Sunday, March 13, 2016

अलगाववाद का नया नायक

जेएनयू प्रकरण को लेकर एक महीने से अधिक वक्त बीत चुका है परन्तु हालात जस के तस दिखाई दे रहे हैं। 2 मार्च से छः महीने की अन्तरिम जमानत पर रिहा जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया जेल से छूटते ही अपनी पुरानी रौ में आ गया। कांग्रेस समेत आम आदमी पार्टी और वामपंथ का दुलारा यह नया-नवेला नेता भारत में अलगाववाद के नये नायक के रूप में उभरने के फिराक में है। भाजपा, आरएसएस, एबीवीपी सहित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जमकर आग उगल रहा है। मोदी विरोध की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां कन्हैया नामक इस फंसाद को काफी तवज्जो दे भी रही हैं। राहुल गांधी 11 फरवरी को ही अपने समर्थन की रस्म अदायगी कर चुके हैं। कन्हैया जेएनयू प्रकरण से जुड़े आरोपियों उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्या के समर्थन में भी खुल कर आ गया है। राजनीतिक दल जिस प्रकार कन्हैया के भरोसे अपनी सियासत में चमक डालने की कोषिष कर रहे हैं उसे देखते हुए यह भी लग रहा है कि मानो कि वह उनकी पार्टी ज्वाइन करके मोदी विरोध को हवा देने वाला है। गम्भीरता से सोचिए कि जेएनयू में जो हो रहा है उससे देष की अखण्डता को कितनी चोट पहुंच रही होगी। ये भी सोचिए कि पठन-पाठन के संस्थान जेएनयू का ये हाल होना किसी अनहोनी का संकेत तो नहीं। कमोबेष इस घटना से अलगाववाद का परिदृष्य भी दिखाई दे रहा है जो वाकई में माथे पर बल लाने वाला है। संसद भी इस दौरान बजट सत्र के एक पखवाड़े से अधिक वक्त बिता चुकी है वहां भी हो-हंगामा और कई अनचाहे प्रष्न बार-बार मुखर होकर संवेदनषीलता का हनन कर रहे हैं। लगता है कि मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार से कई डरे हैं और यह डर देष की भलाई के लिए नहीं बल्कि वे डिगे नहीं इसके लिए है।
जिस कदर कन्हैया को एक नायक के रूप में परिभाशित किया जा रहा है यकीनन यह चैकाने वाली बात है और जिस तरह कई बुद्धिजीवी समेत मीडिया और कुछ नेता इसके प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन में हैं इससे तो यही लगता है कि वे अंधे और बहरे भी हो गये हैं। देखा जाए तो अदालत की उस नसीहत को भी कन्हैया दरकिनार कर चुका है जिसे जमानत के दौरान दिया गया था। कन्हैया को हीरो बनाने वाले ही यह भूल गये हैं कि देष को तोड़ने वाली ताकतें भले ही नकारात्मक माहौल बनाने में तेजी से रेस लगा लें पर बाद में देष की वास्तविक ताकत के आगे उन्हें मुंहकी खानी ही पड़ती है। इस पर भी विचार करेंगे तो ठीक होगा कि 9 फरवरी के नारेबाजी का मामला अभी न्यायालय में है और उल-जलूल पर उतर आया कन्हैया इस मामले में भी बेफिक्र है। कन्हैया का कहना है कि वह सुरक्षाबलों का सम्मान करता है लेकिन उसने जब कष्मीर का जिक्र किया तो सेना पर आरोप लगाते हुए यह भी कह डाला कि वहां सेना बलात्कार करती है। आपस में मतभेद हो सकते हैं लेकिन देष और संविधान को बचाने में हमारे कोई मतभेद नहीं हैं। नपा तुला बोलने के तमाम दावों के बीच कन्हैया की जुबान ऐसा जहर उगल ही देती है जिससे कि बवाल को अवसर मिल जाता है। हम आजाद हिन्दुस्तान में समस्याओं से आजादी के लिए संघर्श कर रहे हैं। भला इनसे कोई पूछें कि समस्याओं के निदान के लिए सरकारों से भरोसा उठ गया है क्या? यदि नहीं तो आप कौन सी आजादी के लिए संघर्श कर रहे हैं। अगर कन्हैया की दृश्टि में अलगाववाद आजादी के लिए संघर्श है तो उसी संविधान की राश्ट्रीय एकता और अखण्डता क्या है? जिस प्रकार कन्हैया जैसे लोग सियासत के मोहरे बने हुए हैं इसे लेकर असहज होना