Thursday, December 19, 2019

गंगा सफाई पर हांफती सरकारें

वल्र्ड वाइल्ड फंड का कहना है कि, गंगा विष्व की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदियों में से एक है। देष की सबसे प्राचीन और लम्बी नदी गंगा कई कोषिषों के बावजूद साफ नहीं हो पा रही है। गौरतलब है कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व वाली गंगा कारखानों से निकलने वाला जहरीला प्रदूशित पानी, घरों से निकलने वाले सीवर और प्लास्टिक की षरणगाह बनी हुई है। पिछले साल संसद में पेष किये गये रिपोर्ट के मुताबिक 236 सफाई परियोजनाओं में से महज़ 63 को ही पूरा किया गया था। सरकार बार-बार गंगा साफ करने के मामले में नये-नये वायदे करती रही और समस्या जस की तस बनी रही। इसी क्रम में मार्च 2019 तक गंगा को 70 से 80 फीसदी स्वच्छ होने की बात कही गयी थी और उसके अगले साल तक पूरे सौ फीसदी। पर गंगा सफाई में कोरी बातें अधिक रहीं। अनुमान तो यह भी है कि प्रतिदिन इसके किनारे बसे 97 षहर करीब 3 अरब लीटर प्रदूशित जल गंगा में छोड़ते हैं जो लगभग डेढ़ अरब लीटर की क्षमता से यह दोगुना है। इतना ही नहीं 2035 तक इसमें हर दिन साढ़े तीन अरब लीटर से अधिक प्रदूशित जल छोड़े जाने लगेंगे तब गंगा का क्या हाल होगा यह समझना कठिन नहीं है। गंगा सफाई को लेकर एक चैकाने वाला खुलासा साल 2017 के दिसम्बर को हुआ जिसमें गंगा नदी के कायाकल्प के लिए केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा षुरू की गयी नमामि गंगे परियोजना की बदहाल स्थिति सामने आयी थी। सीएजी के रिपोर्ट से यह बात सामने आ चुकी थी कि स्वच्छ गंगा मिषन के लिए आवंटित किये गये 26 सौ करोड़ रूपए से अधिक की राषि सरकार तय समय में खर्च ही नहीं कर पायी। गंगा की सफाई के लिए बजट भारी-भरकम होने के बावजूद इसके मैली बने रहने से यह साफ है कि गंगा सफाई से पहले दिमाग की सफाई जरूरी है। कहा जाय तो पहले साफ हो नीयत फिर गंगा। वजह चाहे जो हो एक बात तो साफ है कि सरकार ने समय काटा है न कि गंगा की सफाई की है। तय समय में परियोजना राषि भी खर्च न हो पाना इस बात को स्पश्ट करता है कि सफाई के मामले में सरकार का रवैया ढुलमुल है और आदूरदर्षिता से भी घिरी है जबकि गंगा सफाई को लेकर अलग से मंत्रालय इसी उद्देष्य से बनाया गया था। जिस प्रधानमंत्री मोदी को बनारस में मां गंगा ने बुलाया था आज वहीं के घाटों से गंगा दूर हो रही है और दूशित भी। कहा जाय तो लगातार मैली हो रही गंगा को साफ करने का जो वायदा सरकार ने किया था उसके प्रति असंवेदनषीलता दिखा कर यहां भी जुमलेबाजी ही किया जा रहा है। 
निरंतर मैली हो रही गंगा को लेकर जब से सफाई वाली सोच आयी है तब से कहा जाय तो चर्चा खूब हुई पर सफाई धेले भर भी नहीं हुई। सफाई वाले विचार की षुरूआत इन्दिरा गांधी के काल में आया पर गंदगी का सिलसिला मोदी काल में भी बादस्तूर जारी है। वर्श 1981 में बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय में 68वें विज्ञान कांग्रेस का आयोजन हुआ। इसी के उद्घाटन के सिलसिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी बीएचयू गयीं थीं। इनके साथ कृशि वैज्ञानिक और योजना आयोग के सदस्य डाॅ0 एम0 एस0 स्वामीनाथन भी थे। इसी दौर में गंगा प्रदूशण को लेकर पहली चिंता और चर्चा संभव हुई। उसके बाद ही उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस बात के लिए निर्देष दिया गया कि गंगा में प्रदूशण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम षुरू करें। इस प्रकार की पहल को गंगा को गुरबत से बाहर निकालने के अच्छे मौके के रूप में देखा जाने लगा। 