बीते 28 नवम्बर को हैदराबाद की घटना ने एक नये नासूर को उधेड कर रख दिया। दिल्ली के दामन पर नारी सुरक्षा का दाग अभी धूला नहीं था कि हैदराबाद इसके चपेट में आ गया। गौरतलब है हैदराबाद में बलात्कार और तत्पष्चात हत्या की घटना ने देष के भीतर नारी सुरक्षा को लेकर एक नया विमर्ष खड़ा कर दिया है। 16 दिसम्बर 2012 को जब दिल्ली में इसी तरह का जघन्य अपराध का चर्चित मामला निर्भया का आया था तब भी देष उबला था। नारी सषक्तिकरण से जुड़े तमाम पहलूओं को ऐसी घटना ने एक बार फिर चुनौती देने का काम किया है। आरोपियों तत्पष्चात दोशियों को फांसी की सजा देने की गूंज एक बार फिर फिजा में तैरने लगी। हालाॅंकि हैदराबाद के आरोपियों को एक मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा जा चुका है, मगर निर्भया के दोशियों को अभी भी मृत्युदण्ड की सजा दे पाना सम्भव नहीं हो पाया है। साल 2017 से दया याचिका को लेकर फाइल प्रक्रियागत उलझाव में फंसी रही, हालाॅंकि अब इसका रास्ता भी साफ होता दिखाई देता है। सवाल ये है कि जघन्य अपराध करने वाले ऐसे दोशियों को जब सर्वोच्च न्यायालय एक लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद मृत्युदण्ड की सजा सुना देता है तो राश्ट्रपति के पास भेजी जाने वाली दया याचिकाएं जीवनदायिनी का काम क्यों करती है। इस पर समय सीमा के भीतर एक सुचारू निर्णय क्यों नहीं जन्म लेता है। गौरतलब है कि सजा का समय पर लागू न हो पाना भी न्याय से भरोसा उठा रहा है। हैदराबाद में अरोपियों का पुलिस द्वारा किया गया एनकाउण्टर और पूरे देष में इस घटना के बाद उठा उल्लास इस बात को पुख्ता करता है। एमनेस्टी इन्टरनेषनल की रिपोर्ट भी यह बताती है कि प्रतिवर्श सैकड़ों मृत्युदण्ड की सजा पाने वाले दोशी पर सजा का अमल हो ही नहीं पाता है, इसका एक मूल कारण दया याचिका भी है।
सवाल है कि दया याचिका को एक धीमी प्रक्रियागत स्वरूप क्यों दिया गया है। इस प्रष्न के उत्तर के लिए भारतीय संविधान में झांकना पडे़गा। दया याचिका पर फैसला लेने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 72 मंे राश्ट्रपति को दिया गया है। मगर उसी संविधान में अनुच्छेद 74 स्पश्ट करता है कि, ऐसा केाई भी फैसला राश्ट्रपति मंत्रीपरिशद की सलाह पर ही ले सकता है। यदि राश्ट्रपति मंत्रीपरिशद की सलाह से सहमत न हो तो उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है और ऐसी स्थिति में यदि कैबिनेट वही सलाह या परामर्ष राश्ट्रपति को पुनः भेज द,े तो वह मानने के लिए बाघ्य है। चूॅंकि संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि कैबिनेट के फैसले को राश्ट्रपति द्वारा कब तक संतुति देना है या वापस करना है। ऐसे में राश्ट्रपति अपनी इच्छानुसार मामले को लम्बित छोड़ सकता है, दया याचिकाओं के लम्बित रहने का एक कारण यह भी रहा है। राश्ट्रपति जब ऐसे मामलों में सहमत नहीं होते है तो याचिकाओं को लम्बित छोड़ देना मुनासिब समझते है। हालाॅंकि पूर्व राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी गृह मंत्रालय के सलाह के विपरीत भी फैसला के लिए भी जाने जाते है, जो अपने आप में एक मिसाल है। गौरतलब है प्रणव मुखर्जी देष के दूसरे ऐसे राश्ट्रपति हंै जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा 28 दया याचिकाएं खारिज की है। जबकि 1987 से 1992 तक राश्ट्रपति रहे, आर. वेंकेटरमन