Monday, August 3, 2015

बैकफुट पर लोकतंत्र

इस बार के मानसून सत्र में अब तक जो हाल रहा है वह बेहद निराषाजनक और हताषा से भरा है। सत्र को दो सप्ताह बीत चुके हैं परन्तु गतिरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है। 65 वर्शों के लोकतंत्र में षायद ही कभी ऐसा रहा हो कि मान्यता प्राप्त विपक्ष न होने के बावजूद भी सरकार के नाक में दम हुआ हो। वैसे तो सभी विरोधी इकाई और दहाई तक सीमित है पर दहाड़ने के मामले में सैकड़ों का सुर रखते हैं। चैतरफा यह मांग उठने लगी है कि अड़चनों को दूर कर सत्र को कारगर बनायें मगर अभी तक इसका कोई फर्क देखने को नहीं मिला है। सोमवार को गतिरोध दूर करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी पर उसके ठीक एक दिन पहले रविवार को जो घमासान हुआ उससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह बैठक एक नाउम्मीदी से भरी एक कोषिष मात्र ही सिद्ध होगी। अब तो स्थिति खतरे के निषान से ऊपर उठ चुकी है। कांग्रेस और वामदल इस्तीफे वाले मामले पर अड़े हैं। सुशमा, षिवराज और वसुंधरा के इस्तीफे पर समझौता न करने वाली कांग्रेस ने हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री और उनके सांसद पुत्र अनुराग पर निषाना साध कर भ्रश्टाचार के मोर्चे पर सियासी जंग को और तेज कर दिया है। इससे यह स्पश्ट होता है कि लोकतंत्र को बैकफुट पर ले जाने की और बड़ी तैयारी हो रही है। फिलहाल जिस प्रकार देष की कार्यविधि संसदीय झगड़ों में उलझ कर रह गयी है उससे साफ है कि सरकार और विपक्ष दोनों से बड़ी भलाई की उम्मीद करना बेमानी है।
लोकतंत्र का इस प्रकार बैकफुट पर जाना देष को पीछे धकेलने जैसा है। संसद को हल्ले और हंगामे का केन्द्र बिन्दु बनाने वाले सीमायें लांघ रहे हैं। पीठासीन अधिकारियों की जम कर अवमानना की जा रही है और प्ले कार्ड लहराये जा रहे हैं। एक ओर गुरदासपुर में आतंकी हमला हो रहा है तो दूसरी ओर संसद में हंगामा काटा जा रहा है। देखा जाए तो निर्दोशों की गयी जान भी इन्हें एकजुट न कर पायी। बीते दिनों गृहमंत्री आतंकी हमले को लेकर संसद में बयान दे रहे थे और इसी दौरान नरेन्द्र मोदी हाय-हाय के नारे लग रहे थे। विडम्बना यह है कि आतंक के मामले में राजनीति न करने की दुहाई देने वाले राजनीतिज्ञ अपने ही वचनों को भूल गये हैं। घटनाक्रम ने लोकतंत्र को भी स्तब्ध कर दिया है और देष की जनता अपने नुमाइन्दों की करतब देख कर पानी-पानी हो रही है। यह दृष्य भारत तक ही सीमित नहीं है जो मोदी विष्व के चारों कोनों में भारत की ताकत का लोहा मनवाने का बूता रखते हैं अब उनका हश्र दुनिया भी देख रही है और ऐसा नजारा दिखाने वाले लोकतंत्र के पैरोकार ही हैं। सवाल उठता है कि राश्ट्र और नागरिक की सुरक्षा को लेकर किसे चिंता है? संसद इन दिनों लफ्बाजी का अखाड़ा बन गयी है, षोरगुल में डूबी रहती है। देष के मामले में दिलचस्पी नहीं लेती है। देष के हालात सुधारने का मानो अब संसद पैमाना ही न हो। विपक्षी सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के फेर में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। ठप संसद के चलते राश्ट्रीय हित चकनाचूर हो रहे हैं।