स्वाभाविक है। सेना पर लगाये गये आरोप से सेना मनोबल कितना गिरेगा पता नहीं, पर कन्हैया के दुस्साहस और मिजाज से तो यही लगता है कि अलगाववाद का नया नायक देष को मिलने वाला है। कष्मीर की आजादी और देष के टुकड़े-टुकड़े करने वाले नारे अषुभ संकेत तो हैं ही साथ ही यह और भी अषुभ संकेत है कि इसकी आड़ में राजनीतिक लाभ भी कई लेने की फिराक में है। केजरीवाल जैसे नेता कहीं से परिपक्व तो नहीं कहे जायेंगे और वामपंथ की आड़ में कन्हैया के साथ अपना सुर मिलाकर इन्होंने इसे और पुख्ता कर दिया है। फिलहाल जिस प्रकार जेएनयू प्रकरण को राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है उससे तो यही लगता है कि कहीं यह मोदी विरोध के लिए तैयार किया गया एक सियासी एजेण्डा न हो।
अगर इतिहास में जायें तो 20वीं सदी के पहले दषक में कुछ ऐसा ही माहौल था। उस दौरान लाॅर्ड कर्जन की अगुवाई में अंग्रेजों ने देष बंग-भंग के जरिये अलगाववाद के जिस पौधे की रोपाई की थी उसके उगते ही 1906 में आगा खां के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी बाद में यही लीग पाकिस्तान हठ से पीछे नहीं हटी। महज 41 साल बाद धर्म के आधार पर आखिरकार भारत का बंटवारा हुआ। इस ऐतिहासिक परिघटना का जिक्र करने का आषय यह है कि वर्तमान में घटना की संवेदनषीलता को और मजबूती से समझा जाए। हमें घटनाओं को हल्के में लेने की पुरानी आदत से बाज आना चाहिए। ऐसी घटनाओं के पीछे की मंषा को टटोलना चाहिए साथ ही समय रहते निपटने के सारे उपाए भी खोजने चाहिए। इतिहास में इस बात की भी सीख होती है कि उस गलती को दोबारा नहीं होने देंगे। जिस कष्मीर की आजादी के नारे जेएनयू में लगाये गये उस पर नारे लगाने वालों की बपौती कैसे? रियासतों का विलय सहमति के सिद्धान्तों पर हुआ है। कष्मीर के मामले में एक नीतिगत फैसले के तहत कष्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह और भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू के बीच की साझा समझौता था। इसमें किसी की अकड़ का कोई मतलब नहीं है। वामपंथ को यदि देष की इतनी ही चिंता है तो भारतीय संविधान की प्रस्तावना की इज्जत करना सीखें और कन्हैया जैसों को अलगाववाद के लिए हथियार बनाने से बाज आयें।
वर्श 1956 में राज्य पुर्नगठन अधिनियम के तहत राज्यों का गठन भाशा के आधार पर हुआ था और यह सिलसिला बादस्तूर 1987 तक कायम रहा तब तक भारत में 25 राज्य बन चुके थे। वर्श 2000 में विकास के नाम पर राज्यों का पुनर्गठन होने लगा। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उत्तराखण्ड समेत तेलंगाना भाशा के आधार पर नहीं बने हैं बल्कि ये विकास में पीछे छूटने के चलते बने हैं। आज भी भारत भाशाओं में बंटा है परन्तु रोजगार और रोटी के मामले में न पूरब, न पष्चिम, न उत्तर, न दक्षिण अगर है तो एक अखण्ड भारत है और जिसका जहां जीवन रच-बस सकता है वहां उसकी बसावट है। भाशा से क्षेत्रवाद से या अन्य किसी भी प्रकार के सामाजिक संस्कृति के भेदभाव से ये तमाम चीजें ऊपर हैं। राजनीति के छलावे के चलते देष दिक्कत में अक्सर आया है। जिन पर देष बचाने की जिम्मेदारी है वही देष के साथ घालमेल की सियासत करके अलगाववादियों को हीरो बनाने का काम कर रहे हैं जो कहीं से वाजिब नहीं है। कभी-कभी तो यह प्रतीत होता है कि सियासत का भी संविधान होना चाहिए और इनके अनुपालन न होने की स्थिति में इनका राजनीति निकाला भी होना चाहिए। भारतीय संविधान की गरिमा और गौरव को अगर सच्चे मन से बखान करना है तो तोड़ने वाली आवाज का मुंह बन्द करना ही होगा।



सुशील कुमार सिंह


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