Thursday, April 14, 2016

लातूर स्टेशन पर पानी एक्सप्रेस

भारत का एक बड़ा हिस्सा इन दिनों प्यास की मार झेल रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों में पानी की कमी और उससे उपजी समस्याओं को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। इसी में शुमार महाराष्ट्र के लातूर जिले को भी भयंकर सूखे के चलते चुल्लू भर पानी के लिए जूझते हुए देखा जा सकता है। पानी के चलते न केवल यहां की दिनचर्या पटरी से उतरी हुई है बल्कि जिन्दगी भी दांव पर लगी हुई है। देखा जाए तो ‘जल है तो कल है‘ और ‘पानी बिन सब सून‘ जैसी तमाम कहावतें ऐसे मौकों पर कहीं अधिक प्रासंगिक हो चली हैं। लातूर के लोगों की प्यास बुझाने के लिए वह सब कुछ किया जा रहा है जिसकी कल्पना षायद ही कभी की गयी हो। पानी को लेकर मचे हाहाकार के बीच पानी से भरी ‘पानी एक्सप्रेस‘ को लातूर के लिए रवाना किया जाना राहत से भरी बात तो है पर इस गहरे संकट से उबरने का यह एक अस्थाई समाधान ही प्रतीत होता है। बीते 11 अप्रैल को दस टैंको में 5 लाख 55 हजार लीटर पानी के साथ ‘पानी एक्सप्रेस‘ को मिराज स्टेषन से लातूर के लिए रवाना किया गया। किसी सौगात से कम नहीं पानी से भरी यह ट्रेन 12 अप्रैल को लातूर पहुंची। जाहिर है बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे यहां के लोगों के लिए यह किसी अमृत से कम नहीं था। केन्द्र सरकार सहित भारतीय रेलवे की जल रेलगाड़ी ने इस दिषा में निरंतरता बनाये रखने और लातूर को प्यास से उबारने की जो चेश्टा की है वह सराहनीय है।
भले ही षेश भारत समेत दुनिया के तमाम देषों की भांति लातूर में भी अमीर और गरीब के बीच बड़ी खाई रही हो पर पानी के मामले में यहां करोड़पति भी बेहद गरीब है। दोनों ही समान रूप से इस पानी की जंग में दो-चार हो रहे हैं। लातूर एक ऐसा इलाका जहां लोग दिन-रात सिर्फ पानी के बारे में सोच रहे हैं। इतना ही नहीं पानी की तलाष में जिस कड़वे सच का अनुभव हो रहा है उसमंे उनके आंसू भी सूखते जा रहे हैं। पांच लाख की आबादी रखने वाले लातूर जिले को रोजाना दो करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है जबकि सच्चाई यह है कि महीने में मात्र एक बार ही पानी की सप्लाई होती है। दरअसल जिस बांध से षहर को पानी मिलता था वह पूरी तरह सूख चुका है। ऐसे में रोजाना सप्लाई सम्भव ही नहीं है। प्रषासन ने परिस्थिति को देखते हुए 150 से अधिक कुंए और ट्यूबवेल्स को इसलिए अपने कब्जे में लिया ताकि पानी की किल्लत से लोगों को निजात दिलाया जा सके परन्तु जरूरत इससे कहीं अधिक की है। महाराश्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा इलाका इस वर्श सूखे की हैट्रिक बना रहा है। लगातार तीन साल से सूखे के चलते बूंद-बूंद पानी के लिए यहां के लोग तरस गये हैं।
पानी की कमी के चलते सूखे वाले इलाकों में सामाजिक जीवन भी छिन्न-भिन्न हुआ है। षिक्षा और स्वास्थ सहित कई बुनियादी समस्याएं तुलनात्मक बढ़ी हैं। आरोप है कि इन सभी के पीछे यहां का सिस्टम जिम्मेदार है। लातूर में पानी की जबरदस्त कमी के बावजूद गन्ने की खेती पर रोक नहीं लगाई गयी। जिस पर पानी की खपत अधिक थी। साल 2015 का अंत होते-होते नौबत यहां तक पहुंच गयी कि गन्ने की खड़ी फसल को काटने के समय तक किसानों के पास बूंद भर पानी नहीं बचा। जल संकट की समस्या के और भी कई वजह है जिसमें जल संसाधन को लेकर बरसों से हो रही लापरवाही भी षामिल है। पानी बचाने के प्रति चेतना भी अन्य देषों की तुलना में यहां कम ही है। स्वयं देष की राजधानी दुनिया के 20 जल संकट वाले षहरों में टोक्यो के बाद दूसरे नम्बर पर आती है। इसके अलावा कई षहर धीरे-धीरे लातूर जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। स्वतंत्रता से लेकर अब तक देष में पानी का स्तर तीन चैथाई दर तक घट गया है। बावजूद इसके इसकी बर्बादी को लेकर लोग सचेत नहीं है। लातूर जैसे इलाकों में तो बीते कुछ वर्शों से एक से अधिक षादियां भी की जाने लगी हैं ताकि पानी लाने वाले लोगों की मात्रा घर में बढ़ाई जा सकें। रिसर्च रिपोर्ट में इसे नया नाम ‘वाॅटर वाइफ‘ दिया गया है। पिछले चार वर्शों में महाराश्ट्र के सूखे वाले इलाकों के अलग-अलग हिस्सों से 25 लाख लोग मुम्बई और आस-पास के षहरों की तरफ पलायन कर चुके हैं। पानी की कीमत क्या होती है इसका मोल लातूर के लोगों से बेहतर षायद ही कोई जानता हो। पानी की किल्लत दूर करने के लिए ट्रेनों का सहारा लिया जा रहा है। लगातार जल रेलगाड़ी पेयजल से भरी सौगात लेकर जीवन बचाने की होड़ में देखी जा सकती है। इसे लेकर एक सकारात्मक पहल भी दिखाई दे रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने लातूर की प्यास बुझाने के लिए दस लाख लीटर पानी रोजाना पहुंचाने की पेषकष भी की है। फिलहाल तत्काल में लातूर को तो राहत मिलते हुए दिखाई दे रही है परन्तु दीर्घकालिक हल तो पानी के प्रति सही सोच और रणनीति के चलते ही सम्भव है।
बीते 2 मार्च को पूरी दुनिया ने विष्व जल दिवस मनाया। दुनिया भर में पानी को लेकर संगोश्ठी और बैठकों का आयोजन भी हुआ पर सवाल है कि क्या उन उपायों को खोजा जाना अभी सम्भव हुआ है जहां से पानी की कमी से राहत मिलती हो। वर्तमान में दुनिया भर से करीब 150 करोड़ लोग पानी से जुड़े क्षेत्रों में कार्यरत हैं। कहा जाय तो मानव कार्य बल का यह आधा हिस्सा है। यूनाइटेड नेषन्स की 2015 की रिपोर्ट देखें तो विष्व के देषों ने पानी बचाने के उपायों पर यदि काम नहीं किया तो आने वाले 15 वर्शों में पूरी दुनिया को 40 फीसदी पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है। यदि हालात ऐसे बने रहे तो करीब दो दषक बाद आज की तुलना में पानी आधा रह जायेगा। गौरतलब है कि पीने के साफ पानी के आभाव में डायरिया जैसी बीमारियों से हर रोज विष्व भर से 23 सौ लोग मर जाते हैं। षहरों में रहने वाली 18 फीसदी आबादी ऐसी है जिसके पास पीने का साफ पानी नहीं है जबकि गांव में तो 82 फीसदी आबादी के साथ ऐसा हो रहा है। पिछले 50 साल के आंकड़े को देखें तो आबादी तीन गुना बढ़ी है जबकि पानी की खपत के मामले में 800 फीसदी की बढ़त है। देष की दो प्रमुख समस्याओं में आतंकवाद के अलावा जलवायु परिवर्तन है जिसका बुनियादी तथ्य पानी आज सबसे बड़ी समस्या है। भारत की कुल आबादी 18 फीसदी है लेकिन पानी के मामले में यह महज 4 प्रतिषत पर ही है। इसमें से 80 फीसदी पानी खेतों में इस्तेमाल होता है, 10 फीसदी उद्योगों में जाता है। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि हर व्यक्ति के हिस्से से पिछले एक दषक में 15 प्रतिषत पानी घटा है जो आगे के दो दषक तक 50 फीसदी कम हो सकता है। परिवर्तन के इस पराक्रम को समझने की आवष्यकता है। भौतिकवाद से भरी इस दुनिया में अस्तित्व का जद्दोजहद सभी जीव-जन्तुओं ने अपने जमाने में किया है। संसाधनों के आभाव में बड़े से बड़ा जीव भी अपना अस्तित्व खोया है। बिन पानी मानव अस्तित्व का उद्गार करना बेमानी है। सम्भव है कि पानी की समस्या अब नाक तक चढ़ रही है। समय रहते यदि इसकी बर्बादी पर रोक और संचयन पर समुचित नीति और जन-जागरूकता नहीं विकसित हुई तो आने वाले दिनों में बूंद भर पानी के लिए पूरी कूबत झोंकने के बावजूद जीवन का स्थाई होना दूभर हो जायेगा।

