Wednesday, May 20, 2020

आसान नहीं आर्थिक त्रासदी से आर्थिक सुशासन की राह

विश्व  बैंक की हालिया रिपोर्ट यह बता चुकी है कि कोरोना वायरस के चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ने वाला है और आर्थिक वृद्धि दर में भी भारी गिरावट दर्ज होगी। मूडीज़ की रिपोर्ट ने भी भारत की वृद्धि अनुमान को घटाकर 0.2 फीसद कर दिया है। बीते मार्च में उसने यही 2.5 फीसद की उम्मीद जताई थी। हालांकि मूडीज 2021 में भारत की वृद्धि दर 6.2 प्रतिषत रहने की बात कह रहा है जो आर्थिक त्रासदी के इस दौर को देखते हुए बात पूरी तरह पचती नहीं है। मूडीज ने चीन की आर्थिक वृद्धि दर को भी एक प्रतिषत रहने की बात कही है। फिलहाल यह किसी से नहीं छुपा है कि कोरोना महामारी ने दुनिया समेत भारत की अर्थव्यवस्था को त्रासदी की ओर धकेल दिया है। एक ओर जहां कल-कारखाने से लेकर सभी प्रकार के कार्यों में व्यापक बंदी है वहीं सरकार को मिलने वाले आर्थिक लाभ मसलन जीएसटी व आयकर आदि भी हाषिये पर है। इतना ही नहीं लोकतंत्र की खूबियों से जकड़ी सरकार लोगों की स्वास्थ की रक्षा और जीवन के मोल को देखते हुए 20 लाख करोड़ रूपए का एक आर्थिक पैकेज का एलान कर चुकी है। हालांकि एक विषेशज्ञ के तौर पर इस आर्थिक पैकेज की पड़ताल से पता चलता है कि यह राहत से ज्यादा बिना आय वाला योजनागत व्यय का ब्यौरा है। देखा जाय तो  सरकार सारे इंतजाम कर रही है पर समस्या इतनी बड़ी है कि सब नाकाफी है। देष में 94 फीसदी गैर संगठित कामगार हैं जिनके हाथ इन दिनों पूरी तरह खाली हैं और लगातार उखड़ रही अर्थव्यवस्था के चलते उनकी राह में भूख और जीवन की समस्या भी स्थान घेर रही है। षहरों से मजदूर व्यापक पैमाने पर गांव की ओर हैं। बरसों बाद यह भी पता चला कि भारत वाकई में गांव का ही देष है और जब सभ्यता और षहर पर गाज गिरती है तब जीवन का रूख गांव की ओर ही होता है। सरकार के सामने दुविधायें एक नहीं अनेकों हैं पहला कोरोना से निपटना, दूसरा आर्थिक त्रासदी से मुक्ति, तीसरा ठप्प पड़ी व्यवस्था को सुचारू करना। इसमें कृशि, उद्योग व सेवा सम्बंधित सभी इकाईयां षामिल हैं। कहा जाय तो लोक विकास के लिए नीतियां बनाने वाली सरकारें आज कोरोना महामारी के चलते चैतरफा समस्याओं से घिरी हुई हैं। नागरिकों पर भी गरीबी की गाज लगातार गिर रही है। सवाल यह है कि आर्थिक त्रासदी से आर्थिक सुषासन की राह पर गाड़ी कब आयेगी। 
सुषासन एक ऐसा लोक सषक्तिकरण का उपकरण है जिसमें सबसे पहले आर्थिक न्याय ही आता है। यह एक ऐसी विधा है जहां षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनने का अवसर मिलता है। मानवाधिकार, भूख से मुक्ति और सहभागी विकास के साथ लोकतंत्र को ऊंचाई देना सुषासन की सीमाएं हैं। गौरतलब है कि 1991 के उदारीकरण के दौर में आर्थिक मापदण्ड नये सिरे से विकसित करने के प्रयास हुये थे। सरकार और षासन ने इस तब्दीली से जनता को जो लाभ दिया जिसे आज भी महसूस किया जा सकता है। इस महामारी ने मानो सृश्टि और पृथ्वी को पुर्नसंरचना में डाल दिया हो। ऐसे में सरकार को भी नई राह पर चलना अपरिहार्य होंगा। सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र और ई-सुविधा का दौर यदि उदारीकरण के पष्चात् आया तो इन महामारी के बाद एक नये भारत का खाका खींचने और सुषासन की राह पर ले चलने के लिए नये थिंक टैंक की आवष्यकता पड़ेगी। संयुक्त राश्ट्र ने हाल ही में वल्र्ड इकोनाॅमी सिचुयेषन एण्ड प्रोस्पेक्टस रिपोर्ट 2020 15 मई को जारी किया। रिपोर्ट से यह पता चलता है कि वैष्विक अर्थव्यवस्था 3.2 फीसद सिकुड़ जायेगी। विकसित देषों में जीडीपी की वृद्धि मौजूदा वर्श में घटकर -0.5 फीसद रह जायेगी। अगर इस रिपोर्ट को भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2018 में जहां विकास दर 6.8 कहा गया था, 2019 में 4.1 कही गयी थी जबकि 2020 में 1.2 कहा जा रहा है। बावजूद इसके 2021 में 5.5 की बात कहना मूडीज रिपोर्ट के इर्द-गिर्द प्रतीत होता है। दुविधा यह है कि राजकोश से विनियोजन की मात्रा बढ़ना और आय का जरिया सिकुड़ना यह कठिन स्थिति पैदा करेगा। भविश्य में राजकोशीय घाटे का होना तत्पष्चात् बजटीय घाटे का निष्चित तौर पर होना साथ ही लोगों के जीवन स्तर में गिरावट दिखेगी। सुषासन जिस आर्थिक न्याय की बात करता है उससे उपरोक्त बिन्दु से कोई वास्ता नहीं है। 
