Thursday, November 14, 2019

एक्ट ईस्ट नीति हेतु बेहद अहम आसियान

अविभाज्य, मजबूत और आर्थिक रूप से सषक्त आसियान अर्थात् दक्षिण-पूर्वी एषियाई राश्ट्रों का संगठन ही भारत के हित में है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आसियान दौरे में इसके अलावा यह भी स्पश्ट किया है कि भारत के लिए हिन्द-प्रषान्त क्षेत्र के नजरिये से एक्ट ईस्ट नीति न केवल अहम् है बल्कि यह आसियान का मूल हिस्सा है। जाहिर है भारत उत्तर-पूर्व में अपने बाजार और कारोबार को लेकर काफी संजीदा रहा है। आसियान के माध्यम से वह चाइना के बढ़ते बाजार और आसियान पर उसकी पहुंच को भी संतुलित करने का काम करता रहा है। यही कारण है कि पष्चिमी देषों के साथ-साथ भारत आसियान देषों को लेकर भी काफी बेहतरी के साथ कूटनीतिक हलचल लिए हुए है। गौरतलब है कि बीते 31 अक्टूबर से 4 नवम्बर के बीच दक्षिण-पूर्व एषियाई देषों (आसियान) की बैठक थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाॅक में सम्पन्न हुई जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की भागीदारी पहले की तरह देखी जा सकती है। स्पश्ट है कि यह मोदी की 7वीं आसियान-इण्डिया समिट और 6वीं ईस्ट एषिया समिट है। पिछले साल जनवरी में भारत ने इण्डो-आसियान समिट की 25वीं वर्शगांठ की मेजबानी की थी जिसमें 10 आसियान नेताओं ने षिरकत की थी। इस दौरान भारत की ओर से यह घोशणा की गयी थी कि वह आसियान-इण्डिया स्ट्रैटेजिक पार्टनरषिप की सतत् मजबूती के लिए काम करता रहेगा। मोदी बैंकाॅक में विदेषी कम्पनियों को भारत में निवेष के लिए अभी सबसे अच्छा समय है की बात कही। ईज़ आॅफ डूइंग बिज़नेस, ईज़ आॅफ लिविंग, प्रत्यक्ष विदेषी निवेष आदि संदर्भों को देखें तो भारत की हालत इतनी खराब नहीं कि विदेषी कम्पनियों को आकर्शित न कर सकें। गौरतलब है कि इन दिनों भारत आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है और कई अर्थव्यवस्था के सुधारने वाले कदम उठाये जा रहे हैं। पर यह कहना मुष्किल है कि आर्थिक सुधार कितना हुआ है। वैसे जीडीपी की हालत देखते हुए सुधार नाकाफी कहे जा सकते हैं। स्थिति को देखते हुए चीन से बोरिया-बिस्तर समेटने वाली दुनिया की करीब 200 कम्पनियों पर भारत की नजर है। वित्त मंत्री इस मामले में अपना रूख भी स्पश्ट कर चुकी हैं। खास यह भी है कि भारत 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था चाहता है जिसकी पूर्ति बिना दक्षिण-पूर्व के बाजार के सम्भव नहीं है। 
गौरतलब है कि 2014 में जब मोदी सरकार ने कार्यभार संभाला था तब भारत की जीडीपी 2 ट्रिलियन अमेरिकी डाॅलर थी और बीते 5 वर्शों में यह लगभग 3 ट्रिलियन अमेरिका डाॅलर के बराबर हो गयी। अब आगे के 5 वर्शों में इसे 5 ट्रिलियन डाॅलर करना है जो बिना एक संतुलित विकास दर के पाना सम्भव ही नहीं है। यहां स्पश्ट करते चलें कि चीन 12 ट्रिलियन डाॅलर से अधिक की अर्थव्यवस्था और कई मामले में पड़ोसी होने के नाते उससे विवाद है तो कई संदर्भों में उसी से कारोबारी समस्या भी है। जिस बाजार पर भारत की दृश्टि है उस पर कमोबेष चीन पर पहले से कब्जा है और जिन सार्क देषों को लेकर भारत बड़े भाई की भूमिका में निहायत सकारात्मक और उदार रवैया रखता है उन पर भी चीन की तिरछी नजर रहती है। इस मामले में पाकिस्तान अपवाद है। विदित हो कि पाकिस्तान ने भारत से जन्मजात दुष्मनी कर ली है और चीन इस दुष्मनी का पनाहगार है। किसी भी देष की विदेष नीति का मुख्य आधार उस देष की वैष्विक स्तर पर न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराना बल्कि अपनी नीतियों के माध्यम से दूसरे देषों को अवगत कराते हुए उनके सही-गलत होने का अहसास भी कराना होता है। आज से दो साल पहले जब प्रधानमंत्री मोदी ने 14 नवम्बर को आसियान के मंच से पाकिस्तान और चीन को कड़ा संदेष देने का प्रयास किया था तब देष आतंकवाद और चरमपंथ का बेहद षिकार था। पूरे दक्षिण चीन सागर पर एकाधिकार की फिराक में रहने वाले चीन को भी इस मंच से कई बार सजग किया गया है। मोदी का थाईलैण्ड की 3 दिवसीय यात्रा और आसियान समिट में उपस्थिति स्वाभाविक तौर पर अन्य पक्षों को भी सषक्त बनाता है। 5 अगस्त को जम्मू कष्मीर से अनुच्छेद 370 का समापन का जिक्र करना मोदी यहां भी नहीं भूले। हजारों भारतीयों को बैंकाॅक में सम्बोधित करते हुए अपनी उपलब्धियों का जमकर बखान किया। 
द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर भी यह मंच काफी कारगर रहा। भारत समेत आसियान क्षेत्र में कुल मिलाकर करीब 2 बिलियन लोगों की आबादी है जो वैष्विक आबादी का एक-चैथाई है और उनका संयुक्त जीडीपी अनुपातिक तौर पर लगभग 4 ट्रिलियन अमेरिकी डाॅलर है। आसियान से भारत में निवेष पिछले 17 सालों में 70 बिलियन अमेरिकी डाॅलर से अधिक रहा है जो भारत के कुल प्रत्यक्ष पूंजी निवेष (एफडीआई) का 17 प्रतिषत से अधिक है। जिस तर्ज पर भारत आसियान और दक्षिण-पूर्व देषों को आकर्शित करने की फिराक में है उसमें कई सकारात्मक संदर्भ उन देषों के लिए भी देखें जा सकते हैं जो आसियान के मंच के साथ भारत से द्विपक्षीय सम्बंध बनाने के आतुर हैं। खास यह भी है कि भारत एषिया का ही नहीं दुनिया में एक उभरती अर्थव्यवस्था है और चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या के चलते सबसे बड़ा बाजार भी है। ऐसे में इन देषों के लिए हर लिहाज़ से भारत एक लाभकारी देष है। मगर यहां पर चीन के कुछ हद तक एकाधिकार के कारण भारत की सोच का प्रसार धीमी गति लिए हुए है। भारतीय परिप्रेक्ष्य को आसियान देषों की दृश्टि से उम्दा प्रदर्षित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में 69वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर आसियान नेताओं को आमंत्रित किया था। यह पहला अवसर था जब गणतंत्र दिवस पर अतिथि एक नहीं अनेक थे। भूमण्डलीकृत विष्व की अनिवार्यताओं को देखते हुए भारत कूटनीतिक फलक पर अपने मन की बात करने से फिलहाल कहीं कोई चूक करता नहीं दिखाई देता। बावजूद इसके आसियान के साथ भारत के सम्बंध और सरोकार क्या उतने सकारात्मक हैं जितना भारत की जरूरत है। 
साल 1991 में भारत ने पूर्वी-एषियाई देषों के साथ अपनी संलग्नता सुनिष्चित करने के दृश्टिकोण से पूरब की ओर देखो नीति की घोशणा की। ये आधार इस बात को पुख्ता करते हैं कि भारत का इन देषों के साथ ऐतिहासिक सम्बंध पुराने हैं। साल 1992 में भारत-आसियान का क्षेत्रीय वार्ता भागीदार बन गया और क्रमिक तौर पर भारत की उपादेयता इन क्षेत्रों में वाणिज्य और व्यापार के साथ कृशि तथा अन्य मामलों में परिभाशित होने लगे। इसी मंच से पाकिस्तान को आतंकवाद के मामले में आड़े हाथ लेने का अवसर भी देखा जा सकता है। भारत की बदली व्यवस्था को भी प्रचार-प्रसार करने का यह मंच काम आता रहा। मेक इन इण्डिया के प्रसार के लिए आसियान समिट भी उपयोग होती रही और अब विदेषी कम्पनियों को भारत में निवेष के लिए आमंत्रित करने का बड़ा अवसर इस समिट ने दिया है। भारत ऐसा समझता है कि आसियान देष यहां निवेष करके एक अच्छी कीमत अपने लिए अर्जित कर सकते हैं जबकि आसियान देष का ढुलमुल रवैया इस बात पर रहता है कि कई बुनियादी तत्व को पहले भारत सुधार ले फिर निवेष को वह सोचे। हालांकि यहां जरूरत केवल भारत की नहीं है। ऐसे में सकारात्मक रूख दोनों ओर से होना चाहिए। बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और म्यांमार की काउंसलर आंग सान सूकी के बीच सिटवे बंदरगाह के संचालन से जुड़े मुद्दों को और इसके साथ ही कालाधन, मल्टी-मोडल ट्रंजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट और सीमा-सीमांकन के कुछ हिस्सों को लेकर भी चर्चा की। मोदी ने आसियान देषों के नेताओं को सम्बोधित किया। गौरतलब है षिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले सदस्य देष पूरी दुनिया की आबादी कर 54 फीसदी और जीडीपी का 58 फीसदी हिस्सा है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) 10 आसियान देषों जैसे ब्रूनेई, कम्बोडिया, इण्डोनेषिया, मलेषिया, म्यांमार, सिंगापुर, थाईलैण्ड, फिलीपींस, लाओस और वियतनाम जबकि उनके 6 एफटीएफ साझेदार देषों चीन, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, आॅस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड का समूह है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

आसमान में तबाही और ज़मीन पर सियासत

दिल्ली एनसीआर में पूरा माहौल दम घोटू बन गया है। हालांकि उत्तर प्रदेष के कई जिले मसलन कानपुर, लखनऊ समेत अन्यों की हालत खराब है पर उतनी नहीं जितनी तबाही राजधानी क्षेत्र के आसमान पर दिखती है। प्रदूशण की वजह से दिल्ली में हेल्थ इमरजेंसी घोशित हो चुकी है और स्कूल कुछ समय के लिए बंद कर दिये गये हैं। हरियाणा और पंजाब की पराली के धुंए और धूल के महीन कणों से दिल्ली-एनसीआर की हवा जहरीली हो गयी है। सांस लेना दूभर हुआ है और आंखों में जलन बादस्तूर जारी है। प्रदूशण से आफत में जान है पर मुक्ति का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा। गौरतलब है कि प्रदूशण में पराली का योगदान 10 से 30 फीसदी तक बताया जाता है। स्पश्ट है कि जिस तर्ज पर दिल्ली और उसके आस पास की हवा प्रदूशित है उसमें केवल पराली नहीं दिवाली के पटाखे और पहले के प्रदूशण जो निरंतर चले आ रहे हैं वे षामिल हैं और जब ये सभी एकजुट हुए तो पूरा इलाका गैस चैम्बर बन गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी तल्ख लहज़े में सरकार क्या कर रही है पर एक सवालिया निषान खड़ा किया। रोचक यह है कि प्रदूशण को लेकर केन्द्र और दिल्ली की राज्य सरकार के बीच भी ठनी हुई है। विजय गोयल जो बीजेपी के कद्दावर नेता है उनके लिहाज़ से हवा में जो जहर घुली है उसके जिम्मेदार केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं। ऐसी ही राय कुछ हद तक दिल्ली कांग्रेस की भी है।
प्रदूशण को लेकर सारा ठीकरा केजरीवाल पर फोड़ा जा रहा है जबकि पंजाब में कांग्रेस और हरियाणा में स्वयं बीजेपी की सरकार है और ये दोनों प्रांत पराली जलाने वाले किसानों को रोक पाने में विफल रहे हैं। इतना ही नहीं लखनऊ और कानपुर समेत उत्तर प्रदेष के कई जिलों की हवाएं भी इन दिनों जहरीली हुई हैं। यहां भी बीजेपी की योगी सरकार है। सवाल है कि जो प्रष्न बीजेपी केजरीवाल से कर रही है वही हरियाणा और उत्तर प्रदेष की सरकार से क्यों नहीं करती। दूसरा सवाल यह भी क्या राजनीति से पर्यावरण का समाधान है। गौरतलब है कि फरवरी 2020 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव है और 2015 की हार बीजेपी भूली नहीं होगी जब वह 70 के मुकाबले 3 सीट पर सिमट गयी थी। बड़ा सवाल यह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान पराली क्यों जला रहे हैं इस पर कभी किसी ने विचार नहीं किया जबकि यह हर वर्श होता है। इतना ही नहीं पराली जलाने को लेकर किसानों पर सख्ती की जा रही है बावजूद इसके कुछ खास सफलता नहीं मिल पायी। पराली जलाने वालों पर हजारों की तादाद में मुकदमे किये गये बावजूद इसके धुंआ कम नहीं हुआ। गौरतलब है कि किसानों की अपनी चुनौती है। पंजाब के कुछ किसानों ने तो भटिण्डा के उपायुक्त के कार्यालय के सामने ही 4 नवम्बर को दोपहर में पराली जलाकर कानून को ही धता बता दिया और सरे आम यह चुनौती दे दी कि यदि किसानों के दुःख दर्द को सरकार और प्रषासन नजर अंदाज करते रहेंगे तो उनकी बात को भी वे नहीं सुनेंगे। वैसे पराली की समस्या तब से आई है जब से धान की कटाई का मषीनीकरण हुआ है। मषीन से धानों की कटाई के दौरान करीब आधा फुट से अधिक पराली खेतों में रह जाती और अगली फसल के लिए किसानों को खेत खाली करना होता। ऐसे में इन्हें जलाना ही इनका विकल्प होता। जाहिर है इस तरह की स्थिति न उपजे इसके लिए सरकारी स्तर पर कोई दूसरा तरीका खोजा जाना चाहिए। वैसे दावा किया जाना चाहिए कि पूसा के कृशि अनुसंधान संस्थान ने एक ऐसा टेबलेट को खोजा है जिसकी कीमत मात्र 5 रूपया है और यदि 4 टेबलेट का घोल एक एकड़ जमीन में छिड़क दिया जाय तो पराली वहीं नश्ट हो जायेगी और जमीन की उवर्रक क्षमता को भी बढ़ा देगी। अब इसे लेकर किसान कितने जानकार हैं कहना मुष्किल है और इसकी उपलब्धता कितनी सुगम है इसे बता पाना भी कठिन है।
असल बात तो यह है कि यह सभी जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा के किसान दीपावली के इर्द-गिर्द पराली जलायेंगे बावजूद इसके चाहे दिल्ली की सरकार हो या केन्द्र की संजीदगी दिखाने में विफल ही रहे हैं। इतना ही नहीं धुंए के गुब्बार से दिल्ली के आसपास का आसमान तबाही का मंजर लिए हुए और जमीन पर सियासत परवान चढ़ी हुई है। जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। प्रदूशण का स्तर बढ़ने के चलते जीवन के मोल में भारी गिरावट इन दिनों देखी जा सकती है। सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी इसका पुख्ता उदाहरण है। बीते 20 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली इन दिनों घुट रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। इसके पहले 2016 में भी स्थिति जब बहुत खराब हुई थी तब दिल्ली उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। उन दिनों भी स्कूल इसी तरह बंद किये गये थे।
जहरीली धुंध ने नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम, समेत कई जिलों को अपनी चपेट में ले लिया है।  इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा सकता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री की माने तो राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। पूरी दुनिया से 42 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूशण से होती है। 24 प्रतिषत स्ट्रोक से होने वाली मौतों में वायु प्रदूशण की हिससेदारी है। इतना ही नहीं 91 प्रतिषत दुनिया की वह आबादी जो विष्व स्वास्थ संगठन द्वारा वायु गुणवत्ता के तय मानकों से अधिक स्तर वाले क्षेत्रों में निवास करती है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की पुरानी रिपोर्ट से यह भी पता चला कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है इस साल तो यह पिछले 20 साल का रिकाॅर्ड तोड़ चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

