Tuesday, April 12, 2016

लोकतान्त्रिक महोत्सव और हादसे

इन दिनों पष्चिम बंगाल, पुदुचेरी, तमिलनाडु, असम और केरल विधानसभा चुनाव के चलते लोकतांत्रिक महोत्सव से गुजर रहे हैं परन्तु इसी महोत्सव के बीच असम और केरल से दर्दनाक हादसों की भी खबरें आयीं हैं। एक ओर जहां पष्चिम बंगाल और असम में हुए 80 से 85 फीसदी रिकाॅर्ड तोड़ मतदान को निहारना निहायत रोचक प्रतीत होता है तो वहीं दूसरी ओर केरल और असम में हुए हादसे मन को फीका भी करते हैं। घटना और दुर्घटना के चलते सुरक्षा व्यवस्था के साथ कई उपव्यवस्थाओं को भी काफी हद तक कोसने का मन भी करता है। देष के चुनावी परिस्थितियों में कई प्रकार के संसाधनों का जुटाया जाना और उसके सही उपयोग को लेकर तत्परता का दिखाया जाना जिस प्राथमिकता में होना चाहिए उसका आभाव यहां देखा जा सकता है भले ही यह किसी भी प्रकार की चूक क्यों न रही हो पर ऐसे हादसे इन दिनों के चाक-चैबन्द के कमजोर होने की भी पोल तो खुलती ही है दुःखद यह है कि केरल और असम में हुई घटना ने सैकड़ों जिन्दगियों को निगल लिया जबकि सैकड़ों को घायल और विक्षिप्त बना दिया। घटना के विवेचनात्मक पक्ष यह दर्षाते हैं कि यहां चूक को बाकायदा अवसर दिया गया है। ऐसी घटनाओं के चलते जेहन में सैकड़ों सवाल कुलांछे मारने लगते हैं कि जिस देष में लोकतंत्र की प्रयोगषाला सात दषक पुरानी हो वहां ऐसे हादसे आखिर क्यों? ऐसा नहीं है कि पहले चुनावी दिनों में छुटपुट घटनाएं नहीं हुई हैं पर जो घटना इस बार के चुनाव में हुई है वह यह संकेत करती है कि पूर्व की परिस्थितियों से न तो सीखने का अभ्यास किया गया है और न ही इससे भिज्ञ होने का प्रयास किया गया है। कड़वा सच तो यह भी है कि जब-जब देष में चुनाव के उत्सव आयेंगे, तब-तब यह हादसा पुर्नजीवित होता रहेगा पर वास्तविक तौर पर क्या इससे कोई सबक लिया जा सकेगा पूरे विष्वास के साथ कहना मुष्किल है। हालांकि केरल की घटना मन्दिर से जुड़ी है तो असम में हुआ हादसा व्यवस्था बनाये रखने के चलते हुआ।
10 और 11 अप्रैल की तारीख क्रमषः केरल और असम के लिए एक दर्दनाक हादसे का रूप ले लिया। केरल के पोलम जिले के तटीय षहर स्थित 100 साल पुराने पुत्तिंगल मन्दिर में आतिषबाजी के चलते जो हादसा हुआ वह निहायत दर्दनाक था। सैकड़ों की जान गई और कई सौ घायल हुए। थल सेना, नौ सेना और वायु सेना के जवानों ने राहत और बचाव कार्य में जी-जान तो लगाया पर इस भीशण तबाही ने कईयों का घारबार उजाड़ दिया। मन्दिर में सात दिवसीय उत्सव के आखिरी दिन था और आतिषबाजी की प्रतियोगिता हुई जिसमें बाकायदा इनाम भी रखा गया था और यह सब बिना अनुमति के रविवार तड़के तक चलती रही और आतिषबाजी की एक चिंगारी ने पटाखों के गोदाम में विस्फोट करने का काम किया जो मानव भूल का एक ऐसा सच है जिसने लोकतंत्र की धारा में बह रहे केरल को षोकाकुल बना दिया। केरल में हुई इस दुर्घटना से प्रधानमंत्री मोदी आनन-फानन में वहां का दौरा किया और घायलों के दुःख में षामिल होने का प्रयास किया। कुछ ही पल बीते थे कि असम में भी एक चूक हो गयी। पुलिस द्वारा प्रदर्षनकारियों के खदेड़ने के चलते हवा में गोली चलाई गयी पर नियंत्रण पाने की इस कोषिष में एक हादसा हो गया। चलाई गयी गोली के चलते बिजली के तार का टूटना जिसमें दर्जन भर लोग यहां भी मौत के ग्रास में चले गये जबकि दो दर्जन के आस-पास घायल हुए फिर वही पुराने सवाल मन-मस्तिश्क में उठते हैं कि हमारी व्यवस्थाओं में उन मानकों का आभाव क्यों हो जाता है, क्यों चूक हो जाती है, क्यों हम हादसों को अवसर दे देते हैं? कानून और व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए जिन उपायों को अपनाया जाता है उसकी प्रक्रिया को देखते हुए ये षंके के दायरे से परे नहीं प्रतीत होती।