हालांकि सरकार ने नाबार्ड समेत कई अन्य एजेन्सियों के माध्यम से किसानों को सुविधा एमएसएमई की परिभाशा बदलने के साथ निवेष आदि के लिए नये फाॅर्मूले तय करना साथ ही उत्पादन के लगभग सभी क्षेत्रों में नये ढंग से नियोजन की बात करके आर्थिक त्रासदी से निकलने की बात सोच रही है। लगातार गांव में बढ़ती लोगों की आबादी काम की कमी का सीधा समीकरण बनाता है। 40 हजार करोड़ रूपए की अतिरिक्त व्यवस्था करके मनरेगा के माध्यम से सुचिता लाने का एक प्रयास तो यहां दिखता है मगर रोजगार सृजन के नये पहलू खोजना सरकार के लिए चुनौती रहेंगी। बेषक देष की सत्ता को पुराने डिजाइन से बाहर निकलना होगा लेकिन बाहर भूख और भीड़ है सभी को रोजगार और रोटी देना न पहले सम्भव था न अब दिखाई देता है। मोदी सरकार पर यह आरोप रहा है कि उसके कार्यकाल में बेरोज़गारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी थी और अब तो कोरोना महामारी ने कमर ही तोड़ दी है। प्रधानमंत्री न्यू इण्डिया की बात कह रहे हैं जबकि पुराना भारत इन दिनों सड़कों पर है जब तक कृशि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा प्यासा और षोशित महसूस करेगा तब तक देष सुषासन की राह पर होगा ही नहीं। यह गांधी के चिंतन का अंष है। विष्व बैंक ने 1989 की एक रिपोर्ट फ्राॅम स्टेट टू मार्केट प्रकाषित किया था। इसका सीधा तात्पर्य था कि राज्य को न्यून होना चाहिए और बाजार को अवसर देना चाहिए। आज स्थिति यह है कि बाजार भी न्यूनतम की ओर चले गये हैं। रोजगार छिन गये हैं, मानव संसाधन से षहर खाली हो गया है और आर्थिकी सबसे बड़े संकुचन की ओर है। लाॅकडाउन के कारण कई साईड इफेक्ट और डिफेक्ट देखने को मिल रहे हैं। जानकारों का तो यह भी कहना है कि कोरोना वायरस से अर्थव्यवस्था को मिली चुनौती एक-दो बरस में तो हल नहीं होगी। 
भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए भारत सरकार को सभी राज्यों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे। भारतीय रिज़र्व बैंक का आंकलन भी अर्थव्यवस्था की दुर्दषा ही बताता है। गौरतलब है कि 1930 की मन्दी के बाद यह सबसे बड़ी भयावह स्थिति है। मगर भारत के लिए यह एक ऐसा मौका भी है जो अपने घरेलू वस्तुओं को बाजार तक पहुंचा कर सही कीमत के साथ जीडीपी को कुछ बढ़त दे सकते है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकल से वोकल व ग्लोबल की बात कह रहे हैं। जाहिर है विष्व के बाजार भी उखड़े हैं ऐसे में भारत को आत्मनिर्भरता की राह लेनी ही पड़ेगी। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश भारत के हित में दिखाई देता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि गांवों के देष भारत अन्य देषों की तुलना में आत्मनिर्भर की सम्भावना अधिक रखता है। बस नियोजन और क्रियान्वयन दुरूस्त कर लिया जाय तो। आर्थिक सुषासन की गाड़ी अब स्थानीय उत्पादों पर कहीं अधिक टिकी दिखाई देती है। लाॅकडाउन के चलते भारत को 9 लाख करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ सकता है जो आर्थिक त्रासदी से कम नहीं है। पहले कोरोना से निपटना है या उसी के साथ आर्थिक सुषासन की राह को भी समतल बनाना अब सरकार की जिम्मेदारी है। जाहिर है षिथिलता जितनी देर रहेगी आर्थिक त्रासदी उतना ही विस्तार लेगी।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Saturday, May 16, 2020

आखिर मज़दूर को मज़बूर समझने की गलती क्यों !

