भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में आयी दिक्कतों के बाद इसमें सुधार के लिए राज्यों की ओर से ही अनुरोध किया गया यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आकाषवाणी पर 11वीं बार ‘मन की बात‘ करते हुए कही। पिछले एक साल में वो औसतन एक महीने में एक बार रेडियो से देष के जन मानस के सामने कोई न कोई मुद्दा लाते रहे हैं। आठ महीने के भू-अधिग्रहण कानून की छटपटाहट इस बार के ‘मन की बात‘ में देखी जा सकती है जिस पर कई बार अध्यादेष लाने की मजबूरी निहित रही है। 31 अगस्त को समाप्त हो रही इसकी मियाद आगे नहीं बढ़ेगी इसकी भी घोशणा उन्होंने कर दी। बीते सत्र में जो फजीहत सरकार ने झेली उससे यह तो साफ था कि जीएसटी तथा भू-अधिग्रहण सहित कई ऐसे विधेयक हैं जो लम्बित ही रहेंगे। मुष्किल तो यह भी है कि सारे घटनाक्रम सरकार को निरंतर कमजोर बनाते चले गये और भारी-भरकम बहुमत वाली सरकार विरोधियों के सामने कुछ न कर सकी। अब आलम यह है कि जीएसटी जैसे बिल भी खटाई में पड़ गये हैं। इतना ही नहीं कहीं से भी सरकार को फिलहाल राहत की कोई वजह दिखाई नहीं दे रही है और न ही सरकार ऐसा कोई करिष्मा कर पा रही है जिससे कि विरोधी उनके सुर में सुर मिलाएं।
प्रधानमंत्री द्वारा भू-अधिग्रहण अध्यादेष वापस लेना एक चैकाने वाली घोशणा है। यह आषंकित किसानों को भरोसा दिलाने के रूप में उठाया गया कदम भी हो सकता है। कहा जाता है कि विकास का चिंतन कभी किसी एक माॅडल में फंस कर रह गया हो तो किसी दूसरे माॅडल में रूपांतरित करने को समय की समझ कहेंगे। चतुर षासक वही होता है जो जन सरोकार की ओर समय के साथ स्वयं को झुका लेता है। बीते रविवार को रेडियो पर ‘मन की बात‘ के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण के उस विधेयक पर फिलहाल अध्यादेष न जारी करने के निर्णय को लेकर यह संदेष दे दिया है कि सरकार के प्रति किसानों की बिगड़ी सोच को दुरूस्त किया जाएगा। वर्श 2014 के 23 दिसम्बर को षीत सत्र की समाप्ति के बाद यह अध्यादेष लाया गया था। बजट सत्र तत्पष्चात् मानसून सत्र से गुजरता हुआ यह हंगामे की भेंट ही चढ़ता रहा और विरोधियों के विरोध करने वाली रणनीति के काम आता रहा। इस पर विरोधी एकमत न हुए और न ही सरकार की किसी भी मान मनव्वल का उन पर कोई असर हुआ। फिलहाल अभी भी एक टिकाऊ कानून की दरकार सरकार को रहेगी। हालांकि इसे बिहार चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पूरी ताकत लगाने के बावजूद भू-अधिग्रहण विधेयक को कानूनी रूप न दिला पाने से सरकार पीछे हटी है पर इसकी हकीकत कुछ और भी है। प्रधानमंत्री का यह आरोप कि विपक्ष ने किसानों को गुमराह करके तथा डराकर इस कानून की आवष्यकता और प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने का काम किया है।
