Tuesday, March 29, 2016

अनुच्छेद 356 को लेकर नया मोड़

अनुच्छेद 356 संविधान के निर्माण काल से ही चर्चे में रहा है। उत्तराखण्ड की सियासत में इन दिनों यह बाकायदा एक नये मोड़ के साथ षुमार है। संविधान सभा में बहस के दौरान डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था कि सम्भव है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग न किया जाय, सिवाय अन्तिम विकल्प के रूप में। इस कथन के आलोक में यह झलक दिखाई देती है कि संविधान के निर्माण के उन दिनों में भी अनुच्छेद 356 के प्रयोग एवं दुरूपयोग को लेकर संविधानविदों में संषय था। ऐसे कई उदाहरण विद्यमान है जब संघ की सरकारों ने राश्ट्रपति षासन के सहारे अपनी सियासत को दिषा देने की भी कोषिष की है। ऐसे में जो अनुच्छेद 356 राज्यों में संवैधानिक विफलता के चलते उपचार के तौर पर निर्मित किया गया था वही दुरूपयोग के चलते स्वयं एक समस्या बन गया। देखा जाए तो 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू होने से लेकर उत्तराखण्ड समेत अब तक प्रांतों में सवा सौ से अधिक बार राश्ट्रपति षासन लगाया जा चुका है। जाहिर है कि 66 वर्शों में सर्वाधिक बड़ा षासनकाल कांग्रेस का रहा है। ऐसे में अनुच्छेद 356 का प्रयोग और दुरूपयोग में इन्हीं की सर्वाधिक हिस्सेदारी भी है। मणिपुर इस मामले में सर्वाधिक दस बार षिकार हुआ है। उत्तर प्रदेष में यह व्यवस्था नौ बार जबकि पंजाब एवं बिहार में आठ-आठ बार राश्ट्रपति षासन लगाया जा चुका है। हालांकि जम्मू-कष्मीर इस मामले में सात बार के लिए जाना जाता है परन्तु सबसे अधिक वर्श तक अनुच्छेद 356 यहीं लागू रहा। प्रधानमंत्री मोदी भी राश्ट्रपति षासन के मामले में अछूते नहीं कहे जायेंगे परन्तु इनके लगभग दो वर्श के कार्यकाल में जम्मू-कष्मीर, महाराश्ट्र, अरूणाचल प्रदेष और उत्तराखण्ड समेत चार राज्यों में मात्र पांच बार राश्ट्रपति षासन का प्रयोग किया जा चुका है। हालांकि इस मामले में अरूणाचल और उत्तराखण्ड को सियासी स्वार्थ के तौर पर देखा जा रहा है जबकि अन्यों के मामले में यह दुरूपयोग के बजाय प्रयोग ही था। अटल बिहारी वाजपेयी के 1999-2004 के पांच वर्श के कार्यकाल में मात्र चार बार राश्ट्रपति षासन का उल्लेख मिलता है जो अनुच्छेद 356 के मामले में अम्बेडकर के कथन को चरितार्थ करता है।
राश्ट्रपति षासन की उद्घोशणा उन्हीं परिस्थितियों में सम्भव है जब राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया हो। अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राश्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाए कि राज्य में ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिससे राज्य का षासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तभी यह सम्भव है। हालांकि अनुच्छेद 356 में राश्ट्रपति षासन षब्द का कोई उल्लेख नहीं मिलता बल्कि राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के चलते उक्त लक्षण उत्पन्न माना जाता है। देखा जाए तो राश्ट्रपति षासन कभी भी अपने आप में एक समाधान के तौर पर न होकर बल्कि राज्य के बिगड़े हालात पर मन मारकर उठाया गया कदम रहा है जिसे छः माह से तीन वर्श तक की अवधि के लिए जाना जाता है। इसी अवधि के भीतर चुनाव कराकर राज्य का षासन जनता के प्रतिनिधियों को सौंपना होता है। 44वें संविधान संषोधन अधिनियम 1978 द्वारा जोड़े गये अनुच्छेद 356(5) के अनुसार राश्ट्रपति षासन की उद्घोशणा को एक वर्श की अवधि से अधिक बनाये रखने सम्बन्धी संकल्प संसद के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जायेगा जब देष में आपात उद्घोशित हो तथा चुनाव आयोग यह प्रमाणित कर दे कि सम्बन्धित राज्य की विधानसभा में चुनाव कराने में कठिनाईयों के चलते आपात उद्घोशणा को प्रवृत रखना आवष्यक है। जम्मू-कष्मीर में ऐसी परिस्थितियां भी रही हैं। देखा जाए तो आपात एक दिन से लेकर कई सालों तक प्रांतों में लागू किये जाते रहे हैं।