मजदूरों की गांव वापसी की होड़ और सड़क पर मचा मौत का तांडव संवेदनाओं को इन दिनों झकजोर कर रख दिया है। सैकड़ों हजारों मील की यात्रा बूढ़े से लेकर बच्चे एवं महिलाओं का जो हुजूम सड़कों पर इन दिनों पैदल जाने का दिख रहा है वह लोकतंत्र की मर्यादा में निहित सरकारों के लिए न केवल चुनौती है बल्कि उनके काम-काज पर भी सवालिया निषान लगाता है। जिस प्रकार सड़कों पर हादसों की तादाद बढ़ी है और मौत के आंकड़े गगनचुम्बी हो रहे हैं वो किसी भी सभ्य समाज को हिला सकते हैं। हादसे यह इषारा करते हैं कि कोरोना वायरस से भी बड़ी समस्या इन दिनों मजदूरों की घर वापसी है। लाॅकडाउन के कारण करोड़ों की तादाद में लोग बेरोज़गार हो गये। 50 दिनों के इस लाॅकडाउन में भूख और प्यास में भी इजाफा हो गया। सरकारी संस्था हो या गैर सरकारी सभी को इस वायरस ने हाषिये पर खड़ा कर दिया है। कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं आज भी सेवा में अपनी तत्परता दिखा रही हैं मगर वो भी असीमित संसाधन से युक्त नहीं है। सवाल यह है कि क्या लाॅकडाउन से पहले सरकार इस बात का अंदाजा नहीं लगा पायी कि जो दिहाड़ी मजदूर या कल-कारखानों में छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, रिक्षा, आॅटो, टैक्सी चलाते हैं, घरों में झाड़ू-पोछा का काम करते हैं, दफ्तरों में आउटसोर्सिंग के तौर पर सेवाएं देते हैं इतना ही नहीं मूंगफली बेचने से लेकर चप्पल-जूते बनाने वाले मोची सहित करोड़ों कामगार का जब काम तमाम होगा तो उनका रूख क्या होगा। 25 मार्च से लागू लाॅकडाउन के तीसरे दिन ही दिल्ली में घर जाने की जो लाखों का जो जमावड़ा दिखा वह इस बात को तस्तीक करती है।
कोरोना का मीटर रोजाना की गति से बढ़ने लगा लेकिन समस्या कहीं और भी बढ़ रही थी वह थी बेरोजगार हो चुके कामगारों के लिए ठिकाना और भूख जिसने इन्हें जीवन से दर-बदर कर दिया। सिलसिला पहले बहुत मामूली था पर इन दिनों बाढ़ ले चुका है। पूरे देष से चैतरफा घर वापसी के कदम-ताल देखे जा सकते हैं और पूरे देष में मौत के हादसे भी आंकड़ाबद्ध हो रहे हैं और अब तो दिन भर में कई हादसे देखे जा सकते हैं। 16 मई के एक आंकड़े का उदाहरण दें तो उत्तर प्रदेष के औरेय्या में 24 मजदूर काल के ग्रास में चले गये। ये हरियाणा और राजस्थान से अपने गांव जा रहे थे। जिसमें ज्यादातर मजदूर पष्चिम बंगाल, झारखण्ड और बिहार के थे।  ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये कोरोना का डर लोगों में बढ़ता गया और लोग पूरी तरह घरों में कैद हो गये पर यह बात मानो मजदूरों पर लागू ही नहीं होती। जाहिर है भूख और प्यास क्या न करवा दे। अपने ही बच्चों और परिवार के सदस्यों की भूख से बिलबिलाहट आखिर कौन देख सकता है। ऐसे में जब उम्मीदों में षहर खरा नहीं उतरता है तो गांव की याद आना लाज़मी है और मजदूरों ने यही किया। भले ही उन्हें हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी पड़ रही है पर उनके मन में गांव जाने का सुकून किसी-न-किसी कोने में तो है। लोकतंत्र में कहा जाता है कि सरकारें जनता के दर्द को अपना बना लेती हैं। लेकिन यहां स्पश्ट रूप से दिख रहा है कि सरकारें इनके दर्द से मानो कट गयी हों। वैसे अनुभव भी यही कहते हैं कि दुःख-दर्द में गांव और जब कहीं से कुछ न हो तो भी गांव ही षरण देता है। इतनी छोटी सी बात समझने में षासन-प्रषासन ने कैसे त्रुटि कर दी। रेल मंत्रालय का आंकड़ा है कि 10 लाख लोगों को उनके घर वापस पहुंचाने का काम किया है। हो सकता है कि यह आंकड़ा अब बढ़ गया हो पर यह नाकाफी है। उत्तर प्रदेष सहित कुछ राज्य सरकारों ने मजदूरों और विद्यार्थियों समेत कुछ फसे लोगों को बस द्वारा वापसी करायी है यह एक अच्छी पहल थी पर इसे समय से पहले कर लिया जाता तो निर्णय और चोखा कहलाता। 