रियासत मैनेजमेंट के विरासत हैं सरदार पटेल

एक ऐसे षख्स और षख्सियत जिन्होंने 565 रियासतों में बंटे भारत को न केवल एकरूपता प्रदान की बल्कि इसके आधारभूत संरचना में अपना पूरा कौषल झोंक दिया। जिन्हें सरदार बल्लभ भाई पटेल के नाम से जाना जाता है। पटेल की इच्छा षक्ति और आधुनिक भारत के निर्माण व एकीकरण को देखते हुए इन्हें प्रबंधन स्कूल का प्राचार्य कहना अतिष्योक्ति न होगा। 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड गांव में जन्में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने आजादी की लड़ाई में न केवल सक्रिय भूमिका निभाई बल्कि वे किसानों के भी मसीहा थे। भारत में फैली सैकड़ों रियासतों को एक सूत्र में पिरोने के लिए जाने जाते हैं। किसानों के हित में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बल्लभ भाई पटेल को जहां बारदौली की महिलाओं ने सरदार की उपाधि दी, वहीं रियासतों के एकीकरण में निभाई गयी भूमिका के लिए उन्हें लौह पुरूश की संज्ञा दी गई। सरदार पटेल को भारत का बिस्मार्क भी कहा जाता है। स्वतंत्रता के समय ब्रिटिष षासन ने घोशणा की थी कि रजवाड़े या तो भारत में या पाकिस्तान में षामिल हो सकते हैं। चाहें तो स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रख सकते हैं। भारतीय इतिहास का यह समय अतिरिक्त जटिलता एवं संवदेनषीलता लिए हुए था। रियासतें कहां जायेंगी इसका निर्णय राजाओं को करना था, न कि प्रजा को। साथ ही अधिकांष रियातें स्वतंत्र अस्तित्व चाहती थीं। ऐसे में देषी रियासतों का भारत में विलय तथा अखण्ड भारत का निर्माण अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी। इन सबके बावजूद अखण्ड भारत की परिकल्पना को भी मुरझाने नहीं देना था। ऐसे में कठोर निर्णय लेने की आवष्यकता आन पड़ी। फलस्वरूप अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू ने सरदार पटेल की नेतृत्व प्रतिभा को देखते हुए उन्हें रियासत मंत्रालय का जिम्मा दिया। चट्टानी इरादों वाले सरदार पटेल 22 जून से 15 अगस्त 1947 के बीच अल्प समय में ही 562 रियासतों को भारत में विलय करके नेहरू के विष्वास पर पूरी तरह खरे उतरे। इस दौर में बल्लभ भाई पटेल ने वाकई में सरदार की भूमिका निभाई थी।
जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कष्मीर अभी भी भारत विलय से अछूते थे। विलय के दौर में जहां एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्यायें चुनौती दे रही थी वहीं दूसरी ओर धार्मिक कठिनाईयां भी थीं परन्तु इससे कहीं अधिक दृढ़ सरदार पटेल के इरादे थे। जूनागढ़ में मुस्लिम नवाब और हिन्दू बाहुल्य प्रजा थी। नवाब पाकिस्तान में षामिल होना चाहता था। यहां स्थानीय जनता ने विरोध किया। अन्ततः फरवरी 1948 में जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ। हैदराबाद एक बड़ी देषी रियासत थी। पाकिस्तान की सहायता से यहां का नवाब स्वतंत्र राश्ट्र बनाने की योजना में था। सितम्बर, 1948 में भारतीय सैन्य कार्यवाही के चलते हैदराबाद का विलय सम्भव हुआ। जहां तक सवाल जम्मू-कष्मीर का है यहां के षासक हिन्दू और प्रजा मुस्लिम थी। षुरूआती दिनों में षासक हरि सिंह स्वतंत्र अस्तित्व चाहते जरूर थे परन्तु जब अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबिलाइयों के भेश में कष्मीर पर आक्रमण किया तब हरि सिंह ने भारत से मदद की अपील की। सरदार पटेल ने कूटनीतिक कदम उठाते हुए पहले विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराये तत्पष्चात् भारतीय सेना ने कष्मीर में हस्तक्षेप किया। ऐसे में अखण्ड भारत निर्माण के चलते इतिहास में सरदार पटेल एकता के प्रतीक माने गये। उत्पन्न तात्कालिक परिस्थितियों के चलते जम्मू-कष्मीर अनुच्छेद 370 और 35ए के हवाले कर दिया गया। जिसके कारण भारतीय संविधान की पहली सूची में दर्ज 15वें राज्य के रूप में जम्मू-कष्मीर षेश भारत से कई मामलों में अलग हो गया। रक्षा, संचार और विदेष को छोड़ दिया जाय तो कई संवैधानिक संदर्भ से यह राज्य जुदा था। गौरतलब है कि जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 के चलते नीति-निर्देषक तत्व समेत कई संदर्भ से इसका भारतीय संविधान से कोई वास्ता नहीं था। अनुच्छेद 35ए ने तो इस प्रदेष को कई विडम्बनाओं से ही भर दिया था।
जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए भारत की एकता और अखण्डता के मामले में भी भौगोलिक रूप से तो नहीं परन्तु राजनीतिक सत्ता के तौर पर एकरूपता में रोड़ा था जिसे मोदी सरकार ने बीते 5 अगस्त को समाप्त कर बड़ा साहस दिखाया। वाकई में यह बीते 70 सालों से ढ़ोया जाने वाला एक ऐसा कानून था जिसकी चाहत कोई भारतीय नहीं रखता था। देष की एकता और अखण्डता की दृश्टि से यह मोदी सरकार की ओर से उठाया गया ऐसा कदम था जिससे सरदार पटेल के मनोभाव की भी पूर्ति होती है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 के लोकसभा के चुनावी अभियानों के दौरान सरदार पटेल को महत्व देते हुए अमेरिका की स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से भी ऊंची सरदार पटेल की मूर्ति स्टेच्यू आॅफ यूनिटी के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। उस दौरान उन्होंने यह भी कहा था कि मूर्ति निर्माण हेतु देष के किसानों से लोहा इकट्ठा किया जायेगा। गौरतलब है कि दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्टेच्यू आॅफ यूनिटी का उद्घाटन 31 अक्टूबर 2018 को प्रधानमंत्री मोदी ने ही किया जो वाकई में किसी षख्स की षख्सियत को स्थापित करने वाला बड़ा काज था। 182 मीटर ऊंची इस प्रतिमा को 7 किलोमीटर की दूरी से देखा जा सकता है। खास यह है कि स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से दो गुना ऊंची है। दरअसल मोदी सरकार पटेल द्वारा किये गये ऐतिहासिक कृत्यों को नये रूप में यादगार बनाना चाहती थी जिसे लेकर वह काफी सक्रिय रही। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार पटेल जमीनी नेता थे किसानों के षोशण के प्रति अंग्रेजों से लोहा लेते थे साथ ही उनकी छवि सख्त नेतृत्व के तौर पर पहचानी जाती थी। प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के वल्लभ भाई पटेल को देष का सरदार बनाने में अभी भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उनके सम्मान में 31 अक्टूबर जो उनकी जयन्ती को एकता दिवस के रूप में मनाने की घोशणा इस बात को और पुख्ता करती है। हालांकि मोदी सर्वपल्ली राधाकृश्णन की जयन्ती को टीवी एवं रेडियो के माध्यम से षिक्षक दिवस को अतिरिक्त प्रभावषाली पहले ही बना चुके हैं। 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती के दिन को स्वच्छता अभियान कार्यक्रम का नाम दे चुके हैं और वर्श 2019 गांधी के 150वीं जयन्ती पर इसका मर्म और बड़ा करने में भी अग्रसर है। 14 नवम्बर नेहरू जयन्ती जो बाल दिवस के रूप में प्रतिश्ठित है इसका भी इतिहास में अपना महत्व है। देखा जाय तो ये तमाम ऐतिहासिक पुरूश देष के व्यापक विरासत हैं। 
इतिहास में पटेल की भूमिका अत्यंत अद्वितीय है परन्तु इसके अनुपात में कांग्रेस सहित अन्य सरकारों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो लौह पुरूश को मिला चाहिए था। बड़ा सवाल यह है कि पिछले 70 वर्शों में पटेल को सम्मान के मामले में पीछे क्यों रखा गया जबकि समकालीन नेता नेहरू सम्मान को लेकर अतिरिक्त प्रभावषाली स्थान रखते हैं। 1992 में जब सरदार पटेल को भारत रत्न की उपाधि दी गयी तो ठीक उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी यही सम्मान प्रदान किया गया था। यहां यह मुद्दा उठाना लाज़मी है कि नेहरू के समकालीन पटेल को चार दषकों तक ‘भारत रत्न‘ देने से क्यों वंचित रखा गया? जबकि नेहरू सहित कई समकालीन महापुरूशों को यह सम्मान षुरूआती वर्शों में ही प्राप्त हो गया था। 31 अक्टूबर को पटेल जयन्ती के परिप्रेक्ष्य में प्रधानंत्री का एकता के प्रतीक का यह दिवस भारत में असीम ताकत देने का काम कर रहा है। 31 अक्टूबर 1875 जहां पटेल जयन्ती के लिए एक गौरव भरा दिन था वहीं 1984 का यही दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी हत्या के चलते काली परछाई से वंचित नहीं है। फिलहाल एकता दिवस के चलते सरदार पटेल जैसे इतिहास पुरूश की गौरगाथा से आने वाली पीढियां अनभिज्ञ नहीं रह सकेंगी। देष के किसानों में भी ऐसी विभूतियों को लेकर एक अलग विमर्ष तैयार होगा साथ ही देष निर्माण को लेकर युवाओं में एक सकारात्मक अवधारणा का विकास भी सम्भव है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

गिरता मतदान दर चिंता का सबब

लोकतंत्र की कसौटी पर यदि कोई खास संदर्भ देखना हो तो केवल जीत-हार का अन्तर ही नहीं बल्कि  मतदान प्रतिषत को भी देखना चाहिए। लोकतंत्र तभी सषक्त माना जाता है जब व्यापक पैमाने पर इसमें नागरिकों की भागीदारी होती है। यह इस बात को भी पुख्ता करता है कि अपनी सरकार चुनने और सुषासन की राह समतल करने के मामले में जनता कितनी जागरूक है। देष में पहला चुनाव 1951-52 के वर्श में दर्ज है  तब मतदाताओं की संख्या 18 करोड़ थी अब यह आंकड़ा 90 करोड़ को पार कर गया है। इस पर कोई दुविधा नहीं की चुनावी चुनौतियां बड़ी है पर पहले की तुलना में सुविधा भी परवान लिए हुए है। तब से अब तक 17 बार लोक सभा का और कमोवेष इतने ही विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हो चुके है। तथ्यपरक बात यह है कि 55 फीसदी से कम और 65 फीसदी से अधिक मतदान का अवसर कम ही बार देखा गया है। बीते 24 अक्टूबर को महाराश्ट्र और हरियाणा विधानसभा के साथ देष के 18 राज्यों के उपचुनाव के नतीजे घोशित किये गये। महाराश्ट्र में भाजपा और षिवसेना गठबंधन जहाॅं सत्ता को बचाये रखने में कामयाब दिखे, वहीं हरियाणा में भाजपा सत्ता से दूर दिखाई देती है जबकि उत्तर प्रदेष में मतदाता कई छोर पर खड़ा दिखता है। बेषक चुनाव के नतीजे बहुमत और गैर-बहुमत में बंटे होते है पर प्रसंग यह है कि मतदाता का लोकतंत्र के इस पावन अवसर पर जायका कम-ज्यादा क्यों हो जाता है। 
महाराश्ट्र में इस बार मतदान 60.46 प्रतिषत पर आकर ठहर गया जो 2014 की तुलना में 2.67 फीसदी कम है। यहाॅं विधानसभा की 288 सीटों के लिए 3237 उम्मीदारवार मैदान मेें थे। लोकतंत्र के इस उत्सव में राजनीति, बॅालीवुड और उद्योग जगत की हस्तियाॅ षुमार थी, इतना ही नहीं युवा और बुजुर्ग मतदाताओं के साथ बड़ी-बड़ी कतारे भी थीं बावजूद इसके मत प्रतिषत में गिरावट दर्ज हुई जो लोकतंत्र के लिए चिंता का विशय है। जबकि इस चुनावी समर में प्रधानमंत्री मोदी ने यहाॅ भी 9 चुनावी रैली की थी। जाहिर है आकर्शण पिछले चुनाव से कम रहा। भाजपा की महाराश्ट्र में घटी सीट भी इस बात को पुख्ता करती है। दिल्ली से सटे हरियाणा राज्य पर दृश्टि डाले तो यहाॅ की स्थिति मत प्रतिषत के मामले में और बिगड़ी हुई दिखाई देती है। बीते 21 अक्टूबर को 90 विधानसभा सीटो के लिए सम्पन्न विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिषत 2014 की तुलना में व्यापक अन्तर लिए हुए है। गौरतलब है कि 2014 के चुनाव में जहाॅं वोट प्रतिषत 76.54 था वहीं 2019 में यह गिरावट के मात्र 65 फीसदी रह गया। जबकि 1967 से अब तक केवल दो बार ऐसा देखा गया है जब इससे कम वोट पड़ा था। गौरतलब है कि 1968 में 57.26 और 1977 में 64.46 मतदान हुआ था। अब तक 13 बार के विधानसभा चुनाव में 2014 सर्वाधिक मतदान प्रतिषत के लिए जाना जाता है। जिसकी तुलना में 2019 लोकतंत्र के लिए बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। मत प्रतिषत की गिरावट के मामले में उपचुनाव भी अछूते नहीं रहे। 
उत्तर प्रदेष और बिहार समेत देष के 18 राज्यों की 51 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में वोट प्रतिषत 57 फीसदी पर सिमट गया। पड़ताल बताती है कि उपचुनाव में मत प्रतिषत अक्सर औंधे मुह गिरता रहा है। देष के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेष जहाॅं भाजपा सत्ता पर काबिज है वहाॅं का हाल तो लोकतंत्र को और रूलाने वाला है। गौरतलब है उत्तर प्रदेष में 11 विधानसभा सीट के मामले में मतदान प्रतिषत 47 फीसदी पर आकर रूक गया। हैरत यह है कि राजधानी लखनऊ की कैंट विधानसभा सीट में सबसे कम मतदान मात्र 28.53 प्रतिषत हुआ है। यह योगी सरकार के लिए लोकतंत्र को संवारने व निखारने की दृश्टि से न केवल बड़ी चुनौती दे रहा है बल्कि उनके षासन पर भी काफी हद तक प्रष्नचिन्ह खड़ा कर रहा है।  दीपक तले अंधेरा यह कहावत है, यहाॅं बिल्कुल सटीक है। निर्वाचन आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार अरूणाचल प्रदेष में खोंसा पष्चिम सीट पर सबसे अधिक मतदान 90 प्रतिषत हुआ है। जो लोकतंत्र के मायने को पूरी तरह व्यापक, विस्तृत और मजबूत बनाता है। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित चित्रकोट में 74 फीसदी, तेलंगाना के हुजुरनगर में 84 प्रतिषत और मेघालय के षेल्ला में लगभग 85 प्रतिषत मतदान इस बात के गवाह है कि जहाॅं लोकतंत्र की छटपटाहट होगी वहाॅं इसके प्रति सषक्तता दिखेगी। असम में हाल अच्छा है पर बिहार आते-आते मतदान 50 प्रतिषत से नीचे आ जाता है। हिमाचल में स्थिति जहाॅ 70 प्रतिषत से ऊपर है वहीं गुजरात में यह 51 फीसदी में सिमट जाता है। इसके अलावा मध्यप्रदेष के झाबुआ में 62 फीसदी, पंजाब के उपचुनाव में 60 प्रतिषत पर यह मामला रूकता है। 
षोधात्मक विष्लेशण इस ओर इषारा कर रहा है कि भाजपा षासित प्रदेष वोट प्रतिषत की गिरावट को रोक नहीं पाये है। महाराश्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में तुलनात्मक गिरावट तो दर्ज होती ही है वहीं  गुजरात के उपचुनाव में मात्र 51 प्रतिषत मत निराषा से भरता है। महाराश्ट्र में मोदी की 9 रैली, अमित षाह की 10 सभाऐं और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की 65 और षिवसेना की 50 जनसभाओं से भले ही चुनावी फतेह मिली हो पर पहले की तुलना में वोटर आकर्शित नहीं हुआ है। हरियाणा के हाल तो वोट प्रतिषत के मामले में और बुरे है। आकड़ों से पता चलता है कि 18 राज्यो के जिन 51 विधानसभा सीटों और 2 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं वहाॅं 2014 की तुलना में वोट प्रतिषत कहीं कम तो कहीं ज्यादा अन्तर लिए हुए है।  बानगी के तौर पर देखे तो केन्द्रषासित लक्षद्वीप में 2014 में जहाॅं 86.61 फीसदी मत पड़े थे वहीं इस बार 66 फीसद मतदान हुआ। लोकतांत्रिक दृश्टि से देखे तो इसका इतिहास बडे़ उघेड-बुन से भरा रहा है । फिलहाल लोकतंत्र समय-समय पर करवट बदलता रहा है और षायद आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। इतना ही नहीं मतदाताओं का रूझान भी उठता-बैठता रहा है। जब यह कहा जाता है कि जनता जागरूक हो गई हैं और लोकतंत्र के प्रति उसकी धारणा सबल है तब लोकतंत्र की और से चिन्ता घट जाती है मगर जब मतदान में व्यापक गिरावट देखने को मिलता है तब इसी लोकतंत्र के चिन्ता के चलते माथे पर फिर से बल पड़ जाते है। आखिर तमाम कवायद के बावजूद लोकतंत्र का हाल ऐसा क्यों है। दो टूक यह भी है कि लोकतंत्र तभी सषक्त होगा जब सरकार और जनता दोनों अपना दायित्व निभायेगे। ध्यान रहे कि जनता की सरकार चाहे जितने मत से बने वह जनता पर षासन पूरे रौब से करती है। इसलिए मतदान के अधिकार प्रयोग करने से मतदाताओं को नहीं चूकना  चाहिए। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

