ऐसा प्रतीत होता है कि 23 दिन चलने वाला मानसून सत्र कई आंधी और तूफान का सामना करेगा। इसकी बानगी सत्र के पहले दिन ही तब देखने को मिली जब ललित मोदी प्रकरण को लेकर सदन में हंगामा हुआ। सत्र के एक दिन पहले ही विपक्ष की एकता में दरार पड़ना इस बात का भी संकेत था कि सरकार के खिलाफ लामबद्ध होने में सभी विरोधी एकमत नहीं हैं। ललित मोदी और व्यापमं जैसे मुद्दे सरकार की मानसून सत्र में बड़ी कमजोरी है पर इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था में नीतियों के बजाय कुरीतियों को जन्म दिया जाए। इसका अंदाजा पहले से भी रहा है कि सरकार और विपक्ष के बीच ठनेगी जरूर। संसद के छोटे से मानसून सत्र में कई सारे काम होने हैं लेकिन जिस प्रकार की सियासत चल रही है उससे बहुत कुछ हासिल होगा उम्मीद करना बेमानी है। इसी सत्र में 30 से अधिक विधेयकों के लिए सरकार को विमर्ष भी करना है और समर्थन भी जुटाना है जबकि वक्त महज 23 दिन का है। इन्हीं विधेयकों में कई सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना की भांति हैं जिसमें जीएसटी और भूमि अधिग्रहण बिल षामिल है। 1 अप्रैल, 2016 से जीएसटी पूरे देष में लागू होने के लिए प्रस्तावित है जबकि भूमि अधिग्रहण कानून के आभाव में सरकार अध्यादेष के बाद अध्यादेष जारी करने की मजबूरी में फंसी है। माना तो यह भी जा रहा है कि सब कुछ अच्छा नहीं रहा तो सरकार भूमि अधिग्रहण बिल को संसद में रखेगी ही नहीं। ऐसे में एक बार पुनः अध्यादेष जारी करना पड़ेगा जो गिनती के हिसाब से चैथा कहलाएगा।
बहरहाल अगर संसद में गतिरोध दिखता है जिसकी आषंका सौ फीसदी है तो यह उसी प्रकार का रवैया कहा जाएगा जैसे कि बरसों पहले यूपीए सरकार के साथ भाजपा का था। कोलगेट, 2जी स्पेक्ट्रम और तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के मामले में कुछ ऐसा ही चित्र वर्शों पूर्व उभरा था जैसा कि आज व्यापमं, सुशमा स्वराज एवं वसुंधरा राजे के मामले में देखने को मिल रहा है। उस समय भाजपा विपक्ष में होने के नाते गतिरोध पैदा करने का काम करती थी अब भाजपा सत्ताधारी होने के नाते कांग्रेस का विरोध झेल रही है। बावजूद इसके मोदी सरकार विपक्षियों से सहयोग की उम्मीद करती है और ऐसा करना लाज़मी भी है जबकि विपक्ष अपने अड़ियल रवैये को अख्तियार किये हुए है। दरअसल लोकतंत्र में विचित्र बातों के लिए कोई स्थान नहीं होता है पर सियासत की सकरी गली में जब लोकतंत्र उलझा हुआ महसूस करे तो सत्ताधारी का धर्म है कि वह लोकतंत्र के लिए रक्षा कवच बने और विरोधी भी उसके न बने। सवाल यह भी उठता है कि साल भर में संसद में सत्र के नाम पर चार बैठकें होती हैं पर क्या इसे अकड़पन और अहम् के चलते लोकतंत्र के खिलाफ कर देना चाहिए? कांग्रेस मुख्य विरोधी की भूमिका में स्वयं को पाती है परन्तु लोकसभा में गैर मान्यता प्राप्त विपक्षी है तथा स्थान के मामले में भी दहाई में मात्र 44 का है जबकि विरोध चार सौ की भांति कर रही है। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि बिना मोदी सरकार के विरोध के वह अपना सियासी सिक्का नहीं चला सकती पर क्या इसे लोकतंत्र के लिए पूरी तरह सही करार दिया जा सकता है?