पैदल अपने-अपने गांव पहुंचने का क्या आंकड़ा है इसकी जानकारी सरकार को है या नहीं कहना मुष्किल है। एक नकारात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मजदूरों की लगातार वापसी पूरे भारत में कोरोना मीटर को गति दे दिया है। गौरतलब है कि इन दिनों अर्थव्यवस्था ठप्प है। 12 मई से कुछ रेले चलाई गयी हैं धीरे-धीरे सम्भावनाएं और क्षेत्रों में खोजी जा रही हैं। लाॅकड़ाउन का चरण भले ही ढ़िलाई के साथ रहे पर कोरोना से मुक्ति कब मिलेगी किसी को नहीं पता। समाधान कितना और कहां कह पाना कठिन है जबकि अभी तो समस्या ही उफान पर है। महामारी के नाम पर करोड़ों मजदूरों की जिन्दगियों में जोखिम आया मध्यम वर्ग भी आर्थिक चोट से लहुलुहान है। श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर भी इन दिनों चर्चा आम है। सरकार ने 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज घोशित करके सभी को राहत देने का काम कर रही है पर तात्कालिक परिस्थितियों में यह पैकेज कितना खरा उतरेगा यह अभी षोध का विशय है। आर्थिक पैकेज पारखी नजर यह बताती है कि सरकार अभी भी दिल खोलकर नहीं दे रही है। हालांकि देने के लिए बड़ा दिल दिखा रही है। देष में खाद्य की कोई समस्या नहीं है ऐसा खाद्य मंत्री की तरफ से बयान है। 5 किलो राषन दिया गया। अब यह कितना भरपाई किया यह भी पड़ताल का विशय है। सवाल है कि जब खाद्य वितरण में सुचिता है तो मजदूरों ने घर वापसी का मन क्यों बनाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्याह कागज पर गुलाबी अक्षर लिखकर कहानी कुछ और बतायी जा रही है। राम विलास पासवान ने यह बात स्वीकार किया है कि कितने मजदूर गरीब है यह पता लगाना मुष्किल है ऐसे में 5 किलो राषन को मुफ्त देने की घोशणा में देरी स्वाभाविक है। 
प्रदेष की सरकारों ने सुषासन का जिम्मा तो खूब उठाया मगर मजदूरों के काम यह भी पूरी तरह नहीं आयी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार को सुषासन बाबू के रूप में माना जाता है पर वे अपने ही प्रदेष के निवासियों को वापस लेने से बहुत दिनों तक कतराते रहे। उन्हें डर था कि बिहार में उनके आने से कोरोना फैल जायेगा। केन्द्र सरकार ने कई आर्थिक कदम उठाई है जाहिर है सबको राहत पूरी तरह नहीं मिलेगी परन्तु सरकार के इरादे को भी पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ईएमआई की भरपाई में तीन महीने की छूट सम्भव है कि यह और आगे बढ़ेगा से लेकर रिटर्न दाखिल करने तक पर कई कदम पहले ही उठाये जा चुके है और अब एक मिनी बजट के माध्यम से सरकार दरियादिली दिखा रही है। किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग से लेकर रेहड़ी और पटरी वाले इनकी सौगात की जद्द में हैं मगर लाभ कितना होगा यह समय ही बतायेगा। फिलहाल इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि मजदूर भी मोदी सरकार को 300 के पार ले जाने में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी ली है। वह केवल एक मतदाता नहीं है बल्कि देष के इज्जतदार नागरिक हैं। एक-एक मजदूर की समस्या देष की समस्या है। सरकार को इस पर अपनी आंखें पूरी तरह खोलनी चाहिए। हो सकता है कि इस कठिन दौर में सरकार के सारे इंतजाम कम पड़ रहे हों बावजूद इसके जिम्मेदारी तो उन्हीं की है। गौरतलब है कि आगामी दिनों में जब कल-कारखाने खुलेंगे, सड़कों पर वाहन दौड़ेगें, विमान भी हवा में उड़ान लेंगे तो इन्हीं कामगारों की कमी के चलते कठिनाईयां भी बादस्तूर दिखाई देंगी। गांव जाने वाले मजदूर षहर का अब रूख कब करेंगे कहना मुष्किल है। स्थिति यह भी बताती है कि सरकार पर उनका भरोसा भी कमजोर हुआ है जिसकी कीमत सरकारों को चुकानी पड़ेगी। फिलहाल कोरोना से निपटना प्राथमिकता है परन्तु देष के नागरिकों के साथ हो रहे हादसों पर भी लगाम और उनके घर पहुंचने का इंतजाम भी जरूरी है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, March 16, 2020

अर्थव्यवस्था की भी सांस उखड़ता कोविड-19