परिप्रेक्ष्य यह है कि सरकार ने यू-टर्न क्यों लिया 17 राज्यों के लाखों किसान दिल्ली की सड़कों पर इसलिए विरोध के लिए उतरे थे कि भूमि अधिग्रहण कानून किसान विरोधी है। इसके अलावा भारत के प्रत्येक स्थानों पर इसके विरोध के स्वर फूटे थे साथ ही बजट सत्र से लेकर आगे की कई बैठकें और सत्र हंगामे की भेंट चढ़ते रहे और यह सब पिछले आठ महीनों से सरकार झेलती रही। विपक्ष से घिरी सरकार विधेयक में संषोधन करती रही। किसानों में यह संदेष देने का काम करती रही कि इसमें षोशण नहीं, भलाई छुपी है पर विरोधी हैं कि किसानों के मन में यह बात गहराई से पनपा दिया था कि मोदी का यह कानून फिलहाल मनमोहन के कानून से बेहतर नहीं है। सवाल है कि आठ महीने से अधिक पुराना भू-अधिग्रहण कानून जो अध्यादेष की बैसाखी पर टिका हुआ था आखिर इस तरह दरकिनार क्यों हो गया? सरकार के रवैये से साफ है कि समय की दरकार के अनुपात में अभी फिलहाल इससे तौबा कर ली जाए। इस घटना से विरोधी में जष्न का माहौल तो होगा पर वे जब दूसरे पहलू से वाकिफ होंगे तब उनके माथे पर भी बल पड़ेगा। प्रधानमंत्री मोदी यह कई बार साफ कर चुके हैं कि किसानों की जमीन बिना उनकी मर्जी के नहीं ली जाएगी। अब पीछे हटने से यह भी इंगित होता है कि आने वाले समय में कानून किसानों के हित में कुछ अधिक प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे में किसान विरोधी हुई छवि को सरकार काफी हद तक बदलने में सफल हो सकती है यदि ऐसा हुआ तो जाहिर है कि विरोधियों की खुषी देर तक नहीं टिक पाएगी और विरोध का एक बड़ा मुद्दा उनके हाथ से फिसल जाएगा।
सोचा जाए तो आखिर देष का प्रधानमंत्री किसानों का अहित क्यों करेगा? विपक्ष भले ही यह कहे कि सरकार ने घुटने टेक दिए पर इसका दूसरा पहलू तो यह भी हो सकता है कि सरकार ने स्वयं को मजबूत करने के लिए इस कानून को कुछ समय के लिए विराम दिया हो। किसानों को आने वाले दिनों में क्या फायदा होगा इसका भी जिक्र यहां करना आवष्यक है। पहले राश्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, पुरातत्व, परमाणु उर्जा जैसे 13 केन्द्रीय अधिनियमों के जरिये अलग-अलग प्रावधानों के तहत भू-अधिग्रहण होते थे। इसमें मुआवजा, पुनर्वास जैसे सुविधाओं के भी तरह-तरह के प्रावधान थे। सभी को इस अधिनियम के दायरे में लाने के फैसले के बाद यह तय हो गया कि अब किसानों को किसी भी केन्द्रीय कानून के तहत होने वाले अधिग्रहण में समान मुआवजा मिलेगा। इसका अर्थ है कि भविश्य में कुछ सकारात्मक सुझावों का समावेषन करके सरकार किसान विरोधी होने का ठप्पा हटाने का पूरा मन बना चुकी है। प्रधानमंत्री से आष्वासन दिया है कि किसान भ्रमित न हों तथा भयभीत कतई न हों। असल में भय का सामना करने से पहले भय को महसूस करना अधिक भयक्रांत होता है यही खेल भूमि अधिग्रहण कानून के तहत देखा जा सकता है। गांव-देहात के किसानों को सरकार के विरोध में खड़ा करके विरोधियों ने अपना मन्तव्य पूरा कर लिया पर यक्ष प्रष्न यह है कि हकदारी के मामले में किसानों को क्या लाभ हुआ है इसका उत्तर सहज तो नहीं है पर यह सुनिष्चित तौर पर कहा जा सकता है कि बगैर कानून के भी काम नहीं चलेगा। मोदी सरकार का कोई उदारवादी चरित्र यदि है तो वह किसानों के काम आ सकता है पर कारोबारियों के समर्थन के जानी जाने वाली सरकार को अभी इस आरोप से भी मुक्त होना है। इन सबके बावजूद सवाल तो यह भी उठता है कि देष के विकास के लिए जमीन चाहिए, जमीन कहां से आएगी जाहिर है खेतिहर किसानों से मिलेगी पर क्या बिचैलियों से किसान को बचाया जा सकता है। सरकार एक संतुलित रवैया रखते हुए किसानों के हक में एक बेहतर कानून ला भी दे तो भी किसानों के भूमि अधिग्रहण की पूरी कीमत षायद ही सम्भव हो। कुल