Tuesday, November 12, 2019

ठोस कदम से फीकी होगी चमक

अमेरिका के साथ ट्रेड वाॅर की समस्या के चलते चीन ने अपने उत्पाद के लिए प्रमुख बाजार के रूप में भारत से विवाद कम करने की दिषा में एक पहल की। जिसमें चीन ने बढ़ते व्यापार घाटे को लेकर भारत की चिंताओं का समाधान करने का वादा किया। इसके साथ ही द्विपक्षीय वाणिज्यिक रिष्तों में संतुलन कायम करने के लिए औद्योगिक उत्पादन, पर्यटन और सीमा व्यापार जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का सुझाव दिया है। गौरतलब है कि चीन के साथ भारत का सालाना व्यापार 95 अरब डाॅलर से अधिक का है और रही बात घाटे की तो भारत का दुनिया में कुल व्यापार घाटा 105 अरब डाॅलर के मुकाबले आधे से अधिक घाटा केवल चीन से है। चीनी उत्पाद भारत में चैतरफा पैर पसार चुके हैं जबकि मेक इन इण्डिया के प्रभाव से चीन अभी मीलों दूर है। व्यापार संतुलन तभी कायम हो सकता है जब आयात और निर्यात में बेलगाम असंतुलन न हो। भारत में चीन के उत्पाद जिस तरह स्थान बना चुके हैं उसे हतोत्साहित करना मुष्किल तो है पर नामुमकिन नहीं है। पिछले 5 वर्शों में मेक इन इण्डिया का जलवा बढ़ा है और कुछ मामलों में मेड इन चाइना की चमक फीकी हुई है। भारत के व्यापारियों ने चीन से आयात कम किया है। लोग स्वदेषी पर जोर दे रहे हैं भारतीय मूर्तियों की तुलना में चीन से आयातित मूर्तियां 30 से 40 फीसदी महंगी पड़ती हैं ऐसे में देष में निर्मित मूर्तियां बेचना फायदे का सौदा है। दीपावली के इस अवसर पर सम्भव है कि चीन के सामान काफी हद तक भारतीय बाजार से गायब रहेंगे। ऐसा देष में वस्तुओं के सस्ते विनिर्माण के चलते सम्भव होता दिखाई दे रहा है। गौरतलब है कि चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारत के मुकाबले 5 गुना अधिक है। चीन का विष्व के आर्थिक विकास में योगदान भी भारत की तुलना में कहीं अधिक व्यापक है। चीन अमेरिका के साथ सालाना करीब साढ़े चार सौ बिलियन डाॅलर का व्यापार करता है और जो भारत से किये गये व्यापार की तुलना में करीब छः गुना अधिक है। भारत 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का संकल्प दोहरा रहा है। जबकि चीन मौजूदा समय में 12 ट्रिलियन डाॅलर से अधिक की अर्थव्यवस्था है। 
भारतीय स्मार्टफोन बाजार दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता बाजार है और यहां किफायती मिड सेगमेन्ट मोबाइल फोन बाजार में 10 ऐसी चीनी कम्पनियां हैं जिनका एक छत्र राज कहा जा सकता है। गौरतलब है कि इन कम्पनियों ने 2015 में फोन बनाना षुरू किया और 2017 समाप्त होते-होते इनकी हिस्सेदारी 49 प्रतिषत हो गयी और इसमें भी सबसे ज्यादा विकास कम्पनी ष्याओमी है। ष्याओमी के अलावा वीवो, हुआवई, वनप्लस, जीपो मोबाइल समेत कई इसमें देखी जा सकती हैं। मेक इन इण्डिया को बरसों से मुंह चिढ़ाने वाली तमाम चीनी कम्पनियां झालर, बल्ब और एलईडी के मामले में कहीं अधिक प्रभावषाली रही हैं। इस दिवाली बाजारों में सम्भव है कि मेक इन इण्डिया की धूम रहनी चाहिए। मूर्तियों की बिकवाली इस बात को पुख्ता करती है। कन्फडरेषन आॅफ आॅल इण्डिया ट्रेडर्स के संदर्भ से भी यह पता चलता है कि चीनी सामान के बहिश्कार का अभियान का असर मूर्तियों के बाजार पर अधिक दिख रहा है। आयात कम होने की वजह से व्यापार संतुलन भी प्राप्त किया जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 - 6 सालों में दीपावली के अवसर पर बिकने वाली चीनी मूर्तियों का 70-80 प्रतिषत घटाव हुआ है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में चीन छोड़ने पर विचार कर रही कम्पनियों को भारत लाने के लिए ब्लू प्रिंट तैयार करने की बात कही है। गौरतलब है कि 200 अमेरिकी कम्पनियां चीन को छोड सकती है जिसमें से कई भारत का रूख कर सकती हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वाॅर से उपजी परेषानियों में कम्पनियों के लिए चीन से बेहतर भारत में यूनिट लगाना सही प्रतीत हो रहा है। वैसे भी ईज़ डूइंग बिज़नेस के चलते भी भारत ने विदेषी कम्पनियों को काफी सुगमता दे दी है। अमेरिकी कम्पनियां यदि भारत में निवेष करती हैं तो इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। जितनी ज्यादा कम्पनियां होंगी उतनी नौकरियां होंगी। एक ओर जहां डाॅलर के मुकाबले रूपए में मजबूती आयेगी वहीं समान भी सस्ते हो जायेंगे। लिहाजा महंगाई कम होगी और व्यापार में हो रहे घाटे को भी पाटने में सहायता मिलेगी। हालांकि इस मामले में भारत कितना सफल होगा अभी कहना कठिन है पर जिस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्चस्ता देने के लिए सरकार ने कई नियमों में ढ़िलाई बरती है उससे दुनिया की कई कम्पनियां आकर्शित हो सकती है।
चीन में साम्यवादी षासन है और चीन प्रथम की नीति ही उसका अंतिम लक्ष्य है। जिनपिंग ताउम्र के लिए राश्ट्रपति बना दिये गये हैं और मोदी आगे के पांच साल के लिए प्रधानमंत्री बन चुके हैं। महाबलीपुरम् में अनौपचारिक वार्ता के दौरान घण्टों बातचीत हुई है जिसमें व्यापारिक रूख भी महत्वपूर्ण है। गौरतलब है कि 2008 में चीन भारत का सबसे बड़ा बिज़नेस पार्टनर बन गया था और व्यापार लगातार बढ़ता जा रहा है। हालिया स्थिति तो यह है कि भारत के कुल व्यापार का 70 फीसदी में चीन ही काबिज है। भारत को यह भी समझना होगा कि भारत में उद्योगों को कर्ज लेने पर 11 से 14 फीसद तक ब्याज देना पड़ता है जबकि चीन के उद्योगों को मात्र 6 फीसदी ब्याज पर कर्ज उपलब्ध हो जाता है। भारत में चीनी वस्तुओं की बढ़त को कमजोर करने के लिए सस्ते और बेहतर उत्पाद बनाने वाली कम्पनियां देष के भीतर ही हों और यह तभी सम्भव है जब कर्ज दर में व्याप्त असंतुलन को पाटा जाय। चीन से निरंतर बढ़ते आयात की कीमत भारतीय उद्योगों को चुकानी पड़ती है। चीन की सरकार की तरफ से मिल रहे व्यापक प्रोत्साहन घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को प्रभावित कर रहे हैं। इसके चलते भारतीय उत्पाद अपने ही बाजार में प्रतिस्पर्धा में पिछड़ते जा रहे हैं जबकि सरकार मैन्युफैक्चरिंग की जीडीपी में हिस्सेदारी 16 फीसदी से 25 फीसदी पर लगातार जोर दे रही है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए काफी कुछ किये जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि संसद की स्थायी समिति का बीते वर्श चीनी आयात और उसके भारतीय उद्योग पर पड़ने वाले दुश्प्रभाव का आंकलन किया गया था जिसमें यह निश्कर्श निकला कि चीन के उत्पादों के भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा होने की बड़ी वजह उनकी कम कीमत है। समिति की रिपोर्ट से यह भी पता चला कि चीन में लागत अगर कारोबार का एक फीसद है तो भारत में यही तीन फीसद है। ऐसे में बिजली, वित्तीय और लाॅजिस्टिक्स को मिलाकर भारत और चीन की लागत में करीब 9 फीसदी का अंतर है। पिछले कुछ महीनों से भारत की अर्थव्यवस्था को कहीं अधिक सुदृढ़ता देने के लिए कई आर्थिक प्रयोग किये जा रहे हैं। चीन से अपना बिज़नेस समेट रही या इस पर विचार कर रहीं कम्पनियों पर भारत की नजर है। चीन बड़ा बाजार है और यहां खपत का तरीका लोगों की क्रय षक्ति भारत से अलग हो सकती है। वित्तमंत्री का मानना है कि ऐसी व्यवस्था दें जिससे ग्लोबल कम्पनियां भारतीय बाजारों में निवेष करें। यहां मानव संसाधन भी हैं और बुनियादी सुविधा भी यदि मेक इन इण्डिया के द्वारा वस्तुओं को सस्ता और विदेषी कम्पनियों को भारत में समावेषित करने की योजना सफलता मिलती है तो चीनी उत्पाद की चमक भी फीकी होगी और व्यापारिक घाटा भी पटेगा।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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गरीबी और भूक पर भरक की ताज़ी सूरत