इस उपबन्ध का प्रथम दुरूपयोग 1959 में केरल में तब माना गया जब वहां की साम्यवादी सरकार को विधानसभा में बहुमत के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया। हालांकि इसका पहला प्रयोग जून 1951 में पंजाब राज्य में किया गया ऐसा वैकल्पिक सरकार के गठन की देरी के चलते किया गया था। जैसा कि इन दिनों जम्मू-कष्मीर में देखा जा सकता है। राश्ट्रपति षासन के दुरूपयोग को रोकने को लेकर सरकारिया आयोग ने कई महत्वपूर्ण सिफारिषें की थी जिसमें एक जगह यह भी कहा गया है कि विधानसभा भंग करने के बजाय निलंबित किया जाना चाहिए। अरूणाचल और उत्तराखण्ड के मामले में यही स्थिति प्रत्यक्ष होती है। देखा जाए तो मोदी सरकार ने राश्ट्रपति षासन को लेकर अब तक जो भी कदम उठाये हैं वह दुरूपयोग की दिषा में कम संवैधानिक परिस्थिति में अधिक आते हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि गैर कांग्रेसी सरकारों ने अनुच्छेद 356 का प्रयोग करने से पहले दस बार जरूर सोचती हैं। बानगी के तौर पर वाजपेयी सरकार के पांच साल के कार्यकाल को उदाहरण बनाया जा सकता है। राश्ट्रपति षासन को लेकर न्यायिक हस्तक्षेप भी बाकायदा देखे जा सकते हैं। राजस्थान बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 356 के प्रयोग को संवैधानिक ठहराया पर न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद के अधीन संघ की षक्ति असीमित नहीं है। न्यायालय इसकी जांच कर सकता है कि अनुच्छेद विषेश का प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है। अनुच्छेद 356 के मामले में सरकारिया आयोग और एस.आर. बोम्मई वाद के अन्तर्गत निहित गाइड लाइन को अपनाकर अनुच्छेद विषेश को दुरूपयोग होने से काफी हद तक रोक लगाई जा सकती है।
अनुच्छेद 356 को लेकर ताजा घटनाक्रम यह है कि उत्तराखण्ड में लगे राश्ट्रपति षासन को लेकर बीते सोमवार से न्यायालय की एकल पीठ में सुनवाई चल रही थी। इसी के मद्देनजर न्यायालय ने केन्द्र सरकार से 29 मार्च तक जवाब भी मांगा था साथ ही राश्ट्रपति षासन की सिफारिष सम्बन्धित पत्रावली भी तलब की और 29 मार्च को इस मामले पर फैसला सुनाते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि 31 मार्च तक हरीष रावत बहुमत साबित करें। खास यह भी है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायक समेत भाजपा का एक बागी विधायक भी इसमें षामिल होंगे परन्तु इनके वोट अलग रखे जायेंगे। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि 1 अप्रैल को सदन की कार्यवाही से न्यायालय को अवगत करायें। गौरतलब है कि न्यायालय की ओर से एक ओब्जर्वर नियुक्त होगा। न्यायालय के इस निर्णय से कांग्रेस जहां राहत महसूस कर रही होगी वहीं राज्य में एक बार फिर जोड़-तोड़ की राजनीति भी परवान चढ़ेगी। न्यायालय के फैसले के मद्देनजर सवाल उठता है कि क्या अनुच्छेद 356 लागू करने के मामले में षीघ्रता दिखाई गयी है। जाहिर है जब 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का समय राज्यपाल द्वारा दिया गया था तो ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जिसके चलते एक दिन पहले राश्ट्रपति षासन लगाया गया था। तेजी से बदल रहे उत्तराखण्ड के घटनाक्रम पर राजनीतिक पण्डितों के माथे पर तो बल आया ही है साथ ही स्थानीय सियासत से लेकर केन्द्र की सियासत भी गरम हो चली है। फिलहाल अनुच्छेद 356 के प्रयोग और दुरूपयोग को लेकर बहस आगे भी देखने को मिलती रहेगी पर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि अनुच्छेद 356 को लेकर सरकारें पहले की तुलना में अधिक गम्भीर हुई है। यद्यपि सत्ता के अपने मापदण्ड और रसूक होते हैं तथापि इसके चाहने वाले की नैतिकता भी उतनी ही सटीक है यह सवाल हमेषा से असमंजस में रहा है। महत्वाकांक्षा से भरे राजनीति में कोषिष तो यही होनी चाहिए कि संविधान को लेष मात्र भी ठेंस न पहुंचे परन्तु यदि ऊँच-नीच हो जाए तो चिंता से इसलिए मुक्त रहें कि देष में एक निरपेक्ष न्यायपालिका है जो समय आने पर दूध का दूध और पानी का पानी कर सकती है।

सुशील कुमार सिंह

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