1984 के लोकसभा के चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे अपने घोशणा पत्र में भी षामिल किया और प्रधानमंत्री बनने के बाद 500 करोड़ रूपए स्वीकृत किये। तत्पष्चात् वर्श 1985 में ‘गंगा एक्षन प्लान‘ का पहला चरण प्रारंभ कर दिया गया। सीएजी की तत्कालीन रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्षन प्लान के पहले चरण में उस वक्त पैदा हो रहे 1340 एमएलडी सीवेज में 882 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने का लक्ष्य रखा गया था जबकि दूसरे चरण में ‘कैबिनेट कमेटी आॅन इकोनाॅमी अफेयर‘ ने 1993 से 1996 के बीच 1912 एमएलडी सीवेज ट्रीट करने का लक्ष्य रखा था। इन तमाम तरीकों के अलावा समय के साथ कई प्रकार के प्रयोगवादी कृत्य भी देखे जा सकते हैं परन्तु गंगा के प्रदूशित होने की गति ने केवल बरकरार रही बल्कि बढ़ती गयी। वर्श 1984 से 2012 तक के आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि गंगा को साफ करने के चक्कर में 7000 करोड़ रूपए का इंतजाम हुआ। कई सरकारें आईं और गयीं परन्तु गंगा में गंदगी जस की तस बनी रही।। देष की 40 प्रतिषत आबादी गंगा के किनारे बसती है। 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा भारत से निकलती है, भारत में बहती है और भारत के सुखो की चिंता करती है परन्तु फिर भी षायद भारतीयों में गंगा के प्रति कोई दयाभाव नहीं है। गंगा के नाम पर सरकारें भी जोड़-जुगाड़ की राजनीति करती रहीं परन्तु जिस प्रकार के भागीरथ प्रयास की आवष्यकता चाहिए थी वह सरकारों की नीयत में नहीं झलकी।
 साल 2014 में लोकसभा के चुनाव में भाजपा की ओर से भी इसके प्रति इसी प्रकार के इरादे जताये गये और भारी-भरकम राषि का निवेष कर इस पर मोहर भी लगायी पर समय रहते राषि न खर्च पाना मोदी सरकार की गंगा सफाई के प्रति असंवेदनषीलता का प्रदर्षन ही कहा जायेगा। कहा जाय तो तमाम वायदे एवं इरादों के बावजूद गंगा अभी भी गुरबत में है। षीर्श अदालत भी गंगा सफाई योजना पर अप्रसन्नता जाहिर कर चुकी है। यहां तक कह डाला कि गंगा साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पायेगी। कम-से-कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। आरोप यह है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्षिता दिखाई। साथ ही वैज्ञानिकों और विषेशज्ञों के प्रमाणित अनुसंधानों को दरकिनार करके गंगा सफाई से संबंधित क्रियान्वयन करने की कोषिष जारी रही। मजबूत इरादे वाली मोदी सरकार को भी इससे अलग नहीं देखा जा सकता। गौरतलब है कि 2018 तक गंगा साफ करने की समय सीमा को देखते हुए और मौजूदा स्थिति में मोदी सरकार के निराषाजनक रवैये से साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी षंका सही साबित हा रही है।
फिलहाल गंगा की षुद्धि करने वाली विचारधारा की पूरी गाथा बिना ‘पर्यावरणविद‘ प्रोफेसर बी.डी. त्रिपाठी के अधूरी है। प्रोफेसर त्रिपाठी उन दिनों बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में कार्यरत् ‘गंगा पर्यावरण‘ के विशय पर अनुसंधान कार्य में लगे थे और इनका जुड़ाव षुरूआत से ही गंगा एक्षन प्लान से रहा है। इन्हें राश्ट्रपति द्वारा ‘पर्यावरण मित्र‘ का पुरस्कार मिल चुका है। हालांकि गंगा को प्रदूशण से मुक्ति के संदर्भ में 1981 में सांसद एस.एम. कृश्णा ने पहली बार संसद में प्रष्न उठाया था। बी.डी. त्रिपाठी के ही चलते गंगा सफाई को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी एक्षन मोड में आयी थी। बीते साढ़े तीन दषक में गंगा सफाई के मामले में किया जाने वाला प्रयास जुबानी जद् तक ही सीमित रहा। आषातीत सफलता न मिलने के पीछे सरकारों के षोधात्मक अनभिज्ञता और सही रणनीति का आभाव रहा है। गौरतलब है कि गंगा एक्षन प्लान के दूसरे चरण के दौरान षीर्श अदालत ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि कर दाताओं का पैसा पानी में बहाया जा रहा है। जाहिर है सफाई की स्थिति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय हमेषा से इसको लेकर चिंतित रहा है। जिस तर्ज पर गंगा समेत भारतीय नदियां कूड़ा-कचरा और सीवेज व अपषिश्ट पदार्थों समेत मानव और पषुओं के षव से बोझिल हुई हैं उससे साफ है कि सरकार समेत जनमानस ने भी अपने दायित्व निभाने में खूब कोताही बरती है। दो टूक यह भी है कि गंगा निर्मल करने के मामले में किसी भी सरकार की कोषिष रंग क्यों नहीं ला पा रही है। बड़े-बड़े कारनामों के लिए जानी जाने वाली हमारी सरकारें इस मामले में आखिर क्यों हांफ जाती है वाकई यह विचारणीय प्रष्न है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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