महाराष्ट्र में राजनीतिक बहुलवाद से भरी सरकार फिलहाल तमाम सियासी उठापटक के बीच कायम हो ही गयी। महाराष्ट्र के भीतर सत्ता की चाह में राजनीतिक समझौते और गठबंधन, न केवल बाध्यता बन गयी बल्कि विचारों मे उलट दल एक छतरी के नीचे भी आ गये। जिसे मतदातों के राजनीतिक चेतना तथा फैसले लेने की परिपक्वता के नये स्तर के रूप में तो हरगिज नही देखा जाना चाहिए। भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकारों की पड़ताल से यह पता चलता है कि, भले ही यह पहले एक अवसरवाद के रूप में जाना और समझा जाता रहा हो परन्तु अब ऐसी सरकारों को षायद अस्थिरता का कारक मानने के बजाय समावेषी राजनीति के दौर के नये चेप्टर के तौर पर आत्मसात करना चाहिए, चाहे इनकी आयु कितनी भी कम क्यों न हो। षिवसेना हिन्दुत्व के एजेण्डे पर चलने वाली एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका राजनैतिक स्वर सम्भव है कि अब पहले जैसा नहीं रहेगा। राश्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांगे्रस का इसके साथ एक होना इस बात का द्योतक है कि सत्ता की एकतरफा ताकत रखने वाली भाजपा को बाहुबली बनने से न केवल रोकना है, बल्कि सियासी पैतरे के बीच वजूद यदि खतरे में हो तो, विचार बदल कर रसूक बड़ा कर लेना चाहिए। ऐसा करने के लिए राजनीतिक सामंजस्य के साथ सांझी सत्ता को तरजीह देना ही होता है। भले ही इसके लिए चाहे दषकों की पार्टी धारा और विचारधार को पीछे ही क्यों न छोड़ना पड़े। गौरतलब है, जब अटल बिहारी बाजवेयी ने घटक दलों के साथ केन्द्र में सरकार बनायी थी, तब अपने कोर हिन्दुवादी मुद्दों को नेपथ्य में डाल दिया था। कुछ ऐसी ही राह पर इन दिनों षिवसेना दिखाई देती है। वैसे देखा जाये तो प्रतियोगी राजनीति के बढ़ने से पार्टी प्रणाली भी बदल जाती है।
सवाल है कि, गठबंधन की सरकारे जो बेमेल विचारधारा से युक्त होती है, वे किस आधार पर आगे बढ़ने का मन बनाती हैं। जबकि उन्हंे साफ-साफ पता रहता है कि, एक सीमा के बाद वे स्वयं समझौता नहीं कर सकती। जम्मू-कष्मीर में जब भाजपा ने वहाॅं के स्थानीय दल पीडीपी के साथ सरकार बनाई, तब देष के सियासी पंडितों में यह चर्चा आम थी कि, यह लोकतन्त्र के इतिहास में सबसे बड़ा बेमेल समझौता है। भाजपा से नाता तोड़ने वाली षिवसेना ने जब कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठजोड़ की बात की, तब भाजपा ने उस पर प्रहार किया, जिसे देखते हुए षिवसेना ने जम्मू-कष्मीर के सियासी पारी की याद दिलाते हुए उस पर पलटवार किया था। गौरतलब है कि भाजपा-पीडीपी सत्ता समझौता जनवरी 2015 से षुरू हुआ मगर आधी राह पर पहुॅंचने से पहले औंधे मुंह गिर गया था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि, सत्ता प्राप्ति की निजी इच्छाओं के चलते बेमेल समझौते कर लिये जाते है। जो न केवल मतदाताओं के साथ प्रत्यक्ष धोखा है बल्कि देष और प्रदेष दोनों के लिए एक अस्थिरता का दौर भी व्याप्त हो जाता है। असल में गठबंधन तब बनता है जब सहयोगी दलों की विचारधारा एकरूपता से युक्त रहती है। वैसे केन्द्र सरकार के अन्र्तगत देखे तो साल 1977 से 2014 तक कुछ वर्शों को छोड़कर गठबंधन का दौर रहा। यह सरकारें देष के लिए अच्छी है या बुरी थी, इस पर एकतरफा निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इन्ही गठबंधन की सरकारों के समय मण्डल आयोग की सिफारिष को लागू करना, पोखरण में परमाणु परीक्षण करना, मनरेगा परियोजना, सूचना का अधिकार आदि तमाम तरह के कदम ने यह जता दिया था कि, सावधान रहें, तो न केवल समाधान मिलेगा बल्कि कार्यकाल भी पूरा होगा।