चीन के हुबेई प्रान्त से कोरोना का उठा बवंडर अन्तर्राश्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भी बाकायदा चपेट में ले लिया है। एक ओर जहां दुनिया में इसके विकराल रूप के चलते संक्रमित लोगों की संख्या डेढ़ लाख से ऊपर पहुंच गयी है वहीं मरने वालों का भी आंकड़ा 6 हजार पार कर चुका है। चीन से निकला यह वायरस सबसे ज्यादा चीन में ही तबाही मचाई। अब इसकी जद्द में दुनिया के 150 से अधिक देष हैं जिसमें भारत बीते कुछ दिनों से तेजी से प्रभावित हो रहा है। हालांकि भारत की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उसने समय रहते कई प्रकार के कदम उठाये नतीजन पड़ोसी चीन की यह बीमारी भारत को उस तरह प्रभावित नहीं कर पायी जैसा कि इन दिनों यूरोप और अमेरिका प्रभावित है। कोरोना वायरस का असर भारतीय बाजार पर किस तरह पड़ेगा सवाल छोटा है पर इसके जवाब पूरी तरह मिल पाना अभी मुष्किल है। मगर अनुमान के आसपास पहुंचा जा सकता है। भारत अभी नागरिकों को बचाने के लिए हर वो कदम उठा रहा है जो कहीं अधिक जरूरी है चाहे भले ही व्यापक आर्थिक नुकसान क्यों न हो रहा हो। संयुक्त राश्ट्र की कांफ्रेंस आॅन ट्रेड एण्ड डवलेपमेंट की खबर है कि कोरोना वायरस से प्रभावित दुनिया की 15 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत भी है। चीन में उत्पादन में आयी कमी का असर भारत पर साफ-साफ देखा जा सकता है और अंदाजा है कि भारत की अर्थव्यवस्था को लगभग 35 करोड़ डाॅलर तक का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यूरोप के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने भी साल 2020-21 में भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की गति 1.1 प्रतिषत घटने का संकेत दिया है। साथ ही यह भी अनुमान लगाया है कि विकास दर 5.1 प्रतिषत रहेगी जबकि पहले यह अनुमान था कि यह आंकड़ा 6.2 फीसद रहेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना वायरस की विस्तार ले चुकी यात्रा दुनिया की जान और माल को हिला कर रख दिया है। 
भारत सरकार ने आगामी 15 अप्रैल तक के लिए सभी देषों के वीजा रद्द कर दिये हैं। गौरतलब है कि इससे पर्यटन उद्योग चरमरा जायेगा। इस क्षेत्र से 2 लाख करोड़ से अधिक की कमाई प्रति वर्श होती है। जिस पर नुकसान साफ-साफ दिख रहा है। इंटरनेषनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएषन का अनुमान है कि विमानन उद्योग को यात्रियों से होने वाले कारोबार में कम से कम 63 अरब डाॅलर का नुकसान हो सकता है। इसमें माल ढ़ुलाई के व्यापार को हाने वाला नुकसान षामिल नहीं है। आॅटोमोबाइल उद्योग पर भी इसका खतरा बाकायदा देखा जा सकता है। भारत में इस क्षेत्र में लगभग पौने चार करोड़ लोग काम करते हैं। आॅटो उद्योग में पहले से ही सुस्ती देखी गयी है। चीन में आयी मन्दी के प्रभाव से इस उद्योग की रीढ़ पहले से और कमजोर हो गयी। गौरतलब है कि कोरोना वायरस ने भारत के आॅटो उद्योग को भी कल-पुर्जों की किल्लत पैदा कर दी। यहां बेरोज़गारी का खतरा तुलनात्मक बढ़ गया है। विष्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया चेतावनी को देखें जिसमें कहा गया है कि अन्टार्कटिका को छोड़ दिया जाये तो यह वायरस सभी महाद्वीपों में फैल चुका है। इसके भयावह स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 6 करोड़ की आबादी वाली इटली में मरने वालों की तादाद रिकाॅर्ड तोड़ रही है। 24 घण्टे में यहां 368 लोग के मरने की सूचना है जबकि पहले यह रिकाॅर्ड इतने ही समय में 250 का था और वो भी इटली का ही। इतनी तेजी से मौत तो चीन में भी नहीं हुई। भारत में यह संक्रमित होने वालों का आंकड़ा बामुष्किल सौ के पार है। जाहिर है सरकार की चेतना और जागरूकता और जनता के इसमें पूरी तरह साथ देने के चलते कोरोना वायरस से पीड़ितों की संख्या भयावह होने से रोका जा सकता है। इस वायरस ने षेयर मार्केट में भी बड़ी चिन्ता पैदा की है यहां एक दिन के भीतर 11 लाख करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है। जो 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे बुरा दौर कहा जायेगा। 
