Wednesday, September 20, 2017

देशी हिंदी का विदेशी प्रभाव

अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जनसैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 
हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 
सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते तीन वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 
विष्व तेजी से प्रगृति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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