दिल्ली एनसीआर में पूरा माहौल दम घोटू बन गया है। हालांकि उत्तर प्रदेष के कई जिले मसलन कानपुर, लखनऊ समेत अन्यों की हालत खराब है पर उतनी नहीं जितनी तबाही राजधानी क्षेत्र के आसमान पर दिखती है। प्रदूशण की वजह से दिल्ली में हेल्थ इमरजेंसी घोशित हो चुकी है और स्कूल कुछ समय के लिए बंद कर दिये गये हैं। हरियाणा और पंजाब की पराली के धुंए और धूल के महीन कणों से दिल्ली-एनसीआर की हवा जहरीली हो गयी है। सांस लेना दूभर हुआ है और आंखों में जलन बादस्तूर जारी है। प्रदूशण से आफत में जान है पर मुक्ति का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा। गौरतलब है कि प्रदूशण में पराली का योगदान 10 से 30 फीसदी तक बताया जाता है। स्पश्ट है कि जिस तर्ज पर दिल्ली और उसके आस पास की हवा प्रदूशित है उसमें केवल पराली नहीं दिवाली के पटाखे और पहले के प्रदूशण जो निरंतर चले आ रहे हैं वे षामिल हैं और जब ये सभी एकजुट हुए तो पूरा इलाका गैस चैम्बर बन गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी तल्ख लहज़े में सरकार क्या कर रही है पर एक सवालिया निषान खड़ा किया। रोचक यह है कि प्रदूशण को लेकर केन्द्र और दिल्ली की राज्य सरकार के बीच भी ठनी हुई है। विजय गोयल जो बीजेपी के कद्दावर नेता है उनके लिहाज़ से हवा में जो जहर घुली है उसके जिम्मेदार केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं। ऐसी ही राय कुछ हद तक दिल्ली कांग्रेस की भी है।
प्रदूशण को लेकर सारा ठीकरा केजरीवाल पर फोड़ा जा रहा है जबकि पंजाब में कांग्रेस और हरियाणा में स्वयं बीजेपी की सरकार है और ये दोनों प्रांत पराली जलाने वाले किसानों को रोक पाने में विफल रहे हैं। इतना ही नहीं लखनऊ और कानपुर समेत उत्तर प्रदेष के कई जिलों की हवाएं भी इन दिनों जहरीली हुई हैं। यहां भी बीजेपी की योगी सरकार है। सवाल है कि जो प्रष्न बीजेपी केजरीवाल से कर रही है वही हरियाणा और उत्तर प्रदेष की सरकार से क्यों नहीं करती। दूसरा सवाल यह भी क्या राजनीति से पर्यावरण का समाधान है। गौरतलब है कि फरवरी 2020 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव है और 2015 की हार बीजेपी भूली नहीं होगी जब वह 70 के मुकाबले 3 सीट पर सिमट गयी थी। बड़ा सवाल यह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान पराली क्यों जला रहे हैं इस पर कभी किसी ने विचार नहीं किया जबकि यह हर वर्श होता है। इतना ही नहीं पराली जलाने को लेकर किसानों पर सख्ती की जा रही है बावजूद इसके कुछ खास सफलता नहीं मिल पायी। पराली जलाने वालों पर हजारों की तादाद में मुकदमे किये गये बावजूद इसके धुंआ कम नहीं हुआ। गौरतलब है कि किसानों की अपनी चुनौती है। पंजाब के कुछ किसानों ने तो भटिण्डा के उपायुक्त के कार्यालय के सामने ही 4 नवम्बर को दोपहर में पराली जलाकर कानून को ही धता बता दिया और सरे आम यह चुनौती दे दी कि यदि किसानों के दुःख दर्द को सरकार और प्रषासन नजर अंदाज करते रहेंगे तो उनकी बात को भी वे नहीं सुनेंगे। वैसे पराली की समस्या तब से आई है जब से धान की कटाई का मषीनीकरण हुआ है। मषीन से धानों की कटाई के दौरान करीब आधा फुट से अधिक पराली खेतों में रह जाती और अगली फसल के लिए किसानों को खेत खाली करना होता। ऐसे में इन्हें जलाना ही इनका विकल्प होता। जाहिर है इस तरह की स्थिति न उपजे इसके लिए सरकारी स्तर पर कोई दूसरा तरीका खोजा जाना चाहिए। वैसे दावा किया जाना चाहिए कि पूसा के कृशि अनुसंधान संस्थान ने एक ऐसा टेबलेट को खोजा है जिसकी कीमत मात्र 5 रूपया है और यदि 4 टेबलेट का घोल एक एकड़ जमीन में छिड़क दिया जाय तो पराली वहीं नश्ट हो जायेगी और जमीन की उवर्रक क्षमता को भी बढ़ा देगी। अब इसे लेकर किसान कितने जानकार हैं कहना मुष्किल है और इसकी उपलब्धता कितनी सुगम है इसे बता पाना भी कठिन है।
असल बात तो यह है कि यह सभी जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा के किसान दीपावली के इर्द-गिर्द पराली जलायेंगे बावजूद इसके चाहे दिल्ली की सरकार हो या केन्द्र की संजीदगी दिखाने में विफल ही रहे हैं। इतना ही नहीं धुंए के गुब्बार से दिल्ली के आसपास का आसमान तबाही का मंजर लिए हुए और जमीन पर सियासत परवान चढ़ी हुई है। जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। प्रदूशण का स्तर बढ़ने के चलते जीवन के मोल में भारी गिरावट इन दिनों देखी जा सकती है। सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी इसका पुख्ता उदाहरण है। बीते 20 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली इन दिनों घुट रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। इसके पहले 2016 में भी स्थिति जब बहुत खराब हुई थी तब दिल्ली उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। उन दिनों भी स्कूल इसी तरह बंद किये गये थे।
जहरीली धुंध ने नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम, समेत कई जिलों को अपनी चपेट में ले लिया है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा सकता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री की माने तो राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। पूरी दुनिया से 42 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूशण से होती है। 24 प्रतिषत स्ट्रोक से होने वाली मौतों में वायु प्रदूशण की हिससेदारी है। इतना ही नहीं 91 प्रतिषत दुनिया की वह आबादी जो विष्व स्वास्थ संगठन द्वारा वायु गुणवत्ता के तय मानकों से अधिक स्तर वाले क्षेत्रों में निवास करती है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की पुरानी रिपोर्ट से यह भी पता चला कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है इस साल तो यह पिछले 20 साल का रिकाॅर्ड तोड़ चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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