वैष्विक स्तर पर चीन एक तिहाई औद्योगिक विनिर्माण करता है और यह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। वायरस के चलते अर्थव्यवस्था की सांस उखड़ रही है। जिसके चलते अमेरिका और चीन में रफ्तार सुस्त हुई है। इस सुस्ती से भारत भी अछूता नहीं है। जीएसटी काउंसिल की बीते 14 मार्च की हुई बैठक में कोरोना वायरस महामारी की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव को लेकर चर्चा की गयी। वित्त मंत्री ने कहा है कि इस वायरस के अर्थव्यवस्था पर प्रभाव का आंकलन करने का प्रयास कर रहे हैं। कोरोना वायरस महामारी और वैष्विक अर्थव्यवस्था पर बड़ी मार है। हवाई यात्रा, षेयर बाजार, वैष्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं सहित लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। यह समस्या न केवल आपूर्ति श्रृंखला को प्रभावित करेगी बल्कि भारत के फार्मासिस्टिकल, इलैक्ट्राॅनिकल, आॅटोमोबाइल उद्योग को भी चपेट में बाकायदा ले सकती है। वैष्विक मन्दी की स्थिति में गिरावट आने से निवेष में भी गिरावट सम्भव है। इससे विदेषी मुद्रा पर भी प्रभाव पड़ेगा। हालांकि कुछ सकारात्मक पहलू पर भी नजर डालें तो भारतीय कम्पनियां चीन आधारित वैष्विक आपूर्ति श्रृंखला में षामिल प्रमुख भागीदार नहीं है। फलस्वरूप भारतीय कम्पनी इससे अधिक प्रभावित नहीं होगी। इन दिनों कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट दर्ज हो रही है जिससे भारत सरकार का मुनाफा दर बढ़ेगा। गौरतलब है कि कच्चा तेल सस्ते होने के बावजूद सरकार ने बहुत मामूली अन्तर के साथ बिकवाली कर रही है। इसका सीधा फायदा सरकार के खजाने को होगा। हालंाकि जीएसटी की प्राप्ति दर तुलनात्मक गिर सकती है। 
कोविड-19 के फैलने की चिन्ता आरबीआई की भी है। उसकी सलाह है कि अर्थव्यवस्था पर इस संक्रामक बीमारी के प्रसार के आर्थिक प्रभावों से निपटने के लिए आकस्मिक योजना तैयार रखी जानी चाहिए। आरबीआई भी मानता है कि दुनिया के विभिन्न देषों तक इसके फैलने का वैष्विक पर्यटन और व्यापार पर प्रभाव पड़ेगा। गौरतलब है कि अमेरिका, ईरान के तनाव के चलते जनवरी के षुरूआत में कच्चे तेल और सोने के दाम चढ़ गये थे और अब कोरोना वायरस के चलते इनमें गिरावट आयी है। जबकि स्वास्थ्य की चिन्ता में इंसान और बाजार दोनों को बचाने का संघर्श जारी है। कोरोना वायरस का वैष्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 2003 में फैले सार्स के मुकाबले अधिक है। सार्स के समय चीन छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देष था और उसका वैष्विक जीडीपी में योगदान 4.2 प्रतिषत था जबकि कोरोना के समय में वह दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और वैष्विक जीडीपी में 16.3 का योगदान रखता है। ऐसे में यह वायरस केवल नरमी वाला झटका नहीं देगा बल्कि व्यापक प्रभाव छोड़ेगा। जिसके चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था की सांस उखड़ेगी। अनुमान है कि वैष्विक जीडीपी में पहली तिमाही में 0.8 फीसद और दूसरी में 0.5 फीसद की कमी आयेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि इस वायरस से दुनिया सहित भारत की अर्थव्यवस्था की सांस उखड़ेगी। भारत तो पहले ही आर्थिक मन्दी में फंसा था अब हालात और खराब हो सकते हैं। वैष्विक अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस का प्रभाव 2.7 ट्रिलियन डाॅलर का माना जा रहा है जो भारत की कुल अर्थव्यवस्था के बराबर है। गौरतलब है कि अमेरिका 19 ट्रिलियन डाॅलर और चीन 13 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था वाला देष है। दवाईयों की खपत और वाहनों की बिक्री में कटौती तथा पर्यटन से लेकर होटल उद्योग आदि सभी इसकी चपेट में रहेंगे। भारत में कोरोना के साथ-साथ अपनी आर्थिक स्थितियों से भी निपटना है। गिरी हुई विकास दर को थामना भी है और अन्तर्राश्ट्रीय बाजार से मुकाबला भी करना है। जैसा कि कहा जा रहा है कि चीन का विकास दर एक फीसदी गिर सकता है। इसका मतलब है 136 अरब डाॅलर के नुकसान में चीन रहेगा और जैसा कि स्पश्ट है कि 35 करोड़ डाॅलर के नुकसान में भारत भी आ सकता है। ऐसे में कोविड-19 षीघ्र समाप्त करना जरूरी है इसी में जनमानस से लेकर अर्थव्यवस्था की भलाई है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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संसद भवन में भी हो सुशासन

