मानसून सत्र का पहला हफ्ता हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। विपक्ष के सख्त तेवर और सरकार के जवाबी हमले के बीच देष की लोकतांत्रिक संस्था घाटे की ओर अग्रसर है। लगातार संसद की कार्यवाही का बाधित होना इस बात का संकेत है कि पक्ष और विपक्ष दोनों में कोई झुकने को तैयार नहीं है। गतिरोध संसद के दोनों सदनों में इस कदर बरपा है कि अच्छे काम-काज की अवधारणा से मानो जनता के प्रतिनिधि बेफिक्र हों। संसद न चलने देने के विरोध को लेकर सत्ता पक्ष के भाजपाई सांसद कांग्रेस के खिलाफ धरना दे रहे हैं मांग है कि स्टिंग मामले को लेकर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को हटाया जाये। कांग्रेस का फोकस विदेष मंत्री सुशमा स्वराज के इस्तीफे पर है। सुशमा को कमजोर कड़ी मान कांग्रेस ने अपनी रणनीति भी बदल ली है। कांग्रेस को यह लगने लगा है कि इस्तीफे की तिकड़ी सही नहीं है। ऐसे में व्यवहारिक होगा कि सुशमा पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। ध्यानतव्य हो कि राजस्थान के मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज चैहान से भी इस्तीफा मांगा जाता रहा है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी सुशमा स्वराज को ललित मोदी के मामले में अपराधी तक कह दिया है। इस पर भी हंगामा जारी है। विडम्बना यह है कि निजी सियासत में फंसे देष को नेतृत्व देने वाले लोकतंत्र की वकालत तो करते हैं पर इसके मर्म को समझने में विफल हैं।
फिलहाल मानसून सत्र एक ऐसी झंझवात में फंस चुका है जिसमें हर हाल में जनता ही नुकसान में होगी। सरकार का पक्ष मामले को तूल देने के बजाय समाधान की ओर होना चाहिए जबकि विरोधियों की प्रकृति के अनुसार एक सीमा तक विरोध लाजमी है पर दुर्भाग्य यह है कि सरकार भी आरोप लगाने में ही सारी कूबत झोंके हुए है जबकि विरोधी तो हठ पर पहले से उतारू हैं। इतना ही नहीं दामन बचाने की होड़ में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरी को उभारने में ही लगे हैं। संसद की कार्यवाही को लम्बे समय तक बाधित रखना कहीं से ठीक नहीं कहा जा सकता। सदन जनता के पैसों से चलता है, टैक्स देने वाले अपने प्रतिनिधियों से यह उम्मीद लगा कर बैठे होते हैं, कि लोकतंत्र की संस्था में जाकर वह उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे। इतना ही नहीं जन भलाई के बड़े-बड़े दावे करने वाले नेता भी सियासत के जुमलेबाजी में वक्त जाया कर रहे हैं। मात्र 23 दिन का मानसून सत्र 30 विधेयकों से जकड़ा हुआ था पर एक हफ्ते का हाल देखकर तो अन्दाजा लगता है कि उम्मीद करना बेमानी है। करीब डेढ़ करोड़ रूपया संसद की एक घण्टे की कार्यवाही पर खर्च हो जाता है जबकि एक दिन में यह आठ से नौ करोड़ रूपए के बराबर होता है और बारीकी से देखा जाए तो ढाई लाख खपाने पर एक मिनट की संसद चलती है। हालात यह हैं कि वर्श भर चलने वाली चार बैठकों में विभाजित संसद का काफी कीमती वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।
