सिविल सेवा परीक्षा में किसी लड़की का टाॅप करना अब न तो नई और न ही अचरज से भरी बात है। हाल के वर्शों से देष की सर्वोच्च परीक्षा में नारी का पलड़ा वर्श-दर-वर्श भारी होता जा रहा है। बीते 4 जुलाई को संघ लोक सेवा आयोग द्वारा वर्श 2014 के सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे घोशित किये गये जिसमें फलक पर लड़कियां थी। इस बार जिस तरह रैंकिंग में षीर्शक चार स्थानों पर लड़कियों का कब्जा हुआ है ये सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास में एक अनूठी मिसाल है। इस प्रकार का उदाहरण इस परीक्षा के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। ब्रिटिष युग से इस्पाती सेवा के रूप में जानी जाने वाली सिविल सेवा वर्तमान भारत में कहीं अधिक सम्मान और भारयुक्त मानी जाती है और यह समय के साथ परिवर्तन के दौर से भी गुजरती रही है। स्वतंत्रता के तत्पष्चात् सर्वाधिक बड़ा फेरबदल वर्श 1979 की परीक्षा में देखा जा सकता है जो कोठारी समिति की सिफारिषों पर आधारित था। यहीं से सिविल सेवा परीक्षा प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार को समेटते हुए त्रिस्तरीय हो गयी और इस परिवर्तित पैटर्न के पहले टाॅपर उड़ीसा के डाॅ0 हर्शुकेष पाण्डा हुए। प्रषासनिक सेवा को लेकर हमेषा से ही युवाओं में आकर्शण रहा है साथ ही देष की सेवा का बड़ा अवसर भी इसके माध्यम से देखा जाता रहा है। लाखों युवक-युवतियां इसे अपने कैरियर का माध्यम चुनते हैं। विगत् वर्शों से सिविल सेवा के नतीजे लड़कियों की संख्या में तीव्रता लिए हुए है। इस बार के नतीजे तो पराकाश्ठा है। यकीनन यह देष की उन तमाम लड़कियों को हिम्मत और ताकत देने का काम करेंगे जो मेहनत के बूते मुकाम हासिल करने का सपना देख रही हैं। यह अधिक खास इसलिए भी है क्योंकि इस बार की टाॅपर ईरा सिंघल ने षारीरिक अषक्तता से ग्रस्त होने के बावजूद इस षिखर को छुआ है जो स्वयं में अप्रतिम और अदम्य साहस का उदाहरण हैं।
पिछले पांच वर्शों में सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे नारी चमक के प्रतीक रहे हैं। पड़ताल करने से पता चलता है कि वर्श 2010, 2011 और 2012 में लगातार लड़कियों ने इस परीक्षा में षीर्शस्थ स्थान हासिल किया जबकि 2013 में गौरव अग्रवाल ने टाॅप करके इस क्रम को तोड़ा पर 2014 में पुनः न केवल लड़कियां षीर्शस्थ हुईं बल्कि प्रथम से लेकर चतुर्थ स्थान तक का दबदबा बनाये रखने में कामयाब रहीं। वर्श 2008 का परिणाम भी षुभ्रा सक्सेना के रूप में लड़कियों के ही टाॅपर होने का प्रमाण है। रोचक यह भी है कि विगत् कुछ वर्शों से लड़कियों की इस परीक्षा में न केवल संख्या बढ़ी है बल्कि टाॅपर बनने की परम्परा भी कायम है जो नये युग की परिपक्वता भी है और परिवर्तन की कसौटी भी है। बरसों से यह कसक रही है कि नारी उत्थान और विकास को लेकर कौन सी डगर निर्मित की जाए। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस पर कई प्रकार के नियोजन किये गये जिसमें महिला सषक्तिकरण को देखा जा सकता है। षिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में जिस प्रकार लड़कियां आगे बढी़ हैं इससे तो लगता है कि उन पर की गयी चिंता कामयाबी की ओर झुकने लगी है। प्रषासनिक सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार की बढ़ोत्तरी स्त्री-पुरूश समानता के दृश्टिकोण को भी पोशण देने का काम करेगी साथ ही सषक्तीकरण के मार्ग में उत्पन्न व्यवधान को भी दूर करेगी जैसा कि इस बार की चयनित लड़कियों ने भी कुछ इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किए हैं। इसके अलावा समाज में लड़कियों के प्रति कमजोर पड़ रही सोच को भी मजबूती मिलेगी।
वर्श 2012 की सिविल सेवा परीक्षा में 998 प्रतियोगियों का चयन हुआ था जिसमें लड़कियों की संख्या 245 थी जिसमें टाॅप 25 प्रतियोगियों में 13 लड़के और 12 लड़कियां थी। यह नतीजा किसी भी वर्श के लिए एक बेहतर संतुलन कहा जा सकता है। वर्श 2010 में 920 पदों के मुकाबले 230 लड़कियों का चयन हुआ था परन्तु 20 के अन्दर केवल 5 ही लड़कियां थी। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि 2014 के परिणाम को देखा जाए तो प्रथम 5 प्रतियोगियों में 4 लड़कियों का चयन होना इस बात का संकेत है कि लड़कियों की प्रतियोगी प्रासंगिकता अब कहीं अधिक व्यवस्थित हो चली है। यह अचरज की बात नहीं है कि 10वीं, 12वीं से लेकर आईआईटी और पीएमटी तक में बाकायदा लड़कियां टाॅप कर रही हैं और मेधा सूची में नाम दर्ज करा रही हैं। भारत विविधताओं का देष है यहां अनेकों धर्म और भाशायें हैं पर इसकी एक खासियत है अनेकता में एकता। सिविल सेवा परीक्षा भी इस अनूठेपन से अलग नहीं है कष्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सभी प्रतियोगी कभी न कभी सिविल सेवा परीक्षा के टाॅपर बने हैं। वर्श 1991 के टाॅपर राजू नारायण स्वामी जहां केरल से सम्बन्धित थे वहीं 2009 के टाॅपर डाॅ. षाह फैज़ल जम्मू-कष्मीर से सम्बन्धित रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेष तो ऐसी परीक्षाओं के गढ़ माने जाते रहे हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले तीन दषकों में 5 बार बिहार से टाॅपर मिला है जबकि उत्तर प्रदेष में ऐसा 4 बार हो चुका है। इतना ही नहीं लगातार दो-दो बार (1987, 1988 और 1996, 1997) टाॅपर बिहार से रहे हैं जबकि यही कारनामा 1989 और 1990 में उत्तर प्रदेष भी कर चुका है। विगत् वर्शों से मुसलमान प्रतियोगियों की संख्या भी बढ़ी है। इस वर्श के परिणाम में 34 मुसलमान प्रतिभागी चयनित हुए इनमें से 5 लड़कियां हैं यह किसी भी वर्श का सर्वाधिक बड़ा परिणाम है। इसके पूर्व 2013 में 30, 2009 में 31 मुसलमान प्रतिभागियों का चयन देखा जा सकता है।
सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा है। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बुनने की जगह इलाहाबाद रही है जबकि अब वहां हालात बेहतर नहीं है। पहली बार वर्श 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लन्दन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का स्थान था आज वहां मीलों का सन्नाटा है। वर्श 2014 के परिणाम से भी निराषा ही हाथ लगी है। प्रथम 50 तो छोड़िए 300 के अन्दर भी यहां का कोई प्रतियोगी षामिल नहीं है। वर्श 2008 में 35, 2009 में 76 जबकि 2010 में 55 अभ्यर्थी अन्तिम रूप से यहां से चयनित थे। पूरब का आॅक्सफोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विष्वविद्यालय आज के दौर में सिविल सेवकों को न दे पाने के कारण सिसक रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह प्रारम्भिक परीक्षा में हुए परिवर्तन जिसमें सीसैट को षामिल किए जाने को माना जा रहा है। फिलहाल इस बार के नतीजे यह सिद्ध कर चुके हैं कि आईएएस के आसमान पर न केवल नारी बरकरार है बल्कि बढ़त के साथ है। इसमें चैंकने वाली कोई बात नहीं है नतीजे हर्श से भरे हैं। अपेक्षाओं के धरातल पर ये जादूगरी कहीं अधिक रोमांचकारी भी है जिस प्रकार टाॅप से लेकर मेधा सूची तक की यात्रा में लड़कियां षुमार हुई हैं उसे देखते हुए उनके प्रति सम्मान का एक भाव स्वतः इंगित हो जाता है। इस भरोसे के साथ कि आने पीढ़ी को, समाज को और देष को भी नारी षक्ति का बल प्राप्त होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
पिछले पांच वर्शों में सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे नारी चमक के प्रतीक रहे हैं। पड़ताल करने से पता चलता है कि वर्श 2010, 2011 और 2012 में लगातार लड़कियों ने इस परीक्षा में षीर्शस्थ स्थान हासिल किया जबकि 2013 में गौरव अग्रवाल ने टाॅप करके इस क्रम को तोड़ा पर 2014 में पुनः न केवल लड़कियां षीर्शस्थ हुईं बल्कि प्रथम से लेकर चतुर्थ स्थान तक का दबदबा बनाये रखने में कामयाब रहीं। वर्श 2008 का परिणाम भी षुभ्रा सक्सेना के रूप में लड़कियों के ही टाॅपर होने का प्रमाण है। रोचक यह भी है कि विगत् कुछ वर्शों से लड़कियों की इस परीक्षा में न केवल संख्या बढ़ी है बल्कि टाॅपर बनने की परम्परा भी कायम है जो नये युग की परिपक्वता भी है और परिवर्तन की कसौटी भी है। बरसों से यह कसक रही है कि नारी उत्थान और विकास को लेकर कौन सी डगर निर्मित की जाए। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस पर कई प्रकार के नियोजन किये गये जिसमें महिला सषक्तिकरण को देखा जा सकता है। षिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में जिस प्रकार लड़कियां आगे बढी़ हैं इससे तो लगता है कि उन पर की गयी चिंता कामयाबी की ओर झुकने लगी है। प्रषासनिक सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार की बढ़ोत्तरी स्त्री-पुरूश समानता के दृश्टिकोण को भी पोशण देने का काम करेगी साथ ही सषक्तीकरण के मार्ग में उत्पन्न व्यवधान को भी दूर करेगी जैसा कि इस बार की चयनित लड़कियों ने भी कुछ इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किए हैं। इसके अलावा समाज में लड़कियों के प्रति कमजोर पड़ रही सोच को भी मजबूती मिलेगी।
वर्श 2012 की सिविल सेवा परीक्षा में 998 प्रतियोगियों का चयन हुआ था जिसमें लड़कियों की संख्या 245 थी जिसमें टाॅप 25 प्रतियोगियों में 13 लड़के और 12 लड़कियां थी। यह नतीजा किसी भी वर्श के लिए एक बेहतर संतुलन कहा जा सकता है। वर्श 2010 में 920 पदों के मुकाबले 230 लड़कियों का चयन हुआ था परन्तु 20 के अन्दर केवल 5 ही लड़कियां थी। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि 2014 के परिणाम को देखा जाए तो प्रथम 5 प्रतियोगियों में 4 लड़कियों का चयन होना इस बात का संकेत है कि लड़कियों की प्रतियोगी प्रासंगिकता अब कहीं अधिक व्यवस्थित हो चली है। यह अचरज की बात नहीं है कि 10वीं, 12वीं से लेकर आईआईटी और पीएमटी तक में बाकायदा लड़कियां टाॅप कर रही हैं और मेधा सूची में नाम दर्ज करा रही हैं। भारत विविधताओं का देष है यहां अनेकों धर्म और भाशायें हैं पर इसकी एक खासियत है अनेकता में एकता। सिविल सेवा परीक्षा भी इस अनूठेपन से अलग नहीं है कष्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सभी प्रतियोगी कभी न कभी सिविल सेवा परीक्षा के टाॅपर बने हैं। वर्श 1991 के टाॅपर राजू नारायण स्वामी जहां केरल से सम्बन्धित थे वहीं 2009 के टाॅपर डाॅ. षाह फैज़ल जम्मू-कष्मीर से सम्बन्धित रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेष तो ऐसी परीक्षाओं के गढ़ माने जाते रहे हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले तीन दषकों में 5 बार बिहार से टाॅपर मिला है जबकि उत्तर प्रदेष में ऐसा 4 बार हो चुका है। इतना ही नहीं लगातार दो-दो बार (1987, 1988 और 1996, 1997) टाॅपर बिहार से रहे हैं जबकि यही कारनामा 1989 और 1990 में उत्तर प्रदेष भी कर चुका है। विगत् वर्शों से मुसलमान प्रतियोगियों की संख्या भी बढ़ी है। इस वर्श के परिणाम में 34 मुसलमान प्रतिभागी चयनित हुए इनमें से 5 लड़कियां हैं यह किसी भी वर्श का सर्वाधिक बड़ा परिणाम है। इसके पूर्व 2013 में 30, 2009 में 31 मुसलमान प्रतिभागियों का चयन देखा जा सकता है।
सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा है। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बुनने की जगह इलाहाबाद रही है जबकि अब वहां हालात बेहतर नहीं है। पहली बार वर्श 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लन्दन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का स्थान था आज वहां मीलों का सन्नाटा है। वर्श 2014 के परिणाम से भी निराषा ही हाथ लगी है। प्रथम 50 तो छोड़िए 300 के अन्दर भी यहां का कोई प्रतियोगी षामिल नहीं है। वर्श 2008 में 35, 2009 में 76 जबकि 2010 में 55 अभ्यर्थी अन्तिम रूप से यहां से चयनित थे। पूरब का आॅक्सफोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विष्वविद्यालय आज के दौर में सिविल सेवकों को न दे पाने के कारण सिसक रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह प्रारम्भिक परीक्षा में हुए परिवर्तन जिसमें सीसैट को षामिल किए जाने को माना जा रहा है। फिलहाल इस बार के नतीजे यह सिद्ध कर चुके हैं कि आईएएस के आसमान पर न केवल नारी बरकरार है बल्कि बढ़त के साथ है। इसमें चैंकने वाली कोई बात नहीं है नतीजे हर्श से भरे हैं। अपेक्षाओं के धरातल पर ये जादूगरी कहीं अधिक रोमांचकारी भी है जिस प्रकार टाॅप से लेकर मेधा सूची तक की यात्रा में लड़कियां षुमार हुई हैं उसे देखते हुए उनके प्रति सम्मान का एक भाव स्वतः इंगित हो जाता है। इस भरोसे के साथ कि आने पीढ़ी को, समाज को और देष को भी नारी षक्ति का बल प्राप्त होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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