सुशील कुमार सिंह

Tuesday, April 12, 2016

लोकतान्त्रिक महोत्सव और हादसे

इन दिनों पष्चिम बंगाल, पुदुचेरी, तमिलनाडु, असम और केरल विधानसभा चुनाव के चलते लोकतांत्रिक महोत्सव से गुजर रहे हैं परन्तु इसी महोत्सव के बीच असम और केरल से दर्दनाक हादसों की भी खबरें आयीं हैं। एक ओर जहां पष्चिम बंगाल और असम में हुए 80 से 85 फीसदी रिकाॅर्ड तोड़ मतदान को निहारना निहायत रोचक प्रतीत होता है तो वहीं दूसरी ओर केरल और असम में हुए हादसे मन को फीका भी करते हैं। घटना और दुर्घटना के चलते सुरक्षा व्यवस्था के साथ कई उपव्यवस्थाओं को भी काफी हद तक कोसने का मन भी करता है। देष के चुनावी परिस्थितियों में कई प्रकार के संसाधनों का जुटाया जाना और उसके सही उपयोग को लेकर तत्परता का दिखाया जाना जिस प्राथमिकता में होना चाहिए उसका आभाव यहां देखा जा सकता है भले ही यह किसी भी प्रकार की चूक क्यों न रही हो पर ऐसे हादसे इन दिनों के चाक-चैबन्द के कमजोर होने की भी पोल तो खुलती ही है दुःखद यह है कि केरल और असम में हुई घटना ने सैकड़ों जिन्दगियों को निगल लिया जबकि सैकड़ों को घायल और विक्षिप्त बना दिया। घटना के विवेचनात्मक पक्ष यह दर्षाते हैं कि यहां चूक को बाकायदा अवसर दिया गया है। ऐसी घटनाओं के चलते जेहन में सैकड़ों सवाल कुलांछे मारने लगते हैं कि जिस देष में लोकतंत्र की प्रयोगषाला सात दषक पुरानी हो वहां ऐसे हादसे आखिर क्यों? ऐसा नहीं है कि पहले चुनावी दिनों में छुटपुट घटनाएं नहीं हुई हैं पर जो घटना इस बार के चुनाव में हुई है वह यह संकेत करती है कि पूर्व की परिस्थितियों से न तो सीखने का अभ्यास किया गया है और न ही इससे भिज्ञ होने का प्रयास किया गया है। कड़वा सच तो यह भी है कि जब-जब देष में चुनाव के उत्सव आयेंगे, तब-तब यह हादसा पुर्नजीवित होता रहेगा पर वास्तविक तौर पर क्या इससे कोई सबक लिया जा सकेगा पूरे विष्वास के साथ कहना मुष्किल है। हालांकि केरल की घटना मन्दिर से जुड़ी है तो असम में हुआ हादसा व्यवस्था बनाये रखने के चलते हुआ।
10 और 11 अप्रैल की तारीख क्रमषः केरल और असम के लिए एक दर्दनाक हादसे का रूप ले लिया। केरल के पोलम जिले के तटीय षहर स्थित 100 साल पुराने पुत्तिंगल मन्दिर में आतिषबाजी के चलते जो हादसा हुआ वह निहायत दर्दनाक था। सैकड़ों की जान गई और कई सौ घायल हुए। थल सेना, नौ सेना और वायु सेना के जवानों ने राहत और बचाव कार्य में जी-जान तो लगाया पर इस भीशण तबाही ने कईयों का घारबार उजाड़ दिया। मन्दिर में सात दिवसीय उत्सव के आखिरी दिन था और आतिषबाजी की प्रतियोगिता हुई जिसमें बाकायदा इनाम भी रखा गया था और यह सब बिना अनुमति के रविवार तड़के तक चलती रही और आतिषबाजी की एक चिंगारी ने पटाखों के गोदाम में विस्फोट करने का काम किया जो मानव भूल का एक ऐसा सच है जिसने लोकतंत्र की धारा में बह रहे केरल को षोकाकुल बना दिया। केरल में हुई इस दुर्घटना से प्रधानमंत्री मोदी आनन-फानन में वहां का दौरा किया और घायलों के दुःख में षामिल होने का प्रयास किया। कुछ ही पल बीते थे कि असम में भी एक चूक हो गयी। पुलिस द्वारा प्रदर्षनकारियों के खदेड़ने के चलते हवा में गोली चलाई गयी पर नियंत्रण पाने की इस कोषिष में एक हादसा हो गया। चलाई गयी गोली के चलते बिजली के तार का टूटना जिसमें दर्जन भर लोग यहां भी मौत के ग्रास में चले गये जबकि दो दर्जन के आस-पास घायल हुए फिर वही पुराने सवाल मन-मस्तिश्क में उठते हैं कि हमारी व्यवस्थाओं में उन मानकों का आभाव क्यों हो जाता है, क्यों चूक हो जाती है, क्यों हम हादसों को अवसर दे देते हैं? कानून और व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए जिन उपायों को अपनाया जाता है उसकी प्रक्रिया को देखते हुए ये षंके के दायरे से परे नहीं प्रतीत होती।
केरल के पुत्तिंगल मन्दिर में हुई त्रासदी और असम के चुनावी महोत्सव के समय में हुई चूक ने ऐसे मौकों पर होने वाली बड़ी-बड़ी घटनाओं को एक बार फिर जेहन में जीवित करने का काम किया है। लापरवाही से भरी हादसों की यह पहली या दूसरी घटना नहीं है यदि पिछले डेढ़-दो दषक की बात करें तो ऐसी कई घटनाएं याद आती है जिसमें घोर लापरवाही, अफवाह और डर के चलते तमाम दर्दनाक हादसे हुए हैं। बीते कुछ वर्शों पहले 2013 में मध्य प्रदेष के दतिया जिले में रतनगढ़ मन्दिर में पुल गिरने से सौ से अधिक लोगों की जान गयी थी। साल 2013 में ही इलाहाबाद में लगे विष्व प्रसिद्ध कुम्भ मेले को भी ऐसी घटनाओं के लिए तोल-मोल की जा सकती है। यहां रेलवे स्टेषन पर मची भगदड़ में कई लोग मारे गये थे। इलाहाबाद रेलवे स्टेषन के प्लेटफाॅर्म नम्बर 6 पर घटी घटना के दिन हजारों की संख्या में अमावस्या के मौके पर श्रद्धालुओं की भीड़ थी। 2011 में केरल के ही सबरीवाला मन्दिर में भगदड़ के चलते सौ से अधिक लोग मारे गये थे। घने जंगल के बीच पहाड़ी इलाके में स्थित इस मन्दिर में घटना के समय करीब एक लाख लोग मौजूद थे। जनवरी 2005 में पूर्णिमा के दिन 300 से ज्यादा तीर्थयात्री महाराश्ट्र के सतारा जिले में स्थित मंदर देवी कालू बाई मन्दिर में भगदड़ के चलते मारे गये। ऐसे तमाम हादसों की फहरिष्त बहुत लम्बी है। इनकी वजह भी भिन्न-भिन्न हो सकती है परन्तु समझने वाली बात तो यह है कि हादसों से हमने सीखा क्या? केरल के मन्दिर में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए पर क्यों हुआ इस पर जांच पड़ताल हो रही है। देर-सवेर इसका वैधानिक खुलासा भी होगा पर सवाल तो वही है कि क्या ये सबक के काम आयेगे?
देष में औसतन एक वर्श में डेढ़ से दो करोड़ के बीच जनसंख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। सड़कों पर भीड़, ट्रेन में भीड़, यातायात साधनों की भीड़ और तीर्थाटन और पर्यटन समेत मन्दिरों एवं मठों में श्रद्धालुओं की बेतहाषा भीड़ प्रत्येक स्थानों पर देखी जा सकती है। भारत में जिस कदर हादसों की संख्या प्रतिवर्श की दर वृद्धि लिए हुए है उसे देखते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी मषीनरी उस कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। चन्द पुलिस बलों और कुछ औपचारिक नियमों के बलबूते बड़ी भीड़ को नियंत्रित करने का काम किया जाता रहा है। चुनाव वाले राज्यों में तो यही बल चुनावी व्यवस्था को सुदृढ़ करने में खपाया जाता है। ऐसे में इतर क्षेत्रों के कानून और व्यवस्था का बेकाबू होना स्वाभाविक है। केरल हाई कोर्ट के वरिश्ठ जज ने सुझाव दिया कि सभी मन्दिरों में उच्च तीव्रता वाले पटाखों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। बात बिलकुल दुरूस्त है। बेहतर होगा कि पटाखों पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाए। विवाह-षादी सहित लगभग सभी प्रकार के उत्सवों और महोत्सवों में पटाखों ने परम्परा का स्थान ले लिया है और इसका नित नये तरीकों से विस्तार होता जा रहा है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण भी यह कहते हैं कि मानव निर्मित हादसों पर रोक लगाने के लिए नये सिरे से सोच-विचार की आवष्यकता है जो कार्यकारी निर्णयों के बूते तो सम्भव नहीं है। देष की अदालतें यदि इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप करें तो सम्भव है कि ऐसे विस्फोटकों को लेकर लोगों में नये किस्म की सचेतता आये। जिस प्रकार हादसे नित नये रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं और इनकी संख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है उसे देखते हुए घटना रोकने वाले सटीक थिंक टैंक देष में विकसित किये जाने चाहिए।


