Friday, April 1, 2016

मुंह चिढाती सभ्यता के बीच जूझता मानव

मार्च के अन्तिम दिवस पर पष्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता का बड़ा बाजार इलाका उस समय घोर पीड़ा से जूझने लगा जब सभ्यता का प्रतीक एक फ्लाई ओवर षहर के बीचों बीच ढह गया। दर्जनों मारे गये और सैकड़ों घायल हुए। यह महज एक खबर नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता के बीच बरसों से चले आ रहे संघर्श का एक ऐसा नतीजा है जिसमें सभ्यताएं हमेषा मुंह चिढ़ाती रहीं। प्राचीन इतिहास के पन्नों में अक्सर यह पढ़ने को मिल जाता है कि संस्कृतियां युगों-युगों तक कायम रहती हैं जबकि पतन तो सभ्यताओं का होता है। उसी का एक जीता-जागता उदाहरण कोलकाता का यह फ्लाई ओवर है पर उनका क्या जिनकी जान पर बन आई है। फ्लाई ओवर हादसा एक ऐसी आहट लिए हुए है जहां से अंधाधुंध षहरीकरण के बीच उस धुंध को भी समझने की जरूरत है जिसकी चकाचैंध और चकमक में बहुत कुछ नजरअंदाज किया जा रहा है। इस हादसे ने दर्जनों नहीं बल्कि सैकड़ों सवालों को जन्म दिया है। पष्चिम बंगाल माह अप्रैल-मई में विधानसभा चुनाव से गुजरने वाला है जाहिर है फ्लाई ओवर का गिरना सियासतदानों के माथे पर बल लाने का भी काम करेगा। बीजेपी ने इसे भ्रश्टाचार का नतीजा बताया तो बिल्डरों ने भगवान की मर्जी कहा पर असल सच क्या है, इसकी बात कोई नहीं कर रहा है। जल्दबाजी के चलते लापरवाही भी बड़ी हो सकती है और मुनाफे के चलते मिलावट भी खूब हो सकती है साथ ही आरोप से बचने के लिए सियासत भी नये रूप रंग में हो सकती है। बड़ा सच यह भी हैे कि राहत और बचाव के बीच जो बच गये उनका इलाज हो जायेगा और जो मर गये उनकी तो दुनिया ही उजड़ जायेगी। जांच के नाम पर कमेटी गठित होगी उसकी रिपोर्ट आयेगी उस पर भी सियासत गर्मायगी। इन सबके बीच हम एक बार फिर यह भूल जायेंगे कि षहरी बाढ़ के बीच जो फ्लाई ओवर ढहा था उसका असल सच क्या था और इससे प्रभावित समाज के उन लोगों को क्या वाकई में न्याय मिल पाया?
फ्लाई ओवर बना रही बिल्डर कम्पनी आईवीआरसीएल ने प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी सफाई में कहा कि इसकी वजह की पड़ताल करेंगे और लापरवाही जैसी इसमें कोई बात नहीं है। कम्पनी ने रस्म अदायगी के तहत अपना सुरक्षा कवच इसी रूप में निर्मित कर लिया है जबकि पष्चिम बंगाल की सरकार ने दोशियों को नहीं बख्षा जायेगा कहकर अपना इरादा भी साफ कर दिया है। इसके अलावा अन्य राजनीतिक पार्टियां इस मामले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप में भी मषगूल हैं। सबके बावजूद सच यह है कि बेतहाषा नगरीकरण भारत समेत दुनिया में बड़े उछाल पर है। दस लाख से अधिक जनसख्ंया वाले षहर, पचास लाख से अधिक जनसंख्या वाले षहर, करोड़ से अधिक जनसंख्या जैसे विविध प्रकार के षहर मौजूदा भारत में मिल जायेंगे जो षहर जितना सघन और जनसंख्या घनत्व से भरा है उसे उसी कीमत पर संघर्श करना पड़ रहा है। संसाधनों की भी जनसंख्या की तुलना में केन्द्रीयकरण हो रहा है। सड़क पर सड़क बन रहे हैं और रहने वाले घरों की ऊँचाई दर्जनों माले में है। पानी की समस्या, बिजली की समस्या इसके अलावा सांस लेने के लिए हवा की समस्या से भी नगर पट गये हैं। दिल्ली, मुम्बई, बंगलुरू, चेन्नई समेत कोलकाता जैसे दर्जनों षहर इसी हाल में है। क्या फ्लाई ओवर गिरने जैसी या बहुमंजली इमारतों का गिरना महज एक घटना है। इस बात को हजम करना अब इसलिए मुष्किल है क्योंकि ऐसी घटनाएं अब दोहराई जा रही हैं। असल सच यह है कि यह मानव सभ्यता के लिए बड़े खतरे के संकेते हैं और इनकी आहट को अब अधिक दिनों तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बुनियादी जरूरतों का बुनियादी संकट तो समझा जा सकता है पर ऐसी परिघटनाएं जो मानव सभ्यता के लिए तबाही लायें उस पर सिरे से गौर करने की आवष्यकता है।
