Thursday, December 5, 2019

दोनों के बीच सम्बन्ध और मतभेद

श्रीलंका, भारत के दक्षिण हिस्से का एक छोटा द्वीप है जो सदियों से सम्बंध की जमावट लिये हुए है। सिंघली भाशियों का बाहुल्य है मगर तमिल भाशी भी यहां अच्छा-खासा प्रभाव रखते हैं। अन्तर्राश्ट्रीय राजनीति में भी इसका विषिश्ट महत्व रहा। भारत की तरह ही यह भी षान्तिवाद, गुटनिरपेक्षता, सहस्थित और दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बंधों में विष्वास रखता है। राश्ट्रमण्डल का सदस्य श्रीलंका कोलम्बो योजना के अन्तर्गत जिसकी रचना 1950 में राश्ट्रमण्डलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में की गयी। यहीं से दोनों के बीच आर्थिक रूप से सहयोग षुरू हुआ।मतभेद का मुख्य कारण भारतीय प्रवासियों का था। 1948 में यह तब षुरू हुआ जब सिलोन नागरिकता अधिनियम और सिलोन संसदीय अधिनियम 1949 के चलते दस लाख से अधिक दक्षिण भारतीय को इससे अलग कर दिया गया जो 1939 से लगातार वहां निवास कर रहे थे। नेहरू-कोटलेवाला समझौता 1954, षास्त्रीय-भण्डारनायके समझौता 1964 और दषकों पष्चात् 1882 से 1888 के बीच 
श्रीलंका के नये राश्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के सत्तासीन होने के पष्चात् भले ही भारत का दृश्टिकोण न बदले, मगर यह बात पूरे दावे से नहीं कहा जा सकता कि नई व्यवस्था पुराने द्विपक्षीय सम्बंधों पर चलेगी। बीते 18 नवम्बर को राश्ट्रपति के षपथ लेने वाले राजपक्षे इसी षर्त पर श्रीलंकाई मतदाताओं से मत लिया है कि वे सत्ता में आने पर चीन के साथ रिष्तों को और मजबूत बनायेंगे। गौरतलब है कि नवनियुक्त श्रीलंकाई राश्ट्रपति गोटाबाया, 2005 से 2015 तक राश्ट्रपति रहे महिन्द्रा राजपक्षे के भाई हैं। जिन्हें चीन से बेहतर सम्बंधों के लिए जाना और समझा जाता है। इन्हीं के कार्यकाल में चीन को हम्बनटोटा बंदरगाह और एयरपोर्ट का ठेका दिया गया था। दूसरे षब्दों में कहें तो हिन्द महासागर में चीन की विस्तारवादी नीति से इनके विचार एकरूपता लिए हुए थे। गौरतलब है कि हिन्द महासागर ने चारों तरफ से घेरने की चीन की योजना में श्रीलंका की नीतियों का कहीं अधिक योगदान है। जाहिर है एक बार फिर श्रीलंका में 5 साल राजपक्षे का परिवार राज करेगा और पूरी सम्भावना है कि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पद छोड़ेंगे और कयास यह भी है कि नवनियुक्त राश्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे अपने बड़े भाई महिन्द्रा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री बनायेंगे। उक्त से यह पूरी तरह संदर्भित है कि, भारत-श्रीलंका के सम्बंध एक बार फिर नये मोड़ लेंगे और श्रीलंका का चीन के साथ प्रसारवादी दृश्टिकोण पुनः अग्रसर होगा। हालांकि मद्रास विष्वविद्यालय से मास्टर डिग्री कर चुके गोटाबाया का और कई मामलों में भारत से पुराना नाता है। यूनाईटेड नेषनल पार्टी के उम्मीदवार सजित प्रेमदासा को 13 लाख वोटों से षिखस्त मिली है जो, यह दर्षाता है कि, श्रीलंका में बदलाव को लेकर मतदाता कितना आतुर था। वैसे कुल 35 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। हालांकि राजपक्षे को 52.25 फीसदी ही मत मिले हैं मगर प्रेमदासा बड़े फासले के साथ 41.99 प्रतिषत मत पर सिमट गये। इसमें कोई दुविधा नहीं कि, इस बदलाव को ध्यान में रखते हुए श्रीलंकाई नीतियों पर भारत की नजर रहेगी।
