मोदी सरकार का पहला कार्यकाल विनिवेष से अछूता रहा लेकिन अब अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए दूसरी पारी की सरकार द्वारा विनिवेष को तेजी से आजमाया जा रहा है। जाहिर है इससे सरकार को अतिरिक्त राजस्व मिलेगा पर इस हकीकत को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि एक सीमा के बाद इसके कई साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर 1991 का उदारीकरण व्यापक सफलता के लिए जाना जाता है परन्तु 2016 में की गयी नोटबंदी और जुलाई 2017 में लागू जीएसटी के बावजूद मौजूदा समय में आर्थिक नीति दयनीय स्थिति क्यों लिए हुए है यह चिंता का प्रमुख विशय है। नोटबंदी से उम्मीद थी कि जमा काला धन बाहर आयेगा और जीएसटी से यह अपेक्षा थी कि प्रतिवर्श 13 लाख करोड़ की उगाही होगी मगर जमीनी हकीकत कुछ और है। लाभ वाली सरकारी कम्पनियों में विनिवेष के मोर्चे पर सरकार का इरादा यह जताता है कि आर्थिक राह उनके लिए कठिन बनी हुई है। बड़ी बात यह है कि नाॅर्थ ईस्र्टन इलेक्ट्रिक पाॅवर काॅरपोरेषन में सौ फीसदी विनिवेष होगा जबकि काॅनकाॅर में 30.8 प्रतिषत हिस्सेदारी बेचने का फैसला हुआ है। भारत पेट्रोलियम समेत 5 कम्पनियां इसी राह पर हैं। दरअसल मुनाफे में चल रही भारत पेट्रोलियम का हिस्सा बेचने से सरकार को 60 हजार करोड़ की मोटी रकम मिलेगी और इन सभी का विनिवेष मार्च 2020 तक पूरा कर लिया जायेगा। विनिवेष के माध्यम से सरकार का लक्ष्य, इतने ही समय में एक लाख करोड़ रूपए से कुछ अधिक हासिल करने का है जो एक साल के जीएसटी की रकम से भी कम है। गौरतलब है कि बीपीसीएल में सउदी अरैमको और षेल जैसी बहुराश्ट्रीय कम्पनियां रूचि दिखा रही हैं।
जिन अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में कमी, प्रति व्यक्ति आय में गिरावट और जनसंख्या आधिक्य के साथ गरीबी व बेरोज़गारी उठान लिये हो, सामान्यतः उसे विकासषील अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया गया है। मगर भारत जिसकी अर्थव्यवस्था मौजूदा समय में लगभग तीन ट्रिलियन डाॅलर की हो और 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की उम्मीद लिये हो। इतना ही नहीं दुनिया की सातवीं अर्थव्यवस्था और खरीदारी के मामले में तीसरी अर्थव्यवस्था की संज्ञा में हो, वहां आर्थिक सुस्ती, मंदी, जीडीपी में गिरावट, रोज़गार का छिन जाना समेत कई नकारात्मकता के चलते अर्थव्यवस्था रूग्णावस्था में हो, बात पचती नहीं है। मोदी सरकार ताबड़तोड़ तरीके से जिस तरह अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कार्य कर रही है उससे भरोसा बढ़ता है मगर आर्थिक संकट जस के तस बने रहने से विष्वास डगमगा भी रहा है। मौजूदा समय में विनिवेष का सबसे बड़ा अभियान देखा जा सकता है। जहां भारत पेट्रोलियम, बीपीसीएल, षिपिंग काॅरपोरेषन आॅफ इण्डिया समेत टीएचडीसी आदि कम्पनियों के विनिवेष के रास्ते खोल दिये गये हों, वहां यह अंदाजा लगाना आसान है कि अर्थव्यवस्था समतल मार्ग पर तो नहीं है। गौरतलब है तात्कालीन वाजपेयी सरकार ने घाटे में चल रही कुछ सार्वजनिक उपक्रमों की रणनीतिक बिक्री की थी जिसमें बाल्को की बिक्री सबसे पहले हुई थी। इसके लिए बाकायदा विनिवेष मंत्रालय भी पहली बार बनाया गया था जिसके पहले और आखिरी मंत्री वरिश्ठ पत्रकार अरूण षौरी हुआ करते थे। मगर उसके बाद मनमोहन सिंह की दस वर्शीय सरकार इसे अमल में नहीं लाया। जाहिर है एक अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह का दृश्टिकोण कहीं अधिक व्यापक रहा है। हालांकि 2004 में उन्होंने भी इस पर कदम उठाना चाहा मगर वामपंथ के समर्थन से चलने वाली सरकार उसके विरोध के चलते ऐसा नहीं कर पायी। बावजूद इसके इस दौरान जीडीपी लगभग 8 फीसदी थी, महंगाई दर 4 प्रतिषत से नीचे थी और विदेषी मुद्रा भण्डार भी कहीं अधिक बेहतर स्थिति में था।