देखा जाए तो पिछले वर्श में औसत 73 दिनों का ही सदन चल पाया जबकि 1950 के दषक में लोकसभा की औसत बैठक 127 दिन और राज्यसभा की बैठक 93 दिन की हुई थी। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब सदन को नीति और कानून अधिक मात्रा में चाहिए तो बैठकों की संख्या न्यून की ओर है। खास यह भी है कि पहली लोकसभा (1952-57) में 677 बैठकें हुई थी। पांचवी (1971-77) में 613 जबकि दसवीं लोकसभा (1991-96) में यह औसत 423 का था। पन्द्रहवीं लोकसभा (2009-2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। वर्तमान में जिस प्रकार बैठकों को लेकर अड़चने आ रही हैं उससे प्रतीत होता है कि यह आंकड़ा कमोबेष कमजोर ही रहेगा। दरअसल राजनीति जिस कदर कुचक्र लिए हुए है उससे स्पश्ट है कि काम कम और हंगामा ज्यादा होगा। कांग्रेस को सियासत की जमीन चाहिए सत्ता पक्ष को भी अपनी धरातल बचानी है। इस वर्चस्व की लड़ाई में सदन में जो पटकथा लिखी जा रही है फिलहाल उसे कोई नोबेल तो नहीं मिलने वाला पर इतिहास के पन्नों में यह जरूर दर्ज होगा कि देष की चिंता करने वाले सियासतदानों ने सदन की गरिमा को काम-काज में प्रयोग करने के बजाए दाग धोने और दाग गढ़ने तक ही सीमित रखा। किसकी कमीज ज्यादा गन्दी है इस पर भी वक्त जाया किया जा रहा है।
संसद केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने का मंच नहीं है और न ही सरकार के निर्णयों पर मुहर लगाने के लिए है। संसद का काम विमर्ष और बहस के साथ देषीय भावनाओं को समझने की है उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए है जिसके इंतजार में हर तबका रहता है। सरकारें चाहती हैं कि लोकतंत्र की संस्था पर उनका सिक्का चले जबकि इस बात की भी गुंजाइष रखनी चाहिए कि उन्हें सबका साथ मिले। प्रधानमंत्री मोदी का नारा भी ‘सबका साथ, सबका विकास‘ है। मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से संसदीय विमर्ष के गतिरोध में बढ़ोत्तरी हुई है। इसका बड़ा कारण सत्र आहूत होने से पहले संसद के बाहर सहमति के आभाव का होना है। सरकार की संवैधानिक बाध्यतायें हैं इसे देखते हुए सरकार का अधिकार भी है और दायित्व भी कि सब कुछ ठीक करने का इरादा रखे पर मानसून सत्र में पुराने रोड़े जिस प्रकार सामने आये हैं उसे देखते हुए बहस और विमर्ष की गुंजाइष तो बहुत है पर नीयत साफ नहीं है। राजनीति निर्लज्जता की होड़ नहीं है बल्कि देष की बिगड़ी हालत को पथ पर लाने के लिए है। फिलहाल वर्तमान राजनीति वाद-प्रतिवाद के मामले में तो सघन है पर संवाद के मामले में कहीं अधिक विरल है। इसे देखते हुए बहुत अच्छे की उम्मीद तो नहीं की जा सकती।
गौरतलब है कि पक्ष-विपक्ष दोनों सदन चलाना चाहते हैं पर हैरत की बात यह है कि चला कोई नहीं रहा है। राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने सदन नहीं चलने देने के लिए भाजपा को दोशी ठहराया है जबकि सत्ता पक्ष विरोधियों को इस मामले में कटघरे में खड़ा करता है सवाल है कि मानसून सत्र इस्तीफे के लिए लाया गया है या काम-काज के लिए। यह सत्र लोकतंत्र को मर्यादित करने के लिए लाया गया है या तमाषा बनाने के लिए साथ ही इसे देष की चिंता के लिए आहूत किया गया है या स्वयं की चिंता के लिए। जिस प्रकार सियासतदानों की पिलपिलाहट देखने को मिल रही है, तस्वीर साफ है कि मानसून सत्र इसी गतिरोध के साथ अन्तिम तारीख तक सूखा रहेगा। सोचनीय यह भी है कि गांधी प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करने वाले सत्य और सद्बुद्धि के मामले में इतने निर्मम क्यों? क्यों