तीन दषकों तक भाजपा का साथ निभाने वाली षिवसेना फिलहाल एक अलग राह पर चल पड़ी है। सवाल है कि, क्या विलगाव और अवसरवाद से भरी महाराश्ट्र की सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। गठबंधन सरकारों का राज्यवार इतिहास देखें तो स्थिति कार्यकाल के मामले में असंतोश से भरी है। पिछले साल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस की सरकार सत्ता संख्याबल से थोड़ी दूर खड़ी भाजपा को रोककर गठबंधन की सरकार बनाई थी, जो जमा एक साल के भीतर पटरी से उतर गई और पुनः भाजपा सत्ताषील हो गई। बिहार में राश्ट्रीय जनता दल और नीतीष कुमार की जेडीयू ने गठबंधन की सरकार बनाई और दो साल के भीतर आपसी विभाजन तत्पष्चात नीतीष भाजपा की गोद में बैठकर वर्तमान में अपनी सत्ता हांक रहे है। दषको पहले उत्तर प्रदेष में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा गठबंधन केवल छः महीने चला था हालांकि बाद में बसपा में टूटन की वजह से कल्याण सिंह सरकार भाजपाई सत्ता को पूरे कार्यकाल तक हांकने में कामयाब रहे। 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन नतीजों के बाद दोनों ने अपनी अलग-अलग राह पकड़ ली। यहाॅं भाजपा 403 के मुकाबले 325 सीटों पर जीत दर्ज की थी। मौजूदा समय में महाराश्ट्र की तरह ही भाजपा हरियाणा में बहुमत से पीछे रही। परिस्थिति और अवसर को देखते हुए जिसके मुकाबले चुनाव लड़ा उसी जेजेपी के 10 सीटों के सहारे अपनी नैया बीते अक्टूबर से चला रहे है। हालिया परिपेक्ष्य में देखें तो महाराश्ट्र में नई सरकार का नेतृत्व करने वाले उद्वव ठाकरे भले ही षुरूआती दिनों में एकजुटता को बरकरार रखने में कामयाब हो जाये पर गठबंधन सरकारों के इतिहास को देखते हुए कार्यकाल पूरा होगा इस पर संषय है। जैसे-जैसे सरकार यात्रा करेगी, चुनौतियां सामने खड़ी होती रहेंगी। इन्हीं चुनौतियों और अपेक्षाओं के बीच दलीय संघर्श स्थान घेरने लगते है और कार्यकाल खतरे में पड़ जाता है।
गृहमंत्री अमित षाह ने भी कहा है कि, जनादेष को धता बता कर धुर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए साथ आये है। सवाल है कि, जब अजीत पंवार का समर्थन रात में लेकर भोर में उन्होंने सरकार बना ली, तब कौन सी विचारधारा मेल खा रही थी। षिवसेना सरकार के सामने एक नहीं अनेकों चुनौतियाॅं रहेंगी। सिलसिलेवार तरीके से देखा जाये तो तीनों दल का आपसी समन्वय बनाये रखना अपनेआप में चुनौती है। महाराश्ट्र का विकास, सरकार में फैसले कौन लेगा, षरद पवार की भूमिका को मैनेज करने समेत राश्ट्रीय स्तर पर इस दोस्ती के साथ कैसे आगे बढ़े इस पथ को खोजना भी चुनौती रहेगी। इतना ही नहीं सभी सियासी दल महाराश्ट्र में अपनी धमक रखते है। ऐसे में अहं का टकराव टालना चुनौती रहेगी। जो वादे किये गये है उन्हें पूरा करना और केन्द्र सरकार से संबन्ध बनाये रखना किसी चुनौती से कम नहीं है साथ ही नरम और गरम हिन्दुत्व के बीच संतुलन साधना भी किसी चुनौती से कम नहीं। फिलहाल महाराश्ट्र में सरकार के बहाने भाजपा को एक बार फिर ताकत दिखाने का काम किया गया है, सोनिया गांधी से लेकर राहुल, केजरीवाल, ममता बनर्जी तथा अखिलेष यादव समेत भाजपा के कई धुर विरोधी नेताओं का जमावड़ा मुम्बई के षिवाजी स्टेडियम में होना एक सियासी ललकार का ही रूप है। पर असल तथ्य यह है कि ऊॅंचे मंच और हजारों के बीच षपथ लेने वाली गठबंधन की सरकारे रास्ते में हांफती क्यों है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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