Tuesday, November 12, 2019

क्या कृषि नीति बनाने वाले पूरा सच जानते हैं?

यह आंकड़ा माथे पर बल ला सकता है कि अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना से अधिक है। जिन किसानों के चलते करोड़ों का पेट भरता है वही खाली पेट रहें यह सभ्य समाज मे बिल्कुल नहीं पचता। भारत में किसान की प्रति वर्श आय महज़ 81 हजार से थोड़े ज्यादा है जबकि अमेरिका का एक किसान एक माह में ही करीब 5 लाख रूपए कमाता है। आंकड़ें यह भी स्पश्ट करते हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या का रास्ता क्यों चुनता है। किसानों की समस्या इतनी पुरानी है कि कई नीति निर्धारक इस चक्रव्यूह में उलझते तो हैं पर उनके लिए षायद लाइफचेंजर नीति नहीं बना पा रहे हैं। हां यह सही है कि सत्ता के लिए गेमचेंजर नीति बनाने में वे बाकायदा सफल हैं। अगस्त 2018 में राश्ट्रीय कृशि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा नफीस षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया गया, जिसमें एक किसान परिवार की वर्श 2017 में कुल मासिक आय 8,931 रूपए बतायी गयी। बहुत प्रयास के बावजूद नाबार्ड की कोई ताजा रिपोर्ट नहीं मिल पायी परन्तु जनवरी से जून 2017 के बीच किसानों पर जुटाये गये इस आंकड़े के आधार पर इनकी हालत समझने में यह काफी मददगार रही है। यही रिपोर्ट यह दर्षाता है कि भारत में किसान परिवार में औसत सदस्य संख्या 4.9 है। इस आधार पर प्रति सदस्य आय उन दिनों 61 रूपए प्रतिदिन थी। दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में षुमार भारत का असली चेहरा देखना हो तो किसानों की सूरत झांकनी चाहिए। जब राज्यों की स्थिति पर नजर डाली जाती है तो किसानों की आय में गम्भीर असमानता दिखाई देती है। सबसे कम मासिक आय में उत्तर प्रदेष, झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेष, बिहार, उड़ीसा समेत पष्चिम बंगाल और त्रिपुरा आदि षामिल हैं। जहां किसानों की मासिक आय 8 हजार से कम और 65 सौ से ऊपर है जबकि यही आय क्रमषः पंजाब और हरियाणा में 23 हजार और 18 हजार से अधिक है।  असमानता देखकर यह प्रष्न अनायास मन में आता है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का जो परिप्रेक्ष्य लेकर केन्द्र सरकार चल रही है वह कहां, कितना काम करेगा। पंजाब और उत्तर प्रदेष के किसानों की आय में अंतर किया जाये तो यह साढ़े तीन गुने का है। सवाल यह है कि क्या दोगुनी आय के साथ अंतर वाली खाई को भी पाटा जा सकेगा। खास यह भी है कि आर्थिक अंतर व्यापक होने के बावजूद पंजाब और उत्तर प्रदेष किसानों की आत्महत्या से मुक्त नहीं है। इससे प्रष्न यह भी उभरता है कि किसानों को आय तो चाहिए ही साथ ही वह सूत्र, समीकरण और सिद्धान्त भी चाहिए जो उनके लिए लाइफचेंजर सिद्ध हो। जिसमें कर्ज के बोझ से मुक्ति सबसे पहले जरूरी है।
पिछले 5-6 वर्शों में देष की राजनीति में एक नया परिवर्तन आया है। कृशि कर्जमाफी योजना को जिस तरह लागू किया गया है उसका असर किसानों पर कितना पड़ा यह पड़ताल का विशय है पर राज्यों की अर्थव्यवस्था पर यह साफ दिखाई देता है। विगत् 5 वर्शों में ़10 राज्यों ने 2,31,260 करोड़ रूपए के कृशि कर्ज को माफ किया। मगर अभी तक राज्यों में अपने बजट से केवल 1,51,161 करोड़ रूपए का प्रावधान किया। कई राज्यों की माली हालत अच्छी नहीं है। ऐसे में कर्ज माफी की राषि के साथ समायोजन उन पर भारी पड़ रहा है। मध्य प्रदेष, कर्नाटक, उत्तर प्रदेष और राजस्थान जैसे प्रदेष इसी दौर से गुजर रहे हैं। मौजूदा दौरा आर्थिक सुस्ती में भी ऐसे में समस्याएं और बड़ी हो गयी। कई यह मानते हैं कि किसानों की कर्जमाफी अन्तिम समाधान नहीं हे। आरबीआई भी कृशि कर्ज माफी को लेकर कई बार एतराज कर चुका है। आरबीआई की एक रिपोर्ट में यह स्पश्ट है कि वर्श 2014-15 में आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना में किसान कर्जमाफी का एलान किया जबकि 2018-19 में कर्नाटक, मध्य प्रदेष, राजस्थान व छत्तीसगढ़ ने इसे लागू किया। इतना ही नहीं इसी दरमियान यूपी, पंजाब, महाराश्ट्र व तमिलनाडु ने भी इस व्यवस्था को लागू किया। गौरतलब है कि यह राज्य अपने कुल सालाना बजट का 3.5 फीसद हिस्सा कृशि कर्ज माफी योजना में खर्च कर रहे हैं। सवाल यह है कि बीते 5 वर्शों में जिन राज्यों की ओर से कर्ज माफी का कदम उठाया गया क्या उससे किसानों की हालत सुधरी। यह योजना सही है या गलत इसे स्पश्ट तौर पर कहना कठिन है पर इसका लाभ हुआ ही नहीं ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। 