संसद के इस तरह बाधित होने से कई तुनक मिजाजी से भरे सवाल उठ रहे हैं। बीते दिनों केन्द्रीय मंत्री महेष षर्मा ने सुझाव दे डाला ‘काम नहीं तो वेतन नहीं‘ पर कांग्रेस का पलटवार हुआ। इस पर भी कांग्रेस की नजर तीखी ही रही। जयराम रमेष ने तो कह दिया कि हम काम कर रहे हैं। पूछा जाए कि कौन-सा काम कर रहे हैं? जवाब साफ है हंगामा मचा रहे हैं। सांसद कड़ी मेहनत के साथ काम कर रहे हैं इसका उत्तर भी साफ है सारी कूबत लोकतंत्र को बैकफुट पर ले जाने की हो रही है। सरकार एक ही भाशा जो पिछले कई दिनों से बोल रही है कि विपक्ष आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से बचे। संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडु ने इसे फिर दोहरा दिया पर इनसे भी पूछा जाए कि आरोपियों को बचाने में आप ने भी तो कोई कमी नहीं छोड़ी। सरकार की जिम्मेदारी सत्र की मरम्मत करके उसे पटरी पर लाना है पर तोड़फोड़ में तो सरकार भी षामिल है। नये आरोपों से घिरी भाजपा सरकार कांग्रेस के पुराने आरोपों को उखाड़ कर सुरक्षा कवच तलाष रही है। सच्चाई यह भी है कि सरकार के पास भी विपक्ष के प्रष्नों का उचित जवाब नहीं है न ही पक्ष यह मन्तव्य रखता है कि विपक्ष के सवाल वाजिब हैं। ऐसे में कौन कमतर हो और क्यों? आसानी से समझा जा सकता है। आखिर संसद में फैले अनबन को कब तक झेला जाएगा? देष कब तक हंगामे वाले तमाषे को देखता रहेगा?
मोदी से पहले मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में व्यापमं की तरह ही कई व्यापक घोटाले हुए थे। तब भाजपा ने विपक्षी के तौर पर कांग्रेस के नाक में दम कर दिया था। औसतन सत्र कमोबेष हंगामे से परिपूर्ण थे परन्तु जिस प्रकार के हंगामे से मानसून सत्र गुजर रहा है ऐसा विरोध तो नहीं था। मोदी सरकार की मुष्किल यह है कि विपक्ष में फूट के बावजूद कांग्रेस के बिना वह राज्यसभा में जीएसटी पारित नहीं करा सकती। सर्वदलीय बैठक भी रस्म अदायगी ही साबित हुई। ऐसे में मोदी सरकार के सम्मुख समस्या यह खड़ी हो रही है कि जनता के वायदों का क्या जवाब देंगे? मौजूदा सत्र में ऐसे कई कानूनों का निर्माण होना है जिसमें देष के भविश्य का गहरापन छुपा हुआ है। आर्थिक मामलों में यदि सही निपटारा नहीं हुआ तो अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ेगा जिसके चलते सरकार को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार ने घर और जीवन देने का जो वादा जनता से किया है उसका क्या होगा? देष की जनता सांसदों को वाद-प्रतिवाद के लिए नहीं बल्कि संवाद के लिए विधायिका में भेजती है। मगर गम्भीर चिंता यह है कि संवाद के स्थान पर विवाद सर चढ़ कर बोल रहा है। वैसे तो ऐसा कम ही रहा है कि विरोध के सुर इतने लम्बे खिंचे हों पर इसकी रोकथाम के लिए क्या विधान हो इसे लेकर संविधान भी कारगर होता प्रतीत नहीं होता। लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति का दायित्व है कि सत्र को चलायें पर जब चलने वाले ही ठप करने पर अमादा हों तो कैसे सम्भव होगा?
बीते सोमवार को संसद एक बार फिर चली पर ब्रेक और हो-हंगामे के साथ। राहुल और सोनिया की विरोध वाली राजनीति की लगाम में जरा भी ढीलापन नहीं आया। मनसूबा तो यह भी है कि हर हाल में सरकार को इस सत्र में इस्तीफे वाले भंवर जाल में फंसा कर रखो। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज बार-बार चीख रही हैं कि उन्होंने ललित मोदी की मदद नहीं की है। विपक्षी हैं कि अनसुना किये बैठे हैं। ललितगेट और व्यापमं दो ऐसे मुद्दे हैं जो साल भर में एक बार आने वाले मानसून सत्र की काल के ग्रास बन गये हैं। 23 दिवसीय यह सत्र जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देष की समस्याओं का समाधान खोजने वाली संसद आज स्वयं में एक समस्या बन कर रह गयी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



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