Wednesday, November 6, 2019

जलवायु परिवर्तन पर बातें अधिक, काम कम

दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी है कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदार है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हा रही है। अमेरिका पेरिस जलवायु संधि से हट चुका है और दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाना जाता है और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। बीते 23 सितम्बर न्यूयाॅर्क स्थित संयुक्त राश्ट्र संघ के मुख्यालय में जलवायु कार्यवाही षिखर वार्ता से पहले महासचिव एंतेनियो गुतेरस विष्व के नेताओं से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती और साल 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को षून्य करने हेतु ठोस समाधान की अपील की। जमाने से जारी जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही को लेकर न तो कोई बड़ा सुधार आया है और न ही इससे जुड़े लोग इस पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक बार फिर इस मुद्दे की गम्भीरता से लोगों को अवगत कराया है। युवा जलवायु कार्यकत्र्ता ग्रेटा थुनबर्ग ने षिखर वार्ता को सम्बोधित करते हुए वैष्विक नेताओं की लानत-मलानत की। थुनबर्ग ने कहा कि इतने बड़े संकट के सामने खड़े होने के बावजूद नेता परिपक्व ढंग से सीधी सच्ची बात नहीं कह रहे। स्पश्ट है कि 16 वर्शीय कार्यकत्र्ता को आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अच्छे वातावरण की चिंता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बड़े बाजार और बड़ी अर्थव्यवस्था की खोज के चलते कई विकसित देषों ने कार्बन उत्सर्जन की तमाम हदें पार कर दी हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके हिस्से की वह चीज छीन रहे हैं जो करोड़ों वर्शों में इस ग्रह पर निर्मित हुआ है। चिंता लाज़मी है परन्तु केवल चिंतन से बात नहीं बनेगी।
इस संदर्भ का भी उल्लेख इस बात को पुख्ता करता है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में कार्यवाही को लेकर किसका रवैया कैसा है। समुद्रों और पृथ्वी के ठण्डे क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग भयावह प्रभाव पर विस्तार से रोषनी डालने वाली एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट पर संयुक्त राश्ट्र के 195 देषों की जलवायु विज्ञान से सम्बंधित इकाई ने बीते 24 सितम्बर को लम्बे गतिरोध के बाद मंजूरी दी। गौरतलब है कि रिपोर्ट की भाशा पर सऊदी अरब की आपत्ति थी और इस कारण रात भर यह गतिरोध बना रहा। पेट्रोल और डीजल से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत को दर्षाने वाले संयुक्त राश्ट्र के एक पिछले आंकलन को चुनौती देते हुए सऊदी अरब ने 30 पन्नों की रिपोर्ट को स्वीकार करने में बाधा खड़ी की थी। ग्लोबल वार्मिंग की सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने की अपरिहार्यता देखी जा सकती है और यह तभी सम्भव है जब जीवाष्म ईंधन अर्थात् पेट्रोल, डीजल आदि के इस्तेमाल में कटौती की जायेगी। गौरतलब है कि तेल निर्यातक देष के लिए बाजार खतरे में होंगे ऐसे में उनमें असंतोश व्याप्त होना लाज़मी है। सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देष है उसे ऐसी रिपोर्टों से आपत्तियां रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है यह कह पाना मुष्किल है।  जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है, पृथ्वी का तापमान बड़ रहा है, ग्लेषियर पिघल रहे हैं, पानी घट रहा है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है उससे साफ है कि चुनौती काबू से बाहर है।
