सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष बी. पी. रेड्डी की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में चुनाव प्रणाली को बेहतर और पारदर्षी बनाने के लिए सुधार हेतु दर्जन भर सुझाव दिये थे। जिसमें एक यह भी था कि दल-बदल कानून में परिवर्तन कर चुनाव पूर्व गठबंधन को एक ही दल माना जाय। सम्भव है कि इसके पीछे आयोग का उद्देष्य स्वच्छ राजनीतिक आचरण विकसित करने का था। यदि समय रहते इस सुझाव को अमल में लाया जाता तो सम्भव है कि, महाराश्ट्र में जो सियासी तस्वीर इन दिनों उभरी षायद ऐसी पटकथा न होती। यदि चुनावी सुधार में इस बात का संदर्भ प्रमुखता से अभी भी लाया जाय कि चुनाव के पूर्व का गठबंधन किसी भी सूरत में बाहर नहीं हो सकता तो राजनीतिक तौर पर एक नई सुचिता का विकास सम्भव है। पर चिंतन से युक्त प्रष्न यह भी है कि, यह राजनीतिक दलों के स्वतंत्रता को कहीं बाधित तो नहीं करेगा। हो सकता है कि इसे अपनाने में कठिनाई हो पर, बदलती राजनीतिक तस्वीर के बीच मतदाताओं की राजनीतिक चेतना और परिपक्वता को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दलों को प्रत्येक परिस्थितियों में स्वतंत्र छोड़ना भी कितना औचित्यपूर्ण रहेगा। गठबंधन की राजनीति अस्थिरता के कारकों से युक्त देखे जा सकते हैं। बावजूद इसके इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था के चलते ये परिस्थितियां बार-बार उभरती रहेंगी। महाराश्ट्र में भाजपा और षिवसेना ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया पर नतीजों के बाद सत्ता की महत्वाकांक्षा के चलते दोनों अलग राह पकड़ लिये। नतीजन वहां एक सियासी संकट खड़ा हो गया। जाहिर है यहां यदि विधि आयोग की उक्त सिफारिष को जगह मिली होती तो महाराश्ट्र में चुनाव के बाद सरकार का उदय हो जाता।
यह सषक्त पक्ष है कि, चुनाव पूर्व का गठबंधन अधिक भरोसे से भरा होता है। मतदाता भी उसे उसी रूप में स्वीकृति देता है। जबकि नतीजों के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सत्ता साझा करने के लिए जो बंधन होता है वह अवसरवाद का परिचायक है। महाराश्ट्र में षिवसेना के साथ राश्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस को इन दिनों इसी तर्ज पर आंका जा सकता है। हालांकि चुनाव के बाद के गठबंधन का इतिहास भी इस देष में दषकों पुराना है। राज्यों में गठबंधन का दौर 1989 से तेजी से फला-फूला। पिछले साल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस की सरकार चुनाव बाद का गठबंधन था जो जमा साल भर भी नहीं टिका। बिहार में राश्ट्रीय जनता दल और जेडीयू का गठबंधन भी महज 20 महीने ही टिक पाया था। दो दषक पहले उत्तर प्रदेष में भाजपा और बसपा का गठबंधन भी 6 महीने में हांफ गया था। हालांकि बसपा के टूटन के चलते कल्याण सिंह सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा कर दिया था। साल 2017 के उत्तर प्रदेष के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा ने चुनाव से पहले समझौता किया था जबकि इसी साल लोकसभा के चुनाव में सपा और बसपा ने भी यही किया पर नतीजों के बाद ये फिर अपनी-अपनी राह पर हैं। हालांकि यह न सत्ता के हकदार थे और न ही उसके आस-पास। महाराश्ट्र के साथ ही हरियाणा विधानसभा के नतीजे भी घोशित किये गये जिसमें 40 सीट जीतने वाली भाजपा सत्ता हथियाने में कुछ स्थानों से चूक गयी और जिसके मुकाबले चुनाव लड़ा उसी जेजेपी से हाथ मिलाते हुए सत्तासीन हुई। इसी प्रकार केन्द्र की राजनीति ने भी गठबंधन का दौर बाकायदा कायम रहा। उक्त संदर्भों से यह प्रतीत होता है कि चुनाव सुधार की दिषा में भले ही दर्जनों आयोग और कमेटियां बनायी गयी हों पर राजनीतिक दलों की स्वतंत्रताओं को कहीं पर भी अंकुष में नहीं रखा गया। हालांकि 1985 के 52वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत दल-बदल कानून लाकर पार्टी के भीतर होने वाले टूट-फूट को रोकने का प्रयास किया गया जिसे लेकर 2003 में पुनः एक बार संषोधन किया गया। बाकी ऐसा कोई खास सुधार नहीं दिखता जिसके चलते सियासी दल कुछ और मामलों में राजनीति करने से बाज आयें।