श्रीलंका में आये नये परिवर्तन भारत और चीन दोनों देषों के लिए रणनीतिक और कूटनीतिक नजरिये से बेहद अहम है। जाहिर है कि बीते 17 नवम्बर को आये चुनावी नतीजे पर दोनों देषों की पैनी निगाहें थी। व्यापारिक दृश्टि से ही नहीं दक्षिण एषिया पर चीन का विस्तारवादी दृश्टिकोण भी भारत के लिए मुसीबत का सबब रहा है और यह अभी भी बरकरार है। दो करोड़ से थोड़े ही अधिक आबादी वाले श्रीलंका में डेढ़ करोड़ से थोड़े ज्यादा मतदाता हैं जो न केवल अपने राज-काज चलाने वालों को चुनते हैं बल्कि भारत और चीन की भी चिंताओं को बढ़ा देते हैं। हांलाकि इस बार चिंता चीन के लिए नहीं भारत के लिए बढ़ी दिखाई देती है। भारत की चिंता यह रही है कि हिन्द महासागर मसलन श्रीलंका और मालदीव में चीन का वर्चस्व बढ़ता है तो यह भारत के द्विपक्षीय सम्बंधों पर ही नहीं दक्षिण एषियाई देषों के समूह सार्क भी उलझन में पड़ जाता है। चीन ने कोलम्बो बंदरगाह को भी विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई है जबकि भारत ने कोलम्बो बंदरगाह में ईस्टर्न कन्टेनर टर्मिनल बनाने को लेकर श्रीलंका के साथ एक समझौता किया है। इसके चलते भारत को आने वाला बहुत सारा सामान कोलम्बो बंदरगाह से होकर आता है। ऐसे में श्रीलंका में कोई भी सत्ता में आये भारत उससे सहयोग लेना चाहेगा। लेकिन राजपक्षे परिवार के रूख को लेकर भारत की चिंतायें अलग रही हैं। वैसे एक दौर ऐसा भी था जब दोनों देषों के बीच रिष्ते काफी नाजुक अवस्था में थे। गृहयुद्ध के बाद श्रीलंका के विदेषी मामलों में भारत की अहमियत कम हुई है। श्रीलंकाई तमिलों और भारत के बीच सम्बंध गृहयुद्ध के बाद अमूमन कमजोर तो हुए हैं। बहुत से तमिलों को भी लगता है कि भारत ने उन्हें धोखा दिया है। वहां के सिंघली भी भारत के साथ बहुत करीबी नाता नहीं महसूस करते। इतना ही नहीं भारत को तो एक खतरे के रूप में भी देखते हैं। जबकि वे ये जानते ही नहीं कि जिस खामोषी के साथ चीन उनकी गर्दन दबोच रहा है और भारत उतनी ही पारदर्षिता के साथ उनका विनम्र पड़ोसी और सहयोगी है। गौरतलब है कि चीन श्रीलंका में निवेष बढ़ाये हुए है और उसे कर्ज तले भी दबा रहा है। 
श्रीलंका बीते तीन दषकों से राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझ रहा है जिसके चलते वहां का समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में कब विभाजित हो गया पता ही नहीं चला। तमिल और सिंघली का मामला भी बरसों विवाद में ही रहा। इसके कारण भी द्विपक्षीय सम्बंध उतार-चढ़ाव लिये रहे और यह नेहरू काल से लेकर मोदी षासनकाल तक देखा जा सकता है। इसी साल जब 21 अप्रैल को श्रीलंका के तीन प्रमुख षहरों कोलम्बो, निगम्बो और बट्टिकलोवा में आतंकी हमला हुआ, जिसमें दो सौ से अधिक श्रीलंकाई के साथ कई भारतीय नागरिक मारे गये और सैकड़ों घायल भी हुए तो भारत के माथे पर चिंता की लकीरें उभरी थी। इसका प्रमुख कारण दक्षिण एषिया में भारत