चुनावी घमासान के बीच किसानों की कर्ज माफी को लेकर राजनीतिक गोटियां चली जाती रही हैं और वायदा पूरा करने की फिराक में सरकारें समायोजन और आर्थिक संघर्श से जूझती भी रहीं जिसका नतीजा सरकारों के खिलाफ भी जा सकता है। 10 राज्यों में चालू वित्त वर्श के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार को लेकर जितनी राषि का प्रावधान किया है उससे 4 गुना ज्यादा राषि कृशि कर्ज माफी के लिए खर्च किया जिसका उन पर साइड इफेक्ट पड़ना स्वाभाविक है। आरबीआई के आंकड़े कहते हैं कि 1990 से 2000 के बीच राज्यों के स्तर पर केवल 10 हजार करोड़ रूपए के कर्ज माफ किये गये थे। साल 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 56 हजार करोड़ रूपए कर्ज माफी की थी और अब 2014-15 से लेकर अब तक 10 राज्यों में कर्ज माफी को कई गुना बढ़ा दिया। सवाल यह है कि किसानों को राहत कैसे दिया जाय। भारत में किसान समाज और खेती का उपकरण कभी ढांचागत रूप में व्यापक नीति के दायरे में आया ही नहीं। किसान क्या चाहते हैं इस पर भी सरकारों ने ठीक से गौर नहीं किया। इतना ही नहीं उनकी सुरक्षा को लेकर भी सरकारों ने जो कदम उठाये वे भी ठोस नहीं सिद्ध हुए। सरकारों की गलती यह रही कि कम आय, बढ़ती लागत और नीतिगत दुव्र्यवहार के चलते जो कृशि संस्कृति को संकट आया उस समस्या से छुटकारा दिलाने के बजाय ध्यान हटाने के लिए राजनीतिक हथकंडे अपनाये गये। देष के एक किसान के पास औसतन 1.1 हैक्टेयर जमीन है जिसमें 60 प्रतिषत की सिंचाई नहीं हो पायी और हर कर्जदार किसान का औसत एक लाख रूपए से ज्यादे के कर्ज के दबाव में है। 
सवाल यह है कि किसानों में बदलाव लाने के लिए नया कुछ क्या हो रहा है। केन्द्र सरकार सवा दो लाख करोड़ की भारी-भरकम राषि किसानों की मदद के लिए खर्च कर रही है। जिसमें फर्टिलाइजर सब्सिडी, बिजली, फसल बीमा, बीज, किसान कर्ज, सिंचाई जैसी मदों पर खर्च की जाती है। अब तो किसानों को प्रति वर्श 6 हजार रूपए की अतिरिक्त सहायता भी दी जा रही है जिससे 2 हजार प्रति 4 माह पर उनके खाते में सीधे भेजा जा रहा है। बावजूद इसके परिवर्तन की सम्भावना क्रान्तिकारी होगी ऐसा सोचना सही नहीं है। सवाल यह है कि नीति बनाने वाले किस सूत्र और सिद्धान्त को अपनाये कि किसान की हालत दीन-हीन की नहीं बल्कि आर्थिक समृद्धि की हो। इन सूत्रों का भी सहारा लेकर सरकार बड़ा परिवर्तन ला सकती है मसलन सरकार को चाहिए कि किसानों और उनके आश्रितों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराये। किसानों की दषा सुधारने के लिए देष में जल विकास की योजना को सबल किया जाय क्योंकि आधी ही कृशि गैर सिंचित है। किसानों को पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अनुपात में प्रोत्साहित किया जाय। कृशि की तकनीक सस्ती हो, अनायास सरकारी हस्तक्षेप हटे और फसल की उचित कीमत मिले। स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कर सफलता दर सुनिष्चित की जा सकती है। जब तक किसानों को फलक पर खड़ा करने का प्रयास नहीं होगा और केवल इन पर भावनात्मक राजनीति करके वोट खींचा जाता रहेगा तब तक यह दुष्वारियों से बाहर नहीं निकलेंगे। यूरोप और अमेरिकन माॅडल को भी कृशि नीति में लाकर इनके लिए बेहतर प्रयास हो सकता है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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