देष की राजधानी में पुलिस और वकील के बीच जो कुछ घटित हुआ वह कानून के षासन के लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता है और न ही यह संविधान और विधि सम्मत है। तीस हजारी अदालत परिसर में पर्किंग का एक छोटा सा विवाद, जो पुलिस और वकीलों के बीच हिंसक टकराव का रूप ले लिया, यदि दोनों जरा सी समझदारी दिखाते तो इस मामले को टाला जा सकता था। यह बेहद षर्मनाक और चिंताजनक है कि जिन वकीलों पर कानून बचाने की जिम्मेदारी है, जिनसे संविधान भी सुरक्षित महसूस करता है, उन्होंने जिस भांति कानून हाथ में लेते हुए हवालात का दरवाजा तोड पुलिसकर्मियों पर धावा बोला, वाहनों में तोड़फोड़ की, आगजनी की घटनाएं की, उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। 2 नवम्बर को तीस हजारी परिसर में हुई घटना की शुरूआत सिलसिलेवार तरीके से नये-नये रूप अख्तियार करती चली गयी। वकीलों ने पुलिस के खिलाफ लामबंध होकर हड़ताल कर दी, हालाकि दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में कामकाज पहले की तरह वकील काम पर हाजिर रहे। बीते 5 नवम्बर को पुलिसवाले भी ‘वी फाॅर जस्टिस’ के नारों के साथ वकीलों के खिलाफ बगावती तेवर लेकर सड़क पर उतर गये। दरअसल बीते 4 नवम्बर को एक वीडियो समाने आया जिसमें कुछ वकीलों द्वारा सड़क पर सरेआम मोटर साईकिल पर सवार एक पुलिसकर्मी की पिटायी का था। इसे देखते हुए दिल्ली पुलिस के तेवर कड़े हुए और जिसके चलते वे दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने ही धरने पर बैठ गये और अपने ही अधिकारियों के खिलाफ ही मानो बगावत कर दी। जिसमें पुलिसकर्मियों के परिवार के सदस्य भी षामिल थे। देष के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब हजारों पुलिसकर्मी अपने ही मुख्यालय के बाहर धरने पर बैठ थे जो दिनभर चला और आला-अफसरो के मान-मनौवल के बाद धरना समाप्त हुआ।
इससे बड़ी विडम्बना और कोई नहीं हो सकती कि सड़क पर उतरकर अपने आक्रोष प्रकट करने का काम दिल्ली पुलिस को करना पड़ा जिसे देषभर की पुलिस के सामने एक उदाहरण के रूप में पेष किया जाता रहा है। सवाल यह नहीं कि ऐसी नौबत आयी क्यों, प्रष्न यह है कि दिल्ली पुलिस अपने ही अधिकारी के सामने सौदेबाजी पर उतर आयी जिसे बगावत कहना ही मुनासिब षब्द होगा। असल में अनुषासनबद्व सषस्त्र बल की हड़ताल के लिए बगावत षब्द का प्रयोग किया जाता है और इससे निपटने के लिए वही तरीके नहीं अपनाये जाते जैसा की अन्य वर्गों की हड़तालों को लेकर इस्तेमाल किया जाता है। गौरतलब है 1973 में पहली बार दिल्ली समेत देष के अनेक हिस्सों की पुलिस हड़ताल पर थी। फिलहाल वकीलों और पुलिस की हड़ताल के बीच यह मामला अभी तुल लिए हुए है। सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के कई निर्णयों से यह पता चलता है कि वकीलों की हड़तालों को कई बार अवैध करार दिया गया है और भविश्य में ऐसा न हो इस पर भी जोर आजमाईष की गयी है, बावजूद इसके असर दिखायी नहीं देते। रही बात पुलिसकर्मियों की तो इन्हें हड़ताल करने का षायद ही कोई अधिकार हो। साल 1988 में इसी तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों और पुलिसवालों के बीच जमकर संघर्श हुआ था तब वकीलों की जमकर पिटाई हुई थी। उस दौरान देष की पहली आईपीएस किरन बेदी जो वर्तमान में पुदुचेरी की उपराज्यपाल है तब दिल्ली पुलिस में डीसीपी पद पर तैनात थी और उन्होंने पुलिसवालों का साथ दिया था। इसी इतिहास को देखते हुए धरने पर बैठे पुलिस वाले किरन बेदी को याद कर रहे थे।