   
सुशील कुमार सिंह

Friday, April 8, 2016

पटरी से उतरी भारत-पाक शान्ति वार्ता

पाकिस्तान ने कष्मीर मसले का हवाला देते हुए जिस प्रकार भारत के साथ षान्ति प्रक्रिया को स्थगित करने की बात कही है उसे देखते हुए यह स्पश्ट है कि पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत का भरोसा तोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित का यह बयान ऐसे समय में आया है जब बीते 2 जनवरी को हुए पठानकोट के आतंकी हमले को लेकर भारत को पाकिस्तान से अच्छे रूख की अपेक्षा थी। मनमाने ढंग से उठाये गये इस कदम से इस्लामाबाद का चेहरा एक बार फिर दुनिया के सामने बेनकाब होता है। जाहिर है पाकिस्तान से जब-जब अपेक्षा की गई है उसने भारत को निराष ही करने का काम किया है। जिस प्रकार वार्ता को स्थगित करने का स्वांग रचा गया उससे ऐसा लगता है कि यह पहले से ही लिखी गयी स्क्रिप्ट थी जो बीते जनवरी से थोड़े हेरफेर के साथ भारत को झांसा देने के काम में लिया जा रहा था। बासित का यह कहना कि पाकिस्तान की संयुक्त जांच टीम की यह षिकायत रही है कि भारत ने उसका सहयोग नहीं किया जो गैर-जिम्मेदाराना बयान प्रतीत होता है जबकि भारत सभी सीमाओं को लांघते हुए आतंक से लहुलुहान पठानकोट में पाकिस्तान की जांच टीम को अपनी धरती में प्रवेष कराकर एक प्रकार से जोखिम ही लिया था जिसकी कांग्रेस समेत कई दलों ने विरोध भी किया था। देखा जाए तो पाकिस्तान ने भारत की उदारता का बेजा इस्तेमाल किया है और अपने पलटने वाली आदत को एक बार फिर प्रत्यक्ष करके यह बता दिया हैे कि भारत के किसी भी विष्वास को वह पुख्ता साबित नहीं होने देगा।
जाहिर है मसले को देखते हुए भारत का हैरत में होना लाज़मी है। पाकिस्तान पर वादा खिलाफी का आरोप लगाते हुए भारत ने कहा कि पाकिस्तान की जेआईटी को देष में इसी षर्त पर आने की इजाजत दी गयी थी कि भारतीय एनआईए को भी पाक जाने दिया जायेगा। देखा जाए तो यह एक आदान-प्रदान से भरी सौदेबाजी थी और इसके पीछे एक बड़ी वजह विष्वास की कसौटी पर दो पड़ोसियों के बीच पठानकोट हमले से जुड़े मुद्दे को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करना था परन्तु अब यह भारत के लिए एक बड़ा झटका साबित हो रहा है। भारत ने यह भी साफ किया है कि जेआईटी के दौरे के पहले ही यह सुनिष्चित किया गया था कि पठानकोट हमले से निपटने वाले किसी सुरक्षाकर्मी से मिलने की उन्हें अनुमति नहीं होगी और पाकिस्तान की जेआईटी बीते 26 मार्च से 1 अप्रैल तक छानबीन में लगी रही। सवाल है कि सब कुछ साफ-साफ होने के बावजूद पाकिस्तान ने ऐसा रूख क्यों अपनाया। जाहिर है कि पाकिस्तान को अपनी जांच पूरी करने के बाद यह स्पश्ट हो चला हो कि भारत का आरोप सही है और यदि इस पर आगे बढ़ने की कवायद की गयी तो आतंकी अजहर मसूद सहित पाकिस्तान को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। स्पश्ट है कि भारत की एनआईए भी पाकिस्तान जाती, ऐसे में पाकिस्तान की कलई भी खुलने की पूरी गुंजाइष थी। मामले को भांपते हुए उसने इधर-ऊधर की बातों में उलझाकर पलटी मारना ही सही समझा। दो टूक यह भी है कि पाकिस्तान आतंक पर बात करने से कतराता भी है। इसके पहले भी अगस्त 2015 में पाकिस्तान वार्ता में गतिरोध पैदा कर चुका है तब भारत ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण फैसला बताया था।
मामले की गम्भीरता को देखते हुए यह सोच भी विकसित होती है कि भारत ने पाकिस्तान की जांच टीम को आखिर देष में आने की इजाजत ही क्यों दी? क्यों नहीं इसके बगैर ही पाकिस्तान पर दबाव बनाने का पूरा प्रयास किया। जिस प्रकार पाक गैर जिम्मेदाराना रूख अख्तियार किया है उसे देखते हुए साफ है कि आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही करने की उसकी कोई मंषा नहीं है और कहीं न कहीं तथ्यहीन पाकिस्तान ने षान्ति प्रक्रिया को मनमाने ढंग से रोक कर आतंकियों को प्रोत्साहित करने का ही काम किया है। देखा जाए तो पाकिस्तान के साथ रूठने-मनाने का खेल बरसों पुराना है। मोदी सरकार के दो वर्श पूरे होने वाले है जिसमें पाकिस्तान से दूरी वाली अवधि अधिक रही है। वर्श 2014 के नवम्बर महीने में काठमाण्डू की सार्क बैठक से ही कमोबेष प्रधानमंत्री मोदी और षरीफ के बीच दूरी देखी जा सकती है। रूस के उफा में मुलाकात तो हुई पर षरीफ द्वारा आतंकवादियों पर कार्यवाही किये जाने के वादा करने के पष्चात् इस्लामाबाद पहुंचते ही पलटी मारने के चलते तनाव और बढ़ा। सितम्बर 2015 में संयुक्त राश्ट्र सम्मेलन के दौरान भी यह दूरी कायम रही परन्तु दिसम्बर आते-आते पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मोदी-षरीफ की कुछ क्षणों की मुलाकात ने मानो सारी तल्खी को समाप्त कर दिया। कयास लगाया जाने लगा कि इस मुलाकात के कुछ मतलब निकलेंगे परन्तु नतीजे इतने सहज होंगे किसी को अंदाजा नहीं था। जिस प्रकार पाकिस्तान से समग्र बातचीत का रास्ता भारत ने खोलने का एलान किया वह हैरत में डालने वाला था। राजनीतिक पण्डितों को भी यह बात पूरी षिद्दत से उस दौर में समझ में नहीं आई होगी। फिलहाल आनन-फानन में विदेष मंत्री सुशमा स्वराज का इस्लामाबाद दौरा भी हो गया। दौरे के एक सप्ताह नहीं बीते थे कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी 25 दिसम्बर को अचानक काबुल से लाहौर लैण्डिंग कर दी। अब तो सियासी भूचाल आना स्वाभाविक था। प्रधानमंत्री मोदी की इस अदा के कुछ कायल तो कुछ हैरान थे। इसी वर्श की 15 जनवरी को विदेष सचिव स्तर की वार्ता भी होनी थी परन्तु 2 जनवरी की भोर में पठानकोट पर आतंकियों के हमले ने एक बार फिर खेल बिगाड़ दिया। तब से मामला ठीक होने की बाट जोहते भारत के साथ पाकिस्तान ने अपनी आदत के मुताबिक एक बार फिर लुका-छुपी के खेल में फंसा दिया।
इस कूटनीतिक दुर्घटना को देखते हुए सवाल उठता है कि पाकिस्तान के मामले में भारतीय संवेदनषीलता का क्या मतलब सिद्ध हुआ? बीते तीन दषकों से आतंक की चुभन झेलने वाले भारत को आखिर पाकिस्तान से दर्द के अलावा क्या मिला? मुम्बई हमले के मास्टर माइंड लखवी से लेकर पठानकोट का मास्टर माइंड अजहर मसूद तक सबूत पर सबूत देने के बावजूद भारत के हाथ आज भी खाली हैं। इतना ही नहीं पाकिस्तान में हुए आतंकी हमले के मामले में भी बेगैरत पाकिस्तान भारत को जिम्मेदार ठहराने में पीछे नहीं रहा है। भारत पर अस्थिरता फैलाने का आरोप भी यही पाकिस्तान आये दिन लगाता रहता है जबकि भारत पड़ोसी धर्म निभाने की फिराक में बार-बार ठगा जा रहा है। उच्चायुक्त अब्दुल बसीत का यह कहना कि भारत और पाकिस्तान के बीच अविष्वास की मुख्य वजह कष्मीर ही है। उनका यह राग सात दषक पुराना है। पाकिस्तान कष्मीर को लेकर ऐसे संवेदनषीलता दिखाने का ढोंग करता है कि मानो भारत को इसकी कोई चिंता ही नहीं है। यह भी कहा जाना कि अब मामला भारत ही तय करेगा, इसमें यह संदेष है कि पलटी पाकिस्तान मारे और उसे सीधा करने का काम हमेषा भारत करता रहे। जिस प्रकार भारत ने पाकिस्तान से समस्या समाधान के मामले में अगुवापन दिखाता रहा है उसकी सराहना की जा सकती है परन्तु पाकिस्तान की आलोचना इस बात की होनी चाहिए कि उसे भारत की इस पहल की इज्जत करनी नहीं आती। फिलहाल दोनों देषों के बीच वार्ता के सभी आयाम पटरी से उतरे हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में आगे की राह कठिन तो है।

