Thursday, December 5, 2019

सियासी सुर्ख़ियों में राजयपाल की भूमिका

महाराष्ट्र में जारी राजनीतिक गतिरोध के बीच बीते 12 नवम्बर को राज्यपाल की सिफारिष पर प्रदेष में राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया। गौरतलब है कि 24 अक्टूबर को विधानसभा चुनाव के आये नतीजे के बाद कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। हालाकि जोड़-तोड़ की राजनीति यहां जारी थी और षिवसेना राज्यपाल से और समय की मांग कर रही थी। मगर राज्यपाल भगत सिंह कोष्यारी ने इनकी गुहार नहीं सुनी। फिलहाल राश्ट्रपति षासन के चलते अब महाराश्ट्र विधानसभा निलबिंत अवस्था में रहेगी। बदले समीकरण के चलते महाराश्ट्र मे अब क्या होगा, यह प्रष्न सियासी हलकों में तैर रहा है। भाजपा और एनडीए से नाता तोड़ चुकी षिवसेना को यदि एनसीपी और कांग्रेस अभी भी समर्थन देते है तो संवैधानिक रूप से प्रदेष में सरकार के उदय को लेकर कोई दिक्कत नहीं होगी। वैसे माना जा रहा है कि राज्यपाल सरकार बनाने के आतुर दलों को और समय देते तो षायद राश्ट्रपति षासन की आवष्यकता ही नहीं पड़ती। ऐसे में सवाल है कि क्या राज्यपाल ने इस मामले में कोई जल्दबाजी दिखाई है। वैसे देखा जाये तो महाराश्ट्र सरकार का कार्यकाल 9 नवम्बर को समाप्त हो गया था जाहिर है सरकार गठन में हो रही देरी को देखते हुए, राज्यपाल ने इस तरह का फैसला लिया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 163 राज्यपाल को कई मामलों में एकमात्र न्यायाधीष बना देता है, जिनमें उनको अपने विवेक से कार्य करना होता है। महाराश्ट्र में राश्ट्रपति षासन उसी का नतीजा प्रतीत होता है। मगर राज्यपाल को सौंपी गई विवेकाधीन षक्ति निरपेक्ष नहीं है। संवैधानिक व विधिक दायरे से बाहर यदि इसका प्रयोग हुआ है तो न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है और ऐसा कई बार हो चुका है जिसके चलते राज्यपालों की भूमिका संदिग्ध पायी गई है। 
गौरतलब है कि राज्यपाल की नियुक्ति राश्ट्रपति मंत्रिपरिशद की सिफारिष पर करता है। यह आरोप अक्सर रहा है कि राज्यपाल केंद्र के इषारे पर कार्य को अंजाम देता है। माना तो यह भी जाता है कि गठबंधन सरकारों के दौर में तो राज्यपाल की भूमिका केंद्र के एजेंट के रूप में हो जाती है। उल्लेखनीय है कि राज्यपाल दो प्रकार की भूमिका निभाता है, एक राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में दूसरा राज्य पर नियंत्रण रखने व केंद्र सरकार को सूचना प्रदान करने के मामले में केन्द्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में। 1967 तक केंद्र और राज्य में एक दलीय सरकार का दौर था, ऐसे में राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक प्रमुख के रूप में ही सीमित थी। चैथे आम चुनाव से राज्यों में गैर-कांग्रेसी व गठबंधन सरकारों का उदय होने लगा जिसके चलते राज्यपाल की भूमिका भी बदल गयी, तभी से यह आलोचना और विवाद का भी केंद्र बना। राज्यपाल के पद का दुरूप्रयोग पहले आम चुनाव 1952 के बाद से ही देखा जा सकता है, जब मद्रास में अधिक विधायक वाले संयुक्त मोर्चा के बजाय कम विधायक वाले काग्रेसी नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। हालाकि की यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। साल भर पहले गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे में कांग्रेस बड़ी पार्टी थी पर सरकार बनाने के लिए राज्यपाल ने भाजपा को आमंत्रित किया। कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस गठबंधन का 115 संख्याबल के साथ बहुमत का आंकड़ा था जबकि राज्यपाल ने 104 सीट वाली भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। मामला षीर्श अदालत गया, राजनीतिक उठापटक के बीच यदुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था। अरूणाचल प्रदेष और उत्तराखण्ड में साल 2016 में राज्यपालों की भूमिका संदेह से तब घिरी, जब वहां राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया और सर्वोच्च न्यायालय के बीच मंे आने से सरकारें पुनः वापसी की।  