दो टूक यह भी है कि पुलिस और वकील के बीच झड़प पूरे देष में यदा-कदा होती रहती है और इनका बिगड़ा स्वरूप हिंसक का भी स्वरूप लेती रही है। मगर जिस तर्ज पर दिल्ली में घटना घटित हुई वह हैरत में डाल देती है। दिल्ली में वकीलों और पुलिस के झगड़ों में किसी एक पक्ष के समक्ष खड़ा नहीं हुआ जा सकता और ऐसा करने के पीछे कुछ कारण है। अभी झगड़े की जांच की रिपोर्ट आना बाकी है। पार्किंग को लेकर कौन किसको उकसाया यह भी समझ पाना अभी कठिन है। हालाकि दोनों अपनी-अपनी दलीलें दे रहे है। फसाद की जड़ पर जाया जाये तो विवाद जिस तरह तिल का ताड़ किया गया उसे देखते हुए कह सकते है कि एक को काले कोट का तो दूसरे को खाकी वर्दी का गुरूर था। जबकि उन्हें यह सोचने की आवष्यकता थी कि वस्त्र का रंग कुछ भी उद्देष्य तो संविधान और कानून को बनाये रखना है। जो पुुलिस वाले कानून की रक्षा के लिए मुजरिमों को न्याय-अन्याय की परिधि में मापने के लिए अदालत की चैखट पर ले जाते है, उनके रास्ते वकीलों के बगैर तय नहीं होते है। और यही विधि व्यवस्था है। बावजूद इसके रंज इतना कि वे एक दूसरे के जानी दुष्मन बन गये। यह न्याय का तरीका नहीं है, ऐसे आचरण से विधि के षासन को चोट पहुंचती है और संविधान भी लहुलुहान होता है साथ ही जिन नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी इन पर है उन्हीं का विष्वास इनके ऊपर से उठने लगता है।
सरकार और सर्वोच्च न्यायालय जाहिर है इसे गंभीरता से ले रहे होंगे। हालाकि पुलिसकर्मियों को इस बात के लिए आष्वासन दे दिया गया है कि उन पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। घायल पुलिसकर्मियों को 25 हजार रूपये मुवावजा देने का एलान पुलिस अफसरों ने किया है। दोशी वकीलों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गयी है। वकीलों की जो मांगे है उसे लेकर बार एसोषिएषन भी काफी सक्रिय दिखायी दे रहा है। संदर्भ निहित परिपेक्ष्य यह भी है कि कानून से जुड़े दो इकाईयों का इस तरह सड़क पर होना किस तरक्की का उदाहरण है। स्नातक के बाद विधि में स्नातक और अच्छा खासा समय खर्च करके वकालत को अंजाम दिया जाता है जबकि अच्छी खासी योग्यता के बाद पुलिस सेवा में जाने का अवसर मिलता है पर सड़क पर दोनों का इस तरह टकराना माथे पर बल डालता है। दिल्ली के पुलिस तमाम आला-अफसर कमिष्नर तक को अपने ही पुलिसकर्मियों को समझाने के लिए मान-मनौवल करना पड़ा। इससे न केवल सभ्य समाज को चोट पहुंचती है बल्कि देष की कानून व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा दिखाई देता है। पुलिस हो या वकील दोनों के समानुपातिक संदर्भ संविधान को कहीं अधिक पुख्ता बना सकते है। जिस तर्ज पर पुलिस और वकीलों के बीच झगड़ा अनवरत् रहा है उसे देखते हुए यह कहना लाजमी है कि दोनों पर हड़ताल या बगावत का बड़ा कानून आना चाहिए। 72 सालों में पहली बार पुलिस ने इस तरह का प्रदर्षन किया यदि इसे समय रहते रोका नहीं किया गया तो देष की पुलिस व्यवस्था के लिए सही नहीं होगा और वकीलों को भी हद में रहने के लिए कड़े बन्दोबस्त की आवष्यकता है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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