   
सुशील कुमार सिंह

Wednesday, April 6, 2016

काले धन के मामले में सफ़ेद खुलासा

अमेरिकी महाद्वीप का एक छोटा सा देश पनामा इन दिनों काले धन के मामले में हुए खुलासे के चलते वैष्विक फलक पर है। इस खुलासे में दुनिया के कई दिग्गजों का नाम शामिल है। नामी-गिरामी हस्तियों का पनामा के जरिये विदेश में पैसा छिपाने के सनसनीखेज खुलासे से केन्द्र सरकार न केवल सचेत हुई है बल्कि सरकारी मशीनरी भी मामले की गम्भीरता को देखते हुए हरकत में आ गयी है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि गैर-कानूनी ढंग से विदेशोंमें पैसा रखने वाले हर किसी पर कार्यवाही होगी। पनामा पेपर्स के नाम से सामने आये वित्तीय सौदों से यह जाहिर होता है कि इसमें षामिल दिग्गजों ने कर चोरी के लिए टैक्स हैवन देष पनामा में न केवल अपनी कम्पनी खुलवाई बल्कि गैर-कानूनी वित्तीय लेन-देन को भी अंजाम दिया। पनामा पेपर्स लीक से यह पता चला है कि भारत के फिल्म सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और उन्हीं की बहू अभिनेत्री ऐष्वर्या राय बच्चन का नाम भी इसमें षामिल है। विष्व के कई राश्ट्राध्यक्षों समेत उनके सगे-सम्बंधी भी इस लिस्ट में देखे जा सकते हैं। रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नजदीकी लोगों से लेकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ की तीन संतान तथा चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग के रिष्तेदार सहित कई रसूकदार लोग धन के इस काले-गोरे खेल में षामिल है। माना जा रहा है कि दुनिया भर से कुल 140 हस्तियों सहित 500 भारतीयों के नाम इसमें षामिल हैं। यूक्रेन के राश्ट्रपति, सऊदी अरब के षाह, अभिनेता जैकी चेन, फुटबाॅलर मैसी, अपोलो टायर और इंडिया बुल्स के प्रमोटर सहित अडाणी ग्रुप के मालिक के भाई का भी नाम इसमें षुमार है। जिस प्रकार पनामा पेपर्स लीक के खुलासे से दुनिया के दिग्गज एक कतार में खड़े हुए दिखाई दे रहे हैं उसे देखते हुए तो यही लगता है कि विदेष में पैसा छुपाने वाले लोगों की तादाद भारत समेत दुनिया के हर कोने से है।
दुनिया भर में पनामा पेपर्स से मची खलबली और उससे जुड़े खुलासों के चलते अब असर भी दिखने को मिल रहा है। सिने स्टार अमिताभ बच्चन ने टैक्स चोरी के आरोप को सरासर गलत बताया है। उन्होंने अपनी सफाई में कहा है कि मीडिया रिर्पोटों में जिन कम्पनियों का एमडी उन्हें बताया जा रहा है उन्हें वे जानते तक नहीं हैं। इसके अलावा उनका मानना है कि उनके नाम का गलत इस्तेमाल किया गया है। सफाई के दौरान ही अमिताभ बच्चन ने यह भी कहा है कि उन्होंने पूरा टैक्स चुकाया है। ऐसे में उन्हें बेवजह बदनाम किये जाने की कोषिष की जा रही है जबकि ऐष्वर्या राय पहले ही आरोपों को गलत करार दे चुकी हैं। लाज़मी है कि नाम खुलासे के बाद सूचीबद्ध लोग अपनी सुरक्षा और बचाव को लेकर प्रतिक्रिया करने के लिए सामने जरूर आयेंगे परन्तु पूरी सच्चाई तो जांच के बाद ही पता चलेगी। बरसों से भारत विदेषों में जमा काले धन को लेकर वापसी की राय षुमारी बनाता रहा है। वैष्विक मंचों पर भी इस मामले में आम सहमति बनाने के प्रयास भी देखे जा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी 2014 के सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में काले धन की वापसी को अपना एजेण्डा घोशित किया था। लगभग दो वर्श के कार्यकाल में उनका षुरूआती दिनों में इस पर एक्षन भी दिखा था परन्तु अभी मामला खटाई में ही है। नवम्बर, 2014 में आॅस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में जी-20 की बैठक के दौरान अमेरिका समेत मंचासीन सभी देषों के साथ यह आम राय बनी थी कि काले धन के मामले में वे एक-दूसरे का सहयोग करेंगे जबकि ऐसी पहल भारतीय प्रधानमंत्री ने की थी। उस दौर की यह सबसे बड़ी सफलता थी बावजूद इसके काले धन को लेकर जितनी चर्चा-परिचर्चा हुई वो सिर्फ समाचार पत्रों एवं टीवी चैनलों की सुर्खियां मात्र ही होकर रह गयी।
पनामा पेपर्स का यह मामला कईयों के लिए मुसीबत का सबब बनकर आया है। आइसलैण्ड के प्रधानमंत्री की पत्नी पर भी कुछ इसी प्रकार के संगीन आरोप हैं कि उन्होंने विदेषी कम्पनी में करोड़ों डाॅलर निवेष छुपाये हैं। मामला खुलते ही वहां प्रदर्षन षुरू हो गया तथा संसद को भी घेरने का प्रयास किया गया। आखिरकार प्रधानमंत्री सिंग मुंडुर को इस्तीफा देना पड़ा। टैक्स हैवन होने वाले देष पनामा की लाॅ फर्म मोसैक कोनसेका के खुफिया दस्तावेज लीक होने से दुनिया भर में यह आग लगी है। नेता, अभिनेता, कारोबारी और खिलाड़ी समेत कई दिग्गज जिन्होंने बेषुमार दौलत छुपाई है उनके लिए यह मुसीबत बढ़ाने वाला खुलासा है। इसके लपेटे में 70 देषों के पूर्व और वर्तमान राश्ट्राध्यक्ष भी देखे जा सकते हैं। काले धन के मामले में पिछले वर्श स्विस सरकार ने भी यह स्पश्ट किया था कि भारत को 2018 तक सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंतजार करना पड़ेगा, तब अरूण जेटली ने कहा था कि दुनिया आदान-प्रदान की दिषा में आगे बढ़ रही है। जाहिर है पनामा पेपर लीक के चलते काले धन के मामले में कोई सकारात्मक रूख धन वापसी का भी बन सकता है और षायद आने वाले दिनों में इस फहरिष्त में और लोगों के नाम भी देखे जा सकें। जिन 500 भारतीयों के नाम सामने आये हैं उनके खिलाफ काले धन को लेकर पिछले साल बने नये कड़े कानून के तहत जांच की जायेगी और यह जांच केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड की जांच षाखा द्वारा होगा। देखा जाए तो पनामा के अलावा सेषल्स, वर्जिन और आइलैण्ड जैसे कई देष जो अपने यहां कम्पनी स्थापित करने या यहां से संचालन पर कोई टैक्स नहीं लेते। जमा पैसों को लेकर के भी कोई पूछताछ नहीं होती। यही कारण है कि इन देषों को टैक्स हैवन के नाम से जाना जाता है।
सब कुछ के बाद सवाल यह है कि क्या ऐसे खुलासों से देष में जो काले धन वापसी की उम्मीद बंधी थी उसका रास्ता चिकना होगा। देखा जाए तो काले धन की वापसी का मामला कहीं-न-कहीं एक बेहतर सफेद नीति पर निर्भर करेगा। ऐसे में एक सफल जांच और एक बेहतर प्रयास ही गुंजाइषों को जिन्दा रखने में मदद कर सकती है। इसमें आर्थिक कूटनीति की कहीं अधिक आवष्यकता भी हो सकती है। काले धन के मामले में पूरी तरह पक्के अनुमान तो नहीं है परन्तु कुछ तथ्यों पर जाया जाए तो माना जाता है कि विष्व के कई द्वीप ऐसे हैं जिसे ‘टैक्स स्वर्ग‘ कहा जाता है जिसमें पनामा का नाम भी षामिल है। इसके अलावा बहामा और क्रियान जैसे तमाम छोटे द्वीपों पर तीन से चार कमरों के एक-दो मंजिला मकानों में अन्तर्राश्ट्रीय बैंक खुले हैं जैसे फस्र्ट सिटी काॅरपोरेषन आदि। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि काली कमाई विदेष भेजने के मामले में भी भारत अव्वल नम्बर पर है। अनुमान तो यह भी है कि 70 लाख करोड़ रूपए का काला धन केवल स्विस बैंक में जमा है जो 2018 तक जानकारी आदान-प्रदान करने से गुरेज कर रहा है। दुनिया भर के तमाम देषों में इसी धन को आंकड़ों के मुताबिक समझा जाए तो यह 300 अरब डाॅलर के पार है। ग्लोबल फाइनेंषियल इन्टीग्रिटी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार वर्श 2000 से लेकर 2008 तक 4680 अरब रूपए अरब भेजे गये। कई देषों के बैंकिंग नियम ऐसे हैं कि मानो वह जान बूझकर काले धन को आमंत्रित करते हों। बारबडोस, आइसलैण्ड, दुबई, मलेषिया, मालदीव, माॅरिषस, फिलीपीन्स आदि दर्जनों देष जो काले धन के षरणगाह के रूप में जाने और समझे जाते हैं। भारत की तकलीफ यह है कि लाख जुगत लगाने के बावजूद इसकी वापसी के मामले में अब कुछ खास हासिल नहीं हुआ है।