केरल के पुत्तिंगल मन्दिर में हुई त्रासदी और असम के चुनावी महोत्सव के समय में हुई चूक ने ऐसे मौकों पर होने वाली बड़ी-बड़ी घटनाओं को एक बार फिर जेहन में जीवित करने का काम किया है। लापरवाही से भरी हादसों की यह पहली या दूसरी घटना नहीं है यदि पिछले डेढ़-दो दषक की बात करें तो ऐसी कई घटनाएं याद आती है जिसमें घोर लापरवाही, अफवाह और डर के चलते तमाम दर्दनाक हादसे हुए हैं। बीते कुछ वर्शों पहले 2013 में मध्य प्रदेष के दतिया जिले में रतनगढ़ मन्दिर में पुल गिरने से सौ से अधिक लोगों की जान गयी थी। साल 2013 में ही इलाहाबाद में लगे विष्व प्रसिद्ध कुम्भ मेले को भी ऐसी घटनाओं के लिए तोल-मोल की जा सकती है। यहां रेलवे स्टेषन पर मची भगदड़ में कई लोग मारे गये थे। इलाहाबाद रेलवे स्टेषन के प्लेटफाॅर्म नम्बर 6 पर घटी घटना के दिन हजारों की संख्या में अमावस्या के मौके पर श्रद्धालुओं की भीड़ थी। 2011 में केरल के ही सबरीवाला मन्दिर में भगदड़ के चलते सौ से अधिक लोग मारे गये थे। घने जंगल के बीच पहाड़ी इलाके में स्थित इस मन्दिर में घटना के समय करीब एक लाख लोग मौजूद थे। जनवरी 2005 में पूर्णिमा के दिन 300 से ज्यादा तीर्थयात्री महाराश्ट्र के सतारा जिले में स्थित मंदर देवी कालू बाई मन्दिर में भगदड़ के चलते मारे गये। ऐसे तमाम हादसों की फहरिष्त बहुत लम्बी है। इनकी वजह भी भिन्न-भिन्न हो सकती है परन्तु समझने वाली बात तो यह है कि हादसों से हमने सीखा क्या? केरल के मन्दिर में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए पर क्यों हुआ इस पर जांच पड़ताल हो रही है। देर-सवेर इसका वैधानिक खुलासा भी होगा पर सवाल तो वही है कि क्या ये सबक के काम आयेगे?
देष में औसतन एक वर्श में डेढ़ से दो करोड़ के बीच जनसंख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। सड़कों पर भीड़, ट्रेन में भीड़, यातायात साधनों की भीड़ और तीर्थाटन और पर्यटन समेत मन्दिरों एवं मठों में श्रद्धालुओं की बेतहाषा भीड़ प्रत्येक स्थानों पर देखी जा सकती है। भारत में जिस कदर हादसों की संख्या प्रतिवर्श की दर वृद्धि लिए हुए है उसे देखते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी मषीनरी उस कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। चन्द पुलिस बलों और कुछ औपचारिक नियमों के बलबूते बड़ी भीड़ को नियंत्रित करने का काम किया जाता रहा है। चुनाव वाले राज्यों में तो यही बल चुनावी व्यवस्था को सुदृढ़ करने में खपाया जाता है। ऐसे में इतर क्षेत्रों के कानून और व्यवस्था का बेकाबू होना स्वाभाविक है। केरल हाई कोर्ट के वरिश्ठ जज ने सुझाव दिया कि सभी मन्दिरों में उच्च तीव्रता वाले पटाखों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। बात बिलकुल दुरूस्त है। बेहतर होगा कि पटाखों पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाए। विवाह-षादी सहित लगभग सभी प्रकार के उत्सवों और महोत्सवों में पटाखों ने परम्परा का स्थान ले लिया है और इसका नित नये तरीकों से विस्तार होता जा रहा है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण भी यह कहते हैं कि मानव निर्मित हादसों पर रोक लगाने के लिए नये सिरे से सोच-विचार की आवष्यकता है जो कार्यकारी निर्णयों के बूते तो सम्भव नहीं है। देष की अदालतें यदि इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप करें तो सम्भव है कि ऐसे विस्फोटकों को लेकर लोगों में नये किस्म की सचेतता आये। जिस प्रकार हादसे नित नये रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं और इनकी संख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है उसे देखते हुए घटना रोकने वाले सटीक थिंक टैंक देष में विकसित किये जाने चाहिए।


   
सुशील कुमार सिंह

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