द्वारा लायी जाने वाली षान्ति की पहल को झटका था। प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए श्रीलंका का आतंकी हमले के बाद जून 2019 में दौरा किया और एक आषावादी दृश्टिकोण के साथ श्रीलंका की हिम्मत बढ़ाई थी। हालांकि वे 2015 और 2017 में इसके पहले श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं जो किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का 27 साल बाद किया गया दौरा था। मोदी द्वारा श्रीलंका की, की गयी यात्रा कई द्विपक्षीय समझौतों को जमीन भी प्रदान करता है और काफी हद तक आपसी विष्वास को बढ़ाता है। मगर अब यह कितना प्रासंगिक रहेगा कहना कठिन है। ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूदा श्रीलंकाई सरकार चीन की ओर झुकी रहेगी। यह बात पूरे दावे से इसलिए कह सकते हैं क्योंकि चुनावी प्रचार में यह एक हिस्सा था कि जीत होगी तो चीन से मजबूत सम्बंध होंगे। सामरिक दृश्टि से देखा जाय तो भारत और चीन पर लिट्टे के साथ हुए युद्ध का अलग-अलग असर रहा है। वैसे भारत श्रीलंका को लेकर तटस्थ रवैया रखता है। हालांकि 2009 में ही श्रीलंका में लगभग लिट्टे का सफाया हो चुका है। ध्यांतव्य हो कि चीन, श्रीलंका को लिट्टे के खिलाफ हथियार आदि की सहायता देकर कोलम्बो को बीजिंग के समीप उस दौर में ही कर लिया था जबकि भारत केवल समीप का पड़ोसी मात्र बनकर रह गया। ध्यानतव्य हो कि नवनियुक्त राश्ट्रपति गोटाबाया लिट्टे के खिलाफ कार्यवाही के दौरान रक्षा सचिव थे। 
राजपक्षे का जीतना चीन के लिए फायदेमंद ही नहीं बल्कि चीन के लिए भी एक बड़ी जीत है। गोटाबाया के भाई महिन्द्रा राजपक्षे 10 वर्शों तक श्रीलंका की सत्ता में रहे और यह वही दौर है जब चीन ने अपने निवेष में लगातार बढ़ोत्तरी की। महिन्द्रा राजपक्षे श्रीलंकाई राश्ट्रपति रहते हुए चीन से अरबों डाॅलर का उधार लिया और चीनी युद्धपोतों के लिए अपना घर खोल दिया। कमोबेष यह समझना सही रहेगा कि प्रेमदासा ने तर्कसंगत व्यापार नीति के साथ मैत्रीपूर्ण अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध विकसित करने का वादा किया था जो राजपक्षे से अलग करता है। चीन, श्रीलंका को जेट लड़ाकू विमान, परिश्कृत रडार और विमानभेदी तोप समेत बड़ी मात्रा में हथियार भी कम कीमत पर उपलब्ध कराया है। साल 2017 में श्रीलंका ने चीन के साथ करीब 4 सौ करोड़ डाॅलर के हथियारों का सौदा किया था। श्रीलंका में सरकार किसी की रही हो चीन का प्रभाव मानो थमा ही नहीं। हिन्द महासागर में चीन जिस तरह पकड़ बना रहा है वह भारत के लिए चिंता का सबब है। हालांकि दक्षिणी चीन सागर में अमेरिका, जापान और भारत की सहयोगी तिकड़ी ने उसे तुलनात्मक चिंता में डाला है। बावजूद इसके चीन का वर्चस्व रूकता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि भारत समुद्र की ओर से भी असुरक्षित महसूस कर रहा है। नेपाल के बाद श्रीलंका दक्षिण एषिया का दूसरा ऐसा देष है जहां हुए चुनाव में जीत उसकी हुई है जिसकी सोच भारत समर्थक की नहीं रही है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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