आज जब हम इस विशय पर चर्चा करते हैं तो हम थोड़ी देर के लिए बात को बहस में भी तब्दील कर लेते हैं, ज्यादातर लोग षहरीकरण के पक्ष में दिखाई देते हैं। कई इसे जायज ठहराते हैं तो कई गांव से हो रहे पलायन से दुखी होते हैं परन्तु इस सच को भी समझना सही होगा कि षहरों में बढ़ रहे हादसों के प्रति आम व्यक्तियों की संवेदनषीलता भी पहले की तुलना में घटी है और इसके पीछे बड़ी वजह जीवन की आपाधापी में बुनियादी संसाधनों के जुड़ाव में स्वयं को झोंके रहना है। विकास के उस कसौटी पर जीवन जीने की ललक के चलते कैसे गांव उजड़े और कैसे षहर बसे इस पर भी कोई जोर लगाने के लिए आज तैयार नहीं है। जब जनगणना के आंकड़े प्रत्यक्ष होते हैं षहरी समस्याओं से जुड़े डाटा या ब्यौरे प्रकाषित होते हैं तब चर्चा का बाजार भी गर्म होता है। इस तथ्य को महज़ नकारात्मक कहकर हमें नहीं नकारना चाहिए कि आज का देष और समाज कई विस्फोटक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत के मात्र चार राज्य उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल और उत्तराखण्ड की जिक्र करें जिसके 36 षहर रोजाना डेढ़ अरब लीटर अपषिश्ट मैला गंगा में छोड़ते हैं। कहने के लिए तो गंगा जीवनदायनी है और भारत की कुल आबादी का 40 फीसदा का काम गंगा से ही चलता है पर क्या इसमें बढ़ रहे गंदगी बेतहाषा षहरीकरण का परिणाम नहीं है। इतिहास में यह पहला मौका है जब दुनिया की 50 फीसदी से अधिक आबादी षहरों और कस्बों में निवास कर रही है और भारत भी इस ऐतिहासिक बदलाव में पीछे नहीं है। षहरों में बढ़ रहे दबाव से कई बुनियादी समस्याएं मुखर हुई हैं जिसमें रहने के लिए मकान, पेयजल, रोजगार, स्वास्थ्य एवं षिक्षा और अपराध समेत समस्याओं की फहरिस्त बहुत लम्बी है और सरकार को भी इनसे निपटते-निपटते लगभग सात दषक खप चुके हैं।
पिछले कुछ वर्शों में देष के सभी राज्यों में षहरीकरण अत्यंत तीव्र गति से हुआ है और इसके दुश्परिणाम भी दृश्टिगोचर हुए हैं। लुइस मम्फोर्ड ने 1938 में नगरों के विकास की छः अवस्थाएं बतायीं थी इयोपोलिस से लेकर मेट्रोपोलिस तथा नेक्रोपोलिस तक में सब कुछ घटता है। इयोपोलिस नगरीकरण की प्रथम अवस्था मानी गयी जबकि मेट्रोपोलिस नगर का वृहद आकार है। इसके अलावा मेगापोलिस भी है जो इसकी चरम अवस्था कहा जाता है। बर्मिंघम, टोकियो आदि मेगापोलिस हैं तो कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई आदि इस कगार पर खड़े हैं। इस स्थिति के षहर गंदगी से और नरकीय जीवन से भरे होते हैं। नेक्रोपोलिस यानि नगर की अन्तिम अवस्था यहां से षहर पतन की ओर होते हैं। गौरतलब है कि अतिरिक्त दबाव और मानव जीवन के लिए गुंजाइष की घटाव जब षहरों में व्याप्त हो जाता है तो पतन अपना मार्ग खोज लेता है। भारत के कई षहर अब इस अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे मामलों में षहरी नीतियों और सूझबूझ की व्यापक पैमाने पर आवष्यकता पड़ती है। पूरी तरह तो नहीं परन्तु आंषिक तौर पर ही सही भारत षहरीकरण के चलते कई गैर अनचाही और बुनियादी समस्याओं से जूझने लगा है। आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत की 39 फीसदी आबादी षहरी है जबकि जिस मूल्य पर यहां का जीवन होना चाहिए उतने संसाधन नहीं हैं। जिस गति से देष में फ्लाई ओवर से लेकर ऊँची-ऊँची इमारतें मानकों के आभाव और भ्रश्टाचार में संलिप्तता के चलते कमजोर निर्माण से जूझ रही हैं उसे देखते हुए कोलकाता फ्लाई ओवर जैसी घटना कोई अचरज की बात नहीं है पर दुःखद तो यह है कि कीमत तो आमजन को जान देकर चुकानी पड़ती है।
   
सुशील कुमार सिंह

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