विश्व बैंक का यह कहना कि 1990 के बाद अब तक भारत अपनी गरीबी दर को आधे स्तर पर ले जाने में सफल रहा साथ ही बीते 15 सालों में 7 फीसदी से अधिक विकास दर हासिल किया है। इसी के कारण गरीबी दर कम करने में मदद मिली और मानव विकास को लेकर पथ चिकना हुआ है। गौरतलब है कि अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) से बैठक के पहले विष्व बैंक ने ग्लोबल डवलेपमेंट के मामले में भारत की भूमिका को बेहतरी के साथ रेखांकित किया है। इतना ही नहीं विष्व बैंक ने यह भी स्पश्ट किया कि भारत ने घोर गरीबी को कम करने के साथ जलवायु परिवर्तन के मामले में भी सधी हुई भूमिका निभाई है। विष्व बैंक ने यह भी सुझाव दिया कि भारत को बुनियादी विकास को बढ़ाने के लिए निवेष और संसाधनों की दक्षता में सुधार करना है। सतत् विकास को समावेषी बनाने की जरूरत पर भी उसने बल दिया। वैसे भारत में समावेषी विकास का संदर्भ उदारीकरण के बाद और विष्व बैंक द्वारा उद्घाटित की गयी 1992 में गुड गवर्नेंस की अवधारणा के साथ ही षुरू हुई। जिसका लक्षण 8वीं पंचवर्शीय योजना जो समावेषी विचारधारा से ओत-प्रोत थी में देखी जा सकती है। महिलाओं की भूमिका पर भी विष्व बैंक काफी सकारात्मक सुझाव देते दिखाई देता है। असल में ग्लोबल  डवलेपमेंट के लिए बुनियादी विकास, मानवीय विकास और विकास के अन्य मोर्चों पर देष को सबल प्रमाण देना ही होता है, जिसे ध्यान में रखकर वल्र्ड बैंक भारत की गरीबी घटाने के मामले में एक ओर जहां सराहना कर रहा है। वहीं इसे आर्थिक विकास का कारक भी बता रहा है। वैसे इन दिनों देष की आर्थिक विकास दर कहीं अधिक असंतोशजनक स्थिति लिए हुए है मगर यह संभावना है कि 2020 में विकास दर 7 फीसदी रहेगा जो सुखद है। बावजूद इसके ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट में भुखमरी और कुपोशण के मामले में भारत का अपने पड़ोसी देष बांग्लादेष, पाकिस्तान व नेपाल से भी पीछे रहना बेहद षर्मनाक और निराष करने वाला है। 
बड़े मुद्दे क्या होते हैं और उनके आगे सत्तासीन भी बहुत कुछ करने में षायद सफल नहीं होता। अगर इसे ठीक से समझना है तो दुनिया में बढ़ रही भुखमरी और बीमार होते लोगों की गति से जांचा परखा जा सकता है। अगर देष में गरीबी रेखा से लोग ऊपर उठ रहे हैं तो भुखमरी के कारण देष फिसड्डी क्यों हो रहा है। अर्थषास्त्र का यह दोहरा अर्थ समझ पाना बहुत मुष्किल है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 में भारत 117 देषों में 102वें स्थान पर है जबकि बेला रूस, यूक्रेन, तुर्की, क्यूबा और कुवैत सहित 17 देषों ने 5 से कम जीएचआई स्कोर के साथ षीर्श रैंक हासिल की है। गौरतलब है कि साल 2018 में भारत 119 देषों में 103वें स्थान पर था और साल 2000 में 113 देषों के मुकाबले यही स्थान 83वां था। असल में भारत का जीएचआई स्कोर कम हुआ है। जहां 2005 और 2010 में 38.9 और 32 था वहीं 2010 से 2019 के बीच यह 30.3 हो गया जिसके चलते यह गिरावट दर्ज की गयी है। ग्लोबल हंगर इंडैक्स की पूरी पड़ताल यह बताती है कि भुखमरी दूर करने के मामले में मौजूदा मोदी सरकार मनमोहन सरकार से मीलों पीछे चल रही है। 2014 में भारत की रैंकिंग 55 पर हुआ करती थी जबकि साल 2015 में 80, 2016 में 97 और 2017 में यह खिसक कर 100वें स्थान पर चला गया तथा 2018 में यही रैंकिंग 103वें स्थान पर रही। जीएचआई स्कोर की कमी के चलते यह फिसल कर 102वें पर है जो इसकी एषियाई देषों में सबसे खराब और पाकिस्तान से पहली बार पीछे होने की बड़ी वजह है। मानव विकास के मोर्चे पर भारत की विफलता का यह मामला तब सबके सामने है जब दुनिया भर में भूख और गरीबी मिटाने का मौलिक तरीका क्या हो उसे बताने वाले भारतीय अर्थषास्त्री अभिजीत बनर्जी को अर्थषास्त्र का नोबल दिया गया है। 
ग्लोबल हंगर इंडैक्स में भारत का स्कोर 30.3 पर होना यह साफ करता है कि यहां भूख का गंभीर संकट है। 73वें पायदान पर खड़ा नेपाल भारत और बांग्लादेष से बेहतर स्थिति लिए हुए है। नेपाल की खासियत यह भी है कि साल 2000 के बाद वह अपने बच्चों की भूख मिटाने के मामले में तरक्की किया है। इतना ही  नहीं अफ्रीकी महाद्वीप के देष इथियोपिया तथा रवाण्डा जैसे देष भी इस मामलसे में बेहतर कर रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी साफ है कि भारत में 6 से 23 महीने के सिर्फ 9.6 फीसदी बच्चों को ही न्यूनतम स्वीकृत भोजन हो पाता है। इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि रिपोर्ट का यह हिस्सा भय से भर देता है। केन्द्रीय स्वास्थ मंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट में यह आंकड़ा और भी कमजोर मात्र 6.4 बताया गया है। दुविधा यह बढ़ जाती है कि दुनिया में 7वीं अर्थव्यवस्था वाला भारत भुखमरी के मामले में जर्जर आंकड़े रखे हुए है। यूनिसेफ भी कह रहा है कि दुनिया में हर तीसरा बच्चा कुपोशित है। दुनिया में 5 साल से कम उम्र के करीब 70 करोड़ बच्चों में एक तिहाई या तो कुपोशित हैं या मोटापे से जूझ रहे हैं। आर्थिक महाषक्ति और 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देष भारत के लिए भुखमरी का यह आकड़ा वाकई में पचने वाला नहीं है। हालत तो यह भी है कि 90 फीसदी से अलग बच्चों को न्यूनतम आहार तक नहीं मिलता। आंकड़े से यह भी पता चला कद के अनुरूप वजन के मामले में भारतीय बच्चे सबसे फिसड्डी, सबसे पीछे और यमन जैसे युद्ध झेलकर जर्जर हुए देष के बच्चों से भी भारत पीछे हैं। गौरतलब है आयरिष एजेंसी कन्सर्न वल्ड वाइब और जर्मन संगठन वेल्ट हंगर हिलफे द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गयी रिपोर्ट में भारत में भुखमरी के स्तर को गम्भीर करार दिया।
हालांकि भारत में मृत्यु दर, कम वजन और अल्प पोशण जैसे संकेतकों में सुधार दिखता है। स्वच्छ भारत मिषन का हवाला देते हुए रिपोर्ट में यह भी दिखता है कि षौचालयों के निर्माण के बाद भी खुले में षौच जाना अभी भी जारी है जो लोगों के स्वास्थ को खतरे में डालती है। सवाल है कि जब विष्व बैंक भारत को गरीबी के मामले में तुलनात्मक उठा हुआ मानता है तो फिर भुखमरी क्यों है? गौरतलब है 1989 की लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट में गरीबी 36.1 फीसदी बताई गयी थी तब विष्व बैंक भारत में यही आंकड़ा 48 फीसदी मानता था और इसमें यह भी देखा गया कि 2400 कैलोरी ऊर्जा ग्रामीण और 2100 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने वाले षहरी लोग गरीबी रेखा के ऊपर है। मौजूदा समय में आर्थिक दृश्टि से देखें तो 1.90 डाॅलर प्रतिदिन कमाने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। अब समझने वाली बात यह है कि रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसे जरूरी आवष्यकताएं क्या इतने में पूरी हो सकती हैं जाहिर है गरीबी से ऊपर उठने का जो स्तर तय किया गया है वह निहायत न्यून प्रतीत होता है। जीवन को बाजार के भाव पर आंका जाय तो यह दर बहुत कम है। षायद यही कारण है कि भारत गरीबी रेखा से ऊपर के मामले में बेहतर आंकड़े की ओर है जबकि हंगर इंडेक्स के आंकड़े उसे फिसड्डी साबित कर रहे हैं। जब तक वैकल्पिक रास्ता नहीं अपनाया जायेगा मसलन षिक्षा, स्वास्थ और रोज़गार पर पूरा बल नहीं दिखाया जायेगा तब तक भुखमरी के आंकड़े समेत गरीबी को दूर करने की संतोशजनक स्थिति प्राप्त करना कठिन बना रहेगा। खराब भारतीय इकोनाॅमी को सुधारने के लिए सरकार को आर्थिक प्रयोगषाला कुछ समय के लिए बंद कर देनी चाहिए और बेरोज़गारी की कतार को कम करना चाहिए। स्वच्छता अभियान सही है पर चिकित्सा और रोटी की भी चिंता करनी चाहिए। लैंगिक असमानता की भी दृश्टि से अधूरे काम पूरे हों और अवसर की प्रतीक्षा में भी जो हैं उनके साथ सामाजिक न्याय हो ताकि जब गरीबी घटे तो भुखमरी बढ़ने की बजाय वह भी घटाव लिए हो।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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भारत का विकल्प बनने की फ़िराक में चीन

इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और नेपाल के बीच सम्बंध हमेषा अच्छे रहे हैं और सम्भवतः आगे भी अच्छे रहेंगे। धार्मिक और सांस्कृतिक दृश्टि से ही नहीं बल्कि रीति-रिवाज़, परम्परा और व्यापार के आधार पर भी इस कथन को पुख्ता माना जा सकता है। इतना ही नहीं दोनों देषों की सीमाएं खुली और बिना वीजा, पासपोर्ट के आवाजाही सदैव रही है। जबकि चीन इस स्वतंत्रता को हमेषा अपनी रूकावट मानता रहा और दोनों देषों के बीच खुली सीमाओं को बंद करने और पासपोर्ट लागू करने के लिए कूटनीतिक पासे फेंकता रहा है। इस हेतु नेपाल को मनाने के लिए उसने बीते कुछ वर्शों में वहां बेषुमार निवेष भी किया है। गौरतलब है कि चीन ने 2017 में नेपाल के साथ ‘वन बेल्ट, वन रोड‘ के लिए द्विपक्षीय समझौता किया। हालांकि अभी तक इस परियोजना के तहत कोई कार्य षुरू नहीं किया गया है और अब एक बार फिर अपनी ताजी यात्रा में चीन नेपाल को 350 करोड़ जो 56 अरब नेपाली रूपए के बराबर है, की सहायता अगले दो साल में देने की बात कही है साथ ही काठमाण्डू को तातापानी ट्रांजिट प्वाइंट से जोड़ने वाले अर्निको राजमार्ग को भी दुरूस्त करने का जिनपिंग ने वादा किया है। गौरतलब है कि यह राजमार्ग अप्रैल 2015 के भूकम्प के बाद से ही बंद है। इसके अलावा चीन ट्रांस हिमालय रेलवे की फिजिबिलिटी को लेकर भी अध्ययन षीघ्र षुरू करने की बात कही है। रात्रिभोज के दौरान नेपाल की राश्ट्रपति विद्या देवी को चीनी राश्ट्रपति ने यह भी जताया कि हमारी दोस्ती दुनिया में आदर्ष है और दोनों देषों के बीच कोई भी विवाद नहीं है। दो टूक यह है कि इस आड़ में जिनपिंग नेपाल को यह भी बता गये कि नेपाल की संवृद्धि और विकास में वह भारत से बेहतर विकल्प साबित होगा।
गौरतलब है कि चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग 11-12 अक्टूबर को भारत में थे और 12-13 अक्टूबर को नेपाल की यात्रा पर थे। लम्बे अंतराल 23 साल बाद कोई चीनी राश्ट्रपति नेपाल गया। इससे पहले 1996 में जियांग जेमिन ने यहां की यात्रा की थी। जिनपिंग दक्षिण एषिया के लगभग सभी देषों की यात्रा कर चुके हैं। हालांकि इसमें भूटान षामिल नहीं है और अब नेपाल की भी यात्रा करके उन्होंने दक्षिण एषिया की परिक्रमा पूरी कर ली है। नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. षर्मा औली को चीन परस्त और कुछ हद तक भारत विरोधी के रूप में भी जाना जाता है। जब पहली बार साल 2015 में सुषील कोइराला के बाद प्रधानमंत्री का पद औली ने संभाला था तब मधेषी आंदोलन के चलते नेपाल और भारत के बीच सब कुछ ठीक नहीं था। नेपाल में उत्तर प्रदेष और बिहार मूल के तराई में रहने वाले नेपाली नागरिकों को मधेषी कहा जाता है। जब 20 सितम्बर, 2015 को नेपाल में नया संविधान लागू हुआ तब इनके साथ दोहरा रवैया के चलते ये उग्र हुए। खास यह भी है कि औली तब भारत को धमकाते हुए कहा था कि यदि वह उसके अंदरूनी मामलों में वह दखल दिया तो वे चीन की ओर झुक जायेंगे।  इसी का परिणाम है कि औली ने अपनी पहली विदेष यात्रा बीजिंग से षुरू की जबकि हर नेपाली प्रधानमंत्री इसकी षुरूआत भारत से करता रहा है। हालांकि वही औली जब एक बार फिर 2018 में प्रधानमंत्री बने तब अपनी पहली विदेष यात्रा की षुरूआत भारत से ही की थी तब प्रधानमंत्री मोदी ने अप्रत्यक्ष तौर पर इन्हें आड़े हाथ लिया था। बावजूद इसके भारत सड़क, बिजली समेत कई बुनियादी विकास में नेपाल पर करोड़ों की नियामत लुटाता रहा है। सच तो यह है कि आर्थिक सहायता के मामले में भारत ने नेपाल को हमेषा तवज्जो दिया पर वहां की सरकार के अनुपात में सम्बंध कमोबेष उतार-चढ़ाव वाले बने रहे परन्तु भारत और नेपाल के आपसी सरोकार में चीन अभी कुछ खास असर नहीं डाल पा रहा है। 
यहां सवाल भारत-नेपाल के सम्बंधों का नहीं बल्कि नेपाल में चीन की दखल का है। चीन नेपाल के करीब जाने की हमेषा कोषिष करता रहा। यही नहीं अमेरिका भी लगातार यही कर रहा है। एक ओर चीन अपनी बेल्ट एण्ड रोड परियोजना चला रहा है तो अमेरिका इण्डो पेसिफिक नीति पर काम कर रहा है। बीते जून में जो रिपोर्ट आयी उससे पता चला कि अमेरिका नेपाल के साथ अपना रक्षा सहयोग बढ़ाना चाहता है। तब नेपाल ने स्पश्ट किया था कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा जिसका निषाना चीन हो। दरअसल चीन ने ही अमेरिका से दूर रहने की नेपाल को नसीहत दी थी। प्रष्न यह है कि जिनपिंग की नेपाल यात्रा से भारत को किस प्रकार की चुनौती हो सकती है। राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक छाप नेपाल पर चीन छोड़ रहा है और उसका प्रभाव दक्षिण एषिया में लगातार बढ़ रहा है। यह हिन्द महासागर के श्रीलंका और मालदीव तक देखा जा सकता है। पाकिस्तान पूरी तरह और कमोबेष बांग्लादेष भी इसकी चपेट में है। भारत में लगी सीमाओं तक अपनी पहुंच बनाने के चलते चीन नेपाल में रेल और सड़क के विस्तार को अंजाम देने की ओर है। चीन के केरूंग से काठमाण्डू तक रेलवे ट्रैक और लुम्बिनी तक इस योजना के विस्तार का मनसूबा पाले हुए है। यह बदले हुए समीकरण भारत को बड़े स्तर पर प्रभावित कर सकते हैं।
भारत अब तक नेपाल का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है साथ ही नेपाल के लिए दुनिया का प्रवेष द्वार भी है। गौरतलब है कि नेपाल का कुल व्यापार करीब 7 बिलियन है जिसमें भारत का हिस्सा 6.5 बिलियन है। चीन का नेपाल पर बढ़ता प्रभाव इस आंकड़े को चोट पहुंचा सकता है। गौरतलब है कि चीन और भारत के बीच नेपाल एक बफर स्टेट है। जिनपिंग की यात्रा से चीन-नेपाल का आपसी राजनीतिक विष्वास और मजबूत हो सकता है। गौरतलब है कि जिनपिंग के भारत आने से पहले पाकिस्तान का सेना प्रमुख बाजवा और प्रधानमंत्री इमरान खान जिनपिंग से मिलने गये थे और ठीक दो दिन बाद जिनपिंग महाबलिपुरम में एक स्ट्रैटेजिक मीट के अंतर्गत मोदी से मिलने आये तब पाकिस्तान की नीति पूरी तरह बौनी प्रतीत होने लगी। मगर नेपाल की यात्रा के चलते भारत की कूटनीति को भी जिनपिंग ने काफी सोचनीय बना दिया। फिलहाल दोनों देषों मसलन चीन व नेपाल ने बीते 13 अक्टूबर को 18 समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। हालांकि दोनों के बीच हुआ कुछ भी हो पर नेपाल जानता है कि उसका पहला विकल्प भारत ही है। बावजूद इसके बदले कूटनीतिक समीकरण के बीच चीन से भारत को नेपाल के मामले में होने वाले नुकसान को लेकर चैकन्ना रहना चाहिए।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

