Monday, August 10, 2015

केन्द्र द्वारा राज्यों की आलोचना का मतलब

चाहे सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, लोकतंत्र की एक प्रमुख मान्यता उसकी स्वतंत्रता है जो अधिकार से परस्पर सम्बन्धित है इसके आभाव में तो लोकतंत्र की कल्पना भी सम्भव नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 सुनिष्चित करता है कि भारत राज्यों का संघ है। संविधान में ही दोनों के कृत्यों का बाकायदा बंटवारा भी देखा जा सकता है। संघ और राज्य के बीच विधायी, कार्यकारी और वित्तीय मसलों को लेकर सम्बंधों की व्याख्या एवं विष्लेशण भी संलग्न है। लोकतंत्र का यह मतलब कभी नहीं था कि संघ और राज्यों के बीच एक ऐसी अड़चन पैदा हो जिससे कि संघीय मान्यता और महत्ता दोनों कठिनाई का सामना करें। विगत् कुछ महीनों से भारत की राजनीति में दो चीजों का आभाव परिलक्षित होने लगा है। प्रथम यह कि केन्द्र की सत्ता का राज्यों की सत्ता में सहभागी लोकतंत्र का आंषिक आभाव, दूसरे गैर भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी द्वारा तीखा दृश्टिकोण रखना। जिन राज्यों में भाजपा पोशित सरकार है वहां इस प्रकार का कोई मलाल नहीं देखा जा रहा पर इसके उलट उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल सहित कुछ अन्य प्रांत प्रधानमंत्री मोदी के सीधे निषाने पर रहते हैं। दिल्ली में केजरीवाल सरकार का केन्द्र के साथ नाता 36 के आंकड़े को पार करता हुआ 72 तक पहुंच गया है। जाहिर है कि जिस बहुमत के साथ केजरीवाल ने 70 के मुकाबले 67 विधायकों के बीच अपनी ताजपोषी की उससे संघ सरकार का तिलमिलाना स्वाभाविक था पर केन्द्र को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह राज्यों के लिए पथ प्रदर्षक की भूमिका भी निभा सकता है।
उत्तर प्रदेष में अखिलेष यादव की सरकार है जो देष के सबसे बड़े सूबे को पूर्ण बहुमत के साथ चला रहे हैं। केन्द्र की तीखी नजर इन पर आये दिन रहती है। षिकायत यह भी रहती है कि केन्द्र की मोदी सरकार यूपी के साथ दोहरा बर्ताव कर रही है। आरोप को गैर वाजिब इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि सियासत का स्याह पक्ष यहां भी आये दिन उभरता रहता है। असल में सकारात्मक भूमिका में राजनीतिज्ञ तभी आते हैं जब उनके झण्डे और एजण्डे के साथ राज्य होते हैं। अखिलेष यादव समाजवादी पार्टी के हैं और भाजपा की नजर अगले चुनाव में इनके सफाये पर है। ऐसे में सियासती भेद के चलते यह रंज तो देखने को मिलता रहेगा पर समझने वाला तथ्य यह है कि संविधान क्या कहता है? संविधान की विवेचना और विष्लेशण दोनों यह जताते हैं कि सामान्य परिस्थितियों में केन्द्र और राज्य दो सत्ताधारक हैं पर असामान्य परिस्थितियों में संघीय ताकत में राज्यों का समावेषन हो जाता है। मोदी सरकार के निषाने पर पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तब से हैं जब से केन्द्र में इनकी सरकार आयी है। इन दोनों सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप खूब चल रहे हैं। नीति आयोग की बैठक में ममता बनर्जी की अनुपस्थिति इसी मलाल का कारण रहा है। बीते रविवार को बिहार के गया में मोदी की रैली थी। बिहार की नीतीष सरकार को आड़े हाथ लेते हुए उन्होंने बहुत कुछ सुना दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा सत्ता में आई तो पांच साल के अन्दर बिहार से बीमारू का ठप्पा हट जाएगा और जंगलराज-2 के बजाय विकास के लिए भाजपा की सरकार बनायें। ऐसे में बिहार के मुखिया नीतीष कुमार का तिलमिलाना लाज़मी था। पलटवार करते हुए कहा कि पीएम तथ्य दुरूस्त कर लें। दरअसल सियासत में हमेषा से तथ्यों के साथ खिलवाड़ तो हुआ है और यह खिलवाड़ विरोधी को कमतर दिखाने के लिए ही होता है।
बिहार में अगले दो-तीन महीनों के अन्दर विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी सियासत साधने के लिए बिहार गये थे। किसी भी राज्य की कारगुजारी को आंकने के लिए नीति-निर्देषक तत्व (अनुच्छेद 36 से 51) में वर्णित उन भावों का आंकलन करना मुनासिब रहता है जहां से सामाजिक समरसता, न्याय और लोक कल्याण का परिलक्षण होता है साथ ही आर्थिक लोकतंत्र भी मुखर होता है। षिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और गरीबी जैसे सामाजिक सूचकांकों के आधार पर बिहार की विकास दर को आंका जाए तो हालत इतनी खराब नहीं मिलेगी जितनी की मोदी जी कह गये। मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने पलटवार तो किया पर सच्चाई यह भी है कि कुछ तो बिहार में विकास कम है, कुछ सियासत और गैर भाजपाई होने के नाते नीतीष कुमार को यह सब सहना पड़ेगा। सवाल है कि क्या केन्द्र सरकार का काम राज्यों की आलोचना मात्र तक ही सीमित है? क्या संघ में सत्तारूढ़ दल विरोधी पार्टियों वाली राज्य सरकारों पर अनाप-षनाप आरोप लगाकर संघीय ढांचे को कमजोर नहीं कर रहा है? संविधान में एक बार फिर झांकने की आवष्यकता है। संघ की आत्मा यह है कि राज्य को तनहा न छोड़ा जाए पर सियासत के अखाड़े में संवैधानिक आदर्ष भी थोड़े लड़खड़ा जाते हैं। केन्द्रवादी लोकतंत्र भी तो देष की पूरी भलाई नहीं है। जहां सहभागी लोकतंत्र ताकत और सम्बल का प्रतीक है वहां केन्द्र और राज्य दोनों की ही षक्ति से देष बनेगा। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय परम्परागत लोकतंत्र को अपनाए हुए था और काफी कुछ अभिजनवादी भी था। धीरे-धीरे यह सहभागी की ओर बढ़ा पर अफसोस यह है कि लोकतंत्र पुनः मार्ग से हटते हुए अभिजनवाद की ओर झुकता प्रतीत हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी मुखर विचारधारा के हैं विपक्षियों को कोसने में तनिक मात्र भी नहीं हिचकिचाते पर उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कभी-कभी प्रजा इसके उलट परिणाम देती है जैसा कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव में हो चुका है। फिलहाल देष को मजबूत बनाने के लिए संघीय ढांचे को एक बार पुनः दृढ़ करने की आवष्यकता है न कि सियासत की आड़ में मात्र आलोचना करना।
वर्श 1991 के उदारीकरण और वैष्वीकरण के दौर में भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र षुरू हुआ था। सामाजिक न्याय और प्रगति में से प्रगति पर अधिक बल दिया गया। आज उसी की देन है कि विनिवेष, प्रत्यक्ष पूंजी निवेष को बढ़ावा दिया जा रहा है। आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका न्यून हो रही है। आज भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र, प्रतिस्पर्धात्मक लोकतंत्र और समाजवादी लोकतंत्र हावी है पर यह कहां का न्याय है कि सत्ता चाह में व्यक्तिगत लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जाए। सामाजिक न्याय के लक्ष्य को न तो छोड़ा जा सकता है और न ही कमजोर किया जा सकता है। यह कहना भी मुनासिब होगा कि लोकतंत्र एक गुणात्मक छवि को तो अपना रहा है मगर संघ-राज्य सम्बन्धों में इसकी गुणवत्ता फीकी है मुख्यतः जहां दोनों एक दल नहीं है। देखा जाए तो मध्य प्रदेष और राजस्थान के मुख्यमंत्री इन दिनों आरोप के घेरे में हैं पर भाजपाई होने के नाते केन्द्र के साथ सहभागी लोकतंत्र को लेकर इन्हें कोई अड़चन नहीं है। अधिकार लोकतंत्र की अपरिहार्य षर्त है और संविधान ने इन षर्तों को बाकायदा पूरा किया है पर सियासती तर्क के चलते सामाजिक न्याय वाला संदर्भ अभी भी अधूरा है। भारत विविधताओं का देष है, संविधान की 8वीं अनुसूची में उल्लिखित 22 भाशाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कष्मीर से कन्याकुमारी तक के राज्य हों या सौराश्ट्र से अरूणाचल की बात हो सभी संघ के चमकते हिस्से हैं यदि कोई धुंधला पड़ता है तो उसे लेकर केन्द्र सरकार केवल आलोचक की भूमिका में न हो, उन्हें उत्थान और विकास के पथ की ओर धकेलने का भी काम करे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



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