Monday, June 28, 2021

सरकार को कोई यह खबर क्यों नहीं देता

तार्किक और वास्तविक संदर्भ यह भी है कि जीवन रोजाना की दर से जिया जाता है और इसके संतुलन के लिए कई जरूर पक्षों से प्रतिदिन जूझना होता है। इन्हीं में से एक पेट्रोल और डीजल भी है जो इन दिनों कीमत के मामले में आसमान को चीर चुका है। इसी से जुड़ा एक रोचक वाकया यह है कि हाल ही में पेट्रोल पंप पर गाड़ी में तेल डलवाने की पंक्ति में मै भी शामिल था। इसी दौरान एक ग्राहक को जोर से यह कहते सुना कि कोई सरकार को यह खबर क्यों नहीं देता कि कोरोना कमाई पर पहले ही डाका डाल चुका है और अब हर दिन बढ़ती तेल की कीमतें तो जीवन ही दूभर बना देगी। बात भले ही किसी एक ग्राहक ने कही हो पर इसमें सभी का दर्द शामिल हैं। उक्त संदर्भ कहीं अधिक समुचित और उचित है कि डीजल और पेट्रोल की कीमतों ने आम जनमानस को धराशाई कर दिया है। मई से अब तक के आंकड़े बताते हैं कि 26 बार डीजल और पेट्रोल के दाम बढ़ चुके हैं और कहीं कहीं तो पेट्रोल सौ रुपए प्रति लीटर की दर से बिक रहा है और डीजल की भी स्थिति कुछ शहरों में इसी आंकड़ों को छूते देखा जा सकता है। हैरत यह है कि जो डीजल पेट्रोल से मीलों पीछे होता था आज उसके साथ वह भी कदमताल कर रहा है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में तो पेट्रोल लगभग 105 रूपए लीटर के कगार पर है। वैसे भोपाल के अलावा मुंबई, हैदराबाद व बेंगलुरु जैसे देश के कई ऐसे शहर हैं जहां पेट्रोल सौ के पार है और कमोवेश डीजल सौ के समीप खड़ा है। बता दें कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हर रोज सुबह 6 बजे बदलाव होता है। पेट्रोल-डीजल के दाम में एक्साइज ड्यूटी, डीलर कमीशन और दूसरी चीजें जोड़ने के बाद इसका दाम करीब दोगुना हो जाता है। विदेशी मुद्रा दरों के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमत क्या है, इस आधार पर रोज पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बदलाव होता है।


दो टूक यह कि क्रूड आयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। करोना के समय मई 2020 में कच्चा तेल न्यूनतम स्तर पर था तब सरकार ने पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज ड्यूटी लगाकर इसके सस्ता होने की गुंजाइश 5 मई को ही खत्म कर दिया था। जबकि उसी साल मार्च में एक बार पहले भी यह महंगा हो चुका था। गौरतलब है कि मोदी शासनकाल में कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है और करोना काल में यह 20 डालर प्रति बैरल तक आ चुका था। तब देश को तेल की इतनीआवश्यकता नहीं थी क्योंकि सभी लॉकडाउन में थे। ऐसे में खपत गिरा जिससे न केवल ऑयल कंपनियां व उत्पादन करने वाले देशों को घाटा हुआ बल्कि सरकार का खजाना भी कमजोर हुआ। पिछले साल मई में बढ़ाई गई एक्साइज ड्यूटी का लक्ष्य एक लाख साठ हजार करोड़ रुपए कोष में जमा करने का था। जाहिर है जिस प्रकार तेल की कीमत में वृद्धि जारी है और सरकार अपने मुनाफे की चिंता करती रही है वही तेल की बेलगाम कीमत जनता को चोटिल भी कर रही है। चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक देश है। कोरोना की पहली लहर
व लॉकडाउन के दौरान भारत में तेल की खपत में 30 से 35 फीसद की कमी आई थी। दूसरी लहर में भी स्थिति डांवाडोल हुई है। गौरतलब है कि कोरोना की दूसरी लहर से पहले ही तेल की कीमत से आम जनमानस हताहत था पर कोरोना में कमजोर कमाई के बीच बढ़ी तेल की कीमत लोगों की जेब पर और भारी पड़ रही है। गौरतलब है कि अपनी आवश्यकता का 86 फीसद तेल भारत आयात करता है जो अधिकतम खाड़ी देशों से आता है। इस समय सऊदी अरब पहले नंबर पर है। जिन देशों में तेल की खपत घटी थी उनकी अर्थव्यवस्था इसके चलते चरमराई और तेल उत्पादन इकाइयों के लिए खतरा होने लगा था। खास यह भी है कि 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी है।

महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि भारत के पास तेल भंडारण की क्षमता अधिक नहीं है। जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। चीन ने एक तरफ दुनिया को करोना में डाला तो दूसरी तरफ सस्ते कच्चे तेल का भंडारण किया। भारत में रोजाना 46 लाख प्रति बैरल तेल की खपत होती है। अगर तेल सस्ता भी हो जाए तो उसे रखने की जगह नहीं होती है। भारत ने हाल ही में 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिजर्व बनाएं जबकि यह चार गुना होना चाहिए था। चीन के पास तो 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिजर्व की क्षमता है। इसकी तुलना में भारत 14 गुना पीछे है। कच्चे तेल का दाम घटते ही चीन ने अपना पिछले साल अपना रिजर्व मजबूत कर लिया था और यह इतनी बड़ी मात्रा में था कि यहां 2 साल तक तेल के दाम न बढ़ाए जाएं तो भी स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जबकि भारत की स्थिति यह है कि लॉकडाउन में तेल जमा नहीं कर पाया और अनेक में  कीमत बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। यह पहले भी हुआ है और अब भी जारी है। वैसे भी चौतरफा अर्थव्यवस्था की मार झेल रही सरकार तेल से कमाई का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। कच्चे तेल के दाम कुछ भी रहे हो भारत में तेल पर लगने वाले टैक्स हमेशा ऊपर ही रहे जिससे जनता की जेब खाली होती रही। जाहिर है तेल से होने वाली कमाई भारत को राजकोषीय घाटा कम करने में मदद करती है। मगर यहां सरकार को भी सोचना होगा कि अर्थव्यवस्था की मार उन्हीं पर नहीं बल्कि 130 करोड़ जनता पर भी पड़ी है। यह बता दें कि जून 2017 से जिस डीजल और पेट्रोल का दाम तय करने का जिम्मा सरकार ने आयल कंपनियों को दे दिया अब कंपनियां किसी भी स्थिति में घाटे में नहीं रहती है और सरकार मुनाफा लेने से नहीं चूकती। जिसके कारण जनता को सस्ता तेल मिल ही नहीं पाता है। जबकि मिट्टी का तेल और रसोई गैस पर नियंत्रण अभी भी सरकार का है। पड़ताल करके देखें तो तेल की कीमतें विदेशी मुद्रा दरों और अंतरराष्ट्रीय बाजार के कच्चे तेल की कीमतों पर के आधार पर बदलती रहती है। इन्हीं मांगों के आधार पर तेल कंपनियां प्रतिदिन तेल के दाम तय करती रहती है। जिसमें रिफाइनरी, तेल कंपनियों के मुनाफे, पेट्रोल पंप का कमीशन, केंद्र की एक्साइज ड्यूटी और राज्य का वैट साथ ही कस्टम और रोड सेस ससभी जुड़ा रहता है।

 तेल की बढ़ती कीमतें इस बात का द्योतक है कि महंगाई चरम पर होगी और इसे देखा भी जा सकता है। इस देश में 94 फीसद गैर संगठित क्षेत्र है और करोना काल में आर्थिक तौर पर यह वर्ग काफी हद तक जमींदोज हुआ है। कमाई खत्म हुई, बचत समाप्त हो गई और आगे की उम्मीदें भी कहीं ना कहीं अभी धूमिल है। ऐसे में यदि तेल की कीमतें बेलगाम बनी रहेगी तो आम जनमानस जीवन के जद्दोजहद में कहीं अधिक कमजोर सिद्ध होगा। लोकतंत्र से भरी सरकारें लोगों की चिंता करती हैं और यह संदर्भ हर लिहाज से उचित है कि महंगाई पर लगाम लगाना सरकार का नैतिक धर्म है। ऐसा ना हो पाने की स्थिति में जनता के साथ सरकार द्वार छल ही कहा जाएगा । मई 2014 में मोदी सरकार के प्रतिष्ठित होने से पहले 109 डॉलर प्रति बैरल कच्चा तेल था तब पेट्रोल 72-73 रुपए प्रति लीटर मिला करता था। इतना ही नहीं मनमोहन के शासनकाल में ही कच्चे तेल की कीमत 145 डॉलर प्रति बैरल भी रही है मगर कीमत 80 के पार नहीं गए। जबकि मोदी शासनकाल में 20 डॉलर प्रति बैरल तेल की कीमत होने के बावजूद महंगाई से लोगों का पीछा नहीं छूटा।  पेट्रोल तो छोड़िए डीजल को भी सौ के आस पास खड़ा कर दिया गया है अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस सहित कई देशों की तुलना में भारत में तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स है। भारत के बाद टैक्स जर्मनी में है जबकि अमेरिका में तो भारत से 3 गुना कम टैक्स है। समझने वाली बात यह है कि तेल की कीमत के चलते रसोई महंगी हो जाती है, बाजार की वस्तु में आसमान छूने लगती हैं, परिवहन सुविधाएं बेकाबू होने लगती हैं और जीवन की भरपाई पेट कटौती में चली जाती है। ऐसे में सवाल है कि जनता से वोट लेकर भारी-भरकम सरकार चलाने वाले उसी की जेब और जीवन पर क्यों भारी पड़ते हैं?
(19 जून, 2021)

सुशील कुमार सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार 

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