कष्मीर मुद्दा षामिल किये बगैर भारत से बातचीत की कोई प्रक्रिया षुरू नहीं होगी। इस बयानबाजी से एक ओर जहां पाकिस्तान अपनी संकुचित सोच को दर्षाता है वहीं दूसरी ओर यह जताता है कि भारत की कोई भी कवायद उसके लिए मायने नहीं रखती। कष्मीर को जबरदस्ती मुद्दा बनाने की कोषिष पाकिस्तान के सत्ताधारियों के लिए अन्दरूनी मजबूरी भले हो पर इससे यह सच्चाई तो नहीं बदलने वाली कि जम्मू-कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है। बीते 10 जुलाई को रूस के उफा में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और षरीफ के बीच इस बात की सहमति बनी थी कि मुम्बई बम कांड के आतंकी की आवाज को साझा किया जायेगा। रूस में उठाया गया पाकिस्तान का यह कदम मात्र 48 घण्टे के अंदर पाकिस्तान में पल्टी मार गया। नवाज षरीफ के सलाहकार सरताज अजीज ने रूख साफ किया कि कष्मीर के बिना कोई भी काज सम्भव नहीं है। इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि पाकिस्तान ने यह गैर वाजिब काम क्यों किया? दरअसल पाकिस्तान के अन्दर एक ऐसी उथल-पुथल है जिसकी वजह से वहां के निर्णयकत्र्ता यदि आतंकवाद के विरूद्ध कुछ करें या कष्मीर के बगैर भारत से डायलोग करते हैं तो उनका पाकिस्तान में जीना मुहाल हो सकता है। इसी डर से पाकिस्तान के आका बेहतर सोच से परे रहते हैं साथ ही जितना अधिक जहर भारत के विरूद्ध उगल सकते हैं उतने ही वे सुरक्षित रहेंगे। षरीफ के सलाहकार सरताज अजीज आतंकवादियों के तो अजीज हैं पर अमन-चैन को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं सताती। इसी परिपाटी का निर्वहन करते हुए। मोदी-षरीफ की उफा में हुई मुलाकात और हुये वादों का पाकिस्तान के लिए कोई मायने नहीं।
आतंकवाद के सभी रूपों की आलोचना करते तो सभी हैं पर कुछ अप्रत्यक्ष तौर पर इसके हिमायती भी सिद्ध हुए हैं। चीन ने मुम्बई बम काण्ड के मास्टर माइंड जकीउर रहमन लखवी को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् से बा-इज्जत बरी कराने में जो अगुवाई की उसे सारी दुनिया ने देखा। एक ओर चीन आतंकवाद को सिरे से खारिज करता है, उसकी आलोचना करता है वहीं दूसरी ओर आतंकियों के लिए सुरक्षा कवच बनने का काम करता है। भारत 2008 के मुम्बई हमले के आरोपियों को कठघरे तक ले जाने के लिए पाकिस्तान को पर्याप्त सूचना और सबूत पहले ही सौंप चुका है बावजूद इसके पाकिस्तान सरकार ने कोर्ट में लखवी के खिलाफ पर्याप्त सबूत पेष नहीं किये जिसके चलते उसे कोर्ट से जमानत मिल गयी और 166 लोगों का हत्यारा आज षहरी जिन्दगी जी रहा है। जब भारत की यह षिकायत संयुक्त राश्ट्र पहुंची तो उस पर कार्यवाही होने से पहले ही चीन ढाल बन कर पाकिस्तान से गाढ़ी दोस्ती का परिचय दे दिया। चीन के एक थिंक टैंक ने आतंकवाद, विषेश तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम की ओर से उत्पन्न खतरे से मुकाबला करने के लिए भारत और चीन को संयुक्त प्रयास करने की बात कही है। भारत के षंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनने से यह सम्भव भी हो सकता है पर हैरत से भरी बात यह है कि जो चीन लखवी के मामले में अपना चरित्र आतंक के प्रति नरम कर लिया है उससे इस प्रकार की अपेक्षा रखना कितना विष्वसनीय होगा?