वह प्रक्रिया जो राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक स्वरूप देती है उसे लोकतांत्रिकरण कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र जनता द्वारा षासित व्यवस्था है पर क्या वर्तमान भारतीय लोकतंत्र इसी के इर्द-गिर्द है, कहने में थोड़ा संकोच हो रहा है। दरअसल भारत के लोकतंत्र के मामले में इन दिनों नये उप-विचारों का इस कदर उद्विकास हुआ कि प्रजातंत्र हाषिये पर और कमजोरतंत्र फलक पर है। लोकतंत्र की धारा जनता के हितों से पोशित होती है मगर यदि लोकतंत्र के भीतर भेदभाव की लकीरें खींची जायेंगी तो संकट देष पर ही आयेगा। 31 जनवरी से षुरू बजट सत्र का दूसरा पक्ष बीते 2 मार्च से जारी है पर काम कितना हो रहा है यह पड़ताल का विशय है। कहा जाये तो संसद राजनीतिक आजमाइष का मंच बना हुआ है। कूबत और कद की लड़ाई में बजट सत्र भी मानो आर्थिक मन्दी से जूझ रहा है। बजट सत्र के दरमियान ही दिल्ली में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया दर्जनों मौत के घाट उतारे गये अब उस पर सियासत जारी है। इसी कड़ी में सरकार ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए बीते 11 मार्च को लोकसभा में गृहमंत्री ने दिल्ली घटना को सुनियोजित साजिष करार दिया। साथ ही विपक्ष की भी लानत-मलानत की गयी। दुविधा यह है कि सरकार चलाने वाले जब चाबुक अपने हाथ में रखे हुए है तो गलतियां विरोधी कैसे कर रहे हैं। फिलहाल सड़क की सियासत किसे रास आ रही है यह कहना मुष्किल है पर इन दिनों संसद से जो उम्मीद जनता लगाकर बैठी है वह अपेक्षा के अनुरूप खरी उतरेगी या नहीं, यह तीन अप्रैल सत्र की समाप्ति तक पता चलेगा। 
बीते 6 सालों की पड़ताल करके देखें तो सत्र में हंगामे का इतिहास बाकायदा पसरा हुआ मिल जायेगा। इसके पीछे केवल विरोधी ही नहीं बल्कि सरकार भी जिम्मेदार रही है। सरकार का पक्ष मामले को तूल देने के बजाये समाधान का होना चाहिए जो कम ही दिखाई देता है। दुर्भाग्य यह है कि सरकार भी आरोप लगाने में ही सारी कूबत झोंक देती है और प्रचण्ड बहुमत के चलते कुछ हद तक बड़बोलेपन की षिकार भी है। मसलन जब नागरिकता संषोधन विधेयक संसद में 9 दिसम्बर को अधिनियमित हो रहा था तब विपक्ष के एक सांसद ने सवाल उठाया कि इसके बाद आप एनआरसी लायेंगे तब गृहमंत्री अमित षाह ने बड़े मिजाज से कहा था कि वो तो हमारा एजेण्डा है ही। जबकि एनआरसी तो छोड़िए सीएए के चलते इतना विरोध हुआ कि सरकार बैकफुट पर गयी और प्रधानमंत्री को 22 दिसम्बर को कहना पड़ा कि एनआरसी लागू करने का अभी कोई विचार नहीं है। षाहीन बाग से लेकर कई स्थानों पर सीएए के विरोधी देखे गये। बजट सत्र के दौरान भी यही सब कुछ चलता रहा और यह मामला अभी भी थमा नहीं है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में सियासतदानों ने वोट की खातिर नफरत की लहलहाती फसले भी तैयार की। इतना ही नहीं दामन बचाने की होड़ में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरी उभारने में लगे रहते हैं और करदाताओं का पैसा सत्र के दौरान बेहिसाब बहा दिया जाता है। करीब डेढ़ करोड़ रूपया संसद की एक घण्टे की कार्यवाही में खर्च हो जाता है और बारीकी से देखा जाये तो ढ़ाई लाख खपाने पर एक मिनट की संसद चलती है। हालत यह है कि वर्श भर चलने वाली 3 सत्रों में विभाजित संसद का काफी कीमती वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। जबकि टैक्स देने वाले अपने प्रतिनिधि से उम्मीद लगाकर बैठे होते हैं कि लोकतंत्र की संस्था में जाकर वे उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे।