सरकार के पास क्या विकल्प है जिन मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर उंगली उठाई जा रही है उनके मामले में सरकार या तो कोई फैसला ले अन्यथा विरोध झेलें। कांग्रेस का साफ कहना है कि जब तक आरोपों से घिरे भाजपाई नेता इस्तीफा नहीं देते संसद नहीं चलने देंगे। सरकार ललित मोदी प्रकरण के चलते, स्मृति इरानी के डिग्री विवाद और मध्य प्रदेष में व्यापमं घोटाले को लेकर घिरी हुई है। ऐसे में इस मानसून सत्र में विरोधी बिना जवाब-तलब के सरकार का पीछा नहीं छोड़ने वाले। प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष से सहयोग मांग रहे हैं उनका मानना है कि किसी भी मुद्दे पर चर्चा की जा सकती है और संसद की कार्यवाही चलाना एक साझा जिम्मेदारी है। लोकतंत्र का मजनून भी यही कहता है कि विपक्षी भी लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन न होने दें और सरकार सत्ता की हेकड़ी में न रहकर लोकतंत्र की सीमाओं का ख्याल रखें। ऐसा करने से दोनों लांछन से बच सकते हैं। इतना ही नहीं इस प्रकार की विचारधारा से लोकतंत्र भी विजयी हो सकेगा। मानसून सत्र से पहले दो सर्वदलीय बैठकें हुई एक संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू और दूसरी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने बुलाई थी पर गतिरोध दूर नहीं हुआ। तथ्य यह भी है कि जब सरकार विरोधियों को जनहित के मामले में मान-मनव्वल कर रही है तो विपक्ष का इस तरह अड़े रहना कितना तर्कसंगत है? कहा जाए तो विरोधी सियासत से षायद ऊपर उठना ही नहीं चाहते।
सरकार के लिए कुछ राहत भरी बात यह है कि विपक्ष में कुछ इंच का दरार देखा जा रहा है। सभी विरोधी के विरोध वाले सुर एक जैसे नहीं हैं। ऐसे में मोदी सरकार का उत्साहित होना स्वाभाविक है पर जिस रूप में विपक्ष की तैयारी है उसे देखते हुए सरकार के लिए सब कुछ आसान नहीं होने वाला। सरकार की ओर से पहले ही यह कहा जा चुका है कि विवादित प्रकरण को लेकर कोई भी इस्तीफा नहीं देगा। वैंकेया नायडू ने सरकार की ओर से यह दर्षन दे दिया है कि जब किसी ने गैर कानूनी या अनैतिक कार्य किया ही नहीं तो इस्तीफे का सवाल क्यों? सरकार जितनी साफ गोही दिखा रही है असल में उतना है नहीं। मौके की नजाकत को देखते हुए सरकार गैर कांग्रेसी दलों पर भी नजर रखे हुए है। भूमि विधेयक के मामले में समाजवादी पार्टी का नरम पड़ना मोदी सरकार के लिए थोड़े अच्छे संकेत हैं पर इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि सपा का विरोध खत्म हो गया। विरोध के सुर ऊंचे हैं ऐसे में सवाल है कि आरोपों की मूसलाधार बारिष से सरकार अपने को कैसे बचायेगी? माना जा रहा है कि जिस प्रकार भाजपाई केन्द्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री इन दिनों ललित मोदी और व्यापमं के चलते घिरे हैं उसे देखते हुए विरोधी सरकार को बख्षने के मूड में नहीं हैं।
कांग्रेस ने भाजपाई नेताओं के इस्तीफे जरूरी बताये हैं। गुलाम नबी आजाद सुचारू सत्र चलाने में सहयोग देने के लिए इस्तीफे की षर्त रखी है। सरकार ने भी कांग्रेस के अल्टीमेटम को स्वीकार न करने का इरादा जता दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप हैं जबकि विपक्षी हंगामे पर उतारू हैं। विपक्ष के असहयोग वाले रवैये के बावजूद सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी चाहे अध्यादेष ही क्यों न लाना पड़े। परम्परा यह रही है कि रचनात्मक मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष हमेषा सहमत होते रहे हैं। आगे के मानसून सत्र के 22 दिनों में यह भी पता चल जायेगा कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था में सियासत की जीत हुई या फिर प्रजातंत्र विजित हुआ। परिस्थितियां सरकार के विरोध में है पर विपक्ष को भी सोचना होगा कि जनता के पैसे से चलने वाली भारी-भरकम संसद और उसमें होने वाले काज देष के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं और सरकार को भी कोई ऐसा रास्ता निकाल लेना चाहिए जिससे विपक्ष के हंगामे को कम किया जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बजट और ग्रीश्म सत्र की तुलना में मानसून सत्र लोकतंत्र के लिए बेहतर सिद्ध होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
बहरहाल अगर संसद में गतिरोध दिखता है जिसकी आषंका सौ फीसदी है तो यह उसी प्रकार का रवैया कहा जाएगा जैसे कि बरसों पहले यूपीए सरकार के साथ भाजपा का था। कोलगेट, 2जी स्पेक्ट्रम और तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के मामले में कुछ ऐसा ही चित्र वर्शों पूर्व उभरा था जैसा कि आज व्यापमं, सुशमा स्वराज एवं वसुंधरा राजे के मामले में देखने को मिल रहा है। उस समय भाजपा विपक्ष में होने के नाते गतिरोध पैदा करने का काम करती थी अब भाजपा सत्ताधारी होने के नाते कांग्रेस का विरोध झेल रही है। बावजूद इसके मोदी सरकार विपक्षियों से सहयोग की उम्मीद करती है और ऐसा करना लाज़मी भी है जबकि विपक्ष अपने अड़ियल रवैये को अख्तियार किये हुए है। दरअसल लोकतंत्र में विचित्र बातों के लिए कोई स्थान नहीं होता है पर सियासत की सकरी गली में जब लोकतंत्र उलझा हुआ महसूस करे तो सत्ताधारी का धर्म है कि वह लोकतंत्र के लिए रक्षा कवच बने और विरोधी भी उसके न बने। सवाल यह भी उठता है कि साल भर में संसद में सत्र के नाम पर चार बैठकें होती हैं पर क्या इसे अकड़पन और अहम् के चलते लोकतंत्र के खिलाफ कर देना चाहिए? कांग्रेस मुख्य विरोधी की भूमिका में स्वयं को पाती है परन्तु लोकसभा में गैर मान्यता प्राप्त विपक्षी है तथा स्थान के मामले में भी दहाई में मात्र 44 का है जबकि विरोध चार सौ की भांति कर रही है। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि बिना मोदी सरकार के विरोध के वह अपना सियासी सिक्का नहीं चला सकती पर क्या इसे लोकतंत्र के लिए पूरी तरह सही करार दिया जा सकता है?
सरकार के पास क्या विकल्प है जिन मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर उंगली उठाई जा रही है उनके मामले में सरकार या तो कोई फैसला ले अन्यथा विरोध झेलें। कांग्रेस का साफ कहना है कि जब तक आरोपों से घिरे भाजपाई नेता इस्तीफा नहीं देते संसद नहीं चलने देंगे। सरकार ललित मोदी प्रकरण के चलते, स्मृति इरानी के डिग्री विवाद और मध्य प्रदेष में व्यापमं घोटाले को लेकर घिरी हुई है। ऐसे में इस मानसून सत्र में विरोधी बिना जवाब-तलब के सरकार का पीछा नहीं छोड़ने वाले। प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष से सहयोग मांग रहे हैं उनका मानना है कि किसी भी मुद्दे पर चर्चा की जा सकती है और संसद की कार्यवाही चलाना एक साझा जिम्मेदारी है। लोकतंत्र का मजनून भी यही कहता है कि विपक्षी भी लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन न होने दें और सरकार सत्ता की हेकड़ी में न रहकर लोकतंत्र की सीमाओं का ख्याल रखें। ऐसा करने से दोनों लांछन से बच सकते हैं। इतना ही नहीं इस प्रकार की विचारधारा से लोकतंत्र भी विजयी हो सकेगा। मानसून सत्र से पहले दो सर्वदलीय बैठकें हुई एक संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू और दूसरी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने बुलाई थी पर गतिरोध दूर नहीं हुआ। तथ्य यह भी है कि जब सरकार विरोधियों को जनहित के मामले में मान-मनव्वल कर रही है तो विपक्ष का इस तरह अड़े रहना कितना तर्कसंगत है? कहा जाए तो विरोधी सियासत से षायद ऊपर उठना ही नहीं चाहते।
सरकार के लिए कुछ राहत भरी बात यह है कि विपक्ष में कुछ इंच का दरार देखा जा रहा है। सभी विरोधी के विरोध वाले सुर एक जैसे नहीं हैं। ऐसे में मोदी सरकार का उत्साहित होना स्वाभाविक है पर जिस रूप में विपक्ष की तैयारी है उसे देखते हुए सरकार के लिए सब कुछ आसान नहीं होने वाला। सरकार की ओर से पहले ही यह कहा जा चुका है कि विवादित प्रकरण को लेकर कोई भी इस्तीफा नहीं देगा। वैंकेया नायडू ने सरकार की ओर से यह दर्षन दे दिया है कि जब किसी ने गैर कानूनी या अनैतिक कार्य किया ही नहीं तो इस्तीफे का सवाल क्यों? सरकार जितनी साफ गोही दिखा रही है असल में उतना है नहीं। मौके की नजाकत को देखते हुए सरकार गैर कांग्रेसी दलों पर भी नजर रखे हुए है। भूमि विधेयक के मामले में समाजवादी पार्टी का नरम पड़ना मोदी सरकार के लिए थोड़े अच्छे संकेत हैं पर इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि सपा का विरोध खत्म हो गया। विरोध के सुर ऊंचे हैं ऐसे में सवाल है कि आरोपों की मूसलाधार बारिष से सरकार अपने को कैसे बचायेगी? माना जा रहा है कि जिस प्रकार भाजपाई केन्द्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री इन दिनों ललित मोदी और व्यापमं के चलते घिरे हैं उसे देखते हुए विरोधी सरकार को बख्षने के मूड में नहीं हैं।
कांग्रेस ने भाजपाई नेताओं के इस्तीफे जरूरी बताये हैं। गुलाम नबी आजाद सुचारू सत्र चलाने में सहयोग देने के लिए इस्तीफे की षर्त रखी है। सरकार ने भी कांग्रेस के अल्टीमेटम को स्वीकार न करने का इरादा जता दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप हैं जबकि विपक्षी हंगामे पर उतारू हैं। विपक्ष के असहयोग वाले रवैये के बावजूद सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी चाहे अध्यादेष ही क्यों न लाना पड़े। परम्परा यह रही है कि रचनात्मक मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष हमेषा सहमत होते रहे हैं। आगे के मानसून सत्र के 22 दिनों में यह भी पता चल जायेगा कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था में सियासत की जीत हुई या फिर प्रजातंत्र विजित हुआ। परिस्थितियां सरकार के विरोध में है पर विपक्ष को भी सोचना होगा कि जनता के पैसे से चलने वाली भारी-भरकम संसद और उसमें होने वाले काज देष के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं और सरकार को भी कोई ऐसा रास्ता निकाल लेना चाहिए जिससे विपक्ष के हंगामे को कम किया जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बजट और ग्रीश्म सत्र की तुलना में मानसून सत्र लोकतंत्र के लिए बेहतर सिद्ध होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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