मिलाकर भूमि अधिग्रहण विधेयक सरकार के लिए एक मुसीबत ही सिद्ध हो रहा है जिसका पटाक्षेप तो नहीं हुआ है पर सरकार थोड़ी राहत जरूर महसूस करेगी। विरोधी जानते हैं कि राज्यसभा में मोदी का जादू नहीं चलता पर वो इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं कि जनता के बीच मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोलता है। यह तय है कि सरकार किसान विरोधी छवि से उबरना चाहती है ऐसे में एक बेहतर कानून आने वाले दिनों में देखा जा सकेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
प्रधानमंत्री द्वारा भू-अधिग्रहण अध्यादेष वापस लेना एक चैकाने वाली घोशणा है। यह आषंकित किसानों को भरोसा दिलाने के रूप में उठाया गया कदम भी हो सकता है। कहा जाता है कि विकास का चिंतन कभी किसी एक माॅडल में फंस कर रह गया हो तो किसी दूसरे माॅडल में रूपांतरित करने को समय की समझ कहेंगे। चतुर षासक वही होता है जो जन सरोकार की ओर समय के साथ स्वयं को झुका लेता है। बीते रविवार को रेडियो पर ‘मन की बात‘ के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण के उस विधेयक पर फिलहाल अध्यादेष न जारी करने के निर्णय को लेकर यह संदेष दे दिया है कि सरकार के प्रति किसानों की बिगड़ी सोच को दुरूस्त किया जाएगा। वर्श 2014 के 23 दिसम्बर को षीत सत्र की समाप्ति के बाद यह अध्यादेष लाया गया था। बजट सत्र तत्पष्चात् मानसून सत्र से गुजरता हुआ यह हंगामे की भेंट ही चढ़ता रहा और विरोधियों के विरोध करने वाली रणनीति के काम आता रहा। इस पर विरोधी एकमत न हुए और न ही सरकार की किसी भी मान मनव्वल का उन पर कोई असर हुआ। फिलहाल अभी भी एक टिकाऊ कानून की दरकार सरकार को रहेगी। हालांकि इसे बिहार चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पूरी ताकत लगाने के बावजूद भू-अधिग्रहण विधेयक को कानूनी रूप न दिला पाने से सरकार पीछे हटी है पर इसकी हकीकत कुछ और भी है। प्रधानमंत्री का यह आरोप कि विपक्ष ने किसानों को गुमराह करके तथा डराकर इस कानून की आवष्यकता और प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने का काम किया है।
परिप्रेक्ष्य यह है कि सरकार ने यू-टर्न क्यों लिया 17 राज्यों के लाखों किसान दिल्ली की सड़कों पर इसलिए विरोध के लिए उतरे थे कि भूमि अधिग्रहण कानून किसान विरोधी है। इसके अलावा भारत के प्रत्येक स्थानों पर इसके विरोध के स्वर फूटे थे साथ ही बजट सत्र से लेकर आगे की कई बैठकें और सत्र हंगामे की भेंट चढ़ते रहे और यह सब पिछले आठ महीनों से सरकार झेलती रही। विपक्ष से घिरी सरकार विधेयक में संषोधन करती रही। किसानों में यह संदेष देने का काम करती रही कि इसमें षोशण नहीं, भलाई छुपी है पर विरोधी हैं कि किसानों के मन में यह बात गहराई से पनपा दिया था कि मोदी का यह कानून फिलहाल मनमोहन के कानून से बेहतर नहीं है। सवाल है कि आठ महीने से अधिक पुराना भू-अधिग्रहण कानून जो अध्यादेष की बैसाखी पर टिका हुआ था आखिर इस तरह दरकिनार क्यों हो गया? सरकार के रवैये से साफ है कि समय की दरकार के अनुपात में अभी फिलहाल इससे तौबा कर ली जाए। इस घटना से विरोधी में जष्न का माहौल तो होगा पर वे जब दूसरे पहलू से वाकिफ होंगे तब उनके माथे पर भी बल पड़ेगा। प्रधानमंत्री मोदी यह कई बार साफ कर चुके हैं कि किसानों की जमीन बिना उनकी मर्जी के नहीं ली जाएगी। अब पीछे हटने से यह भी इंगित होता है कि आने वाले समय में कानून किसानों के हित में कुछ अधिक प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे में किसान विरोधी हुई छवि को सरकार काफी हद तक बदलने में सफल हो सकती है यदि ऐसा हुआ तो जाहिर है कि विरोधियों की खुषी देर तक नहीं टिक पाएगी और विरोध का एक बड़ा मुद्दा उनके हाथ से फिसल जाएगा।
सोचा जाए तो आखिर देष का प्रधानमंत्री किसानों का अहित क्यों करेगा? विपक्ष भले ही यह कहे कि सरकार ने घुटने टेक दिए पर इसका दूसरा पहलू तो यह भी हो सकता है कि सरकार ने स्वयं को मजबूत करने के लिए इस कानून को कुछ समय के लिए विराम दिया हो। किसानों को आने वाले दिनों में क्या फायदा होगा इसका भी जिक्र यहां करना आवष्यक है। पहले राश्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, पुरातत्व, परमाणु उर्जा जैसे 13 केन्द्रीय अधिनियमों के जरिये अलग-अलग प्रावधानों के तहत भू-अधिग्रहण होते थे। इसमें मुआवजा, पुनर्वास जैसे सुविधाओं के भी तरह-तरह के प्रावधान थे। सभी को इस अधिनियम के दायरे में लाने के फैसले के बाद यह तय हो गया कि अब किसानों को किसी भी केन्द्रीय कानून के तहत होने वाले अधिग्रहण में समान मुआवजा मिलेगा। इसका अर्थ है कि भविश्य में कुछ सकारात्मक सुझावों का समावेषन करके सरकार किसान विरोधी होने का ठप्पा हटाने का पूरा मन बना चुकी है। प्रधानमंत्री से आष्वासन दिया है कि किसान भ्रमित न हों तथा भयभीत कतई न हों। असल में भय का सामना करने से पहले भय को महसूस करना अधिक भयक्रांत होता है यही खेल भूमि अधिग्रहण कानून के तहत देखा जा सकता है। गांव-देहात के किसानों को सरकार के विरोध में खड़ा करके विरोधियों ने अपना मन्तव्य पूरा कर लिया पर यक्ष प्रष्न यह है कि हकदारी के मामले में किसानों को क्या लाभ हुआ है इसका उत्तर सहज तो नहीं है पर यह सुनिष्चित तौर पर कहा जा सकता है कि बगैर कानून के भी काम नहीं चलेगा। मोदी सरकार का कोई उदारवादी चरित्र यदि है तो वह किसानों के काम आ सकता है पर कारोबारियों के समर्थन के जानी जाने वाली सरकार को अभी इस आरोप से भी मुक्त होना है। इन सबके बावजूद सवाल तो यह भी उठता है कि देष के विकास के लिए जमीन चाहिए, जमीन कहां से आएगी जाहिर है खेतिहर किसानों से मिलेगी पर क्या बिचैलियों से किसान को बचाया जा सकता है। सरकार एक संतुलित रवैया रखते हुए किसानों के हक में एक बेहतर कानून ला भी दे तो भी किसानों के भूमि अधिग्रहण की पूरी कीमत षायद ही सम्भव हो। कुल मिलाकर भूमि अधिग्रहण विधेयक सरकार के लिए एक मुसीबत ही सिद्ध हो रहा है जिसका पटाक्षेप तो नहीं हुआ है पर सरकार थोड़ी राहत जरूर महसूस करेगी। विरोधी जानते हैं कि राज्यसभा में मोदी का जादू नहीं चलता पर वो इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं कि जनता के बीच मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोलता है। यह तय है कि सरकार किसान विरोधी छवि से उबरना चाहती है ऐसे में एक बेहतर कानून आने वाले दिनों में देखा जा सकेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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