आपसी भरोसा बढ़ने में सहायक महाबलीपुरम मीट

    गौरतलब हैे प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग के बीच दो दर्जन से अधिक मुलाकात साढे पांच वर्शों में हो चुकी हैं। बावजूद इसके दोनों नेताओं की केमिस्ट्री सीमा विवाद और चीन का पाकिस्तानी झुकाव सहित कई अन्य मुद्दों के चलते खास रूप नहीं ले पायी। हालाकि मोदी और जिनपिंग आपस में कई द्विपक्षीय बकाया मामलों को लेकर सघन बातचीत करते रहें हैं और उसी कड़ी में महाबलीपुरम की यह अनौपचारिक मुलाकात एक नई ताकत को प्रदर्षित करती है। जून 2017 के डोकलाम विवाद को छोड़ दिया जाये तो दोनों के देषों के बीच इतने समय में संबंध को लेकर कोई खास दिक्कत नहीं रही। ऐसे में यह समझना सही होगा कि तमाम मुलाकातों ने आपसी उलझनों को भले ही पूरी तरह समाधान न दिया हो पर उन्हें और बड़ा होने से तो रोका ही है। वैसे कूटनीतिक फलक पर भारत इस समय कहीं अधिक बढे़ हुए कद के साथ दुनिया में देखा जा सकता है। इसी के चलते उसका वैष्विक फलक भी आसमान छू रहा हैं और षायद यही कारण है कि कई कटुता के बावजूद चीन द्विपक्षीय संबंधों में उतनी कड़वाहट नही डाल पाता जितना वह कूटनीतिक तौर पर सोचता है। दक्षिण भारत के पारम्परिक वेषभूशा में स्वंय को समेटे प्रधानमंत्री मोदी और सामान्य वेषभूशा में दिख रहे षी जिनपिंग के बीच मामल्लमपुरम (महाबलीपुरम) में करीब 6 घंटे की आपसी बातचीत ये इषारा करती हैं कि विरासत की जमीन पर नये रिष्तों की कदमताल भविश्य की बेहतरी के लिये एक आगाज है। गौरतलब है कि चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग बीत 11 और 12 अक्टूबर को तमिलनाडू के महाबलीपुरम में उपस्थित थे। मोदी ने चीन के राश्ट्रपति को उन ऐतिहासिक धरोहरों से रूबरू कराया जो निहायत अनमोल है। जिस तरह षी जिनपिंग का यहां स्वागत हुआ उससे वे भी गदगद थे। गौरतलब है पल्लवों की षिल्प नगरी रही मामल्लपुरम और यूनस्कों विरासत सूची में षामिल स्मारकों का दोनों नेताओं ने दीदार किया। 
गौरतलब है कि 7वीं षताब्दी में चीनी यात्रा हवेनसांग कांचीपुरम का भ्रमण किया था। इस आधार पर चीन और महाबलीपुरम का 1700 सौ वर्श पुराना नाता है लिहाजा विरासत की जमीन पर दुनिया के दो सबसे बडे ताकतवर नेताओं ने द्विपक्षीय रिष्तों को आगे बढाने के कोषिष की। चीनी राश्ट्रपति का भारत में ऐसे समय में आगमन हुआ जब दोनों देषों के बीच कोई जटिल मसला नहीं है। अप्रैल 2018 में चीन के वुहान की यात्रा प्रधानमंत्री मोदी इसी तर्ज पर पहले कर चुके है जिस तरह चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग ने महाबलीपुरम की यात्रा की है। वुहान औपचारिक षिखर सम्मलेन के बाद द्विपक्षीय संबंधों में गति आई थी। सम्भव है कि महाबलीपुरम की यात्रा के बाद सहयोग न केवल आगे बढ़ेगें बल्कि मतभेदों को भी बेहतर तरीके से मैनेज किया जायेगा। खास यह भी है कि कष्मीर मामले से चीन दूरी बनाये रखा और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान को दिये उस नसीहत को ही अमल किया कि यह मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच हल किया जाना चाहिए। चीनी राश्ट्रपति का महाबलीपुरम आना कूटनीतिक दृश्टि से भारत के हित में दिखाई देता है। गौरतलब है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री दोनों ठीक इस यात्रा से पहले चीन जाकर जिंनपिंग से मुलाकत कर अपने द्विपक्षीय रिष्तों को मुखर करने का प्रयास कर चुके है। कूटनीतिक तौर पर देखें तो मोदी और जिंनपिंग की महाबलीपुरम में   हुई मुलाकात पाक-चीन आपसी रिष्तों को बहुत बड़ा होने से पहले बौना करने का भी काम किया है। हालाकि षी जिनपिंग का चेन्नई से काठमांडू की उड़ान और नेपाल के साथ द्विपक्षीय संबंध और सन्दर्भ पर भारत की दृश्टि रहेगी। भारत की यात्रा सामप्त कर 12 अक्टूबर को जिनपिंग सीधे नेपाल चले गये। गौरतलब है कि चीन की दृश्टि नेपाल और भूटान जैसे देषों पर हमेषा रही है। अब तक के पूरे कार्यकाल में जिनपिंग की यह पहली नेपाल यात्रा है। भारत और चीन के बीच नेपाल एक बफर स्टेट का काम करता रहा है और चीन की नीयत दक्षिण एषियाई देषों पर हमेषा मतलबपरस्ती वाली रही है। नेपाल के मामले में तो वह हर सम्भव प्रयास करता है कि उसका झुकाव भारत के बजाय उसकी तरफ रहे। ऐसे में आर्थिक प्रलोभन से लेकर अन्य सहायता के लिए वह हमेषा तैयार रहता है।
वैसे दुनिया में जिस तरह का बदलाव चल रहा है उसे देखते हुए पडोसी देषों को आपसी भरोसा बढ़ा लेना चाहिए। इससे एक-दूसरे के प्रति समझ-बूझ के साथ बेहतर परिणाम की उम्मीद बढ़ जाती है। चूंकि महाबलीपुरम में मोदी और जिनपिंग के बीच यह एक अनौपचारिक वार्ता थी ऐसे में पूरी तरह बातचीत का खुलासा न हो, पर दोनों देषों के हित में यह मुलाकात काम जरूर करेगी। विदेष सचिव के हवाले से यह बात सामने आयी है कि प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रपति जिनपिंग इस बात से सहमत है कि मौजूदा दुनिया में आतंकवाद और कट्टरपंथ की चुनौतियों से निपटना जरूरी है। जैसा कि कष्मीर मुद्दे को लेकर दोनों नेताओं के बीच कोई बातचीत न होने के भी खास मायने है। इसके अलावा दोनों नेताओं का यह कहना कि भारत और चीन न सिर्फ आबादी के लिहाज से बडे़ बल्कि विविधता के हिसाब से भी दोनों बडे़ ही है, इन बातों में भी बराबरी का नाप-तौल दिखाई देता है। मुलाकात कि इसी कड़ी में जिनपिंग ने मोदी को चीन आने का न्यौता दिया है सम्भव है कि अगले साल मोदी चीन की यात्रा करेंगे। फिलहाल जिनपिंग द्वारा भारत की यह दो दिवसीय यात्रा भले ही अनौपचारिक रही हो पर आतंक और व्यापार की दृश्टि से काफी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है और ऐसी स्थिति में तब, जब अमेरिका और चीन के बीच टेªडवार सुलझा न हो और कष्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पाकिस्तान दुनिया समेत चीन से समर्थन की चाह रखता हो।
 11-12 अक्टूबर को चीन के राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री मोदी की महाबलीपुरम में हुई मुलाकात एक स्टैªटजिक कम्युनिकेषन का हिस्सा है जिसमें दोनों ने उद्देष्य लक्ष्य और भविश्य की चर्चा की। कैसे एक देष दूसरे को सहयोग कर सकता है सम्भव है यह बात भी हुई होगी पर इसे अन्य देषों की द्विपक्षीय रिष्तों की भांति नहीं देखा जा सकता। भारत-चीन का रिष्ता थोडा पेचीदा है आबादी और जीडीपी के लिहाज से दोनों एषिया के सबसे बड़े देष है। ऐसे में पाकिस्तान यहां कोई मायने नहीं रखता पर नेपाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि जिस पीओके को भारत अपना अटूट हिस्सा मानता है वहीं से चीन इकोनाॅमिक काॅरेडोर बना रहा है जिसे लेकर भारत अपनी आपत्ति जता चुका है। ऐसा देखा गया है कि मुलाकातों के सिलसिलों के बावजूद चीन मौकापरस्ती को हाथ से नहीं जाने देता। ऐसे में भारत को भी कोई संकोच नहीं करना चाहिए। चीन, भारत के खिलाफ पाकिस्तान को न केवल मोहरा बनाता रहा है बल्कि भूटान और नेपाल समेत हिन्द महासगर में स्थित मालदीव और श्रीलंका पर भी दृश्टि गढ़ाये रखता है। भारत और चीन के बीच सौ अरब डाॅलर के व्यापार को लेकर एमओयू हुआ है। मौजूदा समय में यह आंकड़ा 95 अरब डाॅलर को पार कर चुका है। दुनिया के अलग-अलग देषो के साथ भारत का कुल व्यापार 105 अरब डाॅलर का है जिसमें से केवल चीन के साथ यह घाटा 53 अरब डाॅलर का है। जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब यह घाटा 36 अरब डाॅलर के आस-पास था। जाहिर है चीन से आयात बढ़ता ही जा रहा है। आगे दीपावली है बाजार चीनी माल से भर जायेगें। चीन में नौकरियाॅं पैदा हो रही है। चीन का ही दावा है कि भारत में एक हजार कम्पनियाॅ खुल गई है। तमाम विवादों के बावजूद चीन भारत के साथ इसलिए संबंध खराब नहीं करता क्योंकि उसके उत्पादों का बाजार यहीं सजता है। दो टूक यह भी है कि भारत में चीन का व्यापार कितना भी बडा क्यों न हो वह अरूणाचल से कष्मीर तक नेपाल से हिन्द महासागर तक कुटिल दृश्टि से बाज नहीं आता है। 
  


सुशील कुमार सिंह
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क्या कृषि नीति बनाने वाले पूरा सच जानते हैं?

यह आंकड़ा माथे पर बल ला सकता है कि अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना से अधिक है। जिन किसानों के चलते करोड़ों का पेट भरता है वही खाली पेट रहें यह सभ्य समाज मे बिल्कुल नहीं पचता। भारत में किसान की प्रति वर्श आय महज़ 81 हजार से थोड़े ज्यादा है जबकि अमेरिका का एक किसान एक माह में ही करीब 5 लाख रूपए कमाता है। आंकड़ें यह भी स्पश्ट करते हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या का रास्ता क्यों चुनता है। किसानों की समस्या इतनी पुरानी है कि कई नीति निर्धारक इस चक्रव्यूह में उलझते तो हैं पर उनके लिए षायद लाइफचेंजर नीति नहीं बना पा रहे हैं। हां यह सही है कि सत्ता के लिए गेमचेंजर नीति बनाने में वे बाकायदा सफल हैं। अगस्त 2018 में राश्ट्रीय कृशि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा नफीस षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया गया, जिसमें एक किसान परिवार की वर्श 2017 में कुल मासिक आय 8,931 रूपए बतायी गयी। बहुत प्रयास के बावजूद नाबार्ड की कोई ताजा रिपोर्ट नहीं मिल पायी परन्तु जनवरी से जून 2017 के बीच किसानों पर जुटाये गये इस आंकड़े के आधार पर इनकी हालत समझने में यह काफी मददगार रही है। यही रिपोर्ट यह दर्षाता है कि भारत में किसान परिवार में औसत सदस्य संख्या 4.9 है। इस आधार पर प्रति सदस्य आय उन दिनों 61 रूपए प्रतिदिन थी। दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में षुमार भारत का असली चेहरा देखना हो तो किसानों की सूरत झांकनी चाहिए। जब राज्यों की स्थिति पर नजर डाली जाती है तो किसानों की आय में गम्भीर असमानता दिखाई देती है। सबसे कम मासिक आय में उत्तर प्रदेष, झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेष, बिहार, उड़ीसा समेत पष्चिम बंगाल और त्रिपुरा आदि षामिल हैं। जहां किसानों की मासिक आय 8 हजार से कम और 65 सौ से ऊपर है जबकि यही आय क्रमषः पंजाब और हरियाणा में 23 हजार और 18 हजार से अधिक है।  असमानता देखकर यह प्रष्न अनायास मन में आता है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का जो परिप्रेक्ष्य लेकर केन्द्र सरकार चल रही है वह कहां, कितना काम करेगा। पंजाब और उत्तर प्रदेष के किसानों की आय में अंतर किया जाये तो यह साढ़े तीन गुने का है। सवाल यह है कि क्या दोगुनी आय के साथ अंतर वाली खाई को भी पाटा जा सकेगा। खास यह भी है कि आर्थिक अंतर व्यापक होने के बावजूद पंजाब और उत्तर प्रदेष किसानों की आत्महत्या से मुक्त नहीं है। इससे प्रष्न यह भी उभरता है कि किसानों को आय तो चाहिए ही साथ ही वह सूत्र, समीकरण और सिद्धान्त भी चाहिए जो उनके लिए लाइफचेंजर सिद्ध हो। जिसमें कर्ज के बोझ से मुक्ति सबसे पहले जरूरी है।
पिछले 5-6 वर्शों में देष की राजनीति में एक नया परिवर्तन आया है। कृशि कर्जमाफी योजना को जिस तरह लागू किया गया है उसका असर किसानों पर कितना पड़ा यह पड़ताल का विशय है पर राज्यों की अर्थव्यवस्था पर यह साफ दिखाई देता है। विगत् 5 वर्शों में ़10 राज्यों ने 2,31,260 करोड़ रूपए के कृशि कर्ज को माफ किया। मगर अभी तक राज्यों में अपने बजट से केवल 1,51,161 करोड़ रूपए का प्रावधान किया। कई राज्यों की माली हालत अच्छी नहीं है। ऐसे में कर्ज माफी की राषि के साथ समायोजन उन पर भारी पड़ रहा है। मध्य प्रदेष, कर्नाटक, उत्तर प्रदेष और राजस्थान जैसे प्रदेष इसी दौर से गुजर रहे हैं। मौजूदा दौरा आर्थिक सुस्ती में भी ऐसे में समस्याएं और बड़ी हो गयी। कई यह मानते हैं कि किसानों की कर्जमाफी अन्तिम समाधान नहीं हे। आरबीआई भी कृशि कर्ज माफी को लेकर कई बार एतराज कर चुका है। आरबीआई की एक रिपोर्ट में यह स्पश्ट है कि वर्श 2014-15 में आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना में किसान कर्जमाफी का एलान किया जबकि 2018-19 में कर्नाटक, मध्य प्रदेष, राजस्थान व छत्तीसगढ़ ने इसे लागू किया। इतना ही नहीं इसी दरमियान यूपी, पंजाब, महाराश्ट्र व तमिलनाडु ने भी इस व्यवस्था को लागू किया। गौरतलब है कि यह राज्य अपने कुल सालाना बजट का 3.5 फीसद हिस्सा कृशि कर्ज माफी योजना में खर्च कर रहे हैं। सवाल यह है कि बीते 5 वर्शों में जिन राज्यों की ओर से कर्ज माफी का कदम उठाया गया क्या उससे किसानों की हालत सुधरी। यह योजना सही है या गलत इसे स्पश्ट तौर पर कहना कठिन है पर इसका लाभ हुआ ही नहीं ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। 
चुनावी घमासान के बीच किसानों की कर्ज माफी को लेकर राजनीतिक गोटियां चली जाती रही हैं और वायदा पूरा करने की फिराक में सरकारें समायोजन और आर्थिक संघर्श से जूझती भी रहीं जिसका नतीजा सरकारों के खिलाफ भी जा सकता है। 10 राज्यों में चालू वित्त वर्श के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार को लेकर जितनी राषि का प्रावधान किया है उससे 4 गुना ज्यादा राषि कृशि कर्ज माफी के लिए खर्च किया जिसका उन पर साइड इफेक्ट पड़ना स्वाभाविक है। आरबीआई के आंकड़े कहते हैं कि 1990 से 2000 के बीच राज्यों के स्तर पर केवल 10 हजार करोड़ रूपए के कर्ज माफ किये गये थे। साल 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 56 हजार करोड़ रूपए कर्ज माफी की थी और अब 2014-15 से लेकर अब तक 10 राज्यों में कर्ज माफी को कई गुना बढ़ा दिया। सवाल यह है कि किसानों को राहत कैसे दिया जाय। भारत में किसान समाज और खेती का उपकरण कभी ढांचागत रूप में व्यापक नीति के दायरे में आया ही नहीं। किसान क्या चाहते हैं इस पर भी सरकारों ने ठीक से गौर नहीं किया। इतना ही नहीं उनकी सुरक्षा को लेकर भी सरकारों ने जो कदम उठाये वे भी ठोस नहीं सिद्ध हुए। सरकारों की गलती यह रही कि कम आय, बढ़ती लागत और नीतिगत दुव्र्यवहार के चलते जो कृशि संस्कृति को संकट आया उस समस्या से छुटकारा दिलाने के बजाय ध्यान हटाने के लिए राजनीतिक हथकंडे अपनाये गये। देष के एक किसान के पास औसतन 1.1 हैक्टेयर जमीन है जिसमें 60 प्रतिषत की सिंचाई नहीं हो पायी और हर कर्जदार किसान का औसत एक लाख रूपए से ज्यादे के कर्ज के दबाव में है। 
सवाल यह है कि किसानों में बदलाव लाने के लिए नया कुछ क्या हो रहा है। केन्द्र सरकार सवा दो लाख करोड़ की भारी-भरकम राषि किसानों की मदद के लिए खर्च कर रही है। जिसमें फर्टिलाइजर सब्सिडी, बिजली, फसल बीमा, बीज, किसान कर्ज, सिंचाई जैसी मदों पर खर्च की जाती है। अब तो किसानों को प्रति वर्श 6 हजार रूपए की अतिरिक्त सहायता भी दी जा रही है जिससे 2 हजार प्रति 4 माह पर उनके खाते में सीधे भेजा जा रहा है। बावजूद इसके परिवर्तन की सम्भावना क्रान्तिकारी होगी ऐसा सोचना सही नहीं है। सवाल यह है कि नीति बनाने वाले किस सूत्र और सिद्धान्त को अपनाये कि किसान की हालत दीन-हीन की नहीं बल्कि आर्थिक समृद्धि की हो। इन सूत्रों का भी सहारा लेकर सरकार बड़ा परिवर्तन ला सकती है मसलन सरकार को चाहिए कि किसानों और उनके आश्रितों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराये। किसानों की दषा सुधारने के लिए देष में जल विकास की योजना को सबल किया जाय क्योंकि आधी ही कृशि गैर सिंचित है। किसानों को पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अनुपात में प्रोत्साहित किया जाय। कृशि की तकनीक सस्ती हो, अनायास सरकारी हस्तक्षेप हटे और फसल की उचित कीमत मिले। स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कर सफलता दर सुनिष्चित की जा सकती है। जब तक किसानों को फलक पर खड़ा करने का प्रयास नहीं होगा और केवल इन पर भावनात्मक राजनीति करके वोट खींचा जाता रहेगा तब तक यह दुष्वारियों से बाहर नहीं निकलेंगे। यूरोप और अमेरिकन माॅडल को भी कृशि नीति में लाकर इनके लिए बेहतर प्रयास हो सकता है।




सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, November 6, 2019

आर्थिक सुशासन की राह समतल करता आरबीआई

पिछली पांच समीक्षाओं में आरबीआई ने पांच बार में रेपो रेट में कमी करते हुए अब तक 1.35 फीसद की कटौती कर चुका है। जिसके चलते बैंकों को ब्याज दर कम करने का दबाव लगातार बना रहा। इतना ही नहीं आरबीआई के गर्वनर ने रेपो रेट में और कटौती की सम्भावना जताते हुए कहा है कि इसका निचला स्तर क्या हो अभी हमने यह तय नहीं किया है। चालू वित्त वर्श के दौरान आर्थिक विकास दर का लक्ष्य 6.9 फीसद निर्धारित किया गया था। हालांकि 5 जुलाई को नई सरकार द्वारा पेष किये गये बजट में विकास दर 7 फीसदी बताया गया था पर अब यह घटाकर 6.1 किया गया है। गौरतलब है कि बीते 4 अक्टूबर को रेपो दर में एक नई कटौती के चलते त्यौहार के इस सीज़न में आॅटो मोबाइल अन्य को लेकर सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध होगा। लगातार गिर रहे रेपो दर से होम लोन व आॅटो लोन की ब्याज दर में गिरावट आ रही है पर बाजार तेजी नहीं पकड़ पा रहा है। आरबीआई की यह चिंता रही है कि आर्थिक सुषासन को कैसे पटरी पर दौड़ाया जाय। इसी के चलते वह लगातार रेपो दर में कटौती करता रहा। सरकार ने भी सितम्बर में काॅरपोरेट टैक्स को 10 फीसदी घटाकर आर्थिक सुस्ती को तंदरूस्ती देने की कोषिष की है। वित्त मंत्रालय, बैंक और उद्योग जगत समेत आम व्यक्ति भी मन्दी और सुस्ती से कमोबेष प्रभावित है। इसको देखते हुए केन्द्र सरकार ने बैंक विलय, काॅरपोरेट घटाने और रियल स्टेट सेक्टर के लिए अलग फण्ड बनाने समेत अनेक कदम उठाये हैं। फिक्की, सीआइआइ, एसोचेम समेत तमाम उद्योग चैम्बरों ने सरकार के इस कदम पर निवेष का माहौल सुधारने में मददगार होने की बात कही है। गौरतलब है कि देष में आर्थिक सुषासन की राह बीते दो-तीन तिमाही में आर्थिक सुस्ती और विकास दर की गिरावट के चलते समतल नहीं है। इसी को समतल करने हेतु आरबीआई ने एक बार फिर मौद्रिक नीति समीक्षा की और रेपो दर में कटौती किया। आरबीआई जानता है कि खपत व विकास दर को गति से ही आर्थिक सुधार और प्रगति सम्भव है। ऐसे में उसका मुख्य मकसद मौद्रिक नीति की न केवल समीक्षा करना बल्कि आर्थिक प्रगति के रास्ते को भी चैड़ा करना है।
मगर आर्थिक प्रगति के पूरे तानेबाने के बीच कौन रोड़ा है, इसकी भी पहचान होना जरूरी है। रेपो दर में कटौती का सीधा फायदा ऋण धारकों को क्या बिना किसी प्रयास के मिल रहा है। क्या बैंक आरबीआई की इस गाइडलाइन को ईमानदारी से लागू करने में पारदर्षी रवैया अपना रहे हैं।  देखा गया है आरबीआई के रेपो दर में गिरावट के बावजूद बैंक ऋण दर में कटौती नहीं करते हैं जिसके चलते आरबीआई का आर्थिक सुषासन वाला पक्ष खतरे में बना रहता है। हालांकि तकरीबन सारे बैंक अपनी कर्ज की दरों को रेपो रेट से लिंक कर चुके हैं बावजूद इसके ग्राहकों से सौ रूपए का स्टाम्प पेपर और हस्ताक्षर की मांग करते हैं। इसकी पूर्ति के बाद ही ऋण दर में कटौती सम्भव होती है। गौरतलब है कि बीते कुछ वर्शों से बैंक कई आर्थिक कारणों के चलते एनपीए में फंसे हैं और यह अनुपात 10 लाख करोड़ रूपए को पार कर चुका है जो बीते पांच सालों में दोगुना हुआ है। पंजाब नेषनल बैंक, एनपीए के मामले में अव्वल बताया जाता है। कुछ बड़े ऋण धारकों ने बड़े व्यवसाय के चलते बैंकों की अकूत सम्पदा लूट ली और बैंकों ने उन पर विष्वास करके आसानी से पैसा उपलब्ध करा दिया। वापसी न होने की स्थिति में बैंकों का न केवल अस्तित्व संघर्श में फंसा बल्कि इन्होंने अपना भरोसा भी खोया। एनपीए में फंस चुके बैंकों ने इससे बाहर निकलने के लिए अपने नियमों में हेर-फेर किया। जिसका सीधा नुकसान आम खाताधारक के हिस्से दिखाई देता है। बैंकों ने स्वयं को उबारने के लिए सामान्य खाताधारकों की जेब पर डकैती डाला यह कहना भी अतार्किक न होगा। नये नियम और विनियम के चलते मनमानी तरीके से खाता से पैसा निकालकर बैंक अपना घाटा पूरा करने लगे और जनता की गाढ़ी कमाई इनका घाटा पूरा करने में काम आने लगी। नोटबंदी के बाद बैंकों से भरोसा उठा था और इन तरीकों के चलते भी भरोसा और टूटा। षायद यही कारण है कि आरबीआई बैंकिंग सिस्टम को लेकर बार-बार आष्वस्त करता रहा।
 अभी हाल ही में जब आरबीआई ने आधे फीसदी की रेपो रेट में गिरावट की तब उसने यह भी कहा था कि एनईएफटी और आरटीजीएस पर चार्ज समाप्त होगा। गौरतलब है कि मौजूदा समय में रेपो रेट की इतनी दर इसके पहले दिसम्बर 2010 में तब थी जब यह 5.15 फीसद के स्तर पर थी। उन दिनों भी देष में मंदी की स्थिति थी और इससे बाहर निकलने के लिए आरबीआई ब्याज दरों में भारी कटौती की थी। मगर सवाल वही है कि जिस मकसद से आरबीआई रेपो दर में गिरावट कर रहा है क्या उसका फायदा सीधे आम लोगों को मिल रहा है पड़ताल बताती है कि पिछले साल मौद्रिक समीक्षाओं में 1.10 फीसद की गिरावट रेपो दर में लाई गयी परन्तु उसका पूरा फायदा ग्राहकों को नहीं मिला। ऐसा बैंकों के पारदर्षी व्यवस्था न अपनाने और ग्राहकों की जागरूकता की कमी के कारण है। जिसे लेकर आरबीआई ने भी इस पर नाराज़गी जाहिर की थी। दो टूक यह भी है कि बैंक षायद यह समझ ही नहीं पाते कि आरबीआई जो कोषिष कर रहा है उसमें देष की आर्थिक सुषासन की चिंता है। जब तक बैंक घटे ब्याज दर पर कर्ज नहीं देंगे तब तक घरेलू अर्थव्यवस्था में मांग कैसे बढ़ाई जा सकेगी। दषहरा के ठीक चार दिन पहले एक बार फिर रेपो दर में कटौती करके आरबीआई ने धनतेरस और दीपावली को भी साधने का प्रयास किया है इस त्यौहारी सीजन में आॅटो मोबाइल, हाउसिंग और अन्य पर सकारात्मक असर पड़ने के पूरे आसार हैं। इतना ही नहीं गोल्डमैन सैष ने एक रिपोर्ट में कहा है कि इस बात की काफी सम्भावना दिख रही है कि रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति दिसम्बर की मौद्रिक समीक्षा में रेपो रेट को चैथाई प्रतिषत और घटाकर 5 या 4.75 पर लाया जा सकता है। जो अक्टूबर में अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व द्वारा दरों में अतिरिक्त कटौती के अनुमान से मेल खाता है।
अर्थव्यवस्था में सुस्ती का सबसे बड़ा कारण मांग और खपत की कमी है। रिज़र्व बैंक ने स्पश्ट कहा है कि उपभोक्ता विष्वास बीते 6 साल के निचले स्तर पर फिसल गया है जिसके पीछे बेरोज़गारी के साथ इनकम में कमी होना है। सर्वे से यह भी पता चलता है कि रोज़गार को लेकर लोगों की सोच और उम्मीद कम हुई है। चैकाने वाली बात यह भी है कि मार्च 2018 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि इनकम को लेकर लोगों में नकारात्मकता आई। मौद्रिक नीति की हालिया समीक्षा से यह भी पता चला है कि 25 आधार अंकों की कटौती के बाद वर्तमान में रेपो रेट 5.15 फीसद पर है, आर्थिक विकास दर का अनुमान 6.9 से घटकर 6.1 फीसद किया गया है। यह भी समझा गया है कि महंगाई काबू में रहेगी और इसकी दर 3.7 फीसद बनी रहेगी। गौरतलब है कि विदेषी मुद्रा भण्डार करीब 22 अरब डाॅलर से बढ़कर लगभग 435 अरब डाॅलर हुआ है। आंकड़े भले ही मन को प्रभावित कर रहे हों पर उपभोक्ता का जो विष्वास डगमगाया है उसे पुनः प्राप्त करना तभी सम्भव हो पायेगा जब आर्थिक कसौटी पर सुषासन की राह सषक्त होगी। इसमें बैंकिंग सिस्टम में सुधार को भी जोड़ना होगा। बैंकों ने भी उपभोक्ताओं के विष्वास को काफी पैमाने पर कमजोर किया है और आरबीआई की नीतियों को समय रहते तवज्जो देने में भी काफी हद तक बेपरवाह रहे हैं। अर्थव्यवस्था, रोज़गार, महंगाई और व्यक्तिगत आय एवं खर्च को लेकर आरबीआई ने देष के 13 षहरों में सर्वे भी किया है। इससे यह भी साफ होता है कि आरबीआई समझता है कि आंकड़े कुछ भी हों जनता की स्थिति कुछ और है और उनके लिए आर्थिक सुषासन की राह को मजबूत करना ही होगा।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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जलवायु परिवर्तन पर बातें अधिक, काम कम

दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी है कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदार है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हा रही है। अमेरिका पेरिस जलवायु संधि से हट चुका है और दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाना जाता है और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। बीते 23 सितम्बर न्यूयाॅर्क स्थित संयुक्त राश्ट्र संघ के मुख्यालय में जलवायु कार्यवाही षिखर वार्ता से पहले महासचिव एंतेनियो गुतेरस विष्व के नेताओं से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती और साल 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को षून्य करने हेतु ठोस समाधान की अपील की। जमाने से जारी जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही को लेकर न तो कोई बड़ा सुधार आया है और न ही इससे जुड़े लोग इस पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक बार फिर इस मुद्दे की गम्भीरता से लोगों को अवगत कराया है। युवा जलवायु कार्यकत्र्ता ग्रेटा थुनबर्ग ने षिखर वार्ता को सम्बोधित करते हुए वैष्विक नेताओं की लानत-मलानत की। थुनबर्ग ने कहा कि इतने बड़े संकट के सामने खड़े होने के बावजूद नेता परिपक्व ढंग से सीधी सच्ची बात नहीं कह रहे। स्पश्ट है कि 16 वर्शीय कार्यकत्र्ता को आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अच्छे वातावरण की चिंता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बड़े बाजार और बड़ी अर्थव्यवस्था की खोज के चलते कई विकसित देषों ने कार्बन उत्सर्जन की तमाम हदें पार कर दी हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके हिस्से की वह चीज छीन रहे हैं जो करोड़ों वर्शों में इस ग्रह पर निर्मित हुआ है। चिंता लाज़मी है परन्तु केवल चिंतन से बात नहीं बनेगी।
इस संदर्भ का भी उल्लेख इस बात को पुख्ता करता है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में कार्यवाही को लेकर किसका रवैया कैसा है। समुद्रों और पृथ्वी के ठण्डे क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग भयावह प्रभाव पर विस्तार से रोषनी डालने वाली एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट पर संयुक्त राश्ट्र के 195 देषों की जलवायु विज्ञान से सम्बंधित इकाई ने बीते 24 सितम्बर को लम्बे गतिरोध के बाद मंजूरी दी। गौरतलब है कि रिपोर्ट की भाशा पर सऊदी अरब की आपत्ति थी और इस कारण रात भर यह गतिरोध बना रहा। पेट्रोल और डीजल से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत को दर्षाने वाले संयुक्त राश्ट्र के एक पिछले आंकलन को चुनौती देते हुए सऊदी अरब ने 30 पन्नों की रिपोर्ट को स्वीकार करने में बाधा खड़ी की थी। ग्लोबल वार्मिंग की सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने की अपरिहार्यता देखी जा सकती है और यह तभी सम्भव है जब जीवाष्म ईंधन अर्थात् पेट्रोल, डीजल आदि के इस्तेमाल में कटौती की जायेगी। गौरतलब है कि तेल निर्यातक देष के लिए बाजार खतरे में होंगे ऐसे में उनमें असंतोश व्याप्त होना लाज़मी है। सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देष है उसे ऐसी रिपोर्टों से आपत्तियां रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है यह कह पाना मुष्किल है।  जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है, पृथ्वी का तापमान बड़ रहा है, ग्लेषियर पिघल रहे हैं, पानी घट रहा है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है उससे साफ है कि चुनौती काबू से बाहर है।
वैसे देखा जाये तो जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मनुश्य ही है। पेड़-पौधों की लगातार कटाई, जंगल को खेती या मकान बनाने के उपयोग में लाना और कारखानों को बेरोक-टोक व्यापक पैमाने पर विस्तार देना। वायु प्रदूशण बढ़ने से गर्मी बढ़ जाती है और गर्मी बढ़ने से जलवायु में परिवर्तन होने लगता है। जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में भूकम्प, ज्वालामुखी आदि का फटना भी षामिल है। मानव के क्रियाकलापों का परिणाम ही ग्रीन हाउस प्रभाव और वैष्विक ताप भी है। औद्योगिक क्रान्ति ने कार्बन डाई आॅक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ा दिया। पड़ताल बताती है कि जलवायु परिवर्तन के साक्ष्य कई स्रोतों से उपलब्ध है पर हल के स्रोत गिनती के हैं। न्यूयाॅर्क में जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही को लेकर जो बैठक हुई उसमें निजी क्षेत्रों के लिए यह सकारात्मक बदलाव लाने के रास्ते प्रदर्षित करने का एक बड़ा अवसर भी माना जा सकता है। बाजार में 2.3 ट्रिलियन डाॅलर पूंजीवादी और 42 लाख कर्मचारियों वाली 87 से ज्यादा बड़ी कम्पनियों ने अपने कामकाज में जलवायु लक्ष्यों को निर्धारित करने का संकल्प लिया जो इस बात को पुख्ता करता है। इन कम्पनियों का वार्शिक उत्सर्जन कोयले से चलने वाले 73 ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है। खोखली बातों से मन को लुभाया जा सकता है मगर पृथ्वी को बचाने के लिए तो मजबूत इरादों की ही जरूरत है। एक साल पहले भी संयुक्त राश्ट्र महासचिव ने पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर एक्षन प्लान की वचनबद्धता को दर्षाया था। उन्होंने अन्तर्राश्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया था। पहले भी यह कहा गया था कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने पड़ेंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों इतनों ही वर्शों तक उत्सर्जन का स्तर आधार कर दें और 2050 तक षून्य करना जो इसलिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसके प्रति असंवेदना कहीं न कहीं व्याप्त है। इसका पुख्ता सबूत पर्यावरण कार्यकत्र्ता ग्रेटा थुनबर्ग की उस चुतावनी में छानी जा सकती है जिसमें दुनिया के नेताओं को न्यूयाॅर्क में खरी-खरी सुना दी।
सभी जानते हैं कि विकसित देष 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करते हैं जबकि बाकी बचा हुआ हिस्सा में पूरी दुनिया आती है। एषिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कई देष ऐसे हैं जिनका कार्बन उत्सर्जन न के बराबर है जबकि उत्तरी गोलार्द्ध के यूरोपियन और अमेरिकन समेत कई देष ऐसे हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए स्वयं में एक चुनौती बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यह भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं सदी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह या पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। पृथ्वी का ताप बढ़ता रहेगा तो जलवायु बदलती रहेगी। अगर इससे सम्बंधित गैसों में तय मानक से अधिक बढ़त बनी रही तो जीवन पर इसका भारी पड़ना निष्चित है। गौरतलब है कि पिछले साल भारत में गर्मी का प्रकोप इतना था कि कहीं-कहीं तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को छू लिया था। हिमाचल के उना में 43 तो खजुराहो में यह 47 डिग्री पहुंच गया था। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर गया था। दक्षिण यूरोप में भी गर्मी पहले की तुलना में बढ़ गयी है। पहाड़ और मैदान सभी इसकी चपेट में है। संकेत साफ है कि जलवायु परिवर्तन बेकाबू तरीके से जारी है। साल 2018 के अक्टूबर में इण्डोनेषिया की राजधानी बाली में आसियान की बैठक को सम्बोधित करते हुए संयुक्त राश्ट्र महासचिव ने एक्षन प्लान की बात कही थी। जिस पर अभी कोई खास रिएक्षन देखने को नहीं मिला। 2030 तक यदि पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है जो 1.5 डिग्री की तुलना में आधा डिग्री अधिक है तो थाईलैण्ड, फिलीपीन्स, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव और मेडागास्कर समेत मोरिषस पानी से लबालब हो जायेंगे। साफ है पृथ्वी को नश्ट करने में भूमिका हमारी रहेगी। दुनिया भर की षक्तियां इससे निपटने की ताकत लगा रही हैं पर कोई किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता। जलवायु परिवर्तन से जुड़े बैठक में जो वायदे किये जा रहे हैं उस पर खरे उतरने की गुंजाइष कम ही है क्योंकि यह किसी एक का निजी एजेण्डा नहीं है और कोई निजी हितों से षायद ऊपर उठना भी नहीं चाहता।


