Friday, July 17, 2015

सुशासन तो बोधगम्य पर भूमिका अधूरी

जब प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन का परीक्षण किया जायेगा तब कहीं जाकर सरकार चलाने की षैली का पता चल पायेगा। एक साल से अधिक की अवधि वाली मोदी सरकार को लेकर विभिन्न राय और विमर्ष आते रहे हैं पर इस एक साल के भीतर झांका जाये तो गरीबों को क्या फायदा हुआ, किसानों के लिए सरकार कितनी हितैशी रही, रोजगार के क्षेत्र में कितना दम और ताकत लगा और निवेष को लेकर योजनायें कितनी आषक्त लिये हुए हैं? इसका भी अन्दाजा लगाना मुमकिन है। सरकार ने कई नई योजनाएं पेष की हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक सुखद आष्चर्य यह है कि देष को एक ऐसा नेतृत्व मिला है जिसमें उम्मीद अधिक है भले ही धरातल पर उतना न दिखता हो। युवाओं को प्रोत्साहित करने और भारत को बदलने की मुहिम से पिरोयी मोदी सरकार के लिए सुषासन सब कुछ बदलने की ताकत है। भारतीय राजनीति ने वर्श 1989 के दौरान गठबन्धन युग में प्रवेष किया था। उस समय यह मन्तव्य भी विकसित होने लगा था कि राश्ट्रीय उद्देष्य राश्ट्रीय राजनीति से गायब हो सकते हैं। कोई निष्चित लक्ष्य सम्भव नहीं है। ऐसा ही कुछ देष के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भी दृश्टिगोचर होने लगा था। राश्ट्रीय और अन्तर्राश्ट्रीय दोनों मामलों में केन्द्रीय नेतृत्व अक्षम एवं कम पारदर्षी माना जाने लगा है। उलझन तो यह भी थी कि दुनिया भारत के व्यवहार को लेकर नये विमर्ष की ओर न चली जाए। अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलनों में भी भारतीय नेतृत्व काफी हद तक हाषिये पर जाता हुआ दिख रहा था।
किसे पता था कि वर्श 2014 में भारतीय लोकतंत्र गठबंधन की गांठ को खोलते हुए अदम्य साहस के साथ एक ऐसे जनादेष की ओर झुकेगा जहां से सारे समीकरण जनमत को नमस्कार करेंगे और इस जनादेष का नेतृत्व मोदी करेंगे। इसी वर्श 26 मई को मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर देष को नेतृत्व देने लगे। कई उद्घोशणाओं, नियोजनों और कार्यक्रमों के बूते देष नई राह की ओर चल पड़ा। वर्श 1991 में नई आर्थिक नीति की घोशणा हुई थी जिसे उदारीकरण की अवधारणा में कसकर देखा जाता है। यह एक ऐसी आर्थिक घटना थी जो देष के इतिहास को चमकदार बनाने के लिए जानी जाती है। तीन दषक बीतने के बाद वर्तमान में भी उदारीकरण के धरातल पर सुषासन की जमीन का तैयार होना इसकी मजबूती का प्रमाण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सुषासन के बड़े हिमायती हैं। इस बात की बहस भी हो सकती है कि सुषासन की धरातल फिलहाल भारत में कितनी बेहतर हुई है? सरकार की सफलता और विफलता को लेकर नये विचारों का सृजन सम्भव किया जा सकता है। जायजा तो इस बात का भी लिया जा सकता है कि स्किल इण्डिया, डिजिटल इण्डिया और गुड-गवर्नेंस के मामले में मोदी सरकार कितनी जायज सिद्ध हुई है। सरकार का पहला वर्श हलचलों से भरा रहा है। मोदी भी इस एक वर्श में देष और विदेष में अपना दायरा विस्तारित करने में संलग्न रहे। अब तक जो मुद्दे अछूते थे उन्हें छूने की कोषिष भी की गयी पर यह पड़ताल का विशय है कि क्रियान्वयन और उसका प्रभाव कहां तक पहुंचा है।
