वर्तमान दुनिया दो सभ्यताओं के दौर से गुजर रही है एक आभासी है तो दूसरी भौतिक जिसमें सोषल मीडिया के बहुआयामी और प्रयोगधर्मी दृश्टिकोण षनैः षनैः प्रतिश्ठित होते जा रहे हैं। आज से एक दषक पहले यह चिन्ह्ति किया जाना कठिन था कि इसका प्रतिस्थापन कितने पैमाने पर हो सकेगा पर जिस भांति इसके प्रति चाहत विकसित हुई है इसे देखते हुए अब कोई षक-सुबहा नहीं रह जाता कि आने वाले वर्शों में ये सीमाओं के पार जाकर एक नये परिवर्तन के साथ दुनिया में वास करेगी। सामाजिक मीडिया के कई रूप हैं जैसे इंटरनेट, सामाजिक नेटवर्किंग साइट के अलावा वेबलाॅग, सामाजिक ब्लाॅग, माइक्रो ब्लाॅगिंग, विकीज़ सोषल नेटवर्क, फोटोग्राफ, चलचित्र आदि जो आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं संचार के माध्यम से संचालित होते हैं। फेसबुक वर्तमान सामाजिक मीडिया का चर्चित चेहरा है जो दुनिया भर में लोकप्रियता लिए हुए है। इसके अलावा ट्विटर, विकीपीडिया, व्हाट्स एप जैसे अन्य मीडिया संसाधन उपलब्ध है जिसमें समाज के समावेषन के साथ समय भी खूब खपाया जा रहा है। यह मीडिया रोजमर्रा के क्रियाकलाप अभीश्टों को बताने के काम आ रहा है। नये दोस्त बनाये जा रहे हैं, पुराने खोजे जा रहे हैं, ये रिष्तों को भी गहरा करने के काम आ रहा है साथ ही इस प्रौद्योगिकी ने वैष्वीकरण को समेटने का काम किया है। फटाफट का सिद्धान्त आया है, जीवन के हर क्षण को ब्रेकिंग न्यूज की भांति अपलोड किया जा रहा है। इतना ही नहीं निजता भी आज सार्वजनिक हो रही है। कहा जाए तो आॅनलाइन मीडिया और सार्वजनिक होता समाज अब एक-दूसरे के पर्याय बनते जा रहे हैं।
सोषल मीडिया की वजह से ही लोगों में यह समझ आ गयी है कि उनकी आवाज़ में भी दम है। लोग भी इतने सक्षम हो गये हैं जितने पहले कभी नहीं थे अब वे सरकारों पर अपने विचारों का दबाव बना सकते हैं। राजनेता भी आॅनलाइन माध्यमों में छुपी सम्भावनों को समझने लगे हैं जो उनकी बात को जनता तक पहुंचाने की गति बढ़ाने वाले तंत्र के रूप में काम करते हैं। इस मीडिया ने राजनीति के क्षेत्र में खेल ही बदल कर रख दिया है। अमेरिका जैसे देषों में चुनाव अभियानों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ‘अबकी बार, मोदी सरकार‘ के नारे एक साल बाद भी लोग नहीं भूल पाये होंगे। यह नारा सोषल मीडिया के प्लेटफाॅर्म पर आग की तरह फैला था जिसकी आंच को विरोधी झेल नहीं पाये थे। जन सामान्य तक पहुंच होने के कारण लोगों तक विज्ञापन पहुंचाने में इसे सबसे अच्छा जरिया समझा जाता है। कुछ ही सालों में उद्योगों में इसी की वजह से क्रांति देखी जा रही है। सोषल मीडिया से प्रत्येक आयु और वर्ग के लोगों को लिप्त देखा जा सकता है। बीते कुछ सालों से ‘सेल्फी‘ का भी चलन हुआ है हालांकि यह कोई माध्यम तो नहीं है पर इसकी दीवानगी ने इसे ‘आॅक्सफोर्ड वर्ड आॅफ द इयर 2013‘ बना दिया। प्रधानमंत्री मोदी के दौर को सेल्फीमय कहा जाए तो गलत न होगा। वे जहां जाते हैं मिलने वालों के साथ सेल्फी जरूर लेते हैं। हाल ही में यूएई की यात्रा पर उन्होंने षेख जायद मस्जिद के बाहर सेल्फी ली। इन दिनों सेल्फी का जुनून दायरा लांघ रहा है। माॅल हो, बाजार हो, काॅलेज हो या पिकनिक स्पाॅट या फिर मन्दिर, मस्जिद या गुरूद्वारा हो यहां सेल्फी लेने की बात समझी जा सकती है पर अस्पतालों में, दाह संस्कार के स्थानों आदि पर सेल्फी लेने का चलन कितना जायज है? कहीं तो दायरा सीमित हो।