स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारषिला है चुनाव में निश्पक्षता और पारदर्षिता के बगैर लोकतंत्र की सफलता सुनिष्चित नहीं की जा सकती। ऐसी ही व्यवस्थाओं को प्राप्त करने के लिए 1980 के समय से चुनाव सुधार की दिषा में तेजी से कदम उठने लगे। बावजूद इसके अभी यह पूरी तरह दुरूस्त नहीं हो पाया है। अब तो मांग एक देष, एक चुनाव की हो रही है। मौजूदा सरकार भी इस प्रक्रिया को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक दिखाई देती है। जाहिर है इसके लिए ठोस रणनीति की आवष्यकता पड़ेगी और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए नये सिरे से नियोजन तैयार करना होगा। इसी के साथ चुनावी महापर्व में जिन नई बातों का उदय हो रहा है उसे भी सुधार का हिस्सा बनाना गैर वाजिब नहीं होगा मसलन चुनाव पूर्व गठबंधन को अलग न होने की व्यवस्था और नतीजों के बाद विलग विचारधारा पर बनी सरकारें इतनी भी स्वतंत्र न हों कि जब चाहें पल्ला झाड़ लें। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है यहां हर साल चुनाव होते रहते हैं और इसी को ध्यान में रखकर वन नेषन, वन इलेक्षन की बात हो रही है। यदि ऐसा होता है तो जाहिर है कि चुनाव प्रत्येक 5 साल में ही सम्भव होंगे। पिछले लोकसभा के चुनाव में 60 हजार करोड़ से अधिक का व्यय हुआ था इसके अलावा प्रान्तों में चुनावी व्यय का सिलसिला जारी रहता है और जिसकी भरपाई करदाताओं से होती है। देष समृद्ध और सुखी तभी होगा जब पूंजी उत्पादकमूलक हो न कि बार-बार के चुनावी महोत्सव में हवन की भेंट चढ़ जाये।
1980 की तारकुण्डे समिति की कुछ सिफारिषें मसलन मतदाता की उम्र 21 से 18 वर्श करना। 1989 की दिनेष गोस्वामी समिति, टी.एन षेशन की सिफारिषें, इन्द्रजीत गुप्त समिति की सिफारिष समेत एम.एस. गिल की सिफारिषों की पड़ताल यह बताती है कि समय और परिस्थिति के साथ सभी ने अपने तरीके के चुनावी सुधार सुझाये हैं। इतना ही नहीं लोक जनप्रतिनिधित्व कानून में भी समय-समय पर संषोधन होता रहा है। चुनाव आचार संहिता को लेकर भी निर्वाचन आयोग काफी सक्रिय देखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच चुनाव आयोग और चुनाव सुधार से जुड़ी बातें देखी जा सकती हैं। देखा जाय तो चुनावी प्रक्रिया के मामले में भी बहुत कुछ मजबूती दी गयी है। जिस प्रकार समय के परिप्रेक्ष्य में मतदाता पहचान पत्र से लेकर ईवीएम को अंगीकृत हेतु कदम उठाये गये। स्पश्ट है कि इससे मतदान और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्षिता को बल मिला ठीक उसी प्रकार चुनावी मैदान में ताल ठोकने वाले सियासी दलों को भी निर्धारित सीमाओं के अलावा कुछ नये नियम में कसने की आवष्यकता है। जिसमें चुनाव से पूर्व गठबंधन को एक दल का रूप मानना जरूरी कर देना चाहिए। इससे मतदाताओं में न तो असंतोश पैदा होगा और न ही लोकतंत्र को कोई नये खतरे का सामने करना पड़ेगा। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जो चुनाव से पहले गठबंधन में हो, साथ ही बहुमत भी मिला हो और सत्ता हित साधने की फिराक में उससे अलग हुआ हो। महाराश्ट्र इस मामले में षायद पहला राज्य है। यह गनीमत है कि ऐसे हालात के बावजूद भी अभी लोगों का भरोसा लोकतांत्रिक व्यवस्था से डिगा नहीं है। अवसरवाद की सत्ता पर लगाम लगाने के लिए ठोस चुनावी सुधार किये जाने की आवष्यकता फिलहाल अब महसूस हो रही है। गठबंधन की सरकारें देष के लिए बुरी हैं या अच्छी इस पर एकतरफा राय नहीं दी जा सकती पर यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि विचारधाराओं के साथ सौदेबाजी एक सीमा के बाद कोई भी दल नहीं करता, चाहे चुनाव के पहले का गठबंधन हो या बाद का। कमोबेष यह उदाहरण देखने को मिला है पर दो टूक यह भी है कि अटूट तो नहीं पर काफी हद तक भरोसा चुनाव पूर्व गठबंधन पर अधिक कहा जा सकता है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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