Wednesday, March 16, 2016

पड़ोस में लोकतंत्र बहाली का ऐतिहासिक दिन

सैन्य शासन के पांच दशक बाद बीते मंगलवार को म्यांमार इतिहास के उस मोड़ पर आ खड़ा हुआ जहां से न केवल लोकतंत्र बहाल होता है बल्कि दशकों की लोकतांत्रिक लड़ाई को भी लक्ष्य मिलता है। म्यांमार के सांसदों ने नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू के करीबी और विष्वस्त मित्र तिन क्याॅ को देश का पहला असैन्य राष्ट्रपति चुन लिया। इसी के साथ नवम्बर, 2015 से जारी गतिरोध भी समाप्त हो गया। यहां के 652 में से 360 सांसदों का मत तिन क्याॅ को मिला है। दरअसल म्यांमार में बीते 8 नवम्बर को हुए लोकतांत्रिक चुनाव के बाद द्विसदनीय विधानमण्डल ने एक समिति का गठन किया था जिसकी एक रिपोर्ट सोमवार को जारी की गयी जिसमें षीर्श पदों के लिए उतरे तीन उम्मीदवारों की उपयुक्तता से सम्बन्धित थी। इसी में एक नाम तिन क्याॅ का भी था। देखा जाए तो सू की पार्टी नेषनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी ने नवम्बर में हुए चुनाव में भारी जीत हासिल की थी। उनकी पार्टी को दोनों सदनों में बड़े पैमाने पर बहुमत भी मिला था बावजूद इसके म्यांमार में सेना ने अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी। 1962 में देष की सत्ता को अपने हाथ में लेने वाली इसी सेना ने म्यांमार के संविधान में एक ऐसा प्रावधान कर दिया था कि आंग सान सू की बड़ी जीत हासिल करने के बावजूद राश्ट्रपति बनने से ही वंचित हो गयीं। प्रावधान के अनुसार जिनके करीबी परिजन विदेषी नागरिक हों वे राश्ट्रपति नहीं बन सकते थे। गौरतलब है कि आंग सान सू के बेटों के पास विदेषी नागरिकता है। यही इनकी राह में बड़े रोड़े का काम किया। हालांकि तिन क्याॅ का राश्ट्रपति चुना जाना सू की ही जीत मानी जा रही है। ऐसा भी माना जा रहा है कि परदे के पीछे से इस पद की जिम्मेदारी संभालने का रास्ता भी इनके लिए साफ हो गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने म्यांमार के राश्ट्रपति निर्वाचित होने पर तिन क्याॅ को बधाई और षुभकामनाएं दीं। उन्होंने भरोसा दिलाया कि भारत-म्यांमार सम्बंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए मिलकर काम करेंगे। उल्लेखनीय है कि म्यांमार पहले भारत का ही भाग था। भारत षासन अधिनियम, 1935 के द्वारा ही इसे भारत से पृथक कर दिया गया। ब्रिटिष षासन से म्यांमार को 4 जनवरी, 1948 को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। आज भी भारत और म्यांमार के बीच पारस्परिक सम्बंध संस्कृति और परम्पराओं में निहित हैं। 1951 में द्विपक्षीय सम्बंधों के क्षेत्र को व्यापक एवं गहन बनाने के उद्देष्य से एक मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर किया गया। भारत ने म्यांमार के साथ काफी सकारात्मक रवैया रखता रहा परन्तु 1962 में यह सैनिक षासन के अधीन चला गया। आंग सान सू यहां लोकतंत्र की बहाली के लिए दषकों से आंदोलन चला रही थीं। सू को उनके प्रयासों के चलते षान्ति का नोबेल पुरस्कार भी दिया जा चुका है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पूरे जीवन को लोकतंत्र की बहाली के लिए खपाने वाली सू अब म्यांमार में बदली परिस्थिति के चलते सकून का सांस ले रही होंगी और इस उम्मीद में भी होगी कि पड़ोसी भारत से रिष्ते तुलनात्मक कहीं अधिक मजबूत होंगे। म्यांमार ने सैन्य षासन के चंगुल से निकलकर जो ऐतिहासिक कदम उठाया उसे लेकर प्रत्येक लोकतांत्रिक देष जरूर बेहतर महसूस कर रहे होंगे।