कुछ खास बात और करनी है। फेसबुक में लोग वही अपलोड करते हैं जो बेहतर होता है जैसे बड़ी और महंगी कारों के साथ फोटो अपलोड करना न कि साइकिल के साथ। फेसबुक पर ही एक कमेन्ट पढ़ने को मिला था कि लोग अपनी फोटो को इस कदर साफ करा देते हैं कि असल जिन्दगी में पहचाने ही नहीं जाते। वास्तव में जीवन भौतिक सभ्यताओं से इस कदर घिर गया है कि वास्तविक जीवन मानो गहराई में बैठ गया हो। पूर्व राश्ट्रपति डाॅ. कलाम ने कहा था कि ‘हम अपनी संस्कृति में होने वाले नित नये परिवर्तनों से निरन्तर चुनौतियों का सामना करते आ रहे हैं और इसी प्रक्रिया में मानवता का विकास होता है।‘ अब सवाल यह है कि क्या सोषल मीडिया के माध्यम से मानवता के विकास का ध्रुवीकरण किया जा सकता है यदि हां तो कितना? दिन के कई घण्टे खपाने के बाद जो सम्पर्क और जुड़ाव का दायरा विकसित हो रहा है उसमें कितनी रचनात्मकता है और कितना मुनाफा छुपा है? समाज को समझने के दो दृश्टिकोण होते हैं एक उत्थान से तो एक उसकी गिरावट से। कितने यूजर्स ऐसे हैं जो सोषल मीडिया के विकार पक्ष से वाकिफ हैं? भारत में साइबर अपराध की मात्रा बढ़ती जा रही है और इंटरनेट सहित सोषल मीडिया का प्रयोग दिन-प्रतिदिन उफान पर है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या भारत में वर्श 2018 तक 55 करोड़ तक पहुंच सकती है जिसमें 30 करोड़ से अधिक षहरी हैं, गांव में भी यह वृद्धि प्रखर अवस्था लिए हुए है। भारत युवाओं का देष है 54 फीसदी युवा 35 बरस से कम आयु का है जो सर्वाधिक सोषल मीडिया का प्रयोग करता है। यह मीडिया इन दिनों भावनाओं की सुनामी का भी सामना कर रहा है। रोचक यह भी है कि सोषल साइट पर सबसे अधिक लोकप्रिय सीईओ भारत के प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।
सोषल मीडिया विषेशताओं से युक्त मानी जा सकती है जो अन्य पारम्परिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से एकदम अलग है मगर यह एक दुधारू तलवार की तरह भी है जो किसी भी मसले को आग की तरह फैलाने में भी मददगार है। ध्यानतव्य है कि बीते वर्श यह अफवाह फैली थी कि पूर्वोत्तर भारत के लोगों को षेश भारत में ही खतरा है जिसके चलते देष में काफी अफरा-तफरी का माहौल बन गया था। एक घटना मेरठ की है जिसमें एक किषोर ने ऐसी तस्वीर फेसबुक पर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तिजनक थी इसके एक घण्टे बाद ही लोग सड़कों पर उतर गये और मेरठ में दंगे के हालात बन गये। आये दिन यह भी षिकायत देखने को मिलती है कि सोषल मीडिया के माध्यम से लोगों की निजता पर प्रहार किया जा रहा है। भारत में सोषल मीडिया का जुनून लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा मन की भड़ास निकालने का यह एक मजबूत हथियार साबित हो रहा है पर अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तोड़ने वालों के लिए यह महंगा सौदा भी साबित हो सकता है। भले ही यह माध्यम कुछ मामलों में मारक और अचूक हो मगर इसकी प्रत्येक स्थिति को मुनासिब कहा जाना गैर वाजिब होगा। सोषल मीडिया को लेकर हर किसी का अपना नजरिया