मध्य प्रदेष के हरदा में हुई रेल दुर्घटना ने पुनः एक बार यह उजागर किया है कि रेल सुरक्षा व्यवस्था पटरी पर तो नहीं है। यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि देष की परिवहन व्यवस्था में भारी-भरकम भूमिका निभाने वाली रेल का हाल खराब है। घटना यह भी बताती है कि रेलवे के ट्रैक पर जरूरत से ज्यादा भरोसा न किया जाए। पुरानी हो गयी पटरियों के निरीक्षण के लिए रेलवे के पास न तो कोई पर्याप्त तंत्र है और न ही उपलब्ध तंत्र खामियों को दूर करने में निपुण है। हादसे में मारे गये यात्रियों के परिजनों को रेल मंत्रालय और मध्य प्रदेष की सरकार की तरफ से दो-दो लाख रूपए मुआवजा देने का एलान कर दिया गया है पर मरने और घायल होने वाले कितने हैं इसका अभी तक कोई सही लेखा-जोखा नहीं है। जीवन अनमोल है इसे मुआवजे से आंकना सही नहीं है पर मुआवजा इसलिए कि उनके आश्रितों का जीवन पटरी पर आ सके। इस सच से षायद ही सरकार या रेलवे महकमा जुदा हो कि रेल की पटरी ही ठीक कर देने मात्र से हादसों में व्यापक कमी लायी जा सकती है। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि रेल हादसों के मामले में काफी हद तक उदासीनता रही है ऐसे मामलों में बहस भी न के बराबर ही होती है मगर जब हादसा हो जाता है तभी चर्चा और परिचर्चा भी जोर पकड़ती है।
हरदा में जो घटना हुई उसकी मूल वजह ट्रैक के नीचे की मिट्टी का बाढ़ के चलते बहना है फलस्वरूप ट्रैक धंस गया। मतलब साफ है मौसम के हिसाब से तैयारी का अधूरा होना। असल में ट्रेन की पटरियों की जांच का उपबन्ध रेलवे में है मौसम पूर्व इसकी जांच अनिवार्य रूप से की भी जाती है बावजूद इसके कार्य सही तरीके से निभाया गया इस पर संदेह है। देष में न जाने कितने पुल, पुलिया, रेलवे पुल आदि हैं जिस पर से रेल गुजरती है पर इसके निरीक्षण को लेकर षायद ही कोई ठोस उपाय हो। रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी किसी भी संगठन से सर्वाधिक हैं। कार्मिकों के बोझ से रेल दबा है पर सुरक्षा की दृश्टि से इसकी हालत खस्ता है। वर्श 1947 में जब देष आजाद हुआ तो करीब सौ साल पुरानी रेल अंग्रेजों ने भारतीयों को सौंप दी तब कर्मचारी 10 लाख होते थे। पिछले सात दषकों में रेलवे का इतना विस्तार हुआ कि कर्मचारियों की संख्या 68 लाख हो गयी। ट्रेनों की तादाद बढ़ी, सफर करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी पर इस बात पर ध्यान कम ही गया कि सुरक्षा को भी औसतन बढ़ा लेना चाहिए। आज की तारीख में 12 हजार से अधिक ट्रेनें पटरियों पर दौड़ती हैं। दो करोड़ से अधिक लोग इसमें सफर करते हैं। इतनी बड़ी तादाद में ट्रेन और यात्री का जिम्मा उठाने वाले गैर संवेदनषील कैसे हो सकते हैं? हमेषा से यह रोना रहा है कि ट्रेन की यात्रा सुरक्षित नहीं है पर इसके बगैर परिवहन का काम चल भी तो नहीं सकता।
एक ओर रेलवे के ट्रैक का पुराना होना, दूसरी ओर बाढ़, भूकंप और प्राकृतिक घटनाओं के चलते रेल पथ का बीमार अवस्था में होना। देष में सुषासन और आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में तरह-तरह के विकास हो रहे हैं जिसमें सरकारी और निजी सभी प्रकार के संगठन सहयोग दे रहे हैं। परिवहन के कुछ ऐसे क्षेत्र जैसे सड़क परिवहन, हवाई परिवहन आदि में निजी स्वीकार्यता बाकायदा बढ़ी है षायद सुरक्षा भी, पर रेलवे अभी इनसे अछूता है। षहरों में रेल की पटरियों के दोनों तरफ आये दिन खुदाई होती रहती है। बड़े-बड़े माॅल और भवन बन रहे हैं ट्रैक इनसे भी कमजोर हो रहे हैं। रेल का सही संचालन और यात्रियों की समुचित सुरक्षा के मामले में रेल महकमे को पेषेवर होना ही पड़ेगा। छोटी-छोटी गलतियों के चलते मौत का दरिया बहाना कहां तक उचित है? मध्य प्रदेष के हरदा में होने वाली घटना मन को कचोटने वाली है और व्यवस्था को भी आइना दिखाती है। रेल दुर्घटना का आये दिन होना मानो एक आदत हो गयी हो। बीते महीने बंगलुरू-अर्नाकुलम इंटरसिटी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी आंकड़े के हिसाब से 9 मारे गये और 20 घायल हो गये। हैरत से भरी बात यह है कि यह दुर्घटना मात्र एक पत्थर की वजह से हुई जबकि रेलवे ट्रैक की पेट्रोलिंग करने के दावे के मामले में रेल महकमा अपने को अव्वल मानता है यदि सही पेट्रोलिंग होती तो हादसा न होता। साफ है कि छोटी लापरवाही रेल व्यवस्था के लिए बड़ी तबाही बन रही है।
हरदा में हुई रेल दुर्घटना से मरने वालों की लाष 5 किलोमीटर तक बरामद की गयी। रेल के डिब्बों का नदी में गिर जाने से मरने वालों का अनुमान लगाना मुष्किल है। घटना यह जताती है कि पुराने रेलवे पुल अब रेल का भार नहीं उठा पा रहे हैं। जर्जर पुलों की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार मौन है। ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली ब्रिज एण्ड स्ट्रैक्चर कमेटी ने 2011 में अपनी रिपोर्ट में जर्जर पुल पर चिंता जताई थी योजनाबद्ध तरीके से पुलों को ठीक करने की सिफारिष भी की थी जिस पर 50 हजार करोड़ रूपए का अनुमान था। केन्द्र सरकार ने यह धन आज तक रेलवे को नहीं दिया। इसके अलावा रेलवे विषेशज्ञ समिति सैम पित्रोदा ने इसी वर्श रेलवे पुल एवं 19 हजार किलोमीटर पटरियों को दुरूस्त करने की सिफारिष की थी और समिति ने माना था कि कमजोर पुल और पटरियों पर रेल दौड़ाना खतरनाक है। देखा जाए तो जब रेल बेपटरी होती है तो तबाही भी अधिक होती है। 50 प्रतिषत से अधिक हादसे बेपटरी के कारण होते हैं। इसके अलावा क्राॅसिंग पर दुर्घटना होना भी है। चैंकाने वाला आंकड़ा यह भी है कि सर्वाधिक हादसे उन ट्रेनों के हुए जिनके ड्राइवर सर्वाधिक अनुभवी और योग्य थे आखिर ऐसा क्यों हुआ इसकी भी छानबीन की आवष्यकता है।
विषेशज्ञों की माने तो अंग्रेजों के समय बनाये गये पुल के डिजाइन व तकनीक पुरानी हो चुकी है। ब्रिटिष काल के दौर में ट्रेनों में 8 से 12 डिब्बे होते थे जबकि अब दो दर्जन से अधिक डिब्बे होते हैं इसके अलावा मालगाड़ी का भार सवारी गाड़ी के दुगुने से भी अधिक होता है। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि क्या पुराने पुल भार और रफ्तार को सहने लायक हैं। रेलवे को प्राकृतिक आपदा मान कर पलड़ा झाड़ना भी मुनासिब नहीं है हकीकत यह है कि विभाग की लापरवाही के चलते हादसे हो रहे हैं। हरदा घटना के मामले में रेलवे विषेशज्ञ तो यह भी कहते हैं कि रेलवे पुल से बारिष के पानी की निकासी ठीक से नहीं हो पा रही थी जिसके चलते पटरी के नीचे की मिट्टी बह गयी और रेलवे को इसकी भनक तक नहीं लगी। यह पुल अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ है। किसी यात्री ने यह नहीं सोचा होगा कि मुम्बई-वाराणसी कामायनी एक्सप्रेस जब रात को ठीक 11: 30 बजे मध्य प्रदेष के हरदा से गुजरेगी तो उसकी कोच में सीने तक पानी भर जाएगा और उसका सफर अन्तिम साबित होगा। इस दौरान ट्रेन में किस प्रकार की अफरा-तफरी रही होगी इसका अंदाजा लगाना भी निहायत कठिन है। फिलहाल मध्य प्रदेष का जिला हरदा ट्रेन दुर्घटना की सूची में षामिल हो गया। यक्ष प्रष्न तो यही रहेगा दुर्घटना चाहे मानवीय कारकों से हो या तकनीकी खामियों से आखिर रेल, हादसों से कब मुक्त होगी?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
हरदा में जो घटना हुई उसकी मूल वजह ट्रैक के नीचे की मिट्टी का बाढ़ के चलते बहना है फलस्वरूप ट्रैक धंस गया। मतलब साफ है मौसम के हिसाब से तैयारी का अधूरा होना। असल में ट्रेन की पटरियों की जांच का उपबन्ध रेलवे में है मौसम पूर्व इसकी जांच अनिवार्य रूप से की भी जाती है बावजूद इसके कार्य सही तरीके से निभाया गया इस पर संदेह है। देष में न जाने कितने पुल, पुलिया, रेलवे पुल आदि हैं जिस पर से रेल गुजरती है पर इसके निरीक्षण को लेकर षायद ही कोई ठोस उपाय हो। रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी किसी भी संगठन से सर्वाधिक हैं। कार्मिकों के बोझ से रेल दबा है पर सुरक्षा की दृश्टि से इसकी हालत खस्ता है। वर्श 1947 में जब देष आजाद हुआ तो करीब सौ साल पुरानी रेल अंग्रेजों ने भारतीयों को सौंप दी तब कर्मचारी 10 लाख होते थे। पिछले सात दषकों में रेलवे का इतना विस्तार हुआ कि कर्मचारियों की संख्या 68 लाख हो गयी। ट्रेनों की तादाद बढ़ी, सफर करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी पर इस बात पर ध्यान कम ही गया कि सुरक्षा को भी औसतन बढ़ा लेना चाहिए। आज की तारीख में 12 हजार से अधिक ट्रेनें पटरियों पर दौड़ती हैं। दो करोड़ से अधिक लोग इसमें सफर करते हैं। इतनी बड़ी तादाद में ट्रेन और यात्री का जिम्मा उठाने वाले गैर संवेदनषील कैसे हो सकते हैं? हमेषा से यह रोना रहा है कि ट्रेन की यात्रा सुरक्षित नहीं है पर इसके बगैर परिवहन का काम चल भी तो नहीं सकता।
एक ओर रेलवे के ट्रैक का पुराना होना, दूसरी ओर बाढ़, भूकंप और प्राकृतिक घटनाओं के चलते रेल पथ का बीमार अवस्था में होना। देष में सुषासन और आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में तरह-तरह के विकास हो रहे हैं जिसमें सरकारी और निजी सभी प्रकार के संगठन सहयोग दे रहे हैं। परिवहन के कुछ ऐसे क्षेत्र जैसे सड़क परिवहन, हवाई परिवहन आदि में निजी स्वीकार्यता बाकायदा बढ़ी है षायद सुरक्षा भी, पर रेलवे अभी इनसे अछूता है। षहरों में रेल की पटरियों के दोनों तरफ आये दिन खुदाई होती रहती है। बड़े-बड़े माॅल और भवन बन रहे हैं ट्रैक इनसे भी कमजोर हो रहे हैं। रेल का सही संचालन और यात्रियों की समुचित सुरक्षा के मामले में रेल महकमे को पेषेवर होना ही पड़ेगा। छोटी-छोटी गलतियों के चलते मौत का दरिया बहाना कहां तक उचित है? मध्य प्रदेष के हरदा में होने वाली घटना मन को कचोटने वाली है और व्यवस्था को भी आइना दिखाती है। रेल दुर्घटना का आये दिन होना मानो एक आदत हो गयी हो। बीते महीने बंगलुरू-अर्नाकुलम इंटरसिटी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी आंकड़े के हिसाब से 9 मारे गये और 20 घायल हो गये। हैरत से भरी बात यह है कि यह दुर्घटना मात्र एक पत्थर की वजह से हुई जबकि रेलवे ट्रैक की पेट्रोलिंग करने के दावे के मामले में रेल महकमा अपने को अव्वल मानता है यदि सही पेट्रोलिंग होती तो हादसा न होता। साफ है कि छोटी लापरवाही रेल व्यवस्था के लिए बड़ी तबाही बन रही है।
हरदा में हुई रेल दुर्घटना से मरने वालों की लाष 5 किलोमीटर तक बरामद की गयी। रेल के डिब्बों का नदी में गिर जाने से मरने वालों का अनुमान लगाना मुष्किल है। घटना यह जताती है कि पुराने रेलवे पुल अब रेल का भार नहीं उठा पा रहे हैं। जर्जर पुलों की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार मौन है। ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली ब्रिज एण्ड स्ट्रैक्चर कमेटी ने 2011 में अपनी रिपोर्ट में जर्जर पुल पर चिंता जताई थी योजनाबद्ध तरीके से पुलों को ठीक करने की सिफारिष भी की थी जिस पर 50 हजार करोड़ रूपए का अनुमान था। केन्द्र सरकार ने यह धन आज तक रेलवे को नहीं दिया। इसके अलावा रेलवे विषेशज्ञ समिति सैम पित्रोदा ने इसी वर्श रेलवे पुल एवं 19 हजार किलोमीटर पटरियों को दुरूस्त करने की सिफारिष की थी और समिति ने माना था कि कमजोर पुल और पटरियों पर रेल दौड़ाना खतरनाक है। देखा जाए तो जब रेल बेपटरी होती है तो तबाही भी अधिक होती है। 50 प्रतिषत से अधिक हादसे बेपटरी के कारण होते हैं। इसके अलावा क्राॅसिंग पर दुर्घटना होना भी है। चैंकाने वाला आंकड़ा यह भी है कि सर्वाधिक हादसे उन ट्रेनों के हुए जिनके ड्राइवर सर्वाधिक अनुभवी और योग्य थे आखिर ऐसा क्यों हुआ इसकी भी छानबीन की आवष्यकता है।
विषेशज्ञों की माने तो अंग्रेजों के समय बनाये गये पुल के डिजाइन व तकनीक पुरानी हो चुकी है। ब्रिटिष काल के दौर में ट्रेनों में 8 से 12 डिब्बे होते थे जबकि अब दो दर्जन से अधिक डिब्बे होते हैं इसके अलावा मालगाड़ी का भार सवारी गाड़ी के दुगुने से भी अधिक होता है। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि क्या पुराने पुल भार और रफ्तार को सहने लायक हैं। रेलवे को प्राकृतिक आपदा मान कर पलड़ा झाड़ना भी मुनासिब नहीं है हकीकत यह है कि विभाग की लापरवाही के चलते हादसे हो रहे हैं। हरदा घटना के मामले में रेलवे विषेशज्ञ तो यह भी कहते हैं कि रेलवे पुल से बारिष के पानी की निकासी ठीक से नहीं हो पा रही थी जिसके चलते पटरी के नीचे की मिट्टी बह गयी और रेलवे को इसकी भनक तक नहीं लगी। यह पुल अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ है। किसी यात्री ने यह नहीं सोचा होगा कि मुम्बई-वाराणसी कामायनी एक्सप्रेस जब रात को ठीक 11: 30 बजे मध्य प्रदेष के हरदा से गुजरेगी तो उसकी कोच में सीने तक पानी भर जाएगा और उसका सफर अन्तिम साबित होगा। इस दौरान ट्रेन में किस प्रकार की अफरा-तफरी रही होगी इसका अंदाजा लगाना भी निहायत कठिन है। फिलहाल मध्य प्रदेष का जिला हरदा ट्रेन दुर्घटना की सूची में षामिल हो गया। यक्ष प्रष्न तो यही रहेगा दुर्घटना चाहे मानवीय कारकों से हो या तकनीकी खामियों से आखिर रेल, हादसों से कब मुक्त होगी?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
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