ने 44 दया याचिकाएं खारिज की थी। देखा जाये तो 2007 से 2012 के बीच राश्ट्रपति रही प्रतिभा पाटिल ने 30 फांसी की सजा माफ करने का रिकार्ड बनाया, जबकि प्रणव मुखर्जी इस मामले में 7 बार ऐसा किया। भारत में निचली अदालतों में फांसी की सजा मिलने के बाद प्रक्रियागत तरीके से यदि सर्वोच्च न्यायालय इस पर मुहर लगाता है तो अन्तिम रास्ता राश्ट्रपति से दया की अपील के तौर पर रहता है, और राश्ट्रपति इसे खारिज कर दे तो फांसी दे दी जाती है। पहले अदालती कार्यवाही में देरी फिर दया याचिका पर निर्णय लेने में हुआ विलम्ब अपराधियों का कहीं न कहीं हौंसला बढ़ा देता है और उसी का नतीजा ऐसी घटनाओं का होना कहा जा सकता है।
देखा जाये तो बलात्कार तत्पष्चात हत्या के मामले में आखिरी बार फांसी 2004 में पष्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी को दी गई थी, जिस पर यह दोश था कि उसने कलकत्ता में एक 15 वर्शीय स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार और हत्या की थी। यह बच्चों से जुड़ा एक ऐसा अपराध था जिससे समाज भी खूब षर्मसार हुआ था। हैदराबाद की घटना के बाद षासन, प्रषासन से लेकर न्यायिक संस्थाएं भी हिल गई। गौरतलब है कि बलात्कार एक ऐसा सामाजिक कैंसर है जिसकी चपेट में हर वर्ग और हर उम्र की महिला षामिल है। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम तक षायद ही कोई कोना बाकी हो जहाॅं यह बीमारी न फैली हो। जम्मू-कष्मीर के कठुआ से लेकर हैदराबाद तक 6 महीने से 6 साल और किसी भी उम्र में बलात्कार समाज का जघन्य रूप बताता है। बढ़ती घटनाओं को देखते हुए राश्ट्रपति रामनाथ कोंविद ने बच्चांे से जुडे ऐसे अपराधों से संबंधित पास्को एक्ट से जुडे़ अध्यादेष को हाल ही में मंजूरी दे दी है। गौरतलब है कि इस तरह की बढ़ती घटनाओं के कारण साल 2012 में प्रोटेक्षन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट-2012 (पास्को) लाया गया। स्वतंत्रता के बाद तमाम कानून बनते रहे, कड़े कानूनों की मांग होती रही बावजूद इसके न्याय अधूरा बना रहा। आजादी के बाद भारत में पहली बार फांसी नाथुराम गोडसे को दी गई थी और याकूब मेमन के पहले आखरी बार फांसी की सजा संसद भवन पर हमले के दोशी अफजल गुरू को दी गई थी। पिछले 10 सालों का रिकाॅर्ड देखें तो भारत में 1303 लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है जिसमें से धनंजय चटर्जी अफजल गुरू और मुम्बई हमले का दोशी अफजल कसाब फांसी पर लटकाया गया। हैरत यह है हर साल लगभग 130 लोगों को फांसी की सजा मिलती है पर अमल में लाने का दर षून्य प्रतीत होता है। वजह भारत में सजा माफी की लम्बी प्रक्रिया का होना है। इतना ही नहीं फांसी देने वाले जल्लादों की भी कमी बतायी जाती है। दुनिया में न्यायालयी सजा को अमल में लाने की प्रक्रिया की तुलना में भारत फिसड्डी है। मान्यता है कि यहाॅं कितने भी सषक्त कानून क्यों न बना दिये जाये, यदि प्रक्रिया और व्यवहार में तीव्रता नहीं होगी तो व्यवधान बने रहेंगे। मृत्युदण्ड के अमल के मामले में न केवल समयसीमा तय हो बल्कि बलात्कार जैसे अपराध के लिए दया याचिका की इजाजत भी समाप्त कर देनी चाहिए। समाज बचाने के लिए भावनाओं में बहने की बजाय सुदृढ़ नीति पर चलने का वक्त अब आ चुका है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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