Wednesday, August 19, 2015

किस राह पर सरकारी स्कूलों की शिक्षा !

आज ऐसे विद्वानों की कमी नहीं है जो विष्वास करते हैं कि षिक्षण संस्थानों को निजी कम्पनियों की तरह काम करना चाहिए, उनका मानना है कि उन्हें मुनाफा कमाने दीजिए बषर्ते वह बेहतर सेवा करते हों और नियमों एवं कानूनों का उल्लंघन न करते हों पर विद्वान का एक खेमा इस बात से भी चिन्तित है कि देष के सरकारी स्कूलों की षिक्षा पटरी से उतरी हुई है जिसका छोटे-मोटे मरम्मत से ठीक होना सम्भव नहीं है। भारत को भूमण्डलीय परिदृष्य का एक लघु रूप कहा जा सकता है जहां विकास और पिछड़ापन, सामन्ती और पूंजीवादी ढांचा, मिश्रित राजनीतिक संस्कृति जैसी परस्पर विरोधी क्रियाएं एक साथ असुविधाजनक एकता के साथ मौजूद हैं। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के चौड़ीकरण  ने भारत में एक नए आर्थिक विमर्ष को जन्म दिया जिसके केन्द्र में निजीकरण रहा जिसकी चपेट में षिक्षा व्यवस्था भी देखी जा सकती है परिणास्वरूप सरकारी स्कूलों से समृद्ध और समाज के अभिजात्य वर्ग का पलायन हो गया और पूरे दमखम के साथ निजी स्कूल षिक्षा के पर्याय बन गये। हालात इस कदर बिगड़ गये कि सरकारी स्कूल मात्र फर्ज अदायगी तक ही सीमित होने लगे। इस ढांचा को बचाने के लिए सरकार ने नित नये नियोजन के माध्यम से अधकचरा प्रयास जारी रखा मगर प्राथमिक स्कूल इस तबाही से नहीं बच पाए। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकारी स्कूलों की दुर्दषा को देखते हुए बीते दिन यह फरमान सुनाया कि सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक षिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तब तक उनकी दषा में सुधार नहीं होगा।
प्राथमिक षिक्षा भी आर्थिक वर्गीकरण की षिकार है। अंग्रेजी माध्यम के कान्वेंट स्कूल जहां सषक्त आर्थिकी के पर्याय हैं वहीं प्राइवेट स्कूलों की गिनती इसके बाद आती है तत्पष्चात् आखिर में बेसिक षिक्षा परिशद् से संचालित स्कूल आतें हैं जबकि यहां षुल्क एवं पुस्तकों के अलावा दोपहर का भोजन भी मुफ्त दिया जाता है। प्राथमिक षिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन में नींव का काम करती है। दुःख इस बात का है कि तमाम परिवर्तन से तो देष उन्नति और समृद्धि की ओर बढ़ रहा है पर यह मामला निरन्तर हाषिये पर जा रहा है। षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 जो 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी है जिसके पांच वर्श बीतने के बावजूद भी कुछ खास अन्तर नहीं आया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि नेताओं और नौकरषाहों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़े, ऐसा न करने वालों के साथ दण्डात्मक कार्यवाही का प्रावधान हो। जिनके बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटी जाए साथ ही वेतन वृद्धि और पदोन्नति पर भी रोक लगाने की व्यवस्था हो। इस व्यवस्था को उच्च न्यायालय ने अगले षिक्षा सत्र से लागू करने को कहा है। साफ है कि न्यायपालिका सरकारी स्कूलों की दुर्दषा पर काफी तल्ख है पर सवाल है कि जो आर्थिक रूप से समृद्ध है वो भला ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों की षिक्षा क्यों दिलाएंगे जहां कमियों का अम्बार लगा है मगर उच्च न्यायालय का मन्तव्य भी समझना होगा। न्यायालय चाहता है कि यदि रसूकदार के बच्चे यहां षिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन स्कूलों को दुर्दषा से बाहर निकाला जा सकेगा।
इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्कूल भारी कमी से गुजर रहे हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि देष के 30 फीसदी से अधिक विद्यालयों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है, 40 से 60 फीसदी विद्यालयों में खेल के मैदान नहीं हैं। अब भी हजारों स्कूल टेंट और पेड़ों के नीचे चल रहे हैं जो बच्चे पढ़ने आते हैं वे घर से बोरी, टाट पट्टी आदि का इंतजाम करके आते हैं। आंकड़े यह भी दर्षाते हैं कि एक-तिहाई स्कूलों में लड़कियों के लिए षौचालय ही नहीं है। ग्रामीण वातावरण में तो अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से ही मना कर देते हैं ऐसे में पढ़ाई बीच में रूक जाती है। स्कूल में साफ-सफाई भी न के बराबर है। कहा जाए तो यह गन्दगी और बीमारी के भरमार हैं। इसके अलावा षिक्षकों की भारी कमी से स्कूल गुजर रहे हैं। जो षिक्षक तैनात हैं वो भी अध्यापन में रूचि लेने से कतराते हैं। उत्तर प्रदेष सहित कई प्रदेषों में ऐसी गिरावट जारी है। हालात यह हैं कि प्राथमिक षिक्षा के ढांचे में गुणवत्ता नाम की कोई चीज नहीं है। मध्याह्न भोजन इसलिए चलाया गया कि गरीब बच्चों को एक वक्त का पोशणयुक्त भोजन मिलेगा जिससे षारीरिक, मानसिक वृद्धि हो सकेगी पर हकीकत में हो कुछ और रहा है। जिस प्रकार सरकारी स्कूलों की षिक्षा उपरोक्त कमियों के चलते मुष्किल में फंसी हुई है इससे सहज अंदाजा लगता है कि सुधार इतना आसान नहीं है।
प्राथमिक विद्यालयों की षिक्षा व्यवस्था बद् से बद्तर होने के पीछे किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता इसमें काफी हद तक समाज भी जिम्मेदार है। किसी को भी अंग्रेजी षिक्षा व्यवस्था से आपत्ति नहीं होनी चाहिए पर अफसोस इस बात का है कि सरकारी स्कूलों की षिक्षा निरंतर गिरावट लिए हुए है। हैरत करने वाली बात यह जरूर है कि चंद वर्शों में विलायत की षिक्षा व्यवस्था भारत की देसीपन को पछाड़ कर आगे निकल गयी और स्वतंत्रता के 68 वर्श बीत जाने के बाद भी सरकारी षिक्षा और संस्था का सुगठित बने रहना पूरी तरह सम्भव न हो सका। ऐसे में सवाल है कि सरकारी स्कूलों की दषा को सुधार कर एक समानांतर षिक्षा व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? गांव-गांव तेजी से फैलती अंग्रेजी और मिषनरी षिक्षा सरकारी प्राथमिक षिक्षा के लिए चुनौती मानी जाए या कमजोरी। यूनेस्को की रपट भी कहती है कि दुनिया में सबसे व्यस्क निरक्षर भारत में है। जब 54 फीसदी आबादी 35 वर्श से कम आयु की होगी तो ऐसा होना कोई आष्चर्य नहीं है पर निरक्षरता से निपटने के लिए भी प्राथमिक षिक्षा पर ही ध्यान देना होगा।
सरकार भी उन्हीं बिन्दुओं पर अधिक ध्यान देती है जहां से उसे वोट प्राप्ति की उम्मीद होती है। बच्चे वोटर नहीं होते ऐसे में नौनिहालों के प्रति गैर संवेदनषील होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। सरकारी इंजीनियरिंग एवं मेडिकल काॅलेजों में सभी प्रवेष चाहते हैं, हर प्रकार की सरकारी नौकरी सभी को भाती है पर जब बात प्राइमरी स्कूल में बच्चों की षिक्षा दिलाने की होती है तो यहीं पर ‘कान्वेंट कल्चर‘ मुखर हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्देष सरकारी स्कूलों की दषा सुधारने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देष में उच्चस्थ पदों पर बैठे लोग एक जमाने में इन्हीं सरकारी स्कूलों की षिक्षा से अपने भविश्य में उजाला लाये थे। देखा जाए तो  देष में 5वीं तक के छात्रों की संख्या में प्रतिवर्श लाखों की गिरावट दर्ज हो रही है, जिस तादाद में बच्चे घट रहे हैं सवाल खड़ा करता है कि आखिर सरकारी स्कूल किस राह पर हैं? फिलहाल मौजूदा स्थिति में देष के सरकारी स्कूल की षिक्षा व्यवस्था विकृत्त है बावजूद इसके यदि इसे सुधारने में समाज और सरकार कामयाब होती है तो यह नौनिहालों के लिए ही नहीं वरन् स्वयं के लिए भी किया गया अनूठा काज होगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


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