Thursday, December 5, 2019

सद्भावना की तुरपाई करने वाला फैसला

  जब न्याय, समाजषास्त्र और धर्मषास्त्र के समुचित समिश्रण के साथ एकजुटता के मार्ग से गुजरता है, तो इतिहास बनना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या मामले में आया सुप्रीम फैसला हिन्दू-मुस्लिम रिष्तों की तुरपाई करते हुए लोगों के बीच जिस सद्भावना के साथ उतारा गया उसे देखते हुए कह सकते है कि, देष को अपेक्षा भी कुछ ऐसी ही थी। न्यायालय का यह फैसला देष की एकजुटता में भी मानो एक गूंज है। गौरतलब है 9 नवम्बर, 2019 की तारीख, इतिहास में दर्ज एक ऐसा साक्ष्य है जो सदियों तक नहीं भुलाया जा सकेगा। सैकड़ो वर्श पुराने मामले और दषकों से चल रहे विवाद को षीर्श अदालत ने जड़ से समाप्त कर दिया। देष की सर्वोच्च न्यायालय ने जब उक्त तिथि को सिलसिलेवार तरीके से फैसला सुनाना षुरू किया तो यह न  केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया को सद्भावना की आगोष में ले लिया। गौरतलब है कि अयोध्या के राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मामले में षीर्श अदालत ने फैसला सुनाकर उस विवाद को नेस्तोनाबूत कर दिया जिसकी नींव आज से 400 साल पहले 1528 में पड़ी थी। पहली बार यह विवाद अदालत की दहलीज पर 1885 में पहुंचा था। इसके पष्चात से एक-एक कर हिंदू-मुस्लिम पक्षकार आते और जाते रहे, परन्तु कानूनी दांवपेंच में यह मामला न केवल उलझता रहा बल्कि सियासी गलियारे में भी दषकों से चर्चे के केन्द्र में रहा। जाहिर है,  अब फैसले के बाद मंदिर निर्माण का न केवल रास्ता साफ हो गया बल्कि मस्जिद निर्माण हेतु अलग से जमीन आवंटित करने का निर्णय धार्मिक सद्भावना का जबरदस्त उदाहरण है। 
राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद केस पर फैसला आ चुका है फिर भी इसके इतिहास पर एक नजर डाले तो पड़ताल बताती है कि, जिस स्थान पर 1528 में मंिस्जद का निर्माण हुआ था। हिन्दू मान्यता के अनुसार इसी जगह पर भगवान राम का जन्म हुआ था। 1853 में हिन्दूओं का आरोप था कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ है, जिसे लेकर विवाद गहराया और दोनों पक्षों के बीच संघर्श हुआ। साल 1859 में ब्रिटिष सरकार ने तारों की एक बड़ी बाड़ खडी़ करके अन्दर और बाहर के परिसर में हिन्दू और मुस्लिम को अलग-अलग प्रार्थना करने के इजाजत दी। दषक बीतते गये और मामला 1885 में पहली बार तब अदालत पहुंचा जब महंत रघुवर दास ने फैजाबाद कोर्ट से बाबरी मस्जिद के पास ही राम मंदिर निर्माण की इजाजत मांगी, तब देष औपनिवेषिक सत्ता में था। आजादी के बाद 23 दिसम्बर 1949 में लगभग 50 हिन्दूओं ने मस्जिद के केन्द्रीय स्थल पर जैसे की कहा जाता है, भगवान राम की मूर्ति रख दी। इसके बाद उस स्थान पर हिन्दू समुदाय के लोग नियमित पूजा करने लगे और इसी के साथ मुसलमानों ने यहां नमाज पढ़ना बंद कर दिया। सिलसिलेवार तरीके से मामला आगे बढता रहा, मंदिर निर्माण को लेकर जब-तब कई प्रयास भी हुए। इसी दौरान बाबरी मस्जिद 1992 में ढ़हा दी गयी। जुलाई 2009 में लिब्राहन आयोग ने 17 साल बाद रिपोर्ट सौंपी। 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया और विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया गया। जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड जबकि तीसरा निर्मोही अखड़ा को देने का निर्णय दिया। वर्तमान में देष की षीर्श अदालत ने एक ऐसा ऐतिहासिक निर्णय दिया जो अंतिम और अटल सत्य है, जिसी बाट देष की जनता जोह रही थी।