यह जाहिर है कि केन्द्र सरकार ने अपने वायदे के मुताबिक सरकारी कम्पनियों के विनिवेष का सिलसिला षुरू करने का फैसला कर लिया। सरकार का फैसला है कि कई उपक्रमों में वह अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम करेगी मगर उसका नियंत्रण बना रहे। ऐसे कौन से उपक्रम और कम्पनियां होंगे अभी इसका फैसला नहीं हुआ है। संदर्भ तो यह भी है कि सरकार का यह फैसला सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों पर भी लागू होगा। असल में सरकार का मकसद है कि बिगड़ी आर्थिक स्थिति को स्वस्थ करने के लिए अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी कर लिया जाय और मनमाफिक फण्ड जुटा लिया जाय लेकिन दुविधा यह भी है कि जब सरकार की हिस्सेदारी गिरेगी तो कई और मामलों में प्रभाव पड़ेगा। मसलन कामगारों की छटाई, आउटसोर्सिंग समेत ठेका व्यवस्था में बढ़ोत्तरी हो सकती है। इससे नई नौकरियों की संख्या में गिरावट और पुराने कामगारों के बेरोज़गार होने का संकट बन सकता है। सरकार को अपने नागरिकों की चिंता के लिए विनिवेष के साथ ऐसे भी नियम रखने की आवष्यकता होनी चाहिए कि उक्त समस्याएं नहीं आयेंगी। मौजूदा स्थिति को देखें तो ऐसा कोई नियम होगा कहना मुष्किल है। वैसे सरकार के विनिवेष वाली अवधारणा कुछ स्थानों पर सही प्रतीत होती है। मसलन बीएसएनएल और एमटीएनएल की स्थिति को देखें तो ये काफी कठिन दौर में हैं। स्थिति को देखते हुए अभी तक 77 हजार कर्मचारी वीआरएस के लिए आवेदन कर चुके हैं। एमटीएनएल को पिछले 10 सालों में से 9 साल घाटा रहा है। इतना ही नहीं दोनों कम्पनियां 40 हजार करोड़ रूपए के कर्ज में दबी है।
सरकार विनिवेष और निगमीकरण के रास्ते पर चलकर काफी हद तक निजीकरण की ओर कदम उठा रही है। रेलवे स्टेषन और रेल गाड़ियां, हवाई अड्डे, कंटेनर काॅरपोरेषन, षिपिंग काॅरपोरेषन, एयर इण्डिया, राजमार्ग परियोजनाएं व भारत पेट्रोलियम समेत पांच सरकारी कम्पनियों की हिस्सेदारी की बिक्री इसी लक्षण से अभिभूत है।ये कदम कितने कारगर साबित होंगे यह आपसी साझेदारी में निर्धारित षर्तें तय करेंगी। दो टूक यह भी है कि सरकार घरेलू ईंधन, खुदरा व्यापार में बहुराश्ट्रीय कम्पनियों को लाना चाहती है जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ सके। सवाल यह है कि क्या विनिवेष ही अंतिम रास्ता है हालांकि वैष्विक अर्थव्यवस्था के उठान के इस दौर में सरकारें भले ही लोक कल्याण के पथ पर चलती हों पर आर्थिक और व्यापारिक दृश्टि से लम्बे समय तक घाटा नहीं झेल सकती। उसी का परिणाम विनिवेष जैसे मार्ग पर जाना होता है। भारत एक समाजवादी अर्थव्यवस्था है साथ ही पूंजीवाद का समावेष भी लिये हुए है। मिश्रित अर्थव्यवस्था के भीतर स्वतंत्रता और नियंत्रण दोनों साथ-साथ चलते हैं। इसमें स्वस्थ प्रतियोगिता होती है मगर बहुदा ऐसा रहा है कि आय का वितरण असमान और जनमानस के बीच असंतोश व्याप्त रहता है। उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व निजी और सरकारी दोनों का हो सकता है, पर ध्यान रहे कि निजी का उद्देष्य लाभ कमाना और सरकारी का लोक कल्याण है। यदि इस परिधि में सरकार खरी उतरती है तो विनिवेष का आर्थिक के साथ सामाजिक लाभ भी होगा। अन्यथा दोनों घाटे में हो सकते हैं।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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