भारत की लगभग 1600 किमी लम्बी सीमा म्यांमार के साथ सटती है। भारत को इस सीमा पर अलगाववादियों की हिंसक गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं गैर कानूनी नषीले पदार्थों का अफगानिस्तान के बाद म्यांमार दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत के सीमावर्ती क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुए हैं। नषीले पदार्थों के अवैध व्यापार, विद्रोही गतिविधियां एवं तस्करी की बुराई से निपटने के लिए दोनों देषों के बीच 1993 में एक संधि भी हुई थी। लोकतंत्र की बहाली के लिए जारी आंदोलन के दौर में भारत काफी हद तक तटस्थ की भूमिका में रहा और उसका मानना था कि लोकतंत्र समर्थक षक्तियों को अलोकतांत्रिक ढंग से नहीं कुचला जाना चाहिए। देखा जाए तो भारत-म्यांमार व्यापार सम्बंध 1970 में व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर के बाद प्रगाढ़ होते गये। आज भारत, म्यांमार के लिए सबसे बड़ा निर्यातक बाजार है परन्तु चीन से चुनौती मिलती रही है। भारत के उत्तर-पूर्व में उग्रवाद की समस्याओं को भी हल करने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों में अब और मजबूती आ सकती है। म्यांमार के साथ भारत का सम्बंध अब अधिक लोकतांत्रिक होने के चलते नागालैण्ड में नागा लोगों और पष्चिमी म्यांमार के नागाओं के बीच सम्बंधों के बढ़ने से भारत के लिए अच्छा रहेगा। नवम्बर 2015 के म्यांमार के चुनाव से ही यह सूरत दिखने लगी थी कि म्यांमार में लोकतंत्र बहाल होने से भारत को एक सधे हुए पड़ोसी मिलने के पूरे आसार हैं। प्रधानमंत्री मोदी वैष्विक फलक पर लगभग 2 वर्शों में जिस प्रकार अपनी पहुंच बनाई है उसे देखते हुए म्यांमार के साथ गुणात्मक सम्बंध की सम्भावना पहले की तुलना में बढ़ जाती है। नवम्बर, 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने म्यांमार, आॅस्ट्रेलिया समेत फिजी के 10 दिवसीय दौरों में तीन दिन म्यांमार में बिताये थे। यह दौरा आसियान और ईस्ट एषिया समिट में भाग लेने से सम्बन्धित था। इसी दौरान सू से भी मुलाकात हुई थी।
पड़ोसी और भारतीय होने के नाते लोकतंत्र की अगुवाई करने वाली आंग सान सू की जितनी सराहना की जाए कम है। सू हमेषा भारत को अपना दूसरा घर कहती रही हैं। 5 दषकों से जो देष सैन्य षासन से उबरने की कोषिष में हो वहां पर लोकतांत्रिक हवाओं का क्या मतलब होता है आज म्यांमार से पूछा जाए तो इसका वाजिब उत्तर जरूर मिलेगा। जाहिर है लोकतंत्र की आष्यकता और अनिवार्यता से कौन परे रहना चाहता है पर इतने लम्बे संघर्श के बाद यदि यह उपहार मिले तो अनमोल ही कहा जायेगा। बावजूद इसके लाख टके का सवाल यह भी रहेगा कि 69 साल की सू क्या म्यांमार का कायाकल्प कर पायेंगी। अभी कुछ भी कह पाना सम्भव नहीं है पर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि म्यांमार की जनता लोकतांत्रिक रूप से बनी इस व्यवस्था से ढेरों उम्मीद लगाई होगी। सू को भारत में कई साल तक रहने का अनुभव है। उनकी मां भारत में राजदूत रहीं हैं। दिल्ली के श्रीराम लेडी काॅलेज से पढ़ाई करने वाली आंग सान सू षिमला के इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडी में बाकायदा फेलो भी रही हैं। जाहिर है कि उनके अन्दर भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का वास है। ऐसे में म्यांमार को एक अच्छी दिषा देने की पूरी कूबत उनमें देखी जा सकती है। हालांकि राश्ट्रपति सू नहीं हैं बल्कि उनके मित्र तिन क्याॅ हैं पर लोकतांत्रिक मर्यादाओं के चलन के चलते म्यांमार में सू की तूती जरूर बोलेगी। पाकिस्तान और चीन के चलते भारत पड़ोस में कहीं अधिक संवेदनषील और चिंतित रहता है वहीं नेपाल, भूटान, म्यांमार समेत अन्यों के साथ भारत का अतिरिक्त प्रेम उसके आषावादी होने का ही प्रमाण है। अब तक म्यांमार लोकतंत्र के आभाव में उतना मजबूत नहीं था जितना कि इसकी बहाली के बाद आने वाले दिनों में होगा। फिलहाल म्यांमार के लिए मंगलवार का दिन मंगलकारी सिद्ध हुआ है और इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस लोकतंत्र की बहाली के चलते म्यांमार भी विकास की पटरी पर तुलनात्मक बेहतर सिद्ध होगा और भारत के साथ प्रभावषाली सम्बंधों के इतिहास को देखते हुए प्रगाढ़ता बढ़ेगी यहां भी कोई षक-सुबहा नहीं है।

सुशील कुमार सिंह

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