षीर्श अदालत ने क्या फैसला दिया इसकी फेहरिस्त तो 1045 पेज तक जाती है, परन्तु मुख्य रूप से देखें तो साक्ष्य और सभी संदर्भों को ध्यान में रखकर अदालत ने नतीजे सबके सामने स्पश्ट रूप से रख दिये। प्रधान न्यायाधीष सहित 5 जजों की विषेश बैंच ने 40 दिन की लगातार सुवनाई के बाद यह निर्णय दिया कि, वर्शो से रामलला जहां विद्मान है वे वहीं रहेंगे, जबकि सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिये मस्जिद बनाने हेतु 5 एकड़ की अलग से जमीन आवंटित करने का फैसला लिया गया। तीन पक्षकारों में एक और पक्षकार निर्मोही अखाड़ा को इस मामले से खारिज कर दिया गया। खास यह है कि प्रधान न्यायाधीष समेत सभी न्यायाधीषों की इस फैसले में सहमति थी और अब निर्णय को लेकर देष भी एकजुटता दिखा रहा है। सियासी तौर पर भी सभी दल इस फैसले का स्वागत करते दिखे। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम ही करार दे रहे है। इस मौके पर बाबरी मस्जिद के मुद्दई मोहम्मद हाषिम अंसारी की भी याद ताजा हो गई, जिनका जुलाई 2016 में 95 वर्श की आयु में इंतकाल हो गया था। गौरतलब है की 1949 में बाबरी मस्जिद के मामले में मुद्दई बने हाषिम अंसारी इसके पक्षकार थे। षिक्षा में तो मात्र दो दर्जा तक ही थे पर कानूनी लड़ाई में इन्होंने एक युग निकाल दिया था। यदि आज वह जिंदा होते तो षीर्श अदालत के इस निर्णय पर सर्वाधिक खुष होने वालों में उनका भी नाम षुमार होता। श्रीराम जन्मभूमि विवाद का एक धु्रव महन्त रामचन्द्रदास परमहंस थे, तो दूसरा हाषिम अंसारी हुआ करते थे। खास यह भी है कि कभी-कभी दोनों मुकदमे की तारीख पर एक ही कार में बैठकर अदालत जाया करते थे, जब परमहंस की मृत्यु हुई तब हाषिम असंारी ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ाई में मजा नहीं आयेगा। हाषिम अंसारी कहते थे कि वे मंदिर निर्माण के विरोधी नहीं है बल्कि वे पता करना चाहते है कि यहां वास्तव में था क्या? 
राम जन्मभूमि को लेकर मुकदमा लड़ने वालों के बीच भी जब इतनी बड़ी सद्भावना थी, तो फैसला इससे अलग कैसे हो सकता था। यह भारत की विभिन्नता में एकता का ऐसा प्रतीक है, जिसे आज दुनिया एक बार फिर से समझने के लिए मजबूर हो रही होगी। फैसला पढ़ते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि बाबरी मस्जिद को मीर बाकी ने बनवाया था, उन्होने कहा कि कोर्ट के लिए आस्था के मामले में दखल देना सही नहीं है। यह कथन इस बात को भी पुख्ता करता है कि अदालत हो या आम व्यक्ति आस्था के मामले में काफी हद तक एक जैसा ही सोचता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को लेकर चीफ जस्टिस ने इसे संदेह से परे बताया। स्पश्ट है कि एएसआई जैसी पुरातात्विक संस्थाओं को भी अदालत ने पूरा मान दिया है। गौरतलब है कि पहला सर्वेक्षण 70 के दषक में हुआ था लेकिन जो सर्वेक्षण साल 2003 में किया गया था उस सर्वेक्षण करने वाले में 3 मुसलमान षामिल थे। संदर्भित है कि 6 दिसम्बर 1992 को जिस बाबरी मस्जिद विध्वंस के चलते देष दषकों से तनाव में रहा और इसे लेकर कई अनेकों राजनेताओं ने सियासी पैंतरे के साथ मुकदमांे की जो जहमत झेली और करोड़ों रामभक्त जिस मंदिर निर्माण को लेकर दषकों से समाधान की राह खोज रहे थे, उन सभी को इससे बड़ी राहत मिली होगी। भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृश्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोषी की चर्चा करना यहां जरूरी प्रतीत होता है। आडवाणी की रथ यात्रा षायद ही कोई भूला हो और विवादित ढ़ाचा ढहाने के मामले में कई भाजपाई दषकों से मुकदमें की चपेट में रहे। इनके अलावा विष्व हिन्दू परिशद के अषोक सिधंल की भी आत्मा आज के निर्णय से संतुश्ट जरूर हुई होगी। साधु-संतों की धर्म संसद और बार-बार मोदी सरकार को यह चेताना कि मंदिर पर सरकार यदि कोई निर्णय नहीं लेती तो वह उसके खिलाफ खड़े होंगे। पिछले साल नवम्बर में जब षीर्श अदालत ने सुनवाई को जनवरी के लिए टाल दिया, तब प्रधानमंत्री मोदी पर मंदिर निर्माण हेतु अध्यादेष लाने को लेकर दबाव बढ़ा था जिसे उन्होंने खारिज करते हुए कहा था, कानूनी प्रकिया पूरी होने के बाद भी अध्यादेष पर फैसला लिया जा सकता है। इतिहास के भीतर इतिहास कैसे बनता है यह षीर्श अदालत के 9 नवम्बर के दिये फैसले में झांक कर देखा जा सकता है, जो आस्था और सद्भावना का ऐतिहासिक उदाहरण है।  



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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