वह प्रक्रिया जो राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक स्वरूप देती है उसे लोकतांत्रिकरण कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र जनता द्वारा षासित व्यवस्था है पर क्या वर्तमान भारतीय लोकतंत्र इसी के इर्द-गिर्द है, कहने में थोड़ा संकोच हो रहा है। दरअसल भारत के लोकतंत्र के मामले में इन दिनों नये उप-विचारों का इस कदर उद्विकास हुआ कि प्रजातंत्र हाषिये पर और कमजोरतंत्र फलक पर है। बीते 21 जुलाई से मानसून सत्र जारी है। 23 दिनों तक चलने वाला यह सत्र रंजिषों से पटा है। कहा जाए तो यह राजनीतिक आजमाइष का मंच बना हुआ है, कूबत और कद की लड़ाई में मानसून सत्र पानी-पानी हो रहा है और राजनेता चुल्लू भर पानी की राजनीति में फंसे हैं। एक ओर व्यापमं से लेकर ललितगेट तक के मामले में जहां सत्ता पक्ष की बखिया उधेड़ी जा रही है वहीं सत्र की मानसूनी तरावट ने कांग्रेस जैसे कमजोर विपक्ष को मानो कोमा से बाहर आने का रास्ता बना दिया हो। प्रतिदिन संसद में नये कारनामे हो रहे हैं। विपक्षी संसद में उसी तरह जिद पर अड़े रहना चाहते हैं जैसे बरसों पहले यूपीए-2 के दौरान भाजपाई डटे थे हालांकि अतीत में झांके तो सत्ता और विपक्ष के बीच तनातनी तो देखने को मिलेगा मगर ऐसी अड़चने कभी नहीं रहीं। कहा जाता है कि एक रचनात्मक विपक्ष से भविश्य की सत्ता का निर्माण होता है पर यहां यह कहा जाना गैर वाजिब न होगा कि वर्तमान विपक्ष अपनी जमीन बनाने के चक्कर में संसद के जमीर के साथ खिलवाड़ कर रही है।
सड़क की सियासत विरोधियों को बहुत रास आती है। इन दिनों आहत संसद चिंघाड़ मार रही है पर उसकी आवाज को सभी ने अनसुना किया हुआ है। बीते दिनों जब स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस के 25 सांसदों को 5 दिन के लिए निलंबित किया तो यह सोच रही होगी कि इस कार्यवाही से कांग्रेस में कुछ सुधार तो आयेगा पर इसके उलट झगड़ा सड़क तक पहुंच गया। यहां कमजोर संसदीय प्रबंधन के लिए संसदीय कार्य मंत्रालय भी जिम्मेदार है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेष के मामले में सरकार की नरमी भी विपक्षियों को रास नहीं आई। दरअसल कांग्रेस इसलिए न मानने पर पूरा जोर दे रही है क्योंकि उसे अपने हित की चिंता अधिक है। मई 2014 में बनी मोदी सरकार से लेकर राज्यों के विधानसभा के चुनावों में जिस करारी षिकस्त का सामना कांग्रेस ने किया उससे कांग्रेस का मानो दम ही निकल गया था। सुप्ता अवस्था की कांग्रेस व्यापमं और ललितगेट के बहाने अब इस कदर ताण्डव पर उतरी है कि पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार भी बेचारगी के दौर से गुजर रही है। कितनी बार मान-मनव्वल की गई, सर्वदलीय बैठकें हुई, आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठने के तमाम परामर्ष आये पर विरोधी पसीजे नहीं। जिसका फलसफा यह है कि जो संसद देष की जनता के लिए अच्छे दिन लाने की कवायद में जुड़ी रहती थी आज स्वयं बुरे दौर से गुजर रही है।
कहा तो यह भी जाता है कि जब मुष्किलें बढ़ जाएं तो समझदारी को आगे कर देना चाहिए पर नई मुष्किल यह है कि समझदार होने के लिए कोई तैयार ही नहीं है। संसदीय मंत्रालय जिस कदर मामले को संभाल नहीं पा रहा है सवाल उठना लाजमी है। केन्द्रीय मंत्री महेष षर्मा ने बीते दिनों कहा था कि ‘काम नहीं तो वेतन नहीं‘ कांग्रेस ने इस पर भी पलटवार करते हुए कह डाला हम तो काम कर रहे हैं मगर झकझोरने वाला सवाल यह है कि कौन सा काम कर रहे हैं जाहिर है संसद की मुसीबत बड़ा रहे हैं, सड़क पर सियासत कर रहे हैं और पीठासीन अधिकारियों की मलानत कर रहे हैं। दुःखद यह भी है कि सब