सुशील कुमार सिंह


Monday, April 4, 2016

भारत माता की जय का अर्थ विन्यास

बीते कुछ माह से भारत माता की जय को लेकर देष में सियासी संग्राम छिड़ा हुआ है। क्या हिन्दु, क्या मुस्लिम सभी इस पर अपनी-अपनी राय रख रहे हैं। कुछ इसके खिलाफ फतवा जारी कर रहे हैं तो किसी को ऐसे जयकारे से कोई परहेज नहीं है। बयानों को लेकर अक्सर सुर्खियों में रहने वाले और चन्द मुस्लिम लोगों का नेतृत्व करने वाले हैदराबादी नेता असुद्दीन ओवैसी के गले पर भी यदि चाकू रख दिया जाए तो भी उन्हें भारत माता की जय बोलना पसंद नहीं है। हकीकत में ओवैसी के ऐसे एलान के पीछे भारत माता की जय के बजाय अपनी जय-जयकार करवाने की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। खास यह भी है कि ओवैसी सियासत के ढ़ाई घर भी चलना नहीं जानते परन्तु अपनी चाल से देष को बदरंग करने पर तुले हैं। यह बात समझ से परे है कि जो बातें रसूक के लिए हैं ही नहीं उसको लेकर इतना बड़ा इगो पालने की क्या जरूरत है। फिलहाल ओवैसी के इस बोल ने सियासी संग्राम तो छेड़ ही दिया है। कुछ दिन पूर्व राज्यसभा के मनोनीत सदस्य गीतकार जावेद अख्तर ने अपनी विदाई के दिन एक मार्मिक भाशण दिया जिसमें ओवैसी प्रकरण का भी अप्रत्यक्ष जिक्र था जिसकी चर्चा करते हुए जावेद अख्तर ने पूरे जोष-खरोष के साथ तीन बार राज्यसभा में भारत माता की जय कहा। दरअसल उन्होंने यह जताने का प्रयास किया कि देष में सियासत अपनी जगह और राश्ट्रीय आदर्ष अपनी जगह हैं। सवाल तो यह भी है कि एकता और अखण्डता के सीमेंट से बने देष पर जर्जर की नीयत रखना किसी भी सम्प्रदाय के व्यक्ति को कैसे इजाजत दी जा सकती है। गौरतलब है कि जिस देष में सियासतदान धर्म और सम्प्रदाय की आड़ में अपनी राजनीति को तवज्जो देते हों, वहां भारत माता की जय किसी के लिए अपषगुन तो किसी के लिए सकून की बात क्यों नहीं होगी।
स्थिति और परिस्थिति का पूरा आंकलन और प्राक्कलन किया जाए तो कई ध्रुवों में बंटी सियासत के बीच भारत माता की जय का विचार साम्प्रदायिक आवरण से भी घेर दिया गया है जबकि सच्चाई यह है कि इस नारे के पीछे भारत के प्रति समर्पण और श्रद्धा के भाव मात्र ही निहित हैं। षायद ही इसके अलावा कोई और बात इसमें होती हो। बावजूद इसके देष के समझदार लोग कतार में खड़े होकर इसके कई अर्थ समझ भी रहे हैं और समझाने में भी लगे हैं। आरएसएस का अपना अर्थ है तो षिवसेना की भी अपनी परिभाशा है जबकि मुस्लिम संगठन भी इसके कई जुदा अर्थ निकाल रहे हैं। भारत माता की जय को लेकर देष की राय बंटी हुई है। गैर हिन्दू या यूं कहें कि मुस्लिम इस मामले में एक राय नहीं रखते हैं। कुछ मुस्लिम संगठन भारत माता की जय में अपना गौरव समझते हैं तो कुछ इसे हिकारत नजरों से देख रहे हैं। दारूल उलूम देवबंद ने इसके विरोध में फतवा तक जारी कर दिया है जो नये विवाद की जड़ भी है। मामले को देखते हुए यूपी के बागपत की पंचायत ने इसके प्रतिक्रिया में फतवारूपी फैसला लिया है कि भारत माता की जय नहीं कहने वाले का सामाजिक-आर्थिक बहिश्कार किया जायेगा। हालांकि इसके पहले बीजेपी के कुछ नेताओं की ऐसी टिप्पणियां आ चुकी हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने भारत माता की जय को भावनाओं से जुड़ा बताया। यह सही है कि किसी के प्रति लगाव और समर्पण दिखाने का कोई प्रतिकात्मक परिप्रेक्ष्य होता है परन्तु जब ऐसे परिप्रेक्ष्य विजातीय समाज में किसी के लिए लाभ और किसी के लिए हानि का विशय होते हैं तो इसके अर्थ भी मनमाफिक कर लिए जाते हैं। ज्वलंत प्रष्न यह है कि भारत माता की जय जैसे षब्द को लेकर तात्कालीन परिस्थिति में ऐसा क्या हुआ है जो इतनी बड़ी परेषानी का सबब बना हुआ है। इच्छित मापदण्ड यह दर्षाते हैं कि अतिरिक्त चाह रखने के चलते तथाकथित कुछ अगुवा देष के अमन-चमन कोदांव पर लगा देते हैं।
गौरतलब है कि बीते कुछ माह पूर्व जब असहिश्णुता को लेकर देष में एक नई तरीके की बयार बह रही थी तो ऐसे ही बयानबाजियों की कतार लगी थी जब असहिश्णुता की आंदोलित मिजाज समय के साथ ढलान की ओर बढ़ा तो असहिश्णुता की बात करने वालों को भी लगा था कि अनायास ही इस मुद्दे को गर्माहट दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष ने भी असहिश्णुता जैसी किसी बात का देष में होने से इन्कार करते हुए कहा था कि न्यायापालिका के रहते किसी को डरने की जरूरत नहीं है। असल में संविधान सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ प्रभुत्वसम्पन्न व्यवस्था का प्रतीक है और यह भारत की धरती पर रहने वाले एक-एक जनमानस के लिए प्रत्यक्ष रूप से स्पर्ष करता है। संविधान उन सभी प्रकार के कृत्यों को करने की इजाजत देता है जिससे देष की अक्षुण्णता को बनाये रखने में मदद मिलती हो। ताज्जुब इस बात की है कि हमारे देष में गैर जरूरी मुद्दों को उभार कर धर्म और सम्प्रदाय की आड़ में समाज का वर्गीकरण किया जाता है और जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाया जाता है। भारत माता की जय जैसे विवाद में हिन्दू और मुस्लिम संगठन पेट्रोल और आग के साथ इसमें कूदे हुए हैं। भारत में एक ओर भारत माता की जय को लेकर विरोध और बेफजूल की बातें चल रही हैं वहीं इस्लामी देष सऊदी अरब की राजधानी रियाद में प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान भारत माता की जय के नारे लगे और यह नारे वहां की मुस्लिम महिलाओं ने लगाये। उठे इस विवाद के बीच यह बात क्यों न मान लिया जाए कि चंद नेताओं और साम्प्रदायिक आड़ में जो लोग इस नारे को लेकर बंटी हुई राय पेष कर रहे हैं उन्हें लक्ष्मण रेखा की ठीक से समझ ही नहीं है। यदि है तो उनके कृत्यों से देर-सवेर देष को समझ में आ जायेगा।
भारतीय संविधान में व्याप्त समस्त आदर्षों का विषदीकरण किया जाए तो सब कुछ के बावजूद यह दर्षन जरूर उभरता है कि संविधान निर्माताओं ने इसे समुचित करने को लेकर एड़ी-चोटी का जोर लगाया था पर बीते कुछ माह से कभी असहिश्णुता के नाम पर तो कभी देष प्रेम को लेकर अनाप-षनाप के चलते सच्ची और कच्ची अवधारणा के बीच मानो जंग छिड़ी हो। समझना तो यह भी जरूरी है कि भारत माता की जय महज एक नारा नहीं है बल्कि हर भारतीय के लिए यह रसूक का दायरा भी है। वैष्विक पटल पर किसी भी देष की जितनी भी दूर तक उसकी धरती बिखरी होती है वहां के बाषिन्दे देष प्रेम को लेकर जो बन पड़ता है, करते हैं। भारत इससे परे नहीं है। उत्तर से धुर दक्षिण तक और पूरब से पष्चिम तक भारत माता की जय क्यों नहीं, इस पर भी बड़े मंथन की जरूरत है। दबाव और प्रभाव के इस युग में कई अपने इगो के चलते ‘भारत माता की जय‘ से कतरा रहे हैं तो कई अपनी सियासत को परवान चढ़ा रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना हम भारत के लोग से षुरू होती है और व्यक्ति की गरिमा, एकता और अखण्डता से गुजरते हुए बंधुता का मार्ग अपनाते हुए हर भारतीय के दिलों में उतरती है। देखा जाए तो पिछले सात दषकों से यही सब हो रहा है परन्तु बदलते हालात में यह कह पाना कठिन है कि यह आगे भी जारी रहेगा। फिलहाल भारत माता की जय को लेकर जितनी व्याख्या करने में जी-तोड़ कोषिष की जा रही है उतनी देष की भलाई में खर्च की जाती तो देष की तस्वीर कुछ और होती।
  