भारत का संविधान संघात्मक है, इसमें संघ तथा राज्यों के षासन के संबंध मंे प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153 से 156, 161, 163, 164(1) तथा 213(1) में राज्यपाल की संवैधानिक षक्तियों को उपबन्धित किया गया है। महाराश्ट्र के हालिया परिपेक्ष्य को देखें तो सवाल यह कि राज्यपाल सरकार बनाने के लिए यदि षिवसेना को और समय दे देते तो क्या इसमें कोई संवैधानिक संकट खड़ा होता। संविधान में अनुच्छेद 163 विवेकाधिकार की बात कहता है, पर यह कितना हो इसका कोई उल्लेख नहीं है। इसमें कोई षक नहीं कि, संविधान की रूपरेखा बनाये रखना राज्यपाल की जिम्मेदारी है, मगर संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष अम्बेडकर के वक्तव्य को देखें तो अनुच्छेद 356 का उपयोग अन्तिम विकल्प के तौर पर किये जाने की बात है। तो क्या महाराश्ट्र में राज्यपाल के समक्ष राश्ट्रपति षासन ही मात्र एक विकल्प था। यह संदेह को गहरा तो करता है। महाराश्ट्र में राश्ट्रपति षासन को देखते हुए षिवसेना ने न्यायालय का दरवाजा भी फिलहाल खट-खटा दिया है। राज्यपालों की भूमिका पर संदेह तब अधिक गहरा हुआ है जब केंद्र और राज्य की सरकारें अलग- अलग दल रही। त्रिषंकु की स्थिति में यह भूमिका कई अधिक संदेह से ग्रस्त देखी कई है। पड़ताल बताती है कि 1996 में उत्तर प्रदेष के राज्यपाल, रोमेष भंडारी, 2005 में बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह इतना ही नहीं जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा था। इसी तरह कर्नाटक व झारखड़ समेत विभिन्न राज्यों में राज्यपाल की भूमिका कई कारणों से टकराव के साथ संदेह लिये रही। 1954 में पंजाब सरकार इसलिए बर्खास्त कर दी गई थी क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री में मतभेद था, जबकि 1959 में केरल की नम्बूदिरीपाद सरकार का भी काम तमाम कर राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया था।
 कर्नाटक में तो रामकृश्ण हेगड़े के समय से लेकर पिछले साल तक राज्यपाल को लेकर सियासी पैतरा देखा गया। नौ न्यायाधीषों की संवैधानिक खंडपीठ ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले में 1994 में जो निर्णय दिया, वह आज भी राजनीतिक क्षितिज पर सुर्खियां लिये रहता है, जो कर्नाटक से ही सम्बन्धित है। गौरतलब है के मौजूदा वक्त में 20 से ज्यादा राज्यों के राज्यपाल वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किये गये है। गौर किया जाये तो राज्यपालों की नियुक्ति की यह परिपाटी ही राज्यपाल की भूमिका से जुडे विवादों का मूल कारण है। जिसके चलते केंद्र-राज्य सम्बंध भी तनावपूर्ण देखे जा सकते है। अब तक इनकी नियुक्ति को लेकर 3 आयोग और 2 समिति गठित की जा चुकी हैं बावजूद इसके राज्यपाल का पद विवाद के बाहर नहीं आ पाया है। 1966 में प्रषासनिक सुधार आयोग, 1969 में राजमन्नार समिति, 1970 भगवान सहाय समिति, 1983 मंे गठित सरकारिया आयोग और 2011 में पुंछी आयोेग ने राज्यपालों की भूमिका को लेकर कई प्रकार की सिफारिषें की जिसमें सरकारिया आयोग इस मामले में कई अधिक सषक्त दिखा। उसका मत है कि इस पद पर गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। फिलहाल राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और परिस्थितियों के साथ इसकी पड़ताल सम्भवतः आगे भी सम्मान के दायरे में होती रहेगी।   



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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