हो सकता है। सूचना क्रान्ति के इस दौर में साइबर नियन्त्रण के लिए केवल साइबर कानून है जिसे भारत की अवषिश्ट सूची में देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि नवयुग चल पड़ा है या नवयुवक इन नये माध्यमों को मुनासिब तरीके से अपना लिया है या फिर यह समय की दरकार है पर यह भी सही है कि सोषल मीडिया वैचारिक विभिन्नता वाले लोगों के लिए खतरे का सबब होने लगा है। यदि यह सूचनाओं का अम्बार लगा सकता है तो अपराधों को भी बढ़ा सकता है। ऐसे में सरकार और समाज दोनों को इस बारे में अपनी सीमायें खुद तय करनी होगी क्योंकि साइबर जगत में गोते लगाते समाज को कानून के बजाय सदाचार से काबू करना कहीं अधिक व्यवहारिक होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
सोषल मीडिया की वजह से ही लोगों में यह समझ आ गयी है कि उनकी आवाज़ में भी दम है। लोग भी इतने सक्षम हो गये हैं जितने पहले कभी नहीं थे अब वे सरकारों पर अपने विचारों का दबाव बना सकते हैं। राजनेता भी आॅनलाइन माध्यमों में छुपी सम्भावनों को समझने लगे हैं जो उनकी बात को जनता तक पहुंचाने की गति बढ़ाने वाले तंत्र के रूप में काम करते हैं। इस मीडिया ने राजनीति के क्षेत्र में खेल ही बदल कर रख दिया है। अमेरिका जैसे देषों में चुनाव अभियानों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ‘अबकी बार, मोदी सरकार‘ के नारे एक साल बाद भी लोग नहीं भूल पाये होंगे। यह नारा सोषल मीडिया के प्लेटफाॅर्म पर आग की तरह फैला था जिसकी आंच को विरोधी झेल नहीं पाये थे। जन सामान्य तक पहुंच होने के कारण लोगों तक विज्ञापन पहुंचाने में इसे सबसे अच्छा जरिया समझा जाता है। कुछ ही सालों में उद्योगों में इसी की वजह से क्रांति देखी जा रही है। सोषल मीडिया से प्रत्येक आयु और वर्ग के लोगों को लिप्त देखा जा सकता है। बीते कुछ सालों से ‘सेल्फी‘ का भी चलन हुआ है हालांकि यह कोई माध्यम तो नहीं है पर इसकी दीवानगी ने इसे ‘आॅक्सफोर्ड वर्ड आॅफ द इयर 2013‘ बना दिया। प्रधानमंत्री मोदी के दौर को सेल्फीमय कहा जाए तो गलत न होगा। वे जहां जाते हैं मिलने वालों के साथ सेल्फी जरूर लेते हैं। हाल ही में यूएई की यात्रा पर उन्होंने षेख जायद मस्जिद के बाहर सेल्फी ली। इन दिनों सेल्फी का जुनून दायरा लांघ रहा है। माॅल हो, बाजार हो, काॅलेज हो या पिकनिक स्पाॅट या फिर मन्दिर, मस्जिद या गुरूद्वारा हो यहां सेल्फी लेने की बात समझी जा सकती है पर अस्पतालों में, दाह संस्कार के स्थानों आदि पर सेल्फी लेने का चलन कितना जायज है? कहीं तो दायरा सीमित हो।
कुछ खास बात और करनी है। फेसबुक में लोग वही अपलोड करते हैं जो बेहतर होता है जैसे बड़ी और महंगी कारों के साथ फोटो अपलोड करना न कि साइकिल के साथ। फेसबुक पर ही एक कमेन्ट पढ़ने को मिला था कि लोग अपनी फोटो को इस कदर साफ करा देते हैं कि असल जिन्दगी में पहचाने ही नहीं जाते। वास्तव में जीवन भौतिक सभ्यताओं से इस कदर घिर गया है कि वास्तविक जीवन मानो गहराई में बैठ गया हो। पूर्व राश्ट्रपति डाॅ. कलाम ने कहा था कि ‘हम अपनी संस्कृति में होने वाले नित नये परिवर्तनों से निरन्तर चुनौतियों का सामना करते आ रहे हैं और इसी प्रक्रिया में मानवता का विकास होता है।