Tuesday, March 8, 2016

सवालों के घेरे में दंगे की रिपोर्ट

लगभग ढ़ाई वर्श पहले पूरे देष में दंगे के चलते चर्चा और आलोचना बटोर चुका मुज़फ्फरनगर इन दिनों एक बार फिर सुर्खियों में है और अब की बार यह घमासान दंगे से जुड़ी रिपोर्ट को लेकर मची हुई है। इसी दंगे के चलते उत्तर प्रदेष की अखिलेष सरकार ने 9 सितम्बर, 2013 को जस्टिस सहाय जांच आयोग की नियुक्ति की थी और रिपोर्ट सौंपने के लिए दो माह का वक्त दिया था समस्या की संवेदनषीलता को देखते हुए वक्त बेमानी हो गये और कुल सात बार इस आयोग की कार्यावधि में बढ़ोत्तरी की गयी। अन्ततः जांच आयोग की रिपोर्ट 6 मार्च को विधानसभा में पेष की गयी जिसके चलते मुजफ्फरनगर दंगे का सच सामने आया। विधानसभा में पेष रिपोर्ट के मुताबिक दंगा भड़काने के लिए स्थानीय खुफिया का फेल होना माना गया जो विरोधियों के गले नहीं उतर रहा है क्योंकि रिपोर्ट से अखिलेष सरकार को क्लीन चिट मिलते हुए दिखाई दे रहा है। ध्यान्तव्य है कि 27 अगस्त, 2013 को इसी जिले के कवाल गांव में हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के चलते दंगे की जो षुरूआत हुई थी वह इस क्षेत्र विषेश के लिए किसी तबाही से कम नहीं था। भड़क चुके इस दंगे की आग में 60 से अधिक लोगों की जान गयी और 40 हजार बेघर होकर षरणार्थी का जीवन जीने के लिए मजबूर हुए। इस घटना को लेकर 567 मुकदमे भी दर्ज हुए थे। दंगा क्यों हुआ, किसने किया और इसे लेकर किसकी जवाबदेही बनती है इन तमाम बातों को लेकर जस्टिस विश्णु सहाय की रिपोर्ट इन दिनों सबके सामने है पर इस रिपोर्ट को अर्द्धसत्यों का घालमेल भी कहा जा रहा है। भाजपा ने यूपी विधानसभा में बीते रविवार को पेष हुए मुज़फ्फरनगर दंगे की रिपोर्ट पर सवालिया निषान खड़े करते हुए इसे नाकाफी माना साथ ही सीबीआई से जांच कराने की मांग भी की है। इसे एक पक्षीय और अधूरी रिपोर्ट करार देते हुए यह भी कहा जा रहा है कि असली आरोपी और दंगों के कारणों तथा उकसाने वालों पर यह रिपोर्ट पूरा प्रकाष नहीं डालती है। फिलहाल रिपोर्ट को लेकर लगाये जा रहे आरोप एक सियासी संदर्भ के तौर पर भी हो सकते है परन्तु गौर करने वाली बात यह है कि आयोग की रिपोर्ट में कई लोगों को उत्तरदायी मानने के बावजूद कार्यवाही की सिफारिष करने में परहेज दिखाई देता है जो किसी-न-किसी रूप में विरोधियों को घेरने का मौका देता है।
न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट की पड़ताल से पता चलता है कि मुज़फ्फरनगर में बद्-से-बद्तर हालात के लिए सरकार, षासन और सोषल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक की भूमिका को सवालों के घेरे में रखा गया है उन्हें जिम्मेदार और जवाबदेह बताया गया है परन्तु कार्रवाई को लेकर मामला बहुत सहज नहीं दिखाई देता है। आयोग की रिपोर्ट से तो यही लगता है कि कार्रवाई के नाम पर गुस्सा एक सीनियर आईपीएस और एक इंस्पेक्टर तक सिमट गया है। तत्कालीन एसपी सुभाश चन्द्र दूबे को दंगे को काबू में न कर पाने के चलते नाकाम करार दिया गया जबकि आयोग की नजर में इंस्पेक्टर इसलिए दोशी है क्योंकि उन्होंने नगला मंडौर की महापंचायत में जमा होने वाली भीड़ का सही आंकलन नहीं कर पाया जिसकी चूक के चलते ये सब हुआ। आयोग ने साफ कहा है कि गलत आंकलन की वजह से ही प्रषासन पर्याप्त इंतजाम नहीं कर पाया जिसके चलते दंगा भड़का। सबके बावजूद गम्भीर सवाल यह है कि दंगा भड़कने के बाद क्या सरकार का एक्षन प्लान तत्कालिक परिस्थितियों में उस स्तर पर मुखर था जिस स्तर पर दंगा भड़का था। अखिलेष सरकार इस मामले में ठोस कदम उठाने से इसलिए भी बचती रही क्योंकि उसे न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट का इंतजार था। अक्सर ऐसा देखा गया है कि किसी भी बड़ी घटना के घटने के बाद जांच आयोग की रस्म अदायगी की जाती है और ऐसे में रिपोर्ट आने में काफी समय लगता है जिसकी आड़ में सरकारें अपने एक्षन प्लान को ठण्डे बस्ते में डाल देती है और जब रिपोर्ट आ जाती है तो भी सरकार में गर्माहट का आभाव बना रहता है। फिलहाल उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री अखिलेष यादव सहाय रिपोर्ट के चलते काफी सकून महसूस कर रहे होंगे।
