसभा में लटका हुआ है। चर्चा तो इस बात की भी है कि सोनिया गांधी का मोदी के नाम लिखा खत वाकई महिलाओं के प्रति चिंता है या फिर कोई राजनीतिक दांव। गौरतलब है कि मोदी कैबिनेट में विदेष व रक्षा मंत्री के तौर पर महिलाओं की तैनाती है। यह अपने आप में एक तार्किक पक्ष है कि विदेष और रक्षा मंत्रालय जैसे संवेदनषील विभाग महिलाओं के सुपुर्द करके मोदी ने बड़ा और कड़ा संदेष दिया है साथ ही कैबिनेट के अन्य हिस्सों में महिलाओं की हिस्सेदारी देकर इस बात की गुंजाइष भी बनाये रखा कि उनका अभियान बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि सरकार चलाने में भी बातौर यह षामिल है। यदि कोई चुभने वाली बात है तो वह यह कि बिना आरक्षण के महिलाओं की संख्या सदन में निहायत अल्प रहती है और सुखद यह है कि मौजूदा 16वीं लोकसभा में 61 महिलाएं जो अब तक में सर्वाधिक हैं। इसके पहले 15वीं में 58 महिलाएं जबकि 14वीं लोकसभा में 45 महिलाएं थी। हालांकि 1999 में 13वीं लोकसभा के दौरान इनकी संख्या 49 थी जबकि सबसे कम 1957 में दूसरी लोकसभा में मात्र 22 महिलाएं चुनी गयी थी। स्पश्ट है कि 545 लोकसभा की तुलना में ये संख्या बहुत न्यून है। ऐसे में 33 फीसदी आरक्षण असंतुलन को समाप्त करने में काफी हद तक कारगर होगा।
सुगबुगाहट तो यह भी है कि सरकार षीतकालीन सत्र में महिला आरक्षण बिल लाने की तैयारी में है पर सोनिया गांधी की चिट्ठी सरकार को इस चिंता में डाल सकती है कि कहीं महिला आरक्षण पारित कराने की उनकी प्रतिबद्धता का श्रेय कांग्रेस को न मिल जाय। वैसे समाजवादी और आरजेडी जैसी पार्टियां इस बिल का विरोध करती रहीं हैं। गौरतलब है कि 9 मार्च 2010 को कांग्रेस की संयुक्त अर्थात् यूपीए सरकार ने राज्यसभा में इस विधेयक को पारित किया था परन्तु लोकसभा में इसे मंजूरी अभी तक नहीं मिली है। इसके पीछे राजनीतिक दलों में आम राय का न बन पाना रहा है। इतना ही नहीं 33 फीसदी महिला आरक्षण में भी वर्ग के आधार पर आरक्षण की मांग भी इसकी एक और पेंचीदगी थी। वैसे देखा जाय तो उज्जवला योजना के अन्तर्गत रसोई गैस के वितरण से गरीब महिलाओं के एक बड़े हिस्से को सरकार ने लाभ दिया है। तीन तलाक के मसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी राय स्पश्ट करके मुस्लिम महिलाओं का भी दिल जीता है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से लेकर कई ऐसी योजनाओं को धरातल पर उतारकर उन्होंने आधी दुनिया के प्रति सकारात्मक रूख दिखाया है। ऐसे में संसद में 33 फीसदी का महिलाओं को दिया जाने वाला आरक्षण यदि इनकी षासनकाल की देन होती है तो बेषक मुनाफा इन्हीं के हिस्से में जायेगा और देष की राजनीतिक संरचना तथा प्रषासनिक क्रियाकलाप में बड़ा बदलाव भी देखने को मिलेगा। 
गौरतलब है कि जब इन्दिरा गांधी 1975 के दौर में प्रधानमंत्री थी तब टुवर्ड्स इक्वैलिटी नाम की एक रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण था और आरक्षण की बात भी की गयी थी। इसका एक रोचक पहलू यह भी है कि रिपोर्ट तैयार करने वाली कमेटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के खिलाफ थे और महिलाएं चाहती थी कि वे आरक्षण से नहीं अपने बलबूते स्थान बनायें पर आज की स्थिति में नतीजे इसके उलट दिखाई दे रहे हैं। रिपोर्ट के एक दषक बाद राजीव गांधी के षासनकाल में 64वें और 65वें संविधान संषोधन विधेयक द्वारा पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की कोषिष की गयी। हालांकि यह कोषिष 1992 में 73वें, 74वें संविधान संषोधन के तहत मूर्त रूप लिया। अन्तर इतना था कि सरकार तो कांग्रेस ही थी पर प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे। हालांकि अब