Monday, March 7, 2016

गर्मी के बीच चुनावी सरगर्मी

अप्रैल में जब सूरज कर्क रेखा के और समीप होगा तो लगभग पूरा भारत भरपूर गर्मी की चपेट में होगा। इस बार की गर्मी इसलिए भी उफान पर होगी क्योंकि इसमें सियासी गर्मी भी घुली रहेगी। देष के चार राज्यों असम, केरल, तमिलनाडु और पष्चिम बंगाल तथा केन्द्र षासित पुदुचेरी में विधानसभा चुनाव की अधिसूचना बीते 4 मार्च को निर्वाचन आयोग द्वारा जारी कर दिया गया। इसी दिन से आचार संहिता भी लागू हो गयी। लगभग डेढ़ महीने चलने वाले मतदान में कई पार्टियों की सियासत अब दांव पर लग गयी है। 4 अप्रैल से 16 मई के बीच अलग-अलग चरणों में जहां मतदान सम्पन्न होगा वहीं मतगणना 19 मई को होगी जबकि 21 मई तक चुनावी प्रक्रिया पूरी कर ली जायेगी। तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी जहां दक्षिण भारत में कांग्रेस समेत स्थानीय दलों के लिए गढ़ बचाने की चुनौती होगी वहीं भाजपा को अच्छे प्रदर्षन का दबाव जरूर होगा जबकि पष्चिम बंगाल में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से तो कहीं अधिक प्रधानमंत्री मोदी की सियासत पर लोगों की दृश्टि रहेगी। इसके अलावा असम में भी भाजपा अपने जोष में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहेगी। फिलहाल 126 सीटों वाली असम विधानसभा में कांग्रेस की सरकार है। लगभग दो साल की मोदी सरकार और इतने ही समय का कांग्रेस विरोध कितना फलित हुआ है असम के नतीजे इसे पुख्ता करेंगे।
गौरतलब है कि जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं इनमें किसी में भी भाजपा की सरकार नहीं है। असम को छोड़ दिया जाए तो बाकी किसी भी राज्य में भाजपा सियासी तौर पर भी बड़ी पार्टी के रूप में पहचान नहीं बना पाई है। असम से बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में 7 सीटें जीती थीं। असम गण परिशद् के साथ किया गया गठबंधन यहां कांग्रेस को कड़ी टक्कर देने के काम आ सकता है। दक्षिण भारत की पार्टियों में केरल विधानसभा पर दृश्टि डाली जाये तो सत्तारूढ़ कांग्रेस सहित सभी पार्टियों ने चुनावी रण में उतरने के लिए कमर कस ली होगी। मोदी के कद को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी यहां की विधानसभा में अपना खाता जरूर खोलना चाहेगी। 140 विधानसभा सीट रखने वाले केरल में ढ़ाई करोड़ से अधिक मतदाता हैं परन्तु यहां मुख्य लड़ाई कांग्रेस और यहां के स्थानीय विरोधियों के बीच अधिक दिखाई दे रहा है। हालांकि भाजपा सेंध लगाना जरूर चाहेगी। तमिलनाडु मे 234 विधानसभा सीटें हैं यहां पर चर्चित जे. जयललिता मुख्यमंत्री का काम कर रही हैं। जयललिता के अन्नाद्रमुक और करूणानिधि के डीएमके के बीच ही अक्सर टक्कर रहती है। करीब छः करोड़ मतदाता की दृश्टि में इस बार मोदी का जादू भी गौर में आया होगा। जाहिर है भाजपा यहां भी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अपनी व्यापक उपस्थिति दर्ज कराने में कोई चूक नहीं करेगी। बीते 2 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने कोयम्बटूर में एक रैली की थी जो काफी हद तक चुनावी बिगुल फूंके जाने का ही संकेत था। तमिलनाडु की सियासत में जिस प्रकार का बीते कुछ सालों में बदलाव आया है और भाजपा जिस प्रकार अपने कद में बढ़ोत्तरी की है उसे देखते हुए एक तरफा जीत का अनुमान लगाना सही नहीं होगा। तमिलनाडु से सटा केन्द्रषासित पुदुचेरी में चुनावी सरगर्मी इतने उफान पर नहीं होगी। 30 विधानसभा सदस्यों वाले पुदुचेरी में एन. आर. कांग्रेस की सत्ता है और मात्र 10 लाख के आसपास मतदाता हैं इसका भारत की सियासत पर बहुत बड़ा रसूख नहीं है पर इसे कम भी नहीं आंका जा सकता है।
पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों में अगर कोई राज्य अधिक सुर्खियों में है तो वह पष्चिम बंगाल है। यहां की सियासत इन दिनों फलक पर भी है। इस बार के चुनाव में बात केवल ममता बनर्जी एवं उनकी पांच साल की सरकार तक की ही नहीं होगी बल्कि वामपंथ और कांग्रेस के साथ भाजपा भी पष्चिम बंगाल की सियासत में पूरी गरमी छोड़ने के लिए आतुर है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से पहले 34 सालों तक वामपंथियों की सरकार रही। वामपंथी केरल से उजड़ने के बाद पष्चिम बंगाल में ही लम्बे समय तक का आषियाना बना पाये थे पर वो भी पांच साल पहले छिन गया था इतना ही नहीं 2004 के लोकसभा चुनाव में 53 सदस्यों वाले सीपीआई, सीपीआई(एम) 2015 में 19 और 2014 के लोकसभा चुनाव में तो इनके दस सदस्य मात्र ही संसद की दहलीज पर पहुंच पाये। इसके अलावा पष्चिम बंगाल का विधानसभा पांच साल पहले ही इनके हाथों से निकल चुका है। इसके पीछे भी एक बड़ी रोचक घटना है। जब वर्श 2006 में टाटा मोटर्स और वामपंथ की सरकार चला रहे बुद्धदेव ने नैनो कार के माध्यम से पष्चिम बंगाल में विकास की नई परिभाशा गढ़ने की कोषिष कर रहे थे उसी दौरान तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी इनके ताबूत में आखरी कील ठोंक रही थीं। ममता बनर्जी का सिंगूर में लगने वाले टाटा मोटर्स की नैनो की फैक्ट्री का विरोध किया जाना तब सही साबित हुआ जब 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी हार और तृणमूल कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुई। आखिरकार नैनो को मोदी की षरण में गुजरात जाना पड़ा था तब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। सिंगूर से नैनो के पलायन के साथ मानो पष्चिम बंगाल आने वाले चुनाव के लिए एक नये लोकतंत्र की बाट जोह रहा था।
आगामी विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने कुछ नई बातें भी की हैं। दिव्यांग मतदाताओं की सुविधा के लिए मतदान केन्द्रों पर रैम्प बनाये जायेंगे। महिला मतदाताओं के लिए अलग बूथ बनाये जाने की भी बात कहीं है जहां महिला कर्मचारियों की तैनाती होगी। इतना ही नहीं ईवीएम मषीनों पर प्रत्याषियों के फोटो लगे होंगे और पहली बार नोटा का चिन्ह् भी होगा। चुनाव की संवेदनषीलता को देखते हुए अर्धसैनिक बलों के 80 हजार जवान भी तैनात किये जायेंगे। इन पांच राज्यों के चुनाव निपटने के बाद आने वाले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत कई अन्य राज्यों के चुनाव भी होने हैं। इन सभी को देखते हुए राजनीतिक दल न केवल सियासी कमर कस रहे होंगे बल्कि सत्ता गुणा-भाग में भी अपने को झोंक चुके होंगे। देखा जाए तो विकास की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य और संदर्भ यह भी संकेत करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी अपने अब तक के कार्यकाल में पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोने की तत्परता दिखाई है। इस आधार पर भाजपा को चुनावी राज्यों में उम्मीद रखने से कोई गुरेज नहीं करना चाहिए पर यह बात भी उतनी ही सही है कि राज्य विषेश के मुख्यमंत्रियों ने बीते 2 वर्शों में राज्यों के विकास के लिए मोदी से स्पर्धा करते हुए अपनी कूबत को भी बढ़ाने की कोषिष की है जिसमें ममता बनर्जी का नाम पहली पंक्ति में आता है। यह सही है कि राज्य विधानसभा को लेकर भाजपा का कद बिहार हार से घटा है परन्तु सियासत पर घटना घटने से पहले पूरे नतीजे पर पहुंचना पूरी तरह वाजिब भी नहीं होता। राजनीतिक तरंगे कभी भी एक जैसी नहीं रही हैं। समय और परिस्थितियों के अनुपात में ऊपर-नीचे होती रही हैं। बेषक मोदी के करिष्मे को बिहार ने ठेस पहुंचाई हो परन्तु यह भी समझने की जरूरत है कि प्रत्येक चुनाव की अपनी रणनीति होती है। भाजपा अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग कूबत और रणनीति का सहारा ले सकती है। एक सच यह भी है कि इन प्रान्तों में भाजपा को खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए पूरी सत्ता है परन्तु सत्तारूढ़ दलों को अपने किलों को बचाने की बड़ी चुनौती तो है ही।



सुशील कुमार सिंह

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