सुशील कुमार सिंह

सुरक्षा परिषद् में चीन का वीटो दुरूपयोग

फिलहाल दुनिया दो गम्भीर समस्याओं से जूझ रही है एक जलवायु परिवर्तन से तो दूसरे आतंकवाद से। ऐसा नहीं है कि वैष्विक समुदाय द्वारा इन दोनों समस्याओं को लेकर एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाया जा रहा है पर जो नतीजे दिखने चाहिए वे प्रत्यक्ष कम ही हुए हैं। आतंकवाद से मुकाबला करने के मामले में  बड़ी-बड़ी कसमें खाने वाले देष भी वास्तव में जमीन पर कुछ खास करते हुए नहीं दिखाई दे रहे। चीन और पाकिस्तान जैसे देष आतंकवाद के मामले में गैर जिम्मेदाराना रवैये पर अभी भी कायम हैं। ताजे घटनाक्रम में चीन ने एक बार फिर जैष-ए-मोहम्मद के मुखिया और भारत में आतंक फैलाने वाले अजहर मसूद को प्रतिबंधित सूची में डालने की भारत की कोषिष पर अडंगा लगा दिया है। गौरतलब है कि बीते 2 जनवरी को पठानकोट में हुए आतंकी हमले के मास्टर माइंड अजहर मसूद को संयुक्त राश्ट्र की प्रतिबंधित सूची में षामिल करने को भारत ने प्रस्ताव दिया था जिसके अंतिम पहर के ठीक पहले चीन ने संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् को फिलहाल इस निर्णय पर रोक लगाने के लिए वीटो का प्रयोग किया। ध्यानतव्य हो कि सुरक्षा परिशद् का स्थायी सदस्य होने के नाते चीन के पास वीटो पावर है और वह अक्सर इसका प्रयोग करते हुए भारत को झटका देने का काम करता रहा है। इसके पहले वह मुम्बई हमले के मास्टर माइंड जकीर-उर-रहमान लखवी पर जून, 2015 में वीटो का प्रयोग करके सुरक्षा परिशद् को किसी निर्णय तक पहुंचने में असमर्थ बना दिया था और भारत को मायूसी दी थी। गौरतलब है कि चीन के ऐसा करने के पीछे उसका पाकिस्तानी प्रेम ही है। 1972 से चीन दर्जन भर के आस-पास वीटो पावर का प्रयोग कर चुका है जिसमें चार से पांच बार भारत के खिलाफ देखे जा सकते हैं। 
फिलहाल संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् द्वारा अजहर मसूद पर होने वाली कार्यवाही चीन के अड़ंगे के चलते गैर नतीजा हो गयी है। सवाल है कि भारत को बार-बार मायूस करने के पीछे चीन की क्या मंषा है। समझने वाली बात यह भी है कि चीन का इतिहास चतुराई से भरा रहा है। भरोसे के बाद भी धोखा देने के मामले में चीन की कोई सानी नहीं है। खरी-खरी बात यह है कि चीन एक तीर से कई निषाने लगा रहा है। पाकिस्तान से गहरी दोस्ती जता कर यह सिद्ध करना चाहता है कि भारत से रिष्ते कितने ही बेहतर क्यों न हों पाकिस्तान के मामले में वह जस का तस विचार रखता रहेगा। अमेरिका के लिहाज़ से भी चीन के लिए पाकिस्तान काफी अहम स्थान रखता है। भारत और अमेरिका की दोस्ती भी चीन के लिए चिंता का सबब है। पिछले साल म्यांमार में की गयी कार्यवाही के चलते चीन काफी उधेड़बुन में रहा है। जाहिर है खीज उतारने के मौके की फिराक में वह भी रहा होगा। अतंर्राश्ट्रीय पटल पर चीन का रवैया भारत के मामले में बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता। आॅस्ट्रेलिया में नवम्बर, 2014 जी-20 के सम्मेलन के समय जब आॅस्ट्रेलिया ने दषकों से अटके यूरेनियम देने के समझौते को हरी झण्डी दी जो चीन को कहीं न कहीं नागवार गुजरा था। अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा का भारत प्रेम और मोदी का बराक प्रेम भी चीन के गले की फांस है। अन्तर्राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बीते दो वर्शों से भारत की छवि एक ताकतवर देष के रूप में उभरी है जिसके चलते भी भारत चीन को खटक रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग की भारत यात्रा सद्भावना से भरी कही जा सकती है परन्तु कूटनीति में जैसा दिखाई देता है असल में वैसा होता नहीं है।
सवाल यह है कि अब भारत के पास क्या रास्ता बचता है। चीन यूएन का स्थाई सदस्य है और उसके विरोध के बाद भारत की मजबूरी यह है कि वह स्वयं इस मामले को आगे नहीं बढ़ा सकेगा। इसके अलावा भारत पाकिस्तान पर अमेरिका के जरिये दबाव बना सकता है साथ ही चीन को भी मामले की गम्भीरता से अवगत करा सकता है परन्तु दूसरा सवाल यह है कि क्या चीन इस बात से बेखबर है कि भारत आतंक की पीड़ा भोग रहा है असल में चीन सब कुछ जानबूझकर कर रहा है। दषकों से यही चीन की रणनीति भी रही है। 1954 में पंचषील समझौते के बाद भी 1962 में भारत पर उसके द्वारा किया गया आक्रमण चीन के धोखे का पुख्ता सबूत है। सबकुछ इतना आसान नहीं है एक ओर प्रधानमंत्री मोदी बेल्जियम से लेकर अमेरिका की वर्तमान यात्रा में आतंकवाद को लेकर अपनी संवेदनषीलता से दुनिया को नये सिरे से अवगत करा रहे हैं तो दूसरी तरफ चीन सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्य होने के चलते वीटो का बेजा इस्तेमाल कर रहा है और आतंकवादियों का हितैशी बना फिर रहा है। इतना ही नहीं 2 जनवरी को पंजाब के पठानकोट के एयरबेस पर जो आतंकी हमला हुआ था उसकी जांच के लिए पाकिस्तान संयुक्त जांच कमेटी 29 मार्च को भारत आई। यह भी इस बात का सबूत है कि भारत आतंकवाद के मामले में कच्ची बात और कच्ची चाल का हिमायती नहीं है। यह भारत का एक और सकारात्मक कदम ही है कि आतंक को षरण देने वाले पाकिस्तान और वहीं के आतंकियों से छलनी पठानकोट में उसी देष के आला अफसरों को प्रत्यक्ष चित्र देखने का अवसर दिया। हांलाकि कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल इसका विरोध भी किया है।
फिलहाल सुरक्षा परिशद् की रडार पर आया अजहर मसूद चीन के चलते प्रतिबंधित सूची से बाहर है। इन दिनों वीटो पावर का आम तौर पर मतलब संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के पांच स्थाई सदस्यों को मिले विषेशाधिकार से हैं जिसमें चीन समेत रूस, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन हैं इनमें से कोई भी सदस्य किसी प्रस्ताव को पास होने से रोक सकता है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए चीन बार-बार भारत को हाषिये पर धकेलता रहता है। 1945 से लेकर अब तक इसका लगभग 240 बार इसका प्रयोग और दुरूपयोग किया जा चुका है। देखा जाए तो भारत को सुरक्षा परिशद् में स्थाई सदस्यता दिलाने का प्रयास प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के जमाने से जारी है जबकि 1950 के दषक में ही भारत को बिना किसी खास कोषिष के यह मौका मिला था परन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे ठुकरा दिया था। प्रधानमंत्री मोदी विगत् दो वर्शों से सदस्यता को लेकर पूरी ताकत लगाये हुए हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आॅस्ट्रेलिया समेत दुनिया के कई देष इस मामले में भारत के पक्षधर भी हैं। बावजूद इसके अभी मामला जस का तस बना है। चीन की हरकतों को देखते हुए भारत का सुरक्षा  परिशद् में स्थायी सदस्य के तौर पर होना समय की दरकार भी है। परिशद में अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने का प्रष्न काफी लंबे समय से विकासषील एवं विकसित राश्ट्रों की कार्यसूची में रहा है। समय के साथ अनेक मुद्दे भी इसमें षामिल होते गये, जो विस्तृत होने के साथ काफी हद तक परस्पर-विरोधी भी हैं पर सदस्यता के मामले में स्थिति अभी भी यथावत है। चीन का आतंकी लखवी से लेकर अजहर मसूद तक के बचाव में होना यह परिलक्षित करता है कि चीन का पाकिस्तानी प्रेम आतंकवाद को फलने-फूलने में ईंधन का काम कर रहा है जबकि आतंकवाद की बड़ी कीमत भारत चुका रहा है। यह भी आरोप समुचित ही होगा कि चीन पड़ोसी धर्म निभाने के मामले में भी भारत जितना सषक्त नहीं कहा जायेगा।
   