वैसे देखा जाये तो जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मनुश्य ही है। पेड़-पौधों की लगातार कटाई, जंगल को खेती या मकान बनाने के उपयोग में लाना और कारखानों को बेरोक-टोक व्यापक पैमाने पर विस्तार देना। वायु प्रदूशण बढ़ने से गर्मी बढ़ जाती है और गर्मी बढ़ने से जलवायु में परिवर्तन होने लगता है। जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में भूकम्प, ज्वालामुखी आदि का फटना भी षामिल है। मानव के क्रियाकलापों का परिणाम ही ग्रीन हाउस प्रभाव और वैष्विक ताप भी है। औद्योगिक क्रान्ति ने कार्बन डाई आॅक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ा दिया। पड़ताल बताती है कि जलवायु परिवर्तन के साक्ष्य कई स्रोतों से उपलब्ध है पर हल के स्रोत गिनती के हैं। न्यूयाॅर्क में जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही को लेकर जो बैठक हुई उसमें निजी क्षेत्रों के लिए यह सकारात्मक बदलाव लाने के रास्ते प्रदर्षित करने का एक बड़ा अवसर भी माना जा सकता है। बाजार में 2.3 ट्रिलियन डाॅलर पूंजीवादी और 42 लाख कर्मचारियों वाली 87 से ज्यादा बड़ी कम्पनियों ने अपने कामकाज में जलवायु लक्ष्यों को निर्धारित करने का संकल्प लिया जो इस बात को पुख्ता करता है। इन कम्पनियों का वार्शिक उत्सर्जन कोयले से चलने वाले 73 ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है। खोखली बातों से मन को लुभाया जा सकता है मगर पृथ्वी को बचाने के लिए तो मजबूत इरादों की ही जरूरत है। एक साल पहले भी संयुक्त राश्ट्र महासचिव ने पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर एक्षन प्लान की वचनबद्धता को दर्षाया था। उन्होंने अन्तर्राश्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया था। पहले भी यह कहा गया था कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने पड़ेंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों इतनों ही वर्शों तक उत्सर्जन का स्तर आधार कर दें और 2050 तक षून्य करना जो इसलिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसके प्रति असंवेदना कहीं न कहीं व्याप्त है। इसका पुख्ता सबूत पर्यावरण कार्यकत्र्ता ग्रेटा थुनबर्ग की उस चुतावनी में छानी जा सकती है जिसमें दुनिया के नेताओं को न्यूयाॅर्क में खरी-खरी सुना दी।
सभी जानते हैं कि विकसित देष 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करते हैं जबकि बाकी बचा हुआ हिस्सा में पूरी दुनिया आती है। एषिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कई देष ऐसे हैं जिनका कार्बन उत्सर्जन न के बराबर है जबकि उत्तरी गोलार्द्ध के यूरोपियन और अमेरिकन समेत कई देष ऐसे हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए स्वयं में एक चुनौती बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यह भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं सदी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह या पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। पृथ्वी का ताप बढ़ता रहेगा तो जलवायु बदलती रहेगी। अगर इससे सम्बंधित गैसों में तय मानक से अधिक बढ़त बनी रही तो जीवन पर इसका भारी पड़ना निष्चित है। गौरतलब है कि पिछले साल भारत में गर्मी का प्रकोप इतना था कि कहीं-कहीं तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को छू लिया था। हिमाचल के उना में 43 तो खजुराहो में यह 47 डिग्री पहुंच गया था। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर गया था। दक्षिण यूरोप में भी गर्मी पहले की तुलना में बढ़ गयी है। पहाड़ और मैदान सभी इसकी चपेट में है। संकेत साफ है कि जलवायु परिवर्तन बेकाबू तरीके से जारी है। साल 2018 के अक्टूबर में इण्डोनेषिया की राजधानी बाली में आसियान की बैठक को सम्बोधित करते हुए संयुक्त राश्ट्र महासचिव ने एक्षन प्लान की बात कही थी। जिस पर अभी कोई खास रिएक्षन देखने को नहीं मिला। 2030 तक यदि पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है जो 1.5 डिग्री की तुलना में आधा डिग्री अधिक है तो थाईलैण्ड, फिलीपीन्स, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव और मेडागास्कर समेत मोरिषस पानी से लबालब हो जायेंगे। साफ है पृथ्वी को नश्ट करने में भूमिका हमारी रहेगी। दुनिया भर की षक्तियां इससे निपटने की ताकत लगा रही हैं पर कोई किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता। जलवायु परिवर्तन से जुड़े बैठक में जो वायदे किये जा रहे हैं उस पर खरे उतरने की गुंजाइष कम ही है क्योंकि यह किसी एक का निजी एजेण्डा नहीं है और कोई निजी हितों से षायद ऊपर उठना भी नहीं चाहता।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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