प्रधानमंत्री के षपथग्रहण समारोह के दिन से ही विदेषी मेहमानों का देष में आगमन षुरू हो गया था। विकसित और विकासषील देषों के साथ पड़ोसी मुल्कों से मोदी के कूटनीतिक सम्बन्ध षुरूआती दिनों में ही संकेत देने लगे थे। विदेष दौरों में भूटान को पहले चुन कर छोटे पड़ोसी देष की प्रासंगिकता को स्पश्टता दे दी। जानकार भी मानते हैं कि मोदी ने षासन का नया अन्दाज विकसित किया है। आम लोगों से सीधे संवाद स्थापित करना, लीक से हटकर तरीका अपनाना, जड़ जंग हो चुके रेडियो से देष की जनता से जुड़ना मोदी की नायाब और लकीर से हटकर काम करने की विधा ही है। सरकार की चिंता का एक महत्वपूर्ण विशय भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति भी है। धीरे-धीरे देष में निवेष का माहौल बना। पिछली तिमाही में जीडीपी भी 9 फीसदी तक पहुंच गयी जो इस बात का संकेत था कि निकट भविश्य में विकास के मामले में भारत चीन को पीछे छोड़ सकता है। इतना ही नहीं देष का विदेषी मुद्रा भण्डार 350 अरब डाॅलर तक पहुंच गया। सब कुछ इतना आसान नहीं था। एक विचारक के नाते यह विमर्ष भी मेरे सम्मुख आता रहा है कि देष मे सुषासन की धरातल कितनी मजबूत व परिपक्व है पर हो सकता है कि इसके संतोशजनक जवाब अभी न बन पाये हों मगर जो धारा देष में चल रही है उसे देखते हुए भविश्य के लिए बेहतर जवाब की उम्मीद की जा सकती है।
सुषासन देष के विकास की वह अवधारणा है जहां लोकतंत्र अप्रतिम हो जाए। सरकारें जनता के उन मांगों के अनुरूप अपने को ढाल लें जहां से विकास का सर्वांगीण रूख अख्तियार होता हो जिस हेतु मजबूत बुनियादी ढांचे की जरूरत है। आने वाले सालों में भारत का विकास इस बात पर भी निर्भर करेगा कि सुषासन की धरातल कितनी मजबूत हुई है। प्रधानमंत्री की कई योजनाओं में षामिल एक योजना ‘जन-धन‘ जिसे बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है। गरीबों को बैंक का खातेदार बना देना फिलहाल बड़ी उपलब्धि है पर इस सच से भी अंजान नहीं रहना चाहिए कि जनधन से अभी जनता को बल प्राप्त नहीं हुआ है। देष को स्वच्छ बनाने की मुहिम भी चली है। इस मामले में बात जरूर बनती दिख रही है। सार्थक पहल यह भी है कि प्रधानमंत्री ने सरकारी अमले में कमी कर दी है बेहतर प्रषासन देने की कोषिष में ‘लेस गवर्नमेन्ट और मोर गवर्नेंस‘ का नारा दिया है जिसका मतलब साफ है सरकारी कामकाज को इस कदर आसान बनाना कि पहुंच में आखिरी व्यक्ति भी आ जाए। योजनाओं को लागू करने में पारदर्षिता की कमी न हो साथ ही पिलपिलाती नौकरषाही को कहीं अधिक जिम्मेदार बनाना। हाल ही में तीन सामाजिक योजनाओं की घोशणा की गयी जिससे सरकार की मनोदषा को आंका जा सकता है। यह सामाजिक योजनाएं भी सुषासन के मार्ग को अबाध बनाने का प्रयास ही है।
प्रगति के दो मार्ग होते हैं एक वह जिसमें व्यापक निश्कर्श छुपे होते हैं दूसरे वे जिसमें सामाजिक जीवन का सहचर्य होता है। जानकार मानते हैं कि मोदी ने जिस तरह से केन्द्र सरकार को चलाया है इससे उनके समर्थक और आलोचक दोनों ही चैंक गये हैं। आलोचकों की उलझन यह है कि प्रधानमंत्री ने पिछली योजनाओं को किस मनोदषा के साथ समाप्त किया उन्हीं की दूसरी उलझन यह भी है कि घोशित नई योजनाएं किस आवेष का हिस्सा हैं। फलन बिन्दु पर जाया जाए तो प्रधानमंत्री मोदी की एक साल की उपलब्धि का बहीखाता कमजोर ही रहा है। मोदी प्रचण्ड बहुमत के प्रधानमंत्री हैं पहला साल सरकार को रचाने-बसाने में निकल गया दूसरे साल के भी दो महीने निकलने वाले हैं। असमंजस यदि है तो इस बात का कि सब कुछ के बावजूद क्या सुषासन की धरातल परिपक्व हुई? विगत् वर्शों में देखा जाए तो भारत की राजनीति में सुषासन एक चैप्टर से अधिक कुछ नहीं था पर इन दिनों मोदी ने इसे एक पुस्तक का रूप देने की कोषिष में लगे हैं पर इस विमर्ष को भी कमतर नहीं आंका जाना चाहिए कि भारत के जिस मंच पर सुषासन बोधगम्य हो रहा है अभी उसकी भूमिका अधूरी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


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