‘ अब सवाल यह है कि क्या सोषल मीडिया के माध्यम से मानवता के विकास का ध्रुवीकरण किया जा सकता है यदि हां तो कितना? दिन के कई घण्टे खपाने के बाद जो सम्पर्क और जुड़ाव का दायरा विकसित हो रहा है उसमें कितनी रचनात्मकता है और कितना मुनाफा छुपा है? समाज को समझने के दो दृश्टिकोण होते हैं एक उत्थान से तो एक उसकी गिरावट से। कितने यूजर्स ऐसे हैं जो सोषल मीडिया के विकार पक्ष से वाकिफ हैं? भारत में साइबर अपराध की मात्रा बढ़ती जा रही है और इंटरनेट सहित सोषल मीडिया का प्रयोग दिन-प्रतिदिन उफान पर है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या भारत में वर्श 2018 तक 55 करोड़ तक पहुंच सकती है जिसमें 30 करोड़ से अधिक षहरी हैं, गांव में भी यह वृद्धि प्रखर अवस्था लिए हुए है। भारत युवाओं का देष है 54 फीसदी युवा 35 बरस से कम आयु का है जो सर्वाधिक सोषल मीडिया का प्रयोग करता है। यह मीडिया इन दिनों भावनाओं की सुनामी का भी सामना कर रहा है। रोचक यह भी है कि सोषल साइट पर सबसे अधिक लोकप्रिय सीईओ भारत के प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।
सोषल मीडिया विषेशताओं से युक्त मानी जा सकती है जो अन्य पारम्परिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से एकदम अलग है मगर यह एक दुधारू तलवार की तरह भी है जो किसी भी मसले को आग की तरह फैलाने में भी मददगार है। ध्यानतव्य है कि बीते वर्श यह अफवाह फैली थी कि पूर्वोत्तर भारत के लोगों को षेश भारत में ही खतरा है जिसके चलते देष में काफी अफरा-तफरी का माहौल बन गया था। एक घटना मेरठ की है जिसमें एक किषोर ने ऐसी तस्वीर फेसबुक पर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तिजनक थी इसके एक घण्टे बाद ही लोग सड़कों पर उतर गये और मेरठ में दंगे के हालात बन गये। आये दिन यह भी षिकायत देखने को मिलती है कि सोषल मीडिया के माध्यम से लोगों की निजता पर प्रहार किया जा रहा है। भारत में सोषल मीडिया का जुनून लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा मन की भड़ास निकालने का यह एक मजबूत हथियार साबित हो रहा है पर अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तोड़ने वालों के लिए यह महंगा सौदा भी साबित हो सकता है। भले ही यह माध्यम कुछ मामलों में मारक और अचूक हो मगर इसकी प्रत्येक स्थिति को मुनासिब कहा जाना गैर वाजिब होगा। सोषल मीडिया को लेकर हर किसी का अपना नजरिया हो सकता है। सूचना क्रान्ति के इस दौर में साइबर नियन्त्रण के लिए केवल साइबर कानून है जिसे भारत की अवषिश्ट सूची में देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि नवयुग चल पड़ा है या नवयुवक इन नये माध्यमों को मुनासिब तरीके से अपना लिया है या फिर यह समय की दरकार है पर यह भी सही है कि सोषल मीडिया वैचारिक विभिन्नता वाले लोगों के लिए खतरे का सबब होने लगा है। यदि यह सूचनाओं का अम्बार लगा सकता है तो अपराधों को भी बढ़ा सकता है। ऐसे में सरकार और समाज दोनों को इस बारे में अपनी सीमायें खुद तय करनी होगी क्योंकि साइबर जगत में गोते लगाते समाज को कानून के बजाय सदाचार से काबू करना कहीं अधिक व्यवहारिक होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
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