कामकाज के लिहाज से देखा जाय तो पहली लोकसभा (1952 से 1957) में 677 बैठकें हुई थी। 5वीं लोकसभा (1971 से 1977) में 613 जबकि 10वीं लोकसभा (1991 से 1996 ) में यह औसत 423 का था। मोदी षासनकाल से पहले 15वीं लोकसभा (2009 से 2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। 16वीं लोकसभा की पड़ताल ये बताती है कि यहां बैठकों की कुल अवधि 1615 घण्टे रही लेकिन अतीत की कई लोकसभा के मुकाबले यह घण्टे काफी कम नजर आते हैं। एक दल के बहुमत वाली अन्य सरकारों के कार्यकाल के दौरान सदन में औसत 2689 घण्टे काम में बिताये हैं लेकिन यहां बताना लाज़मी है कि काम इन घण्टों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि 16वीं लोकसभा में किस तरह काम किया, किस तरह के कानून बनाये, संसदीय लोकतंत्र में कैसी भूमिका थी, क्या सक्रियता रही और लोकतंत्र के प्रति सरकार का क्या नजरिया रहा इन सवालों पर यदि ठीके से रोषनी डाली जाये तो काम के साथ निराषा भी नजर आती है। लोकसभा के उपलब्ध आंकड़े यह बताते हैं कि मोदी षासन के पहले कार्यकाल के दौरान लोकसभा में कुल 135 विधेयक मंजूर कराये गये। जिसमें कईयों को राज्यसभा में मंजूरी नहीं मिली। हालांकि जीएसटी, तीन तलाक और सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण समेत कई फलक वाले कानून इसी कार्यकाल की देन है। अब 17वीं लोकसभा का दौर जारी है। रिपोर्ट 2024 में मिलेगा। यह दौर आर्थिक मन्दी का है साथ ही बेरोजगारी भी सारे रिकाॅर्ड तोड़ चुकी है। 1 फरवरी को पेष किये गये बजट अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण बजट माना जाता है। विकास दर धूल चाट रही है और समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। सबके बावजूद सियासी गुणा-भाग की चिंता से सरकार उबर नहीं पा रही है। मिला-जुलाकर देखा जाय तो संसद में जहां आरोपों की झड़ी लगती है वहीं भावनात्मक स्थितियां उभार कर जनता के मानसपटल को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया जाता है। जबकि हकीकत में सरकार माई-बाप होती है उसे हर मिनट का हिसाब जनता के हित में खर्च करना चाहिए। 
प्रधानमंत्री मोदी कहते रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं पर संसद के बुरे दिन न आये इसकी भी चिंता करने का वक्त आ गया है। संसद भवन में भी सुषासन हो, सुचिता हो और गरीबी, निरक्षरता, षिक्षा और चिकित्सा सहित बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति वाली गूंज उठे इसकी फिक्र पक्ष हो या विपक्ष सभी को होनी चाहिए। वास्तव में यह सरकार और विपक्ष के लिए यक्ष प्रष्न बन चुका है कि सामाजिक-आर्थिक नियोजन की कमजोर दषा के लिए उत्तरदायी कौन है। लड़ाई सियासत की है पर सरेआम मत कीजिए। लोकतंत्र को कश्ट होता है और जनता में अविष्वास पनपता है। संसद निजीपन की षिकार नहीं होनी चाहिए। 16वीं लोकसभा में कांग्रेस 44 पर थी और अब 52 में सिमट कर रह गयी है जबकि मौजूदा सरकार पहले भी गठबंधन समेत 300 के पार थी और अब तो भाजपा अकेले ही इस आंकड़े को छुआ है जाहिर है ताकत के साथ और मजबूती आयी  है। फिलहाल संसद को पक्ष और विपक्ष दोनों चाहिए। देष को सीख देने वाले सियासतदान भटकाव से बचते हुए उन कृत्यों को अंगीकृत करें जहां से देष की भलाई की गंगा बहती हो न कि भ्रम। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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सुशासन के लिए ज़रूरी है नवाचार व शोध

बड़ा सच यह है कि विकास और षोध का गहरा सम्बंध है। जाहिर है षोध है तो विकास सम्भव है। ऐसे में एक गहरी सोच यह है कि बेहतर षोध विकास को स्वयं वजूद में ला सकता है। गौरतलब है कि ज्ञान को विकास के संदर्भ में प्रासंगिक बनाना मौजूदा समय में कहीं अधिक जरूरी हो गया है। षोध के चलते ही सतत् व समावेषी विकास के साथ सामाजिक-आर्थिक भलाई को हासिल किया जा सकता है जो सुषासन की परिभाशा को सबल बनाते हैं। षोध और वैज्ञानिक वातावरण को बढ़ावा देने के साथ नवाचार और स्टार्टअप परियोजनाओं पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी साल 2019 में जालंधर में आयोजित 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन अवसर पर एक विष्वविद्यालय में ऐसी कई बातें कहीं थी जिसका षिक्षा, षोