सामाजिक न्याय तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आरक्षण जैसे उपबन्ध को पहले भी लागू किया जाता रहा है। संविधान भी स्त्रियों, बच्चों, एससी और एसटी आदि के लिए विषेश उपबन्ध की बात करता है। हालांकि आरक्षण की कोई सुनिष्चित परिभाशा तो नहीं बनी है पर किसी वर्ग विषेश के लिए अवसर उपलब्ध कराना या निर्धारित मापदण्डों में छूट देने को आरक्षण की संज्ञा दी जा सकती है मगर प्रष्न है कि जब संविधान नागरिकों के बीच भेदभाव का निशेध करता है तो फिर आरक्षण की आवष्यकता और औचित्य क्या है? यहां स्पश्ट करना जरूरी हो जाता है कि मन्तव्य आरक्षण देने या न देने को लेकर नहीं है बल्कि इसके चलते जो आग भड़कती है असल चिंता उस पर है। गुजरात इसका ताजा उदाहरण है। यहां के पटेलों का इन दिनों इस बात के लिए आंदोलन हो रहा है कि उन्हें भी आरक्षण लाभ प्रदान करते हुए पिछड़ा वर्ग घोशित किया जाए। ऐसे में गुजरात फिलहाल पटेल आंदोलन की गिरफ्त में और सरकार बैकफुट पर है। एक बरस पहले गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी पदासीन हुआ करते थे। यह आंदोलन मोदी के विकास माॅडल को भी धता बताने का काम कर रहा है। गुजरात के राजनीतिक हालात से आरएसएस भी सोच में डूबा है। इस आंदोलन से समाज एक बार पुनः बंटने के कगार पर है। 22 साल का एक वाणिज्य स्नातक नवयुवक हार्दिक पटेल ने आंदोलन की अगुवाई करके गुजरात सरकार की नाक में दम कर दिया है।
पाटीदार अनामक आंदोलन गुजरात में सियासी उबाल ला दिया है। आरक्षण की मांग कर रहे पटेल पीछे हटने को तैयार नहीं है जबकि गुजरात सरकार इस मामले से पल्ला झाड़ चुकी है। कौन है ये पटेल समाज, गुजरात में उनकी क्या पृश्ठभूमि है, क्या उनकी मांगे जायज हैं, यदि उत्तर हां में है तो फिर सरकार की भूमिका कैसी होनी चाहिए? आरक्षण की मांग करने वालों के पास अपनी दलीलें होती हैं। कईयों का सवाल यह भी है कि काफी सम्पन्नता के बावजूद पटेल समुदाय को आरक्षण क्यों चाहिए? गुजरात की कुल आबादी 6 करोड़ 27 लाख है जिसमें पटेल समुदाय की तादाद 20 प्रतिषत है। ओबीसी का दर्जा प्राप्त करने के चलते अब तक ये 70 से अधिक रैली कर चुके हैं। 25 अगस्त को अहमदाबाद में इसी मामले से जुड़ी एक महारैली हुई जिसमें अनुमान 25 लाख लोगों की उपस्थिति का लगाया गया। इतनी बड़ी ताकत रखने वाला पटेल समाज क्या इस सवाल के घेरे में नहीं है कि सम्पन्न होने के बावजूद बैसाखी की मांग कर रहा है। भारतीय संविधान के खण्ड-3 में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है। अनु. 14 समानता से सम्बन्धित है और अनु. 15 विभेद का प्रतिशेध करता है जबकि अनुच्छेद 16 सभी नागरिकों को लोक नियोजन की समता उपलब्ध कराता है। इसी का उपबन्ध 4 अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से सम्बन्धित है।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आम प्रावधान अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिषत, अनुसूचित जनजाति के 7.5 प्रतिषत जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी निर्धारित है। पिछड़े वर्ग का पता लगाने के लिए जाति को आधार माना जा सकता है पर सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को इसमें षामिल नहीं किया जा सकता है। मण्डल आयोग की सिफारिषों पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालयों ने कहा है कि आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्गों में सम्पन्न लोगों को नहीं मिलना चाहिए। इसी को क्रीमी लेयर की संज्ञा दी गयी है। आरक्षण के पीछे संविधान निर्माताओं की मंषा सामाजिक व षैक्षिक समानता को लेकर रही है जबकि आज यह सियासत का बड़ा हथियार बन गया है। आरक्षण देने में भी सियासत और न देने में भी सियासत देखी जा सकती है। इन सबके बीच उनका क्या होगा जो असल में मुख्य धारा से कई कदम पीछे हैं और सही मायने में उन्हें आरक्षण चाहिए। राश्ट्र के समग्र विकास के लिए पिछड़े और षोशितों का विकास आवष्यक है परन्तु इस पर उचित पड़ताल की भी होनी चाहिए कि आज के दौर में कौन पिछड़ा है और कौन अगड़ा। वर्तमान में तो चुनौती यह भी है कि आरक्षण के बेजा प्रयोग को कैसे रोका जाए?
आरक्षण की आवष्यकता और प्रासंगिकता को उभारा जाए तो यह कमजोर वर्गों के उठान से सम्बन्धित है पर यदि कोई वर्ग पहले से ही मजबूत हो तो उसकी मांग पर सवालिया निषान उठना लाजमी है। मुद्दों का समर्थन करने वाले पटेल रैलियों में प्रदर्षन के लिए महंगी-महंगी कारों में आते हैं पर असल में आंदोलन तो उनके लिए होना चाहिए जो गांव में भूखे मर रहे हैं ताकि आरक्षण जरूरतमंद तक पहुंचे। सवाल है कि रसूकदार पटेल अब विपन्नता के दौर से क्यों गुजर रहे हैं? दरअसल बड़ी संख्या में पटेल किसान अपनी जमीन बेच चुके हैं और अब उन्हें रोजी-रोटी के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। आरक्षण के आंदोलन का अगुवा हार्दिक पटेल का कहना है कि जिस गुजरात माॅडल से भारत और दुनिया परिचित है वह सच नहीं है जैसे ही गांव में जाएंगे असलियत का पता चल जाएगा। यहां भी किसान आत्महत्या करता है और बच्चों के पढ़ने-लिखने के लिए सुविधाएं और पैसे नहीं है। सरकार कितना भी गुजरात की वाह-वाही कर ले पर यह आंदोलन उनके चरित्र से भी वाकिफ करा रहा है। यहां भी युवा बेजरोजगार हैं ऐसा नहीं है कि सभी पटेल सम्पन्न हैं। ऐसे में आरक्षण की मांग को जायज ठहराया जा सकता है पर उन सीमाओं का क्या होगा जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने तय किया है। हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि गुजरात सरकार और पटेल समुदाय में टकराव अभी और बढ़ेगा।
भगवान श्रीराम के वंषज कहलाने वाले पाटीदार समुदाय के लोग आंदोलन की राह पर तो चल पड़े हैं पर कोई चमत्कार होगा कहना मुष्किल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हार्दिक पटेल रातों-रात एक चमत्कारिक नेतृत्व की ओर बढ़ रहे हैं। कयास तो यह भी लगाया जा रहा है कि मौजूदा मुख्यमंत्री आनंदी पटेल को अस्थिर करने के लिए भी यह सब किया जा रहा है। बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस के बिना यह परवान चढ़ ही नहीं सकता। सरकार का दावा है कि मसले को षान्तिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाएगा। मोदी की उत्तराधिकारी आनन्दी पटेल आन्दोलन के ऐसे चक्र में फंस गयी है जहां से निकलना काफी मुष्किल है। गौरतलब है कि सरकार पटेल आरक्षण की मांग ठुकरा चुकी है और स्पश्ट कर दिया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी, एसटी और ओबीसी के लिए दिये गये दिषा-निर्देषों में कोई बदलाव नहीं करेगी। ऐसा देखा गया है कि जब भी आरक्षण की मांग हुई है तब-तब गाढ़े और गम्भीर किस्म के आंदोलन हुए है। तबाही और नुकसान भी व्यापक पैमाने पर किये गये हैं। 1990 के दौर में ओबीसी आरक्षण के लिए देष भर में ऐसा ही विकराल मंजर देखने को मिला था। उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिषों के तहत 27 प्रतिषत ओबीसी को आरक्षण देने की घोशणा कर दी थी। देष में आरक्षण की आग इस कदर भड़की थी जिसमें जान और माल का व्यापक नुकसान हुआ था। गुजरात में पाटीदार आरक्षण की आग उसी का एक आंषिक रूप है समझदारी इसी में है कि बीच का रास्ता निकालकर एक बार फिर आग को बड़ी आग में बदलने से रोका जाए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
पाटीदार अनामक आंदोलन गुजरात में सियासी उबाल ला दिया है। आरक्षण की मांग कर रहे पटेल पीछे हटने को तैयार नहीं है जबकि गुजरात सरकार इस मामले से पल्ला झाड़ चुकी है। कौन है ये पटेल समाज, गुजरात में उनकी क्या पृश्ठभूमि है, क्या उनकी मांगे जायज हैं, यदि उत्तर हां में है तो फिर सरकार की भूमिका कैसी होनी चाहिए? आरक्षण की मांग करने वालों के पास अपनी दलीलें होती हैं। कईयों का सवाल यह भी है कि काफी सम्पन्नता के बावजूद पटेल समुदाय को आरक्षण क्यों चाहिए? गुजरात की कुल आबादी 6 करोड़ 27 लाख है जिसमें पटेल समुदाय की तादाद 20 प्रतिषत है। ओबीसी का दर्जा प्राप्त करने के चलते अब तक ये 70 से अधिक रैली कर चुके हैं। 25 अगस्त को अहमदाबाद में इसी मामले से जुड़ी एक महारैली हुई जिसमें अनुमान 25 लाख लोगों की उपस्थिति का लगाया गया। इतनी बड़ी ताकत रखने वाला पटेल समाज क्या इस सवाल के घेरे में नहीं है कि सम्पन्न होने के बावजूद बैसाखी की मांग कर रहा है। भारतीय संविधान के खण्ड-3 में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है। अनु. 14 समानता से सम्बन्धित है और अनु. 15 विभेद का प्रतिशेध करता है जबकि अनुच्छेद 16 सभी नागरिकों को लोक नियोजन की समता उपलब्ध कराता है। इसी का उपबन्ध 4 अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से सम्बन्धित है।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आम प्रावधान अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिषत, अनुसूचित जनजाति के 7.5 प्रतिषत जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी निर्धारित है। पिछड़े वर्ग का पता लगाने के लिए जाति को आधार माना जा सकता है पर सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को इसमें षामिल नहीं किया जा सकता है। मण्डल आयोग की सिफारिषों पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालयों ने कहा है कि आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्गों में सम्पन्न लोगों को नहीं मिलना चाहिए। इसी को क्रीमी लेयर की संज्ञा दी गयी है। आरक्षण के पीछे संविधान निर्माताओं की मंषा सामाजिक व षैक्षिक समानता को लेकर रही है जबकि आज यह सियासत का बड़ा हथियार बन गया है। आरक्षण देने में भी सियासत और न देने में भी सियासत देखी जा सकती है। इन सबके बीच उनका क्या होगा जो असल में मुख्य धारा से कई कदम पीछे हैं और सही मायने में उन्हें आरक्षण चाहिए। राश्ट्र के समग्र विकास के लिए पिछड़े और षोशितों का विकास आवष्यक है परन्तु इस पर उचित पड़ताल की भी होनी चाहिए कि आज के दौर में कौन पिछड़ा है और कौन अगड़ा। वर्तमान में तो चुनौती यह भी है कि आरक्षण के बेजा प्रयोग को कैसे रोका जाए?
आरक्षण की आवष्यकता और प्रासंगिकता को उभारा जाए तो यह कमजोर वर्गों के उठान से सम्बन्धित है पर यदि कोई वर्ग पहले से ही मजबूत हो तो उसकी मांग पर सवालिया निषान उठना लाजमी है। मुद्दों का समर्थन करने वाले पटेल रैलियों में प्रदर्षन के लिए महंगी-महंगी कारों में आते हैं पर असल में आंदोलन तो उनके लिए होना चाहिए जो गांव में भूखे मर रहे हैं ताकि आरक्षण जरूरतमंद तक पहुंचे। सवाल है कि रसूकदार पटेल अब विपन्नता के दौर से क्यों गुजर रहे हैं? दरअसल बड़ी संख्या में पटेल किसान अपनी जमीन बेच चुके हैं और अब उन्हें रोजी-रोटी के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। आरक्षण के आंदोलन का अगुवा हार्दिक पटेल का कहना है कि जिस गुजरात माॅडल से भारत और दुनिया परिचित है वह सच नहीं है जैसे ही गांव में जाएंगे असलियत का पता चल जाएगा। यहां भी किसान आत्महत्या करता है और बच्चों के पढ़ने-लिखने के लिए सुविधाएं और पैसे नहीं है। सरकार कितना भी गुजरात की वाह-वाही कर ले पर यह आंदोलन उनके चरित्र से भी वाकिफ करा रहा है। यहां भी युवा बेजरोजगार हैं ऐसा नहीं है कि सभी पटेल सम्पन्न हैं। ऐसे में आरक्षण की मांग को जायज ठहराया जा सकता है पर उन सीमाओं का क्या होगा जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने तय किया है। हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि गुजरात सरकार और पटेल समुदाय में टकराव अभी और बढ़ेगा।
भगवान श्रीराम के वंषज कहलाने वाले पाटीदार समुदाय के लोग आंदोलन की राह पर तो चल पड़े हैं पर कोई चमत्कार होगा कहना मुष्किल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हार्दिक पटेल रातों-रात एक चमत्कारिक नेतृत्व की ओर बढ़ रहे हैं। कयास तो यह भी लगाया जा रहा है कि मौजूदा मुख्यमंत्री आनंदी पटेल को अस्थिर करने के लिए भी यह सब किया जा रहा है। बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस के बिना यह परवान चढ़ ही नहीं सकता। सरकार का दावा है कि मसले को षान्तिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाएगा। मोदी की उत्तराधिकारी आनन्दी पटेल आन्दोलन के ऐसे चक्र में फंस गयी है जहां से निकलना काफी मुष्किल है। गौरतलब है कि सरकार पटेल आरक्षण की मांग ठुकरा चुकी है और स्पश्ट कर दिया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी, एसटी और ओबीसी के लिए दिये गये दिषा-निर्देषों में कोई बदलाव नहीं करेगी। ऐसा देखा गया है कि जब भी आरक्षण की मांग हुई है तब-तब गाढ़े और गम्भीर किस्म के आंदोलन हुए है। तबाही और नुकसान भी व्यापक पैमाने पर किये गये हैं। 1990 के दौर में ओबीसी आरक्षण के लिए देष भर में ऐसा ही विकराल मंजर देखने को मिला था। उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिषों के तहत 27 प्रतिषत ओबीसी को आरक्षण देने की घोशणा कर दी थी। देष में आरक्षण की आग इस कदर भड़की थी जिसमें जान और माल का व्यापक नुकसान हुआ था। गुजरात में पाटीदार आरक्षण की आग उसी का एक आंषिक रूप है समझदारी इसी में है कि बीच का रास्ता निकालकर एक बार फिर आग को बड़ी आग में बदलने से रोका जाए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
No comments:
Post a Comment