Thursday, November 14, 2019

रियासत मैनेजमेंट के विरासत हैं सरदार पटेल

एक ऐसे षख्स और षख्सियत जिन्होंने 565 रियासतों में बंटे भारत को न केवल एकरूपता प्रदान की बल्कि इसके आधारभूत संरचना में अपना पूरा कौषल झोंक दिया। जिन्हें सरदार बल्लभ भाई पटेल के नाम से जाना जाता है। पटेल की इच्छा षक्ति और आधुनिक भारत के निर्माण व एकीकरण को देखते हुए इन्हें प्रबंधन स्कूल का प्राचार्य कहना अतिष्योक्ति न होगा। 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड गांव में जन्में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने आजादी की लड़ाई में न केवल सक्रिय भूमिका निभाई बल्कि वे किसानों के भी मसीहा थे। भारत में फैली सैकड़ों रियासतों को एक सूत्र में पिरोने के लिए जाने जाते हैं। किसानों के हित में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बल्लभ भाई पटेल को जहां बारदौली की महिलाओं ने सरदार की उपाधि दी, वहीं रियासतों के एकीकरण में निभाई गयी भूमिका के लिए उन्हें लौह पुरूश की संज्ञा दी गई। सरदार पटेल को भारत का बिस्मार्क भी कहा जाता है। स्वतंत्रता के समय ब्रिटिष षासन ने घोशणा की थी कि रजवाड़े या तो भारत में या पाकिस्तान में षामिल हो सकते हैं। चाहें तो स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रख सकते हैं। भारतीय इतिहास का यह समय अतिरिक्त जटिलता एवं संवदेनषीलता लिए हुए था। रियासतें कहां जायेंगी इसका निर्णय राजाओं को करना था, न कि प्रजा को। साथ ही अधिकांष रियातें स्वतंत्र अस्तित्व चाहती थीं। ऐसे में देषी रियासतों का भारत में विलय तथा अखण्ड भारत का निर्माण अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी। इन सबके बावजूद अखण्ड भारत की परिकल्पना को भी मुरझाने नहीं देना था। ऐसे में कठोर निर्णय लेने की आवष्यकता आन पड़ी। फलस्वरूप अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू ने सरदार पटेल की नेतृत्व प्रतिभा को देखते हुए उन्हें रियासत मंत्रालय का जिम्मा दिया। चट्टानी इरादों वाले सरदार पटेल 22 जून से 15 अगस्त 1947 के बीच अल्प समय में ही 562 रियासतों को भारत में विलय करके नेहरू के विष्वास पर पूरी तरह खरे उतरे। इस दौर में बल्लभ भाई पटेल ने वाकई में सरदार की भूमिका निभाई थी।
जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कष्मीर अभी भी भारत विलय से अछूते थे। विलय के दौर में जहां एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्यायें चुनौती दे रही थी वहीं दूसरी ओर धार्मिक कठिनाईयां भी थीं परन्तु इससे कहीं अधिक दृढ़ सरदार पटेल के इरादे थे। जूनागढ़ में मुस्लिम नवाब और हिन्दू बाहुल्य प्रजा थी। नवाब पाकिस्तान में षामिल होना चाहता था। यहां स्थानीय जनता ने विरोध किया। अन्ततः फरवरी 1948 में जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ। हैदराबाद एक बड़ी देषी रियासत थी। पाकिस्तान की सहायता से यहां का नवाब स्वतंत्र राश्ट्र बनाने की योजना में था। सितम्बर, 1948 में भारतीय सैन्य कार्यवाही के चलते हैदराबाद का विलय सम्भव हुआ। जहां तक सवाल जम्मू-कष्मीर का है यहां के षासक हिन्दू और प्रजा मुस्लिम थी। षुरूआती दिनों में षासक हरि सिंह स्वतंत्र अस्तित्व चाहते जरूर थे परन्तु जब अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबिलाइयों के भेश में कष्मीर पर आक्रमण किया तब हरि सिंह ने भारत से मदद की अपील की। सरदार पटेल ने कूटनीतिक कदम उठाते हुए पहले विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराये तत्पष्चात् भारतीय सेना ने कष्मीर में हस्तक्षेप किया। ऐसे में अखण्ड भारत निर्माण के चलते इतिहास में सरदार पटेल एकता के प्रतीक माने गये। उत्पन्न तात्कालिक परिस्थितियों के चलते जम्मू-कष्मीर अनुच्छेद 370 और 35ए के हवाले कर दिया गया। जिसके कारण भारतीय संविधान की पहली सूची में दर्ज 15वें राज्य के रूप में जम्मू-कष्मीर षेश भारत से कई मामलों में अलग हो गया। रक्षा, संचार और विदेष को छोड़ दिया जाय तो कई संवैधानिक संदर्भ से यह राज्य जुदा था। गौरतलब है कि जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 के चलते नीति-निर्देषक तत्व समेत कई संदर्भ से इसका भारतीय संविधान से कोई वास्ता नहीं था। अनुच्छेद 35ए ने तो इस प्रदेष को कई विडम्बनाओं से ही भर दिया था।
जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए भारत की एकता और अखण्डता के मामले में भी भौगोलिक रूप से तो नहीं परन्तु राजनीतिक सत्ता के तौर पर एकरूपता में रोड़ा था जिसे मोदी सरकार ने बीते 5 अगस्त को समाप्त कर बड़ा साहस दिखाया। वाकई में यह बीते 70 सालों से ढ़ोया जाने वाला एक ऐसा कानून था जिसकी चाहत कोई भारतीय नहीं रखता था। देष की एकता और अखण्डता की दृश्टि से यह मोदी सरकार की ओर से उठाया गया ऐसा कदम था जिससे सरदार पटेल के मनोभाव की भी पूर्ति होती है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 के लोकसभा के चुनावी अभियानों के दौरान सरदार पटेल को महत्व देते हुए अमेरिका की स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से भी ऊंची सरदार पटेल की मूर्ति स्टेच्यू आॅफ यूनिटी के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। उस दौरान उन्होंने यह भी कहा था कि मूर्ति निर्माण हेतु देष के किसानों से लोहा इकट्ठा किया जायेगा। गौरतलब है कि दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्टेच्यू आॅफ यूनिटी का उद्घाटन 31 अक्टूबर 2018 को प्रधानमंत्री मोदी ने ही किया जो वाकई में किसी षख्स की षख्सियत को स्थापित करने वाला बड़ा काज था। 182 मीटर ऊंची इस प्रतिमा को 7 किलोमीटर की दूरी से देखा जा सकता है। खास यह है कि स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से दो गुना ऊंची है। दरअसल मोदी सरकार पटेल द्वारा किये गये ऐतिहासिक कृत्यों को नये रूप में यादगार बनाना चाहती थी जिसे लेकर वह काफी सक्रिय रही। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार पटेल जमीनी नेता थे किसानों के षोशण के प्रति अंग्रेजों से लोहा लेते थे साथ ही उनकी छवि सख्त नेतृत्व के तौर पर पहचानी जाती थी। प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के वल्लभ भाई पटेल को देष का सरदार बनाने में अभी भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उनके सम्मान में 31 अक्टूबर जो उनकी जयन्ती को एकता दिवस के रूप में मनाने की घोशणा इस बात को और पुख्ता करती है। हालांकि मोदी सर्वपल्ली राधाकृश्णन की जयन्ती को टीवी एवं रेडियो के माध्यम से षिक्षक दिवस को अतिरिक्त प्रभावषाली पहले ही बना चुके हैं। 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती के दिन को स्वच्छता अभियान कार्यक्रम का नाम दे चुके हैं और वर्श 2019 गांधी के 150वीं जयन्ती पर इसका मर्म और बड़ा करने में भी अग्रसर है। 14 नवम्बर नेहरू जयन्ती जो बाल दिवस के रूप में प्रतिश्ठित है इसका भी इतिहास में अपना महत्व है। देखा जाय तो ये तमाम ऐतिहासिक पुरूश देष के व्यापक विरासत हैं। 
इतिहास में पटेल की भूमिका अत्यंत अद्वितीय है परन्तु इसके अनुपात में कांग्रेस सहित अन्य सरकारों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो लौह पुरूश को मिला चाहिए था। बड़ा सवाल यह है कि पिछले 70 वर्शों में पटेल को सम्मान के मामले में पीछे क्यों रखा गया जबकि समकालीन नेता नेहरू सम्मान को लेकर अतिरिक्त प्रभावषाली स्थान रखते हैं। 1992 में जब सरदार पटेल को भारत रत्न की उपाधि दी गयी तो ठीक उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी यही सम्मान प्रदान किया गया था। यहां यह मुद्दा उठाना लाज़मी है कि नेहरू के समकालीन पटेल को चार दषकों तक ‘भारत रत्न‘ देने से क्यों वंचित रखा गया? जबकि नेहरू सहित कई समकालीन महापुरूशों को यह सम्मान षुरूआती वर्शों में ही प्राप्त हो गया था। 31 अक्टूबर को पटेल जयन्ती के परिप्रेक्ष्य में प्रधानंत्री का एकता के प्रतीक का यह दिवस भारत में असीम ताकत देने का काम कर रहा है। 31 अक्टूबर 1875 जहां पटेल जयन्ती के लिए एक गौरव भरा दिन था वहीं 1984 का यही दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी हत्या के चलते काली परछाई से वंचित नहीं है। फिलहाल एकता दिवस के चलते सरदार पटेल जैसे इतिहास पुरूश की गौरगाथा से आने वाली पीढियां अनभिज्ञ नहीं रह सकेंगी। देष के किसानों में भी ऐसी विभूतियों को लेकर एक अलग विमर्ष तैयार होगा साथ ही देष निर्माण को लेकर युवाओं में एक सकारात्मक अवधारणा का विकास भी सम्भव है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

No comments:

Post a Comment