ढांचागत सुधार की अपनी एक कसौटी होती है। इसी ढांचे के बूते किसी भी समस्या को समाधान देने के हेतु प्रक्रियागत दृष्टिकोण और व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य का नि र्वहन होता है। देश इन दिनों कोरोना संक्रमण से जूझ रहा है । चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है और समस्या विकराल रूप लिए हुए है। जनमानस में भय का वातावरण है और देश के भीतर एक अलग तरीके का दर्शन फलक पर है। दृष्टिकोण और परिपेक्ष्य दोनों इस ओर इशारा कर रहे हैं कि स्वास्थ्य जनित इस समस्या ने सरकार और सिस्टम को हाशिए पर तो ला दिया है।
गौरतलब है कि समस्या से निपटने व कूवत झोंकने के लिए मजबूत संरचना होनी चाहिए। असल में क्या ऐसा है। विगत वर्षों के आंकड़े तो यह बताते हैं कि समस्याओं के साथ देश ढांचागत सुधार उस स्तर को प्राप्त नहीं कर पाया। जैसा कि समय के साथ होना चाहिए। हालांकि मौजूदा दौर सवाल उठाने का नहीं है लेकिन इस बात की खोज का जरूर है कि आखिर जब हम बड़ा देश चलाते हैं, बड़े शासन और सुशासन की हुंकार भरते हैं तो फिर बीमारी के आगे कमतर क्यों पड़ते हैं? भारत के आजादी के 75 साल पूरे होने एक साल बचा है परंतु आज भी चिकित्सा के क्षेत्र में पर्याप्त सुविधाओं का घोर अभाव बना हुआ है । भारत तीसरी दुनिया का देश है और अनेक बीमारियां यहां अभी भी व्याप्त है मसलन तपेदिक, मलेरिया, कालाजार डेंगू बुखार, चिकनगुनिया, जल जनित बीमारियां जैसे हैजा, डायरिया आदि। गौरतलब है कि
एक साल से अधिक समय से देश कोरोनावायरस से जूझ रहा है। जिसका तोड़ अभी तक नहीं खोजा जा सका है । हालाकि इससे निपटने हेतु टीका निर्माण में भारत सफलता हासिल कर चुका है और 16 जनवरी 2021 से टीकाकरण का अभियान भी तेजी लिए हुए। आंकड़े बताते हैं कि 16 करोड़ों भारतीयों को अब तक टीकाकरण हो चुका है। टीकाकरण को कोरोनावायरस से बचने के बेहतर उपाय के रूप में देखा जा रहा है मगर अभी भी इसे पूरी तरह प्राप्त करने में महीनों का सफर तय करना होगा। कहीं टीके की कमी तो कहीं टीके के प्रति उदासीनता का भाव भी देखा जा सकता है और कहीं-कहीं तो टीके की बर्बादी भी हो रही है ।
किसी भी देश के सामाजिक-आर्थिक विकास उस देश के सेहतमंद नागरिकों पर निर्भर करता है किसी भी देश के विकास की कुंजी उस देश के स्वस्थ नागरिक हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनेक रिपोर्ट से लेकर इस क्षेत्र में हुए अनेक सर्वेक्षण से पता चलता हैं कि सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के क्षेत्र में सुशासन के संदर्भ लचीले ही रहे हैं हालांकि सरकार ने साल 2021-22 के स्वास्थ्य बजट में 137 फीसद की वृद्धि करते हुए यह जताने का प्रयास किया है कि स्वास्थ्य को लेकर उसकी चिंता बढ़ी है मगर कोरोना काल में इतना व्यापक धन भी ऊंट के मुंह में जीरा ही है। गौरतलब है कि दुनिया के बड़े और मौझोले किस्म की अर्थव्यवस्था वाले देश में स्वास्थ्य बजट के मामले में भारत से कहीं आगे हैं । भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा का जितना बजट होता है दक्षिण अफ्रीका जैसे देश कमोवेश उतने बजट स्वास्थ्य पर ही खर्च कर देते हैं। ऐसे ही कई उदाहरण दुनिया से और मिल जाएंगे जो स्वास्थ्य बजट के मामले में भारत से मीलों आगे हैं। साल 2019 के वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक के अनुसार 195 देशों में भारत 57वे स्थान पर है। सूचकांक से यह भी पता चलता है कि अधिकतर देश किसी भी बड़े संक्रामक रोग से निपटने के लिए तैयार नहीं है । इस सूची में केवल 13 देश ऐसे हैं जो शीर्ष पर रहे इनमें से अमेरिका पहले स्थान पर है । हालांकि मौजूदा आंकड़े में अमेरिका में कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है जो यह दर्शाती है कि बड़े ढांचागत वाले देश भी कोरोना के आगे विफल रहे है। इसके अलावा कई यूरोपीय देश भी कोरोना के झंझावात में इतनी बुरी तरह फंसे कि उनके ढांचे भी