रूस के उफा में आयोजित षिखर सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान को षंघाई सहयोग संगठन में षामिल कर लिया गया था। छः सदस्यीय इस संगठन में चीन काफी प्रभावषाली माना जाता है। भारत और पाकिस्तान का इस समूह में होना यह दर्षाता है कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर तो पाकिस्तान वह सब कुछ करना चाहता है जो उसके लाभ के लिए है जबकि उसकी दोहरी नीति यह है कि वह अपने देष के अन्दर आतंकवाद को जीवित रखना चाहता है। सवाल है कि अन्तर्राश्ट्रीय संगठन क्या लफबाजी के लिए बनाये जाते हैं? क्या ऐसे संगठनों की चिंता आतंकवाद की समाप्ति के लिए नहीं होने चाहिए? दो-तीन दिन के सम्मेलनों में दावे सभी करते हैं पर जब अपने वतन वापस आते हैं तब जहर उगलने का काम करते हैं। पाकिस्तान और चीन दोनों को इस मामले से बरी नहीं किया जा सकता। एक बात और इतिहास को पड़ताल कर देखा जाये तो साफ-साफ यह भी दिखाई देता है कि भारत को परेषान करने में बीजिंग वाया इस्लामाबाद का सहारा लेता है जबकि इस्लामाबाद भारत के लिए कांटों से भरी सोच तो रखता ही है। पाकिस्तान एक ऐसे लोकतंत्र को हांकता है जिसमें कल्याणकारी समाज नहीं बल्कि आतंकी समाज का निर्माण हो रहा है। अचरज भरी बात यह भी है कि दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकियों का षरणगाह है बावजूद इसके उस पर अमेरिका और चीन की नियामतें बरसती रहती हैं। चीन चाहता है कि पाकिस्तान पर उसका दखल इस कदर हो कि अमेरिका की आवष्यकता ही न पड़े ताकि दबाव और प्रभाव के चलते पाकिस्तान को भारत के खिलाफ बेहतरी के साथ इस्तेमाल किया जा सके।
पाकिस्तान की कथनी और करनी में हमेषा से फर्क रहा है। पाकिस्तान कष्मीर के मामले में जिस प्रकार अड़ियल रवैया अपनाये हुए है उससे तो उसकी संकुचित सोच का पता चलता है। पाकिस्तान भारत के साथ कई अन्तर्राश्ट्रीय मंच साझा करता है। द्विपक्षीय वार्ता भी होती रहती है। पिछले 14 माह की मोदी सरकार और षरीफ से हुई कई मुलाकात के बावजूद विकास वहीं खड़ा है जबकि पाकिस्तान में आतंकवाद की फसलें कहीं अधिक लहलहा रही है। प्रतीत तो यह भी होता है कि भारत आतंकवाद के मामले में एक बार फिर अकेला पड़ गया है। सवाल है कि जिस आतंकवाद से विष्व भर के देष त्रासदी झेल रहे हैं उसकी लड़ाई केवल भारत की कैसे हो सकती है? क्या पाकिस्तान के आतंकी सुरक्षा वाले रवैये से भारत को भी सख्त रूख अख्तियार नहीं कर लेना चाहिए? क्या बातचीत को जारी रखना सही होगा। क्या वैष्विक स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ जोरदार आवाज नहीं उठानी चाहिए? भारत को यह भी जताने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए कि उसके नरम होने का मतलब पाकिस्तान का गैर अनुषासित होना बर्दाष्त नहीं किया जायेगा।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
आतंकवाद के सभी रूपों की आलोचना करते तो सभी हैं पर कुछ अप्रत्यक्ष तौर पर इसके हिमायती भी सिद्ध हुए हैं। चीन ने मुम्बई बम काण्ड के मास्टर माइंड जकीउर रहमन लखवी को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् से बा-इज्जत बरी कराने में जो अगुवाई की उसे सारी दुनिया ने देखा। एक ओर चीन आतंकवाद को सिरे से खारिज करता है, उसकी आलोचना करता है वहीं दूसरी ओर आतंकियों के लिए सुरक्षा कवच बनने का काम करता है। भारत 2008 के मुम्बई हमले के आरोपियों को कठघरे तक ले जाने के लिए पाकिस्तान को पर्याप्त सूचना और सबूत पहले ही सौंप चुका है बावजूद इसके पाकिस्तान सरकार ने कोर्ट में लखवी के खिलाफ पर्याप्त सबूत पेष नहीं किये जिसके चलते उसे कोर्ट से जमानत मिल गयी और 166 लोगों का हत्यारा आज षहरी जिन्दगी जी रहा है। जब भारत की यह षिकायत संयुक्त राश्ट्र पहुंची तो उस पर कार्यवाही होने से पहले ही चीन ढाल बन कर पाकिस्तान से गाढ़ी दोस्ती का परिचय दे दिया। चीन के एक थिंक टैंक ने आतंकवाद, विषेश तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम की ओर से उत्पन्न खतरे से मुकाबला करने के लिए भारत और चीन को संयुक्त प्रयास करने की बात कही है। भारत के षंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनने से यह सम्भव भी हो सकता है पर हैरत से भरी बात यह है कि जो चीन लखवी के मामले में अपना चरित्र आतंक के प्रति नरम कर लिया है उससे इस प्रकार की अपेक्षा रखना कितना विष्वसनीय होगा?