कुछ आषाओं के विपरीत हो रहा है। वर्श 1984 के 415 सीटों वाली कांग्रेस 2014 में मात्र 44 पर सिमट गयी। यहां यह कहावत भी सटीक है कि रस्सी जल गयी पर ऐंठन नहीं गयी। सत्ता पक्ष पूर्ण बहुमत में है पर निपुणता की जो कमी है उसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए। मानसून सत्र के 23 दिन में कोई भी दिन बहस के लिए सुरक्षित न कर पाने में सरकार भी विफल रही है। सवाल तो मोदी सरकार पर भी उठता है इनके आला अफसर क्या कर रहे हैं बेतरजीब तरीके से स्थिति इस कदर क्यों बिगड़ी इस पर भी सरकार को गौर करना चाहिए। हालांकि संसद के काम-काज में बाधा नई बात नहीं है लेकिन कमजोर विपक्ष का बड़ा हंगामा तो पहले कभी न था और जो भाशा का बिगड़ैलपन आया है वह भी कभी नहीं था। 23 दिन के मानसून सत्र में 30 विधेयक को मायूसी से उबारा जाना था पर ऐसा हो न सका।
अब नजारा यह है कि जो विपक्षी संसद में दहाई में होते थे अब वे इकाई में उपस्थित हैं वो भी षोर-षराबे के साथ। स्पीकर ने निलम्बित करके इन्हें सीख देने की कोषिष की थी पर कार्यवाही भी बेजा गयी। हालांकि निलंबन से जुड़ा मामला कोई नई घटना नहीं है इसके पहले वर्श 2012 से लेकर 2013 के बीच तेलंगाना के मसले पर चार बार निलंबन की कार्यवाही हो चुकी है। निलंबन संसद की गरिमा को प्रतिश्ठित करने का ही एक उपाय है जिसका उल्लेख नियम 374-ए में बाकायदा वर्णित है जिसका प्रयोग पहली बार कांग्रेस के कार्यकाल में ही स्पीकर मीरा कुमार द्वारा किया गया था। अब हाल यह है कि खार खाए विपक्षी सदन का वाॅकआउट करने पर तुले हैं और धरना दे रहे हैं। राहुल गांधी कहते हैं कि हमें बाहर फेंक दो हम नहीं डरेंगे। संसद परिसर में ही सोनिया की अगुवाई में सरकार के खिलाफ खूब नारे बाजी हो रही है। अब मामला गंधहीन और स्वादहीन दोनों हो गया है ऐसे में सुलह के आसार नहीं दिखाई देते। अड़चन वाली बात यह भी है कि सरकार के पास भी ठोस रणनीति का आभाव है जबकि बिना विपक्ष के कानून बनाने में सरकार दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। मामले को देखते हुए यह भी अनुमान है कि स्पीकर महोदया निलंबन को समय से पहले वापस ले सकती हैं। अच्छा होगा यदि इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले।
प्रधानमंत्री मोदी हमेषा कहते रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं देखा जाए तो संसद के ही बुरे दिन आ गये हैं। ऐसे में संसद भवन भी सुषासन की प्रतीक्षा में है। भारतीय राजनीति के सामने सुषासन की दिषा में चुनौतियों की भरमार है। गरीबी, निरक्षरता, नक्सलवाद, आतंकवाद सहित दर्जनों समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं बावजूद इसके पक्ष और विपक्ष का ध्यान इससे विमुख है। वास्तव में यह सरकार और विपक्ष के लिए यक्ष प्रष्न बन चुका है कि सामाजिक-आर्थिक नियोजन की कमजोर दषा के लिए उत्तरदायी कौन है? स्वतंत्रता के काल से जमीन पर खड़े लोगों के बैठने का इंतजाम कौन करेगा? लड़ाई सियासत की है तो सरे आम मत कीजिए, लोकतंत्र को कश्ट होगा और जग हंसायी भी होगी साथ ही जनता में अविष्वास पनपेगा। संसद निजीपन की षिकार नहीं होनी चाहिए, जाहिर है कि कांग्रेस के मात्र 44 सदस्य देष की गारंटी नहीं हो सकते पर यह तो स्पश्ट है कि मोदी सरकार की 300 से अधिक सदस्य देष की तस्वीर जरूर बदल सकते हैं। फिलहाल जरूरत पक्ष-विपक्ष दोनों की है देष को सीख देने वाले सियासतदान भटकाव से बचते हुए उन कृत्यों को अंगीकृत करें जहां से देष की भलाई की दरिया बहती हो।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
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