सुशील कुमार सिंह
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हाउडी मोदी से मज़बूत हुई ट्रम्प की सियासी ज़मीन

षायद ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन से किसी अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनावी राह को समतल बनाने का प्रयास किया हो। अमेरिका के ह्यूस्टन षहर में बीते 22 सितम्बर जब दिन के करीब 11 बज रहे थे तो भारत में इतने ही बजे की रात हो रही थी। पूरी दुनिया की नजर एक ऐसे कार्यक्रम पर थी जहां से एक सर्वाधिक बड़े तो दूसरे सबसे पुराने लोकतंत्र के मुखिया का एक साथ और एक मंच पर संयुक्त गूंज होनी थी। हालांकि सम्बोधन मोदी का ही होना था पर एक दूसरे के बारे में कसीदे गढ़ने को लेकर दोनों ने मंच साझा किया और बाद में डोनाल्ड ट्रंप एक श्रोता और मोदी एक वक्ता की भूमिका में बने रहे। भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक साथ मंच पर होना कई भावनाओं और सम्भावनाओं को उधेड़-बुन में डाल दिया था। पाकिस्तान जैसे देष इस दृष्य को षायद ही पचा पाये। मोदी ने जिस तरह एनआरजी स्टेडियम में उपस्थित 50 हजार से अधिक प्रवासी भारतीयों के बीच ट्रंप का परिचय दिया उससे यही लगा मानो मोदी नहीं ट्रंप अमेरिका में अतिथि हैं और वे किसी चुनाव प्रचार में सम्बोधन देने आये हों। रोचक यह भी था कि मोदी ने कहा कि साल 2017 में ट्रंप ने अपने परिवार से मिलाया था आज मैं अपने परिवार से आपको मिलाता हूं। वाकई प्रवासी भारतयों पर मोदी के इस कथन का बहुत गहरा असर हुआ होगा। गौरतलब है ह्यूस्टन में भारी तादाद में भारतीय मूल के लोग रहते हैं इसके अलावा डलास भी टैक्सास की प्रमुख जगह है जहां प्रवासी भारतीय बहुतायत में है। टाॅप 10 षहरों में षामिल ये षहर अमेरिका में सबसे ज्यादा भारतीय मूल के लोगों के लिए जाने जाते हैं। मोदी के सम्बोधन के लिए टैक्सास को चुने जाने के लिए यह एक बड़ी वजह है।
षुरूआत में अंग्रेजी और बाद में धारा प्रवाह हिन्दी में मोदी का सम्बोधन चलता रहा और ट्रंप इसका लुत्फ लेते रहे। मोदी का अमेरिका में जिस ढंग का प्रभाव दिखा उससे साफ है कि भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय सम्बंध अन्य देषों से काफी अलग तो हैं। हालांकि पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा के समय भी मोदी के संवाद और सम्बंध कहीं अधिक गगन चुम्भी थे। अबकी बार, ट्रंप सरकार का नारा हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान ह्यूस्टन में जब गूंजा तब यह बात भी स्पश्ट हो गयी कि एक बार फिर व्हाइट हाउस का रास्ता ट्रंप मोदी के सहारे समतल करने की फिराक में है। गौरतलब है कि 2016 के नवम्बर माह में जब अमेरिकी राश्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप चुने गये थे तब भारतीय मूल के यही लोग डेमोक्रेटिक से चुनाव लड़ रही हिलेरी क्लिंटन को वोट दिया था। देखा जाय तो ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से आते हैं और भारतीय मूल पर इस पार्टी की छाप उतनी सकारात्मक नहीं थी। अमेरिका में अगले साल नवम्बर में फिर चुनाव होने हैं और 46वें राश्ट्रपति के तौर पर ट्रंप एक बार फिर व्हाइट हाउस का सपना संजोए हुए हैं। नेषनल एषियन अमेरिकन सर्वे से इस बात का खुलासा हो चुका है कि भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों ने 2016 के चुनाव में ट्रंप के विरूद्ध मतदान किया था। ऐसे में ट्रंप अपनी सियासी जमीन की मजबूती के लिए इन्हें अपनी ओर आकर्शित करने की हर सम्भव कोषिष में लगे हैं। इसके लिए मोदी के सम्बोधन से बेहतर षायद ही कोई बात हो सकती थी। ह्यूस्टन में ट्रंप के साथ खड़े मोदी और मोदी के साथ खड़े ट्रंप के कई अर्थ हैं जिसमें से एक अर्थ व्हाइट हाउस का मार्ग चिकना करना भी है। सम्भव है कि भारतीय मूल के लोग आगामी राश्ट्रपति चुनाव में ट्रंप के लिए ट्रम्प कार्ड सिद्ध हो सकते हैं और यह बात ट्रंप से बेहतर षायद ही कोई जानता हो।
व्यापारी और रियलिटी टेलीविजन व्यक्तित्व डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी, 2017 से अमेरिका के राश्ट्रपति हैं। डोनाल्ड ट्रंप की उम्मीदवारी से लेकर चुनाव के अन्तिम परिणाम तक आरोपों की झड़ी बनी रही पर विरोधी कामयाब नहीं हो पाये और अन्ततः जीत ट्रंप के हाथ लगी। गौरतलब है कि अमेरिका की चुनाव प्रक्रिया कई चरणों से गुजरती है जिसमें पहले चरण में प्राइमरी चुनाव होते हैं फिर काॅकस बाद में नेषनल कन्वेंषन आदि से गुजरता हुआ यह इलेक्ट्राॅल काॅलेज तक पहुंचता है। अमेरिका में 50 राज्य हैं और इन राज्यों के मतदाता इलेक्टर का चुनाव करते हैं। ये इलेक्टर राश्ट्रपति पद के किसी न किसी उम्मीदवार के समर्थक होते हैं। इन्हीं से एक इलेक्ट्राॅल काॅलेज बनता है जिसमें कुल 538 सदस्य होते हैं जब इनका चुनाव हो जाता है तो आम जनता की चुनाव में भागीदारी खत्म हो जाती है और इनके जरिये राश्ट्रपति चुना जाता है जिसके लिए 270 इलेक्ट्राॅल मत जरूरी होते हैं। 2016 के चुनाव में ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन के बीच कांटे की टक्कर रही मगर जीत ट्रंप के हाथ आयी। व्यक्तित्व के मामले में विवादित ट्रंप 2020 में एक बार फिर अपनी चुनावी व्हाइट हाउस का रास्ता तय करने को लेकर भारतीय मूल के लोगों पर दृश्टि गड़ाये हुए है। हाउडी मोदी इस दिषा में कहीं अधिक फायदे का सौदा हो सकता है। वैसे प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका में कोई पहला सम्बोधन नहीं है और न ही दुनिया में। मई 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी पहली बार प्रवासी भारतीयों को न्यूयाॅर्क के मेडिसिन स्क्वायर में सम्बोधित किया था तब 18 हजार की तादाद थी। उसके बाद सिलसिलेवार तरीके से यह क्रम जारी रहा। सिडनी, टोरन्टो, षंघाई, दुबई, लंदन, सिलिकाॅन वैली और जोहानिसबर्ग और पेरिस समेत बहरीन तक के सभी सम्बोधनों की गणना की जाय तो यह संख्या 15 होती है पर एनआरजी स्टेडियम में सम्बोधन के कुछ अलग मायने हैं। पीएम मोदी का भाशण सुनकर एक बार तो ऐसा भी लगा जैसे वह किसी चुनावी रैली को सम्बोधित करने आये हों और डोनाल्ड ट्रंप की स्थिति भी किसी उम्मीदवार की तरह लगी। मोदी का यह बयान कि अबकी बार ट्रंप सरकार दोनों देषों के लिए विवाद का मुद्दा हो सकता है।
विरोधी भारत के प्रधानमंत्री के बयान को इस आधार पर मुद्दा बना सकते हैं कि यह दोनों देषों की सम्प्रभुता और लोकतंत्र में दखलंदाजी है। हालांकि कांग्रेस ऐसा कहते हुए देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी को किसी देष में कौन राश्ट्रपति होगा यह तय करने का अधिकार षायद नहीं है मगर भारत के जिस रसूख को अमेरिका स्वीकार करता है और जिस तरह भारतीय मूल के लोग चुनावी तस्वीर बदल सकते हैं उसके देखते हुए यह सब हुआ है। हालांकि अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों पर हाउडी मोदी का क्या असर हुआ है यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा। गौरतलब है कि साल 2016 में अमेरिका के राश्ट्रपति का चुनाव विवादों से अछूता नहीं था। इस चुनाव में रूस के दखल पर सीधे-सीधे आरोप लग चुका है। हालांकि व्हाइट हाउस इसे सिरे से नकार चुका है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का सम्बंध अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी के राश्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन और बराक ओबामा जैसों से भी बहुत गहरे और अच्छे थे जबकि सोवियत संघ के विभाजन के बाद अमेरिका का झुकाव भारत की ओर हुआ पर सम्बंधनों में गर्माहट बिल क्लिंटन के समय आयी। सीनियर और जूनियर जाॅर्ज डब्ल्यू बुष के षासनकाल में सम्बंध बुरे नहीं थे पर बहुत अच्छे भी नहीं थे जिनका सम्बंध रिपब्लिकन से था। ट्रंप भी रिपब्लिकन पार्टी से हैं और भारत से सम्बंध अच्छे हैं पर कूटनीति यह कहती है कि प्रभाव का प्रयोग किसी भी दल के सत्ताधारी से होनी चाहिए न कि दल विषेश को जितवाने के लिए वर्ग विषेश को उकसाना चाहिए। भारत के विरोधी दल और अमेरिका के डेमोक्रेट मोदी के उक्त कथन से कोई वास्ता नहीं रखना चाहेंगे। दो टूक यह भी है कि बीते कुछ वर्शों में भारत की वैष्विक फलक पर उभरती स्थिति इस कदर मजबूत हुई है कि ट्रंप जैसे षक्तिषाली नेता भी भारतीय नेतृत्व के मोहताज हैं।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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५ ट्रिलियन डॉलर को चाहिए फीसद जीडीपी