सुशील कुमार सिंह

Friday, April 1, 2016

मुंह चिढाती सभ्यता के बीच जूझता मानव

मार्च के अन्तिम दिवस पर पष्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता का बड़ा बाजार इलाका उस समय घोर पीड़ा से जूझने लगा जब सभ्यता का प्रतीक एक फ्लाई ओवर षहर के बीचों बीच ढह गया। दर्जनों मारे गये और सैकड़ों घायल हुए। यह महज एक खबर नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता के बीच बरसों से चले आ रहे संघर्श का एक ऐसा नतीजा है जिसमें सभ्यताएं हमेषा मुंह चिढ़ाती रहीं। प्राचीन इतिहास के पन्नों में अक्सर यह पढ़ने को मिल जाता है कि संस्कृतियां युगों-युगों तक कायम रहती हैं जबकि पतन तो सभ्यताओं का होता है। उसी का एक जीता-जागता उदाहरण कोलकाता का यह फ्लाई ओवर है पर उनका क्या जिनकी जान पर बन आई है। फ्लाई ओवर हादसा एक ऐसी आहट लिए हुए है जहां से अंधाधुंध षहरीकरण के बीच उस धुंध को भी समझने की जरूरत है जिसकी चकाचैंध और चकमक में बहुत कुछ नजरअंदाज किया जा रहा है। इस हादसे ने दर्जनों नहीं बल्कि सैकड़ों सवालों को जन्म दिया है। पष्चिम बंगाल माह अप्रैल-मई में विधानसभा चुनाव से गुजरने वाला है जाहिर है फ्लाई ओवर का गिरना सियासतदानों के माथे पर बल लाने का भी काम करेगा। बीजेपी ने इसे भ्रश्टाचार का नतीजा बताया तो बिल्डरों ने भगवान की मर्जी कहा पर असल सच क्या है, इसकी बात कोई नहीं कर रहा है। जल्दबाजी के चलते लापरवाही भी बड़ी हो सकती है और मुनाफे के चलते मिलावट भी खूब हो सकती है साथ ही आरोप से बचने के लिए सियासत भी नये रूप रंग में हो सकती है। बड़ा सच यह भी हैे कि राहत और बचाव के बीच जो बच गये उनका इलाज हो जायेगा और जो मर गये उनकी तो दुनिया ही उजड़ जायेगी। जांच के नाम पर कमेटी गठित होगी उसकी रिपोर्ट आयेगी उस पर भी सियासत गर्मायगी। इन सबके बीच हम एक बार फिर यह भूल जायेंगे कि षहरी बाढ़ के बीच जो फ्लाई ओवर ढहा था उसका असल सच क्या था और इससे प्रभावित समाज के उन लोगों को क्या वाकई में न्याय मिल पाया?
फ्लाई ओवर बना रही बिल्डर कम्पनी आईवीआरसीएल ने प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी सफाई में कहा कि इसकी वजह की पड़ताल करेंगे और लापरवाही जैसी इसमें कोई बात नहीं है। कम्पनी ने रस्म अदायगी के तहत अपना सुरक्षा कवच इसी रूप में निर्मित कर लिया है जबकि पष्चिम बंगाल की सरकार ने दोशियों को नहीं बख्षा जायेगा कहकर अपना इरादा भी साफ कर दिया है। इसके अलावा अन्य राजनीतिक पार्टियां इस मामले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप में भी मषगूल हैं। सबके बावजूद सच यह है कि बेतहाषा नगरीकरण भारत समेत दुनिया में बड़े उछाल पर है। दस लाख से अधिक जनसख्ंया वाले षहर, पचास लाख से अधिक जनसंख्या वाले षहर, करोड़ से अधिक जनसंख्या जैसे विविध प्रकार के षहर मौजूदा भारत में मिल जायेंगे जो षहर जितना सघन और जनसंख्या घनत्व से भरा है उसे उसी कीमत पर संघर्श करना पड़ रहा है। संसाधनों की भी जनसंख्या की तुलना में केन्द्रीयकरण हो रहा है। सड़क पर सड़क बन रहे हैं और रहने वाले घरों की ऊँचाई दर्जनों माले में है। पानी की समस्या, बिजली की समस्या इसके अलावा सांस लेने के लिए हवा की समस्या से भी नगर पट गये हैं। दिल्ली, मुम्बई, बंगलुरू, चेन्नई समेत कोलकाता जैसे दर्जनों षहर इसी हाल में है। क्या फ्लाई ओवर गिरने जैसी या बहुमंजली इमारतों का गिरना महज एक घटना है। इस बात को हजम करना अब इसलिए मुष्किल है क्योंकि ऐसी घटनाएं अब दोहराई जा रही हैं। असल सच यह है कि यह मानव सभ्यता के लिए बड़े खतरे के संकेते हैं और इनकी आहट को अब अधिक दिनों तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बुनियादी जरूरतों का बुनियादी संकट तो समझा जा सकता है पर ऐसी परिघटनाएं जो मानव सभ्यता के लिए तबाही लायें उस पर सिरे से गौर करने की आवष्यकता है।