रूस के उफा में आयोजित षिखर सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान को षंघाई सहयोग संगठन में षामिल कर लिया गया था। छः सदस्यीय इस संगठन में चीन काफी प्रभावषाली माना जाता है। भारत और पाकिस्तान का इस समूह में होना यह दर्षाता है कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर तो पाकिस्तान वह सब कुछ करना चाहता है जो उसके लाभ के लिए है जबकि उसकी दोहरी नीति यह है कि वह अपने देष के अन्दर आतंकवाद को जीवित रखना चाहता है। सवाल है कि अन्तर्राश्ट्रीय संगठन क्या लफबाजी के लिए बनाये जाते हैं? क्या ऐसे संगठनों की चिंता आतंकवाद की समाप्ति के लिए नहीं होने चाहिए? दो-तीन दिन के सम्मेलनों में दावे सभी करते हैं पर जब अपने वतन वापस आते हैं तब जहर उगलने का काम करते हैं। पाकिस्तान और चीन दोनों को इस मामले से बरी नहीं किया जा सकता। एक बात और इतिहास को पड़ताल कर देखा जाये तो साफ-साफ यह भी दिखाई देता है कि भारत को परेषान करने में बीजिंग वाया इस्लामाबाद का सहारा लेता है जबकि इस्लामाबाद भारत के लिए कांटों से भरी सोच तो रखता ही है। पाकिस्तान एक ऐसे लोकतंत्र को हांकता है जिसमें कल्याणकारी समाज नहीं बल्कि आतंकी समाज का निर्माण हो रहा है। अचरज भरी बात यह भी है कि दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकियों का षरणगाह है बावजूद इसके उस पर अमेरिका और चीन की नियामतें बरसती रहती हैं। चीन चाहता है कि पाकिस्तान पर उसका दखल इस कदर हो कि अमेरिका की आवष्यकता ही न पड़े ताकि दबाव और प्रभाव के चलते पाकिस्तान को भारत के खिलाफ बेहतरी के साथ इस्तेमाल किया जा सके।
पाकिस्तान की कथनी और करनी में हमेषा से फर्क रहा है। पाकिस्तान कष्मीर के मामले में जिस प्रकार अड़ियल रवैया अपनाये हुए है उससे तो उसकी संकुचित सोच का पता चलता है। पाकिस्तान भारत के साथ कई अन्तर्राश्ट्रीय मंच साझा करता है। द्विपक्षीय वार्ता भी होती रहती है। पिछले 14 माह की मोदी सरकार और षरीफ से हुई कई मुलाकात के बावजूद विकास वहीं खड़ा है जबकि पाकिस्तान में आतंकवाद की फसलें कहीं अधिक लहलहा रही है। प्रतीत तो यह भी होता है कि भारत आतंकवाद के मामले में एक बार फिर अकेला पड़ गया है। सवाल है कि जिस आतंकवाद से विष्व भर के देष त्रासदी झेल रहे हैं उसकी लड़ाई केवल भारत की कैसे हो सकती है? क्या पाकिस्तान के आतंकी सुरक्षा वाले रवैये से भारत को भी सख्त रूख अख्तियार नहीं कर लेना चाहिए? क्या बातचीत को जारी रखना सही होगा। क्या वैष्विक स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ जोरदार आवाज नहीं उठानी चाहिए? भारत को यह भी जताने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए कि उसके नरम होने का मतलब पाकिस्तान का गैर अनुषासित होना बर्दाष्त नहीं किया जायेगा।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
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