चरमरा गए जिन्हें दुनिया में मजबूत चिकित्सीय व्यवस्था के लिए जाना जाता है। यह ध्यान देने वाली बात कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक विश्व स्तर पर महामारी और महामारी के खतरों का पहला व्यापक मूल्यांकन है। साल 2018 मेडिकल जर्नल लैंसेट के एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुंच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145 में पायदान पर है। चौकाने वाला पक्ष यह भी है कि भारत 195 देशों की सूची में अपने पड़ोसी देश चीन बांग्लादेश श्रीलंका और भूटान से भी कहीं पीछे रहा। तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि साल 2016 में स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और गुणवत्ता के मामले में भारत को 41.2 अंक मिले थे जबकि साल 1990 में केवल 24.7 अंक थे। जाहिर है कि समय के साथ उत्थान तो हुआ है मगर जितना चाहिए शायद उतना नहीं । बावजूद इसके सरकार को एक सीमा के बाद कोसना सही नहीं होगा मगर उम्मीद भी जब उन्हीं से हो तो सवाल लाजमी है।
इस प्रसंग से बात को आगे और समझना शायद आसान रहेगा। एक विद्वान डी.डी. कोसांबी ने भारतीय सामंतवाद के संकट को स्पष्टता देने के लिए एक उदाहरण का प्रयोग किया था और वह उदाहरण पानीपत की तीसरी लड़ाई से जुड़ा है। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में एक पक्ष के सैनिक के पास खाने के लिए पर्याप्त भोज्य व्यवस्था नहीं थी जबकि दूसरे पक्ष के सैनिक पड़ोस के गांव को लूट कर अपनी भूख मिटाने में कामयाब रहे। उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि किसी भी पक्ष ने सैनिकों के भोजन का कोई इंतजाम नहीं किया था । महामारी के इस दौर में जिस तरह अस्पताल के अंदर और अस्पताल के बाहर स्वास्थ्य सामग्री और संसाधन की कमी है उसे देखते हुए यह लगता है कि ढांचागत कमियां बाकायदा विद्यमान है और कमजोरी दोनों जगह व्याप्त है । संक्रमित अस्पताल के अंदर हो या बाहर इलाज की कोताही भरपूर है। ऑक्सीजन सेलेन्डर, वेंटिलेटर और दवाई समेत बेड मिलने तक की जो मारामारी देखने को मिल रही हैं उससे साफ है के ढांचा तो कमजोर है ही, चिकित्सीय व्यवस्था भी बड़े संकट से गुजर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 11हजार से अधिक व्यक्तियों पर एक डॉक्टर की व्यवस्था है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह व्यवस्था एक हजार व्यक्ति पर होनी चाहिए । इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि हम डॉक्टर्स के मामले में कहां खड़े हैं । बिहार में तो स्थिति और खराब है वहां 28 हजार से अधिक पर एक डॉक्टर है । उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी हालत इस मामले में अच्छी नहीं है
डब्ल्यूएचओ ने तो साल 2016 की एक रिपोर्ट में कहा था कि एलोपैथ के प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई डॉक्टर के पास मेडिकल की कोई डिग्री नहीं है । मगर एक सच्चाई यह भी है कि महामारी के इस सुनामी में यही झोलाछाप डॉक्टर अब कईयों के लिए इलाज के बड़े माध्यम बन गए हैं । ऐसी सूचनाएं टीवी और अखबार के माध्यम से आसानी से देखा जा सकती है । मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार देश में साल 2017 में करीब 10 लाख 41 हजार डॉक्टर पंजीकृत थे जिसमें सवा लाख डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में काम करते हैं जबकि बाकी बचे हुए निजी अस्पतालों में प्रैक्टिस करते हैं। इससे स्पष्ट है कि एक तो देश में डॉक्टर की कमी है दूसरे अधिकतर डॉक्टर का निजी अस्पतालों में काम करना। जाहिर है चिकित्सा का महंगा होना लाजमी है। जिस तरीके से भारत के चिकित्सा पद्धति में असंतुलन है। उक्त संदर्भ यह भी दर्शाता है कि ढांचागत बहुत बड़ी कमी है । गौरतलब है कि जब 2014 में मौजूदा सरकार पहली बार सत्ता में आई थी तो चार एम्स अर्थात अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान स्थापित करने की बात कही थी । 2015 में 7 और 2017 में 2 ऐसे ही और अस्पतालों की स्थापना की बात हुई थी। मगर क्या यह सब पूरे हुए हैं। 2018 में अपनी चौथी सालगिरह के समय 20 नए एम्स की भी बात हुई थी । यहां बता दें कि कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2011 में 6 एम्स बनाए गए थे दिल्ली के अलावा रायपुर, पटना, जोधपुर, भोपाल, ऋषिकेश और भुवनेश्वर इसमें शामिल है । समझने वाली बात यह भी है कि घोषित किए गए अनेक एम्स के बनने की तारीख अप्रैल 2021 बताई गई । अब आंकड़े यह भी बताते हैं कि बिहार के दरभंगा और हरियाणा के मनेठी में एम्स के लिए जो घोषणा हुई थी उसके लिए जमीन भी निर्धारित नहीं की गई है। झारखंड के देवघर में बनने वाले एम्स में एक चौथाई ही काम हुआ है। गुवाहाटी में एक तिहाई जबकि पश्चिम बंगाल के कल्याणी में इस मामले में देरी चल रही है । गुजरात के राजकोट में महज एम्स की घोषणा ही हो पाई है। वैसे तो रायबरेली में भी एम्स की बात रही हैं पर यहां जमीन पर क्या उतरा ? उपरोक्त संदर्भ बताते हैं कि जब ढांचागत कमियां हैं तो आफत के समय में चिकित्सीय व्यवहार पूरी तरह कैसे फलित होंगे ।
भारत की जनसंख्या 136 करोड़ है लगभग 8 लाख बिस्तर वाले कुल 20 हजार के आसपास सरकारी अस्पताल यहां देखे जा सकते हैं। हालिया स्थिति को देखते कई सरकारी और निजी चिकित्सालय के साथ कई अन्य प्रारूप में चिकित्सीय व्यवस्था को इन दिनों मजबूती दी जा रही है जाहिर इससे पिछले आंकड़े के तुलना में ढांचागत सुधार थोड़ा सुधरा हुआ जरूर दिखेगा। गौरतलब है कि भारत की 65 फीसद से अधिक जनसंख्या गांव में रहती है जिनके इलाज के लिए स्वास्थ्य केंद्र , प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र व अनेक स्वास्थ्य उपकेन्द हैं मगर ये भी कम है और जो हैं वहां भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है । वैसे यह कहना गलत ना होगा कि भारत में स्वास्थ्य सेवा मानो एक अभिजात्य वर्ग विशेष के लिए है। सरकारी चिकित्सालय गरीबो की उम्मीद होते हैं मगर सुविधा के आभाव में आस टूटती रहती है और निजी उसके बूते में नहीं है। हालांकि कोरोना महामारी ने गरीब और अमीर किसी को नहीं बख्शा है। ढांचागत चिकित्सीय सुधार के अभाव में यह बीमारी सभी पर भारी है। सरकार की ओर से प्रयास तेज किए गए हैं मगर जिस तरीके से स्वास्थ्य सामग्री और संसाधनों की मांग के अनुपात में आपूर्ति का आभाव है और न्यायालय की डांट लगातार पड़ रही है उसे देखते हुए तो यही लगता है की स्वास्थ्य के सुशासन के मामले में शासन-प्रशासन हाशिए पर है। भारत की हालिया स्थिति को देखते हुए दुनिया के तमाम देशों ने सहायता के लिए हाथ आगे बढ़ाएं जाहिर है इससे राहत तो मिलेगी। वैसे इसे वैश्विक बीमारी या आपदा का नाम देकर साफगोई से सिस्टम या सरकार को बचाया जा सकता है। मगर सुशासन को अपनी दिनचर्या समझने वाली सरकार की जिम्मेदारी यहां कम नहीं हो सकती। सुशासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसका एकमात्र उद्देश्य जन विकास है और यह जन विकास भूख से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य के मार्ग से गुजरते हुए उस फलक तक जाती है, जहां से एक सभ्य समाज और विकसित देश का निर्माण होता है। देश इन दिनों जीवन बचाने की होड़ में है, जनता इसमें बुरी तरह फंसी है और सरकार इस महामारी से बाहर निकलने की तमाम कोशिशें कर रही है ऐसे में पूरी जिम्मेदारी केवल सरकार पर डाल कर पल्ला झाड़ लेना सही नहीं होगा । समस्या बढ़ी है तो सभी को मिलकर इसका हल निकालना होगा। हालांकि सरकार के गाइड लाइन पर देश की जनता चल रही है। ऐसे में सरकार की यह बडी जिम्मेदारी है कि स्वास्थ्य सुशासन के पूरे मापदंड को शीघ्रता से विकसित करे ताकि इस महामारी से शीघ्र निजात मिल सके।
(6 मई 2021)
डॉ. सुशील कुमार सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिन्तक
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