उत्तर प्रदेष में एक साल के भीतर विधानसभा के चुनाव होने हैं। यदि यह कहा जाए कि चुनावी वर्श के सियासी भंवर में उत्तर प्रदेष की अखिलेष सरकार को एक षासक के तौर पर बड़ी बारीक परीक्षा से गुजर रही है तो गलत न होगा। ऐसे में सब कुछ समुचित करने और सभी के सवालों के सही जवाब देने की जिम्मेदारी से वे नहीं बच सकते। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि विपक्षी भी सहाय रिपोर्ट की आड़ में राजनीति कर रहे हैं और रिपोर्ट सच्चाई से निहायत ओत-प्रोत है। बावजूद इसके इस बात को कैसे दरकिनार किया जा सकता है कि मुज़फ्फरनगर में जो आग लगी थी वह तो सच थी जिन्होंने अपनी जिन्दगी गंवाई, जिनका घरबार छूटा उनके साथ तो अन्याय हुआ है। अक्सर आरोप-प्रत्यारोप की सियासत में समस्याओं का दम निकल जाता है। रसूखदारों को बचाने की पतली गली बना ली जाती है परन्तु उनका क्या जो पिछले ढ़ाई साल से उस सजा को भोग रहे हैं जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं थे। सुषासन और षासन का दावा करने वाली सरकारें ऐसे मामलों में क्यों हांफ जाती हैं, ये बात समझ से परे है। दांवों और इरादों के मामले में इनकी नीयत पतझड़ की तरह क्यों हो जाती है? मुज़फ्फरनगर और षामली में हुए दंगों और आस-पास के जिलों में भड़के साम्प्रदायिक तनाव के मामले में जस्टिस सहाय ने भी कहा है कि ये मेरे जीवन का सबसे मुष्किल जजमेंट है। उत्तर प्रदेष के राज्यपाल ने चार बिन्दुओं पर जांच सौंपी थी जो बहुत संवेदनषील था। उन्होंने यह भी कहा कि जब मैं रिपोर्ट लिखने में व्यस्त था तो मेरे विवेक में यह बात हमेषा रही है कि उक्त बिन्दुओं पर पूरी ईमानदारी के साथ रिपोर्ट तैयार हो।
सभी की अपनी-अपनी सफाई है बावजूद इसके सब कुछ साफ नहीं दिखाई दे रहा है। जस्टिस सहाय आयोग की सच्चाई पर भी सवाल उठ रहे हैं। 775 पन्नों की रिपोर्ट में 377 लोग और 101 सरकारी गवाहों के बयान दर्ज हैं। रिपोर्ट के चैथे भाग में जस्टिस सहाय मुज़फ्फरनगर जैसे दंगों की भविश्य में पुनरावृत्ति रोकने के लिए विस्तार से सुझाव भी दिये हैं। पूरी षिद्दत से देखा जाए तो आयोग ने अखिलेष सरकार के नेताओं को तो क्लीन चिट दे दी है पर कुछ अधिकारियों को दोशी पाया है। रिपोर्ट में तत्कालीन जिलाधिकारी की भूमिका को भी संदिग्ध माना गया है साथ ही इसमें यह भी है कि भड़काऊ भाशणों के लिए सीधे तौर पर कोई नेता जिम्मेदार नहीं है बल्कि स्थानीय पंचायत और पुलिस इस दंगे के जिम्मेदार बताये गये। इसी प्रकार की तमाम बातों के चलते विरोधियों को रिपोर्ट रास नहीं आ रही है। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का आरोप है कि इतने बड़े और सुनियोजित दंगे में राज्य सरकार को एक प्रकार से क्लीन चिट दे देना व्यवस्था से भरोसा उठाने वाला कदम है। फिलहाल ढ़ाई साल पुराने घटना पर आई रिपोर्ट की सूरत कुछ भी हो परन्तु इस सच से षासन-प्रषासन मुंह नहीं फेर सकता कि इंसाफ होना अभी बाकी है। भले ही तेजी से दौड़ती मीडिया के इस युग में मुज़फ्फरनगर जैसी घटनाओं से जुड़ी सूचना कितनी भी रफ्तार से आगे बढ़ जाये पर अन्तिम कार्रवाई तो षासन-प्रषासन के जिम्मे ही है जो षायद रेस लगाने के इच्छुक नहीं रहते।



सुशील कुमार सिंह

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