अगर भारत को बदलाव की चुनौती का मुकाबला करना है तो केवल सामान्य विकास से काम नहीं चलेगा। इसके लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन से कि देष में बदलाव के घूमते पहिये के बीच जमीनी हकीकत को भी बयान कर रहा है। भारत एक ऐसा देष है जहां षहरी-ग्रामीण, संगठित-असंगठित कौषल और कृशि औद्योगिक के साथ लोक और निजी का अनोखा मिश्रण है। दुनिया की सबसे अधिक आबादी यहीं बसती है। ऐसे में सम्भावनायें रहती हैं कि जबरदस्त विकास यहीं होगा पर प्रगति की दिषा में रोज़गार और कौषल विकास आज भी बड़ी रूकावट है। साल 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनने का इरादा मौजूदा सरकार जता चुकी है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि सामान्य विकास से नहीं बल्कि बुनियादी बदलाव की जरूरत है। बुनियादी बदलाव क्या है इसके कई आर्थिक और तार्किक मायने है जिसमें नई लोकसेवा और नई चेतना का संदर्भ निहित है। आधारभूत संरचना, वित्तीय सेवायें, ई-गवर्नेंस, बैंकिंग, षिक्षा, कृशि और स्वास्थ समेत कई हल अभी लक्ष्य के अनुरूप प्राप्त नहीं हुए हैं। सरकार का पूरा ध्यान प्रभावी जवाबदेह और पारदर्षी तंत्र की ओर झुका हुआ है पर इससे प्रगति भी तेज हुई है इसकी पड़ताल बारीकी से करने की आवष्यकता है। सार्वजनिक भागीदारी और समावेषी अभियान ने सरकार को रास्ता दिया है पर मंजिल अभी भी कसौटी पर खरी नहीं उतरी। देष को 5 लाख ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था आगामी 5 साल में करना है जिसके लिए सभी क्षेत्रों में मसलन कृशि, विनिर्माण आदि ने लम्बी छलांग लगानी होगी। इसे पाना तभी सम्भव है जब जीडीपी 8 फीसदी या उससे अधिक इतने ही वर्शों तक बरकरार रहे जो मुमकिन दिखाई नहीं देती। वर्तमान में तो यह 5 फीसद के साथ धूल चाट रही है जबकि बीते 5 जुलाई के बजट में लक्ष्य 7 फीसदी का रखा गया था।
भारत की अर्थव्यवस्था साल 2016-17 में जितनी बढ़ी वह विष्व के 158 देषों की कुल जीडीपी से ज्यादा है जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेष, मलेषिया जैसे देष षामिल हैं। यदि भारत 5 लाख ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था के मामले में सफल हो जाता है तो वह जर्मनी को पछाड़ कर दुनिया की चैथी अर्थव्यवस्था बन सकता है। गौरतलब है कि अभी भारत दुनिया की 7वीं बड़ी अर्थव्यवस्था में आता है जबकि वह 5वीं अर्थव्यवस्था का तमगा पहले हासिल कर चुका है। दुनिया की 6 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में क्रमषः अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस को देखा जा सकता है। आजकल देष के हालातों के चलते अर्थव्यवस्था के जानकार फाइव ट्रिलियन डाॅलर इकोनोमी के लक्ष्य के बारे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को उठा रहे हैं। साल 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण को माने तो अगले 2 दषकों में भारत की आबादी में तेज गिरावट का दौर आयेगा। इसका मतलब यह भी है कि पूरे देष की जनसंख्या कम होगी और इसका फायदा मिलेगा मगर 2030 तक बुजुर्गों की संख्या भी बढ़ सकती है। बड़ी चुनौती युवा आबादी को फायदे में तब्दील करने की है जिसके लिए षिक्षा, उच्च षिक्षा और कौषल विकास अनिवार्य पहलू है। गौरतलब है कि देष 45 सालों की तुलना में सर्वाधिक कमजोर बेरोजगारी दर को समेटे हुए हैं और इन दिनों आर्थिक मन्दी के दौर के कारण विनिर्माण क्षेत्र समेत कई क्षेत्रों के हालात ठीक नहीं हैं। साल 2018 की सुस्ती ने भी भारत को दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था से 7वीं की ओर धकेल दिया। वैसे मौजूदा समय में अर्थव्यवस्था पौने तीन ट्रिलियन डाॅलर के आस-पास दिखती है जिसमें एक ट्रिलियन डाॅलर की बढ़ोत्तरी बीते 5 सालों में मोदी सरकार ने की है। षायद यही कारण है कि वे आगामी 5 वर्शों में तय लक्ष्य को लेकर अटल दिखाई दे रहे हैं जबकि अर्थषास्त्र का अपना एक नियम होता है और वह यह कि औसत जीडीपी से कम रहने पर यह सिर्फ ख्याली पुलाव ही रहेगा।
महंगाई दर भी राह में सबसे बड़ी बाधा है जब क्रय षक्ति घटती है तो खपत भी घटती है और इसका नकारात्मक असर जीडीपी पर पड़ता है। ऐसे में 2024 का सपना यहां भी संतुलन की मांग कर रहा है। इतना ही नहीं डाॅलर के मुकाबले रूपए की दर को भी नियंत्रण में रखना होगा जिस तरह रूपया लुढ़कता है उससे जीडीपी को भी थकावट आती है। भारत की अर्थव्यवस्था पर डाॅलर के मुकाबले रूपए का गिरना बड़ी चोट होती है। इन दिनों भी रूपया काबू में नहीं है और यह कारण भी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था में समस्या पैदा कर सकती है। प्रधानमंत्री ने लक्ष्य की प्राप्ति की दिषा में कुछ कदम उठाये हैं। ग्रामीण संरचना में 100 लाख करोड़ रूपए के निवेष की बात कही जा चुकी है। भारत का ऊर्जा क्षेत्र भी मुष्किलों के दौर से गुजर रहा है। पिछले एक दषक में नवीकरणीय ऊर्जा में 7 गुना वृद्धि हुई है परन्तु अभी भी इस मामले में कोयला आधारित ऊर्जा पर निर्भरता बनी हुई है। परिवहन को लेकर भी दषा बहुत अच्छी नहीं है। भारत में इसे लेकर वैष्विक स्तर के मुकाबले कई खामियां हैं। किसी भी देष की अर्थव्यवस्था को धारणीय बनाने के लिए आवष्यक है कि उस देष का अपषिश्ट प्रबन्धन कुषल हो। अब तो यहां जल की समस्या भी उत्पन्न हो चुकी है और बड़े और छोटे षहरों में कचरों का अम्बार लग रहा है। जितनी तेजी से अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है उतनी ही तेजी से पर्यावरण भी दूशित हो रहा है जो अपने आप में बड़ी चुनौती है। कृशि उत्पादन की दर को बढ़ावा तो मिल रहा है पर कृशि के प्रति लोगों का मोह भंग हो रहा है और जोत छोटे हो रहे हैं और रही सही कसर बाढ़ और सूखा पूरी कर दे रहे हैं और इन सबके बावजूद उचित कीमत न मिलने से किसान न केवल आत्महत्या कर रहा है बल्कि निरंतर कृशि जीडीपी फिसड्डी सिद्ध हो रही हैं। आॅटो सेक्टर से लेकर सर्विस सेक्टर तक सभी या तो सरकार के नये नियमों से या वैष्विक मन्दी से दो-चार हो रहे हैं। ऐसे में जीडीपी का लुढ़कना स्वाभाविक है। सवाल है कि जब जीडीपी अपने मुकाम पर टिकेगी नही ंतो 5 ट्रिलियन डाॅलर का अटल संकल्प जो 2024 तक तय है वह कैसे पूरा होगा?
सरकार को इस अर्थव्यवस्था की प्राप्ति के लिए चैतरफा प्रयास करना होगा और यह संतुलन कायम रखना होगा कि प्रत्येक क्षेत्र में विकास दर बढ़े और जीडीपी 5 फीसद नहीं वरन् 8 फीसद से नीचे न आने पाये। अर्थव्यवस्था की क्षमता के अनुसार लक्ष्य इतना भी मुष्किल नहीं है कि जो भारत की अर्थव्यवस्था में जो मौजूदा समस्या दिख रही है वह चुनौती बढ़ा रही है। 5 जुलाई के पेष किये गये बजट में कहीं अधिक संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया है परन्तु तय जीडीपी 2019-20 के वित्त वर्श में मिलेगी इस पर षक गहरा जाता है। षिक्षा की गुणवत्ता, बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता, महिलाओं की स्थिति, कुपोशण सहित गरीबी जैसे कई मुद्दे अभी मुखर हैं जिन्हें बिना समाधान के बड़ी आर्थि स्वावलंबन हासिल करना कठिन है। भारत का बैंकिंग क्षेत्र भी एनपीए से जूझ रहा है और सरकार 10 बैंकों का विलय कर 4 बनाने की बात कह चुका है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि जब अर्थव्यवस्था चैतरफा चुनौती से घिर जाती है तो आर्थिक मूल्य भी उसे ही चुकाना पड़ता है। सरकार यह बात बार-बार कह रही है कि 5 ट्रिलियन डाॅलर का लक्ष्य उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है मगर सरकार को यह भी समझना चाहिए कि क्या 2014 में तय किये गये आर्थिक लक्ष्य 2019 में मिले हैं। नोटबंदी और जीएसटी के बावजूद क्या पूरे मन से यह स्वीकार करना सम्भव है कि यह दोनों आर्थिक परिवर्तन लक्ष्य उन्मुख रहे हैं। सवाल उन सवालों का है जिन्हें कसौटी पर कसना है। ऐसे में आर्थिक नीति को प्रबलता देने की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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मोदी की अमेरिका की सितम्बर यात्रा

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी आगामी 21 से 27 सितम्बर तक अमेरिका की यात्रा पर रहेंगे। जहां वे संयुक्त राश्ट्र महासभा के वार्शिक सत्र को सम्बोधित करेंगे और ट्रंप के साथ द्विपक्षीय बातचीत के अलावा दोनों नेता नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर कूटनीति को भी साधने की कवायद करेंगे। ह्यूस्टन में अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप के साथ हाउडी मोदी नामक कार्यक्रम के तहत दोनों मुखिया एक साथ मंच पर दिखेंगे। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के बीच रणनीतिक रिष्ते को दर्षाने का यह एक और बड़ा अवसर है। जाहिर है जब-जब भारत और अमेरिका के बीच सम्बंधों की लम्बी छलांग लगायी जाती है तब-तब चीन समेत पाकिस्तान को यह बहुत अखरता है और इस बार तो पाकिस्तान के जले पर यह नमक छिड़कने जैसा ही है। गौरतलब है कि जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद पाकिस्तान बीते 5 अगस्त से दुनिया की निगाह इस ओर खींचने में लगा है और यह दुश्प्रचार करने का प्रयास कर रहा है कि मानो भारत ने कोई ज्यादती की हो। हालांकि उसे इस मामले में कोई सफलता नहीं मिली है और न ही कोई देष उसके रूख पर उसका आषातीत हौंसला अफजाई किया है। चीन से भी उसे काफी हद तक निराषा ही मिली पर अभी पाक चाल चलने के मामले में पीछे नहीं है। इसी यात्रा में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से भी मोदी की मुलाकात हो सकती है। हालांकि जिस स्थिति में पड़ोसी ने भारत के खिलाफ तलवार खींची है उससे साफ है कि न ही मुलाकात की सम्भावना दिखती है और न तो हाथ मिलेंगे। अमेरिका से भारत का सम्बंध कई दृश्टि से आज भी बहुत प्रगाढ़ है। हालांकि कई व्यापारिक समस्याओं के चलते सम्बंध अपने अक्ष से थोड़ा खिसका हुआ प्रतीत होता है। विदेषी दौरे के दौरान मोदी भारतीय मूल के लोगों को सम्बोधित करने की एक ऐसी परम्परा विकसित की है जिसके बगैर यात्रा मानो अधूरी रहती है। सितम्बर 2014 में जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री के तौर पर अमेरिका की यात्रा पर थे तब उत्तर अटलांटिक महासागर के पष्चिमी किनारे पर बसे इस देष में वैचारिक सुनामी आई थी और यह गूंज मेडिसिन स्क्वायर न्यूयाॅर्क से उठी थी जब मोदी ने यहां 20 हजार की एक बड़ी तादाद को धारा प्रवाह हिन्दी में सम्बोधन किया था। ऐसा ही कुछ नजारा इस बार ह्यूस्टन के एनआरजी स्टेडियम में आगामी 22 सितम्बर को देखने को मिलेगा जब 50 हजार भारतीयों को मोदी सम्बोधित करेंगे और मंच को साझा करने में डोनाल्ड ट्रंप भी उपस्थित रहेंगे। इसी कार्यक्रम को हाउडी मोदी नाम दिया गया है जिसका अर्थ है आप कैसे हैं?
ह्यूस्टन में मोदी और ट्रंप के एकमंचीय होने को लेकर दुनिया अलग-अलग अर्थ निकाल रही है। मोदी और ट्रंप की यह इस साल की तीसरी मुलाकात होगी इससे पहले दोनों की मुलाकात क्रमषः जापान में बीते जून में जी-20 षिखर सम्मेलन में और जुलाई 2019 में जी-7 षिखर सम्मेलन के दौरान फ्रांस में हुइ्र थी। अब यह तीसरी मुलाकात अमेरिका इण्डिया स्ट्रैटेजिक एवं पार्टनरषिप फोरम की दृश्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। ह्यूस्टन अमेरिका की ऊर्जा राजधानी के रूप में जानी जाती है ऐसे में इसका महत्व बढ़ जाता है। गौरतलब है इसी साल भारत में अमेरिका का ऊर्जा निर्यात कुल निर्यात का 75 फीसदी रहा है। इतना ही नहीं दोनों ही देषों की कम्पनियां दोनों देषों में निवेष और रणनीति साझेदारी पर सक्रियता भी दिखा रही है। अमेरिकी न्यूज एजेंसी सीएनएन भी यह कह चुका है कि हाउडी मोदी का मकसद अमेरिकी भारत-सम्बंध को और मजबूती देना है। इससे यह भी स्पश्ट होता है कि व्यापारिक व रणनीतिक तौर पर मसलन रूस से एस-400 की खरीदारी और ईरान से बीते मई से तेल न लेने की अमेरिकी दबाव के बावजूद अवसर के अनुसार भारत और अमेरिका एक नई रिष्तेदारी कायम कर लेते हैं। मोदी अभी हाल ही में रूस भी गये थे। जबकि अमेरिका और रूस के बीच सम्बंध पटरी पर नहीं है पर खास यह है कि भारत दोनों की पटरी पर सरपट दौड़ता है। चीन के साथ भी अमेरिका ट्रेड वाॅर से अभी मुक्त नहीं हुआ है। भारत के साथ भी सीमा षुल्क को लेकर तनाव दोनों देषों के बीच तनाव बढ़े हैं। बावजूद इसके दोनों देषों के अधिकारियों के बीच तनावपर्ण व्यापार, वार्ता और कष्मीर मामले को लेकर सरकार की आलोचना के बीच भारत के प्रति अमेरिका का समर्थन यह दर्षाता है कि वह कुछ भी हो वह भारत को नजरअंदाज नहीं कर सकता। अमेरिका के सांसदों ने जम्मू-कष्मीर की स्थिति को लेकर गहरी चिंता जाहिर की थी। इससे कुछ हद तक पाकिस्तान को बल मिला है पर व्हाइट हाउस से उसे कुछ हासिल षायद ही हो। हालांकि पाकिस्तान को यह उम्मीद है कि अमेरिका उसकी कुछ मदद करेगा। फाइनेंषियल एक्षन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की काली सूची में डाले जाने के डर से और अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) की कड़ी षर्तों से राहत पाने का मार्ग तलाष रहा है। गौरतलब है कि आईएमएफ ने खस्ता हाल अर्थव्यवस्था से उबारने के लिए पाकिस्तान को 6 अरब डाॅलर का कर्ज देने की हामी भरी थी। जबकि एफटीएफ की आगामी 13 से 18 के बीच पेरिस में एक महत्वपूण्र बैठक होने जा रही है जिसमें आतंकी फण्डिंग पर अंकुष लगाने के लिए पाकिस्तान ने क्या कदम उठाया इसका आंकलन किया जायेगा। यदि वह उसमें खरा नहीं उतरा तो उसे काली सूची में डाल दिया जायेगा। अभी वह ग्रे सूची में है। वैसे एफटीएफ से सम्बंध एषिया-प्रषांत समूह (एपीजी) ने बीते अगस्त पाकिस्तान को काली सूची में डाल दिया। गौरतलब है कि आॅस्ट्रेलिया के केनबरा मेे बैठक के दौरान पाकिस्तान 40 मानकों में से 32 का पालन करने में विफल पाया गया था।
संसार के सबसे ताकतवर राश्ट्रपति अपनी दूसरी पारी के लिए भारत की ओर ताक रहे हैं। गौरतलब है कि डोनाल्ड ट्रंप नवम्बर 2016 में अमेरिका के राश्ट्रपति चुने गये थे और 20 जनवरी, 2017 को व्हाइट हाउस में प्रवेष किया था। इस तरह अब उनका तीन साल का कार्यकाल लगभग पूरा हो रहा है और नवम्बर 2020 में एक बार फिर राश्ट्रपति बनने के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। आगामी चुनाव के लिए भी डोनाल्ड ट्रंप अपनी उम्मीदवारी का एलान पहले ही कर चुके हैं। दुनिया में पिछले कुछ सालों से भारत का प्रखर प्रभाव रहा है। उसी कड़ी में मोदी ने इसे और विस्तारित कर दिया है। स्पश्ट है कि यह दौरा भारत और अमेरिका के बीच कई बकाया द्विपक्षीय वार्ता को जमीन पर उतर सकता है। जाहिर है दोनों के बीच व्यापारिक कठिनाईयां सरल हो सकती हैं, विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में धारा को और प्रवाह मिल सकता है, रक्षा मसौदे को लेकर भी आम सहमति रहेगी। यह बात सच है कि पिछले कुछ समय में ट्रंप प्रषासन ने कई मुद्दों पर बुनियादी रिष्तों में दरार डाला है पर अब ऐसा लगता है कि बराक ओबामा में षासनकाल वाली दोस्ती अब एक-दूसरे को फिर रास आने लगी है। एक तरफ मध्य-पूर्व एषिया का संकट गहराया हुआ है जहां भारत, ईरान और अमेरिका दोनों ही देषों से सम्बंधों को बना कर रखना चाहता है वहीं अमेरिका ईरान से तेल लेने में खलल पैदा किये हुए है। भारत के साथ सम्बंध बेहतर करने में अमेरिका के अपने हित भी हैं। तकरार और इकरार के बीच व्यापार और रणनीतिक मुद्दों पर भारत अमेरिका सम्बंधों में जो मुष्किलें उभरी हैं उसकी कुछ वजह चीन का ट्रेड वाॅर भी रहा है। मगर मोदी की इस बार की सितम्बर यात्रा इस उम्मीद से भरी है कि दोनों ही पक्ष मुद्दों को बातचीत से सुलझा लेंगे। खास यह भी है कि ट्रंप मोदी के सहारे अमेरिका में पुनः काबिज होने की फिराक में भी हैं। पड़ताल बताती है कि मोदी पहली बार 26 से 30 सितम्बर 2014 में अमेरिका गये फिर 2015 में 24 से 30 सितम्बर के बीच यात्रा की अब एक बार फिर 22 सितम्बर से उनकी यात्रा प्रारम्भ होगी। हालांकि 2016 में दो बार और 2017 में भी मोदी अमेरिका जा चुके हैं।

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धरा पर हिंदी की धारा और विचारधारा

 भले ही हिन्दी अपने देष में संघर्श कर रही हो पर दुनिया तो इसे दोनों हाथों से स्वीकार कर रही है। अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जनसैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 
हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 
सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते पाॅंच वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 
विष्व तेजी से प्रगृति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। साल 2018 के सिविल सेवा के नतीजे में तो हिन्दी माध्यम का सफलता दर सवा दो फीसदी से कम रहा जो किसी अनहोनी की आहट हैं। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 

सुशील कुमार सिंह
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