Monday, April 4, 2016

सुरक्षा परिषद् में चीन का वीटो दुरूपयोग

फिलहाल दुनिया दो गम्भीर समस्याओं से जूझ रही है एक जलवायु परिवर्तन से तो दूसरे आतंकवाद से। ऐसा नहीं है कि वैष्विक समुदाय द्वारा इन दोनों समस्याओं को लेकर एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाया जा रहा है पर जो नतीजे दिखने चाहिए वे प्रत्यक्ष कम ही हुए हैं। आतंकवाद से मुकाबला करने के मामले में  बड़ी-बड़ी कसमें खाने वाले देष भी वास्तव में जमीन पर कुछ खास करते हुए नहीं दिखाई दे रहे। चीन और पाकिस्तान जैसे देष आतंकवाद के मामले में गैर जिम्मेदाराना रवैये पर अभी भी कायम हैं। ताजे घटनाक्रम में चीन ने एक बार फिर जैष-ए-मोहम्मद के मुखिया और भारत में आतंक फैलाने वाले अजहर मसूद को प्रतिबंधित सूची में डालने की भारत की कोषिष पर अडंगा लगा दिया है। गौरतलब है कि बीते 2 जनवरी को पठानकोट में हुए आतंकी हमले के मास्टर माइंड अजहर मसूद को संयुक्त राश्ट्र की प्रतिबंधित सूची में षामिल करने को भारत ने प्रस्ताव दिया था जिसके अंतिम पहर के ठीक पहले चीन ने संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् को फिलहाल इस निर्णय पर रोक लगाने के लिए वीटो का प्रयोग किया। ध्यानतव्य हो कि सुरक्षा परिशद् का स्थायी सदस्य होने के नाते चीन के पास वीटो पावर है और वह अक्सर इसका प्रयोग करते हुए भारत को झटका देने का काम करता रहा है। इसके पहले वह मुम्बई हमले के मास्टर माइंड जकीर-उर-रहमान लखवी पर जून, 2015 में वीटो का प्रयोग करके सुरक्षा परिशद् को किसी निर्णय तक पहुंचने में असमर्थ बना दिया था और भारत को मायूसी दी थी। गौरतलब है कि चीन के ऐसा करने के पीछे उसका पाकिस्तानी प्रेम ही है। 1972 से चीन दर्जन भर के आस-पास वीटो पावर का प्रयोग कर चुका है जिसमें चार से पांच बार भारत के खिलाफ देखे जा सकते हैं। 
फिलहाल संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् द्वारा अजहर मसूद पर होने वाली कार्यवाही चीन के अड़ंगे के चलते गैर नतीजा हो गयी है। सवाल है कि भारत को बार-बार मायूस करने के पीछे चीन की क्या मंषा है। समझने वाली बात यह भी है कि चीन का इतिहास चतुराई से भरा रहा है। भरोसे के बाद भी धोखा देने के मामले में चीन की कोई सानी नहीं है। खरी-खरी बात यह है कि चीन एक तीर से कई निषाने लगा रहा है। पाकिस्तान से गहरी दोस्ती जता कर यह सिद्ध करना चाहता है कि भारत से रिष्ते कितने ही बेहतर क्यों न हों पाकिस्तान के मामले में वह जस का तस विचार रखता रहेगा। अमेरिका के लिहाज़ से भी चीन के लिए पाकिस्तान काफी अहम स्थान रखता है। भारत और अमेरिका की दोस्ती भी चीन के लिए चिंता का सबब है। पिछले साल म्यांमार में की गयी कार्यवाही के चलते चीन काफी उधेड़बुन में रहा है। जाहिर है खीज उतारने के मौके की फिराक में वह भी रहा होगा। अतंर्राश्ट्रीय पटल पर चीन का रवैया भारत के मामले में बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता। आॅस्ट्रेलिया में नवम्बर, 2014 जी-20 के सम्मेलन के समय जब आॅस्ट्रेलिया ने दषकों से अटके यूरेनियम देने के समझौते को हरी झण्डी दी जो चीन को कहीं न कहीं नागवार गुजरा था। अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा का भारत प्रेम और मोदी का बराक प्रेम भी चीन के गले की फांस है। अन्तर्राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बीते दो वर्शों से भारत की छवि एक ताकतवर देष के रूप में उभरी है जिसके चलते भी भारत चीन को खटक रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग की भारत यात्रा सद्भावना से भरी कही जा सकती है परन्तु कूटनीति में जैसा दिखाई देता है असल में वैसा होता नहीं है।
