हिन्दी पखवाड़े के परिप्रेक्ष्य में
राश्ट्रीय स्तर पर विचारणीय है कि भारत के हिन्दी ज्ञान कर्मी अन्य भाशाओं से कितना गुरेज करते हैं। कौषल और ज्ञान में नवाचार यह संकेत करते हैं कि कोई भी ज्ञान का धर्म निभाने वाला किसी भी भाशा के साथ टूटन नहीं चाहेगा। अंग्रेजी में उपलब्ध विपुल साहित्य हिन्दी सहित कई भाशाओं में निरंतर लाने का प्रयास होता रहा है पर दषकों से चल रहे प्रयास के बावजूद खाई चैड़ी बनी हुई है। जनसंख्या अधिक है, अनेक प्रचलित षब्द हो गये हैं बावजूद इसके जड़ता नवाचार को नकारती है। जब-जब भारत में हिन्दी को अगुवा बनाने की कोषिष की जाती है तब-तब दक्षिण को लगता है कि उसका तिरस्कार हो रहा है। हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह का विरोध यहीं से देखा जा सकता है। संविधान 65 बरस की अवधि को पार कर चुका है पर भाशाई सियासत ठण्डी नहीं पड़ी। हिन्दी भाशा की उपादेयता इस बात को प्रमाणित करती है कि यह बहुसंख्यक लोगों की भाशा है, साहित्यकार और कवियों की भाशा है इसका तात्पर्य यह नहीं कि अन्य भाशाओं का यहां कोई विरोध है। देखा जाए तो वोट मांगने की इकलौती और सषक्त भाशा हिन्दी ही है। समाचार चैनलों का उद्योग चमकाने में भी हिन्दी ही काम आती है। भोर में समाचार पत्र के पन्ने ज्यादातर हिन्दी में ही खुलते हैं। देष में फिल्में और टीवी सीरियल सभी में आर्थिक उपादेयता सर्वाधिक हिन्दी में ही छुपी हुई है। क्या इस बात की खुषी नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी अपनी भाशा है। गुलामी के दौर में अंग्रेजी ने देष को चैक चैबंद कर दिया था। देष अंग्रेजियत से ढक दिया गया पर अंग्रेजी जानने वाले भी जानते हैं कि आत्मगौरव तो हिन्दी में ही छुपा है। भले ही दिखावे और आत्मगौरव के बीच द्वन्द चल रहा हो, लोग पेषोपेष में हों पर मंथन किया जाए तो हिन्दी मोह से वे भी अछूते नहीं है।
हिन्दी के नाम पर उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक आग भड़कती है। बीते दिनों द्रविड़ मुन्नेत्र कशगम के अध्यक्ष एम. करूणानिधि ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाया। इतना ही नहीं कहा कि गैर हिन्दी भाशी इसे बर्दाष्त नहीं करेंगे। असल माजरा यह है कि करूणानिधि हिन्दी विरोध में अपनी सियासत को संजोए रखना चाहते हैं साथ ही जताना चाहते हैं कि हम टस से मस नहीं हुए हैं। भारत की यह विडम्बना है कि हिन्दी के प्रति तमिल विरोध बार-बार उभरा है। क्या गलत है यदि देष की हिन्दी संयुक्त राश्ट्र में भाशा का दर्जा ले ले और कितना गलत है कि देष के दो-तिहाई हिन्दी को ही अपनी षक्ति मानते हैं। संस्कृति की परिभाशा में कहा गया है कि भाशा इसका गहना है। जब इसे परिधान में बदला जाता है तो न केवल व्यक्ति सुन्दर होता है बल्कि उसके होने का अस्तित्व भी प्रकट होता है। करूणानिधि का आरोप है कि हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह मना कर सरकार कर दाताओं के पैसे का गलत इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने भोपाल में 10 से 12 सितम्बर तक आयोजित होने वाले हिन्दी सम्मेलन की भी आलोचना की। सरकारी टीवी चैनल पर संस्कृत को बढ़ावा देना भी उनके लिए आपत्ति का विशय है। भारत विविधताओं का देष है यहां 1600 से अधिक बोलियों का प्रयोग किया जाता है, 63 भाशाएं गैर भारतीय हैं और संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भारतीय भाशाओं की चर्चा है। ऐसे में चुनौती यह है कि सम्पर्क भाशा किसे बनाया जाए अनचाहे तरीके से अंग्रेजी इसमें सबसे आगे है। हिन्दी सर्वाधिक बोली, पढ़ी और लिखी जाती है। इसे राश्ट्र भाशा के दर्जे में रखा जाना उचित प्रतीत होता है मगर करूणानिधि गैर हिन्दी भाशा को संतुलित करने के चक्कर में हिन्दी का नाष करने पर तुले हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास से 20वीं षताब्दी में औद्योगिक क्रांति आई और 21वीं षताब्दी में सूचना क्रांति। समय का फेर है कि गुलामी के दिनों में मनोबल बढ़ाने वाली हिन्दी आजादी के इन दिनों में मेरी और तेरी में फंस कर रह गयी है। भाशा एक ऐसी ताकत है जो देष और देषवासियों को गौरव प्रदान करती है। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय भाशाओं की एकजुटता ही थी जो देष की आजादी के काम आयी क्या इसी एकजुटता को कायम करके देष को एक सम्पन्न परिस्थिति में नहीं बदल सकते? भाशा की लड़ाई यह संकेत देती है कि मन का मैल नहीं गया है। भारत आज भी राश्ट्र-राज्य की अवधारणा से अभिभूत नहीं हो पाया है। इषारा तो यह भी है कि भले ही संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत राज्यों का संघ हो पर दूरियों के मतलब अभी भी फासले ही हैं। कम-से-कम हिन्दी और गैर हिन्दी के बीच अन्तर करने वाले इसमें जरूर घसीटे जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी मूलतः गुजराती हैं, राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बंगाली हैं क्या देष के इन षीर्शस्थ कार्यकर्ताओं के मन में भाशा विवाद है, जाहिर है उत्तर नहीं में मिलेगा। एक गुजराती प्रधानमंत्री का संस्कृत और हिन्दी को बढ़ावा देना क्या एक सुकून की बात नहीं है। कहना मुनासिब होगा कि इससे देष की अन्य भाशाओं का सम्मान कमतर नहीं हो जाता। वेदों की भाशा से लेकर वैष्विक स्तर पर षुमार संस्कृत और हिन्दी को यदि भाशा संघर्श में उलझा कर कमजोर करने का प्रयास किया जाएगा तो इससे गौरवगाथा भी मलीन होगी। ब्रह्य समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय तो दर्जन भर भाशाओं के जानकार थे उनके लिए तो कोई भाशा उपेक्षित नहीं थी। स्वामी विवेकानंद ने वर्श 1893 में हुए षिकागो के विष्व धर्म सम्मेलन में भारतीय धर्म के साथ भाशा का भी मान बढ़ाया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपाई 80 के दषक में संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी में भाशण देकर देष के गौरव को ऊंचा करने का काम किया था। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्वयं विष्व के दो दर्जन देषों में यात्रा के दौरान हिन्दी में भाशण देकर इसके मुकाम को और गहरा बना दिया गया। ऐसे में सवाल है कि क्यों सियासतदान हिन्दी को अन्य भारतीय भाशाओं के विरोध में खड़ा करके देष के विकास में ही असमंजस का बीज बो देते हैं?
संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को एक अधिकारिक भाशा के रूप में मान्यता मिल सके इसके लिए 129 देषों का समर्थन जुटाना है। यह काज इतना आसान नहीं है पर भारत के वैष्विक धरातल को देखते हुए यह कठिन भी नहीं प्रतीत होता। बरसों से हिन्दी विस्तार के लिए सभी ने अपने-अपने स्तर पर काम किया है मगर पिछले एक बरस में राजनयिक और कूटनीतिक स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी के विदेषी दौरों में विदेष की धरती पर हिन्दी में जो बढ़त मिली वो षायद पहले नहीं थी। हिन्दी को राश्ट्र भाशा बनाने का विचार बरसों से फैल रहा है। बंगला, मराठी और गुजराती आदि में व्याप्त भावों से यह सूझने लगा है कि हिन्दी उन स्थानों की भी साहित्य भाशा अच्छी तरह हो सकती है। महाराश्ट्र के दरबारों में तो हिन्दी कवियों का बड़ा मान होता था। बावजूद इसके सब कुछ बेहतर नहीं है। भारत बड़ा देष है लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, भाशा में बंटा होना गलत नहीं है पर भाशा विरोध में होना भी सही नहीं है जो हिन्दी की गौरव गाथा से अनभिज्ञ है उन्हें एक बार इस पर मंथन जरूर करना चाहिए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
राश्ट्रीय स्तर पर विचारणीय है कि भारत के हिन्दी ज्ञान कर्मी अन्य भाशाओं से कितना गुरेज करते हैं। कौषल और ज्ञान में नवाचार यह संकेत करते हैं कि कोई भी ज्ञान का धर्म निभाने वाला किसी भी भाशा के साथ टूटन नहीं चाहेगा। अंग्रेजी में उपलब्ध विपुल साहित्य हिन्दी सहित कई भाशाओं में निरंतर लाने का प्रयास होता रहा है पर दषकों से चल रहे प्रयास के बावजूद खाई चैड़ी बनी हुई है। जनसंख्या अधिक है, अनेक प्रचलित षब्द हो गये हैं बावजूद इसके जड़ता नवाचार को नकारती है। जब-जब भारत में हिन्दी को अगुवा बनाने की कोषिष की जाती है तब-तब दक्षिण को लगता है कि उसका तिरस्कार हो रहा है। हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह का विरोध यहीं से देखा जा सकता है। संविधान 65 बरस की अवधि को पार कर चुका है पर भाशाई सियासत ठण्डी नहीं पड़ी। हिन्दी भाशा की उपादेयता इस बात को प्रमाणित करती है कि यह बहुसंख्यक लोगों की भाशा है, साहित्यकार और कवियों की भाशा है इसका तात्पर्य यह नहीं कि अन्य भाशाओं का यहां कोई विरोध है। देखा जाए तो वोट मांगने की इकलौती और सषक्त भाशा हिन्दी ही है। समाचार चैनलों का उद्योग चमकाने में भी हिन्दी ही काम आती है। भोर में समाचार पत्र के पन्ने ज्यादातर हिन्दी में ही खुलते हैं। देष में फिल्में और टीवी सीरियल सभी में आर्थिक उपादेयता सर्वाधिक हिन्दी में ही छुपी हुई है। क्या इस बात की खुषी नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी अपनी भाशा है। गुलामी के दौर में अंग्रेजी ने देष को चैक चैबंद कर दिया था। देष अंग्रेजियत से ढक दिया गया पर अंग्रेजी जानने वाले भी जानते हैं कि आत्मगौरव तो हिन्दी में ही छुपा है। भले ही दिखावे और आत्मगौरव के बीच द्वन्द चल रहा हो, लोग पेषोपेष में हों पर मंथन किया जाए तो हिन्दी मोह से वे भी अछूते नहीं है।
हिन्दी के नाम पर उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक आग भड़कती है। बीते दिनों द्रविड़ मुन्नेत्र कशगम के अध्यक्ष एम. करूणानिधि ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाया। इतना ही नहीं कहा कि गैर हिन्दी भाशी इसे बर्दाष्त नहीं करेंगे। असल माजरा यह है कि करूणानिधि हिन्दी विरोध में अपनी सियासत को संजोए रखना चाहते हैं साथ ही जताना चाहते हैं कि हम टस से मस नहीं हुए हैं। भारत की यह विडम्बना है कि हिन्दी के प्रति तमिल विरोध बार-बार उभरा है। क्या गलत है यदि देष की हिन्दी संयुक्त राश्ट्र में भाशा का दर्जा ले ले और कितना गलत है कि देष के दो-तिहाई हिन्दी को ही अपनी षक्ति मानते हैं। संस्कृति की परिभाशा में कहा गया है कि भाशा इसका गहना है। जब इसे परिधान में बदला जाता है तो न केवल व्यक्ति सुन्दर होता है बल्कि उसके होने का अस्तित्व भी प्रकट होता है। करूणानिधि का आरोप है कि हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह मना कर सरकार कर दाताओं के पैसे का गलत इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने भोपाल में 10 से 12 सितम्बर तक आयोजित होने वाले हिन्दी सम्मेलन की भी आलोचना की। सरकारी टीवी चैनल पर संस्कृत को बढ़ावा देना भी उनके लिए आपत्ति का विशय है। भारत विविधताओं का देष है यहां 1600 से अधिक बोलियों का प्रयोग किया जाता है, 63 भाशाएं गैर भारतीय हैं और संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भारतीय भाशाओं की चर्चा है। ऐसे में चुनौती यह है कि सम्पर्क भाशा किसे बनाया जाए अनचाहे तरीके से अंग्रेजी इसमें सबसे आगे है। हिन्दी सर्वाधिक बोली, पढ़ी और लिखी जाती है। इसे राश्ट्र भाशा के दर्जे में रखा जाना उचित प्रतीत होता है मगर करूणानिधि गैर हिन्दी भाशा को संतुलित करने के चक्कर में हिन्दी का नाष करने पर तुले हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास से 20वीं षताब्दी में औद्योगिक क्रांति आई और 21वीं षताब्दी में सूचना क्रांति। समय का फेर है कि गुलामी के दिनों में मनोबल बढ़ाने वाली हिन्दी आजादी के इन दिनों में मेरी और तेरी में फंस कर रह गयी है। भाशा एक ऐसी ताकत है जो देष और देषवासियों को गौरव प्रदान करती है। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय भाशाओं की एकजुटता ही थी जो देष की आजादी के काम आयी क्या इसी एकजुटता को कायम करके देष को एक सम्पन्न परिस्थिति में नहीं बदल सकते? भाशा की लड़ाई यह संकेत देती है कि मन का मैल नहीं गया है। भारत आज भी राश्ट्र-राज्य की अवधारणा से अभिभूत नहीं हो पाया है। इषारा तो यह भी है कि भले ही संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत राज्यों का संघ हो पर दूरियों के मतलब अभी भी फासले ही हैं। कम-से-कम हिन्दी और गैर हिन्दी के बीच अन्तर करने वाले इसमें जरूर घसीटे जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी मूलतः गुजराती हैं, राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बंगाली हैं क्या देष के इन षीर्शस्थ कार्यकर्ताओं के मन में भाशा विवाद है, जाहिर है उत्तर नहीं में मिलेगा। एक गुजराती प्रधानमंत्री का संस्कृत और हिन्दी को बढ़ावा देना क्या एक सुकून की बात नहीं है। कहना मुनासिब होगा कि इससे देष की अन्य भाशाओं का सम्मान कमतर नहीं हो जाता। वेदों की भाशा से लेकर वैष्विक स्तर पर षुमार संस्कृत और हिन्दी को यदि भाशा संघर्श में उलझा कर कमजोर करने का प्रयास किया जाएगा तो इससे गौरवगाथा भी मलीन होगी। ब्रह्य समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय तो दर्जन भर भाशाओं के जानकार थे उनके लिए तो कोई भाशा उपेक्षित नहीं थी। स्वामी विवेकानंद ने वर्श 1893 में हुए षिकागो के विष्व धर्म सम्मेलन में भारतीय धर्म के साथ भाशा का भी मान बढ़ाया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपाई 80 के दषक में संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी में भाशण देकर देष के गौरव को ऊंचा करने का काम किया था। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्वयं विष्व के दो दर्जन देषों में यात्रा के दौरान हिन्दी में भाशण देकर इसके मुकाम को और गहरा बना दिया गया। ऐसे में सवाल है कि क्यों सियासतदान हिन्दी को अन्य भारतीय भाशाओं के विरोध में खड़ा करके देष के विकास में ही असमंजस का बीज बो देते हैं?
संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को एक अधिकारिक भाशा के रूप में मान्यता मिल सके इसके लिए 129 देषों का समर्थन जुटाना है। यह काज इतना आसान नहीं है पर भारत के वैष्विक धरातल को देखते हुए यह कठिन भी नहीं प्रतीत होता। बरसों से हिन्दी विस्तार के लिए सभी ने अपने-अपने स्तर पर काम किया है मगर पिछले एक बरस में राजनयिक और कूटनीतिक स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी के विदेषी दौरों में विदेष की धरती पर हिन्दी में जो बढ़त मिली वो षायद पहले नहीं थी। हिन्दी को राश्ट्र भाशा बनाने का विचार बरसों से फैल रहा है। बंगला, मराठी और गुजराती आदि में व्याप्त भावों से यह सूझने लगा है कि हिन्दी उन स्थानों की भी साहित्य भाशा अच्छी तरह हो सकती है। महाराश्ट्र के दरबारों में तो हिन्दी कवियों का बड़ा मान होता था। बावजूद इसके सब कुछ बेहतर नहीं है। भारत बड़ा देष है लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, भाशा में बंटा होना गलत नहीं है पर भाशा विरोध में होना भी सही नहीं है जो हिन्दी की गौरव गाथा से अनभिज्ञ है उन्हें एक बार इस पर मंथन जरूर करना चाहिए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
No comments:
Post a Comment