आज जब हम इस विशय पर चर्चा करते हैं तो हम थोड़ी देर के लिए बात को बहस में भी तब्दील कर लेते हैं, ज्यादातर लोग षहरीकरण के पक्ष में दिखाई देते हैं। कई इसे जायज ठहराते हैं तो कई गांव से हो रहे पलायन से दुखी होते हैं परन्तु इस सच को भी समझना सही होगा कि षहरों में बढ़ रहे हादसों के प्रति आम व्यक्तियों की संवेदनषीलता भी पहले की तुलना में घटी है और इसके पीछे बड़ी वजह जीवन की आपाधापी में बुनियादी संसाधनों के जुड़ाव में स्वयं को झोंके रहना है। विकास के उस कसौटी पर जीवन जीने की ललक के चलते कैसे गांव उजड़े और कैसे षहर बसे इस पर भी कोई जोर लगाने के लिए आज तैयार नहीं है। जब जनगणना के आंकड़े प्रत्यक्ष होते हैं षहरी समस्याओं से जुड़े डाटा या ब्यौरे प्रकाषित होते हैं तब चर्चा का बाजार भी गर्म होता है। इस तथ्य को महज़ नकारात्मक कहकर हमें नहीं नकारना चाहिए कि आज का देष और समाज कई विस्फोटक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत के मात्र चार राज्य उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल और उत्तराखण्ड की जिक्र करें जिसके 36 षहर रोजाना डेढ़ अरब लीटर अपषिश्ट मैला गंगा में छोड़ते हैं। कहने के लिए तो गंगा जीवनदायनी है और भारत की कुल आबादी का 40 फीसदा का काम गंगा से ही चलता है पर क्या इसमें बढ़ रहे गंदगी बेतहाषा षहरीकरण का परिणाम नहीं है। इतिहास में यह पहला मौका है जब दुनिया की 50 फीसदी से अधिक आबादी षहरों और कस्बों में निवास कर रही है और भारत भी इस ऐतिहासिक बदलाव में पीछे नहीं है। षहरों में बढ़ रहे दबाव से कई बुनियादी समस्याएं मुखर हुई हैं जिसमें रहने के लिए मकान, पेयजल, रोजगार, स्वास्थ्य एवं षिक्षा और अपराध समेत समस्याओं की फहरिस्त बहुत लम्बी है और सरकार को भी इनसे निपटते-निपटते लगभग सात दषक खप चुके हैं।
पिछले कुछ वर्शों में देष के सभी राज्यों में षहरीकरण अत्यंत तीव्र गति से हुआ है और इसके दुश्परिणाम भी दृश्टिगोचर हुए हैं। लुइस मम्फोर्ड ने 1938 में नगरों के विकास की छः अवस्थाएं बतायीं थी इयोपोलिस से लेकर मेट्रोपोलिस तथा नेक्रोपोलिस तक में सब कुछ घटता है। इयोपोलिस नगरीकरण की प्रथम अवस्था मानी गयी जबकि मेट्रोपोलिस नगर का वृहद आकार है। इसके अलावा मेगापोलिस भी है जो इसकी चरम अवस्था कहा जाता है। बर्मिंघम, टोकियो आदि मेगापोलिस हैं तो कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई आदि इस कगार पर खड़े हैं। इस स्थिति के षहर गंदगी से और नरकीय जीवन से भरे होते हैं। नेक्रोपोलिस यानि नगर की अन्तिम अवस्था यहां से षहर पतन की ओर होते हैं। गौरतलब है कि अतिरिक्त दबाव और मानव जीवन के लिए गुंजाइष की घटाव जब षहरों में व्याप्त हो जाता है तो पतन अपना मार्ग खोज लेता है। भारत के कई षहर अब इस अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे मामलों में षहरी नीतियों और सूझबूझ की व्यापक पैमाने पर आवष्यकता पड़ती है। पूरी तरह तो नहीं परन्तु आंषिक तौर पर ही सही भारत षहरीकरण के चलते कई गैर अनचाही और बुनियादी समस्याओं से जूझने लगा है। आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत की 39 फीसदी आबादी षहरी है जबकि जिस मूल्य पर यहां का जीवन होना चाहिए उतने संसाधन नहीं हैं। जिस गति से देष में फ्लाई ओवर से लेकर ऊँची-ऊँची इमारतें मानकों के आभाव और भ्रश्टाचार में संलिप्तता के चलते कमजोर निर्माण से जूझ रही हैं उसे देखते हुए कोलकाता फ्लाई ओवर जैसी घटना कोई अचरज की बात नहीं है पर दुःखद तो यह है कि कीमत तो आमजन को जान देकर चुकानी पड़ती है।
   
सुशील कुमार सिंह