सवाल यह है कि अब भारत के पास क्या रास्ता बचता है। चीन यूएन का स्थाई सदस्य है और उसके विरोध के बाद भारत की मजबूरी यह है कि वह स्वयं इस मामले को आगे नहीं बढ़ा सकेगा। इसके अलावा भारत पाकिस्तान पर अमेरिका के जरिये दबाव बना सकता है साथ ही चीन को भी मामले की गम्भीरता से अवगत करा सकता है परन्तु दूसरा सवाल यह है कि क्या चीन इस बात से बेखबर है कि भारत आतंक की पीड़ा भोग रहा है असल में चीन सब कुछ जानबूझकर कर रहा है। दषकों से यही चीन की रणनीति भी रही है। 1954 में पंचषील समझौते के बाद भी 1962 में भारत पर उसके द्वारा किया गया आक्रमण चीन के धोखे का पुख्ता सबूत है। सबकुछ इतना आसान नहीं है एक ओर प्रधानमंत्री मोदी बेल्जियम से लेकर अमेरिका की वर्तमान यात्रा में आतंकवाद को लेकर अपनी संवेदनषीलता से दुनिया को नये सिरे से अवगत करा रहे हैं तो दूसरी तरफ चीन सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्य होने के चलते वीटो का बेजा इस्तेमाल कर रहा है और आतंकवादियों का हितैशी बना फिर रहा है। इतना ही नहीं 2 जनवरी को पंजाब के पठानकोट के एयरबेस पर जो आतंकी हमला हुआ था उसकी जांच के लिए पाकिस्तान संयुक्त जांच कमेटी 29 मार्च को भारत आई। यह भी इस बात का सबूत है कि भारत आतंकवाद के मामले में कच्ची बात और कच्ची चाल का हिमायती नहीं है। यह भारत का एक और सकारात्मक कदम ही है कि आतंक को षरण देने वाले पाकिस्तान और वहीं के आतंकियों से छलनी पठानकोट में उसी देष के आला अफसरों को प्रत्यक्ष चित्र देखने का अवसर दिया। हांलाकि कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल इसका विरोध भी किया है।
फिलहाल सुरक्षा परिशद् की रडार पर आया अजहर मसूद चीन के चलते प्रतिबंधित सूची से बाहर है। इन दिनों वीटो पावर का आम तौर पर मतलब संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के पांच स्थाई सदस्यों को मिले विषेशाधिकार से हैं जिसमें चीन समेत रूस, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन हैं इनमें से कोई भी सदस्य किसी प्रस्ताव को पास होने से रोक सकता है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए चीन बार-बार भारत को हाषिये पर धकेलता रहता है। 1945 से लेकर अब तक इसका लगभग 240 बार इसका प्रयोग और दुरूपयोग किया जा चुका है। देखा जाए तो भारत को सुरक्षा परिशद् में स्थाई सदस्यता दिलाने का प्रयास प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के जमाने से जारी है जबकि 1950 के दषक में ही भारत को बिना किसी खास कोषिष के यह मौका मिला था परन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे ठुकरा दिया था। प्रधानमंत्री मोदी विगत् दो वर्शों से सदस्यता को लेकर पूरी ताकत लगाये हुए हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आॅस्ट्रेलिया समेत दुनिया के कई देष इस मामले में भारत के पक्षधर भी हैं। बावजूद इसके अभी मामला जस का तस बना है। चीन की हरकतों को देखते हुए भारत का सुरक्षा  परिशद् में स्थायी सदस्य के तौर पर होना समय की दरकार भी है। परिशद में अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने का प्रष्न काफी लंबे समय से विकासषील एवं विकसित राश्ट्रों की कार्यसूची में रहा है। समय के साथ अनेक मुद्दे भी इसमें षामिल होते गये, जो विस्तृत होने के साथ काफी हद तक परस्पर-विरोधी भी हैं पर सदस्यता के मामले में स्थिति अभी भी यथावत है। चीन का आतंकी लखवी से लेकर अजहर मसूद तक के बचाव में होना यह परिलक्षित करता है कि चीन का पाकिस्तानी प्रेम आतंकवाद को फलने-फूलने में ईंधन का काम कर रहा है जबकि आतंकवाद की बड़ी कीमत भारत चुका रहा है। यह भी आरोप समुचित ही होगा कि चीन पड़ोसी धर्म निभाने के मामले में भी भारत जितना सषक्त नहीं कहा जायेगा।
   
सुशील कुमार सिंह

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