निर्णायक रूप से सुशासन की अवधारणा की रूपरेखा महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गये स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रची गई। शोषणकारी-साम्राज्यवादी,आधुनिक उपनिवेशवादी शक्तियों से भारत के लोगों का सामना होने से उन्हें शासन के एक बेहतर स्वरूप की तलाश करने का अवसर मिला। आधुनिक भारत में यहीं से सुशासन की एक पटकथा सामने आयी। सर्वोदय इसका सबसे बेहतर उदाहरण है जहां से सभी के उदय की संकल्पना और प्रतिबद्धता दिखाई देती है। जब तक समय के आईने में न देखा जाए तब तक सुशासन का कोई भी सिद्धांत बोधगम्य नहीं हो सकता। कोरोना के इस कालखंड के भीतर जनमानस की अग्नि परीक्षा खूब हुई और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है।
गौरतलब है कि लॉकडाउन के चलते रोजगार पर गाज गिरी। आर्थिक गतिविधियों बंद होने से जनजीवन पर असर पड़ना लाजिमी है। बीमारी, भुखमरी शिक्षा और चिकित्सा से लेकर तमाम बुनियादी विकास के साथ सतत, समावेशी और साधारण विकास व समृद्धि के समस्त आयाम हाशिए पर चले गए। यह इस बात का प्रमाण है कि सुशासन एक नई परीक्षा से जूझ रहा है और आगे कई वर्षों तक उसे सब कुछ पटरी पर लाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जूझना ही पड़गा। हीगल पहले दार्शनिक थे जिन्होंने राज्य और नागरिक समाज के बीच अंतर स्थापित किया और इसे परिभाषित करते हुए कहा कि यह एक ऐसा समाज है जहां मानवीय खुशियों को बढ़ावा दिया जाता है। गौरतलब है कि सुशासन भी शांति और खुशियों को ही आगे बढ़ाता है। लोक विकास की कुंजी सुशासन कोविड-19 के चलते कई झंझावात में उलझा है। और मौजूदा समय में इसकी वास्तविक उपलब्धि क्या है इसका जवाब आसानी से नहीं मिलेगा। मगर दो टूक यह है कि इसका उत्तर कोरोना से मुक्ति और ईज आफ लिविंग है।
देश में कोविड-19 की वर्तमान लहर का संक्रमण पहली लहर की तुलना में काफी तेजी से फैला जिससे शासन के हाथ पांव तो फूले ही स्वास्थ्य सुशासन भी हांफता नजर आया। राज्य सरकारें लॉकडाउन और कर्फ्यू की ओर कदम बढ़ाया और कमोबेश ये अभी जारी है। महामारी ने एक बार फिर जनजीवन को अस्त-व्यस्त किया। कोरोना महामारी ने भारत के करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया है। लॉकडाउन के चलते रोजगार से लोगों को हाथ धोना पड़ा, बचत खत्म हो गई और पाई-पाई के मोहताज हो रहे परिवार को घर चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए भी मजबूर होना पड़ रहा है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट को देखें तो यह पता चलता है कि कोरोना संकट की सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ी है। वैसे एक हकीकत यह भी है कि कई निम्न व मध्यवर्गीय आय वाले भी अब गरीबी की ओर गमन कर चुके हैं। गौरतलब है कि 1.9 डॉलर से अधिक की प्रतिदिन कमाई करने वाला गरीबी रेखा के ऊपर होता है। 10 डॉलर तक की कमाई करने वाला निम्न आय वर्ग का समझा जाता है। जबकि इसके ऊपर मध्यम आय वर्ग है लेकिन यह 50 डॉलर तक जाता है और 50 डालर से अधिक कमाने वाले उच्च आय वर्ग में गिने जाते हैं। मध्यम वर्ग में जो 10 और 20 डालर के बीच है उनकी हालत बहुत पतली है और वह या तो निम्न आय वर्ग की ओर जा रहे हैं गरीब हो रहे है। प्यू रिसर्च सेंटर से तो यह भी पता चलता कि साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम आय वर्ग में चले गए थे। करोना काल में तीन करोड़ लोग फिर निम्न आय वर्ग की ओर वापस आ गए। जाहिर है 10 साल की कोशिश को एक साल के कोरोनावायरस ने नष्ट कर दिया। रिसर्च से तो यह भी पता चला है कि कि मार्च 2020 से अक्टूबर 2020 के बीच 23 करोड़ गरीब मजदूरों की कमाई 1 दिन की तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं हो पाती थी। 41 करोड़ से अधिक श्रमिक देश में काम करते हैं जिन पर कोरोना का सबसे बुरा असर पड़ा है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि गरीबी 20 फीसद शहरी तो 15 फीसद ग्रामीण इलाकों में बढ़ गई है। कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए तमाम रेटिंग एजेंसियों नेेेे भारत के विकास अनुमान को भी घटा दिया है। गौरतलब है कि पिछले साल देश व्यापी लॉकडाउन के चलते 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरी खत्म और 20 करोड़ का काम-धंधा बुरी तरह प्रभावित हुआ।वैसे एक हकीकत यह भी की केरोना ने रोजगार की तुलना मेें काम-धंधे को कहीं अधिक चौपट किया है। मसलन दफ्त दफ्तरों का बंद होना स्कूल- कॉलेज मेंं पढ़ाई-लिखाई बंद होना। कोचिंग का कारोबार ठप्प होना आदि। नतीजन लाखोंं की घर बैठ जाते हैं, इसमें कमाई कम और खर्च निरंतरता लिए रहता है और आखिरकार चुनौती आर्थिकी खड़ी हो जाती है। यही अन्य देशों के लिए भी कही जा सकती हैहै ठ र व्यवस्था को कोरोनावायरस के भंवर जाल में फिर उलझी। इतना ही नहीं सतत विकास, समावेशी विकास और साधारण विकास समेत कई विकास और समृद्धि के रास्ते जाहिर अब पहले जैसे नहीं रहे। देखा जाए तो समतल होती व्यवस्था उबड़-खाबड़ मार्ग पर है और हिचकोले सुशासन खा रहा है। गौरतलब है कि सुशासन एक जन केंद्रित, कल्याणकारी और संवेदनशील शासन व्यवस्था है। जहां विधि के शासन की स्थापना के साथ-साथ संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। मगर जब जनता में अजीब सी छटपटाहट हो। बुनियादी विकास को लेकर हाहाकार हो। रोटी, कपड़ा व मकान सताओं पर लगे ऐसे में सुशासन बेचारा सा हो जाता है देखा जाए तो परीक्षा जितना देश के नागरिकों की है उससे कहीं अधिक स्वयं सुशासन की है सुशासन के केंद्र में रहने वाला नागरिक जिस सामाजिक आर्थिक विकास की खोज में अभी वह दूर की कौड़ी नजर आती है!
(27 मई , 2021)
सुशील कुमार सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार
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