स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण है। ढ़ाई दषक से स्थानीय निकायों में आरक्षण के बावजूद देष की सबसे बड़ी पंचायत में महिलाओं को आरक्षण न मिल पाना थोड़ा चिंता का विशय है। वो भी तब जब पंचायतों में इनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को सराहना मिल रही हो। वैसे कई आरक्षण को 33 फीसदी के बजाय 50 फीसदी के पक्ष में भी है। बसपा की मायावती दलित और ओबीसी महिलाओं को अलग आरक्षण की बात भी करती रही है। वर्तमान उपराश्ट्रपति और तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू का एक बयान था कि सरकार पार्टियों के बीच सहमति बनाने की कोषिष कर रही है। यह तर्क दमदार है कि जब महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलेगा तब 50 फीसदी के सुर उठने लाज़मी होंगे। 
गौरतलब है कि दुनिया के कई देषों में महिला आरक्षण की व्यवस्था संविधान में दी गयी है। यदि संविधान में उपलब्ध नहीं था तो विधेयक द्वारा इसे प्रावधान में लाया गया। कई राजनीतिक दल तो अपने स्तर पर भी इसे लागू करते हैं मगर भारत में इसमें से कोई भी बात लागू नहीं होती केवल स्थानीय निकायों में आरक्षण को छोड़कर। पड़ताल बताती है कि अर्जेंटीना में 30 फीसदी, अफगानिस्तान में 27 जबकि पाकिस्तान में 30 प्रतिषत महिलाओं को देष की सबसे बड़ी पंचायत में जाने को लेकर आरक्षण मिला हुआ है। पड़ोसी बांग्लादेष में भी 10 प्रतिषत आरक्षण का कानून है। उक्त के अलावा राजनीतिक दलों में भी आरक्षण देने की परम्परा को बनाये रखने में डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड समेत कई यूरोपीय देष षामिल देखे जा सकते हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है चीन के बाद जनसंख्या के मामले में दूसरे नम्बर पर है। भले ही महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था न हो पर दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में 45 राश्ट्रपति बनने के बावजूद एक भी महिला षामिल नहीं है जबकि भारत में राश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष समेत कई ऐसे संवैधानिक षीर्शस्थ पद मिल जायेंगे जहां महिलाएं विराजमान रही हैं। 
इस समय लोकसभा में राजग को बहुमत है और कांग्रेस यदि इसमें सहयोग कर देती है तो इसे पारित होने से कोई नहीं रोक सकता। जो महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा दो दषकों से ज्यादा समय से अटका पड़ा है उसे मूर्त रूप देने का यह एक सही वक्त भी है। हो सकता है कई राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा किसी भी सूरत में पूरी न हो पर गांधी का यह कथन कि हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है परन्तु विरोध और आंदोलन एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। कथन के आलोक में यह कहना लाज़मी है कि दो दषक पुरानी महिला आरक्षण की कोषिष अब नई करवट की ओर जानी चाहिए। वो भी तब जब दुनिया में हमारी तूती बोल रही हो। संसद में महिलाओं के आरक्षण से फायदे और नुकसान की परिपाटी पर भी दृश्टि डाली जाये तो सामाजिक और राजनीतिक उत्थान इसका बड़ा लाभ है और पुरूशों का वर्चस्व का मात्रात्मक घटना उसका नुकसान है। अब सवाल यह है कि कौन, किस बिन्दु पर खड़ा है। जाहिर है महिलाओं का आरक्षण तय स्थानों के अंदर है न कि अलग से स्थान बनाना है। ऐसे में पुरूश वर्ग नुकसान में जायेगा पर ध्यान रहे कि आधी दुनिया का समाजषास्त्र दषकों तक असंतुलित रहा है। 21वीं सदी के दूसरे दषक में बड़े बदलाव और विकास के प्रेणेताओं को फिलहाल इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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