संसद को ठप करने पर अमादा हैं? एक-दूसरे को दबाव में लेने की राजनीति क्यों कर रहे हैं? पोल-पट्टी खोलने में ही सारी कसरत क्यों? घोटाले और घपले को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं पर समस्याओं के निस्तारण पर किसी का ध्यान क्यों नहीं? मानसून सत्र में समय क्योंकि बेहद कम बचा है ऐसे में सरकार को चाहिए कि बचे हुए कार्य दिवस पर संजीदगी दिखाते हुए गतिरोध दूर करने का कोई फाॅर्मूला निकाले और विपक्ष को भी इस बात का इल्म रहे कि जनता सब कुछ देख रही है। बावजूद इसके यदि यही रवैया बना रहा तो मानसून सत्र बिना किसी काम-काज के कोरा ही अन्त को प्राप्त कर लेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
फिलहाल मानसून सत्र एक ऐसी झंझवात में फंस चुका है जिसमें हर हाल में जनता ही नुकसान में होगी। सरकार का पक्ष मामले को तूल देने के बजाय समाधान की ओर होना चाहिए जबकि विरोधियों की प्रकृति के अनुसार एक सीमा तक विरोध लाजमी है पर दुर्भाग्य यह है कि सरकार भी आरोप लगाने में ही सारी कूबत झोंके हुए है जबकि विरोधी तो हठ पर पहले से उतारू हैं। इतना ही नहीं दामन बचाने की होड़ में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरी को उभारने में ही लगे हैं। संसद की कार्यवाही को लम्बे समय तक बाधित रखना कहीं से ठीक नहीं कहा जा सकता। सदन जनता के पैसों से चलता है, टैक्स देने वाले अपने प्रतिनिधियों से यह उम्मीद लगा कर बैठे होते हैं, कि लोकतंत्र की संस्था में जाकर वह उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे। इतना ही नहीं जन भलाई के बड़े-बड़े दावे करने वाले नेता भी सियासत के जुमलेबाजी में वक्त जाया कर रहे हैं। मात्र 23 दिन का मानसून सत्र 30 विधेयकों से जकड़ा हुआ था पर एक हफ्ते का हाल देखकर तो अन्दाजा लगता है कि उम्मीद करना बेमानी है। करीब डेढ़ करोड़ रूपया संसद की एक घण्टे की कार्यवाही पर खर्च हो जाता है जबकि एक दिन में यह आठ से नौ करोड़ रूपए के बराबर होता है और बारीकी से देखा जाए तो ढाई लाख खपाने पर एक मिनट की संसद चलती है। हालात यह हैं कि वर्श भर चलने वाली चार बैठकों में विभाजित संसद का काफी कीमती वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।
देखा जाए तो पिछले वर्श में औसत 73 दिनों का ही सदन चल पाया जबकि 1950 के दषक में लोकसभा की औसत बैठक 127 दिन और राज्यसभा की बैठक 93 दिन की हुई थी। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब सदन को नीति और कानून अधिक मात्रा में चाहिए तो बैठकों की संख्या न्यून की ओर है। खास यह भी है कि पहली लोकसभा (1952-57) में 677 बैठकें हुई थी। पांचवी (1971-77) में 613 जबकि दसवीं लोकसभा (1991-96) में यह औसत 423 का था। पन्द्रहवीं लोकसभा (2009-2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। वर्तमान में जिस प्रकार बैठकों को लेकर अड़चने आ रही हैं उससे प्रतीत होता है कि यह आंकड़ा कमोबेष कमजोर ही रहेगा। दरअसल राजनीति जिस कदर कुचक्र लिए हुए है उससे स्पश्ट है कि काम कम और हंगामा ज्यादा होगा। कांग्रेस को सियासत की जमीन चाहिए सत्ता पक्ष को भी अपनी धरातल बचानी है। इस वर्चस्व की लड़ाई में सदन में जो पटकथा लिखी जा रही है फिलहाल उसे कोई नोबेल तो नहीं मिलने वाला पर इतिहास के पन्नों में यह जरूर दर्ज होगा कि देष की चिंता करने वाले सियासतदानों ने सदन की गरिमा को काम-काज में प्रयोग करने के बजाए दाग धोने और दाग गढ़ने तक ही सीमित रखा। किसकी कमीज ज्यादा गन्दी है इस पर भी वक्त जाया किया जा रहा है।
संसद केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने का मंच नहीं है और न ही सरकार के निर्णयों पर मुहर लगाने के लिए है। संसद का काम विमर्ष और बहस के साथ देषीय भावनाओं को समझने की है उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए है जिसके इंतजार में हर तबका रहता है। सरकारें चाहती हैं कि लोकतंत्र की संस्था पर उनका सिक्का चले जबकि इस बात की भी गुंजाइष रखनी चाहिए कि उन्हें सबका साथ मिले। प्रधानमंत्री मोदी का नारा भी ‘सबका साथ, सबका विकास‘ है। मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से संसदीय विमर्ष के गतिरोध में बढ़ोत्तरी हुई है। इसका बड़ा कारण सत्र आहूत होने से पहले संसद के बाहर सहमति के आभाव का होना है। सरकार की संवैधानिक बाध्यतायें हैं इसे देखते हुए सरकार का अधिकार भी है और दायित्व भी कि सब कुछ ठीक करने का इरादा रखे पर मानसून सत्र में पुराने रोड़े जिस प्रकार सामने आये हैं उसे देखते हुए बहस और विमर्ष की गुंजाइष तो बहुत है पर नीयत साफ नहीं है। राजनीति निर्लज्जता की होड़ नहीं है बल्कि देष की बिगड़ी हालत को पथ पर लाने के लिए है। फिलहाल वर्तमान राजनीति वाद-प्रतिवाद के मामले में तो सघन है पर संवाद के मामले में कहीं अधिक विरल है। इसे देखते हुए बहुत अच्छे की उम्मीद तो नहीं की जा सकती।
गौरतलब है कि पक्ष-विपक्ष दोनों सदन चलाना चाहते हैं पर हैरत की बात यह है कि चला कोई नहीं रहा है। राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने सदन नहीं चलने देने के लिए भाजपा को दोशी ठहराया है जबकि सत्ता पक्ष विरोधियों को इस मामले में कटघरे में खड़ा करता है सवाल है कि मानसून सत्र इस्तीफे के लिए लाया गया है या काम-काज के लिए। यह सत्र लोकतंत्र को मर्यादित करने के लिए लाया गया है या तमाषा बनाने के लिए साथ ही इसे देष की चिंता के लिए आहूत किया गया है या स्वयं की चिंता के लिए। जिस प्रकार सियासतदानों की पिलपिलाहट देखने को मिल रही है, तस्वीर साफ है कि मानसून सत्र इसी गतिरोध के साथ अन्तिम तारीख तक सूखा रहेगा। सोचनीय यह भी है कि गांधी प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करने वाले सत्य और सद्बुद्धि के मामले में इतने निर्मम क्यों? क्यों संसद को ठप करने पर अमादा हैं? एक-दूसरे को दबाव में लेने की राजनीति क्यों कर रहे हैं? पोल-पट्टी खोलने में ही सारी कसरत क्यों? घोटाले और घपले को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं पर समस्याओं के निस्तारण पर किसी का ध्यान क्यों नहीं? मानसून सत्र में समय क्योंकि बेहद कम बचा है ऐसे में सरकार को चाहिए कि बचे हुए कार्य दिवस पर संजीदगी दिखाते हुए गतिरोध दूर करने का कोई फाॅर्मूला निकाले और विपक्ष को भी इस बात का इल्म रहे कि जनता सब कुछ देख रही है। बावजूद इसके यदि यही रवैया बना रहा तो मानसून सत्र बिना किसी काम-काज के कोरा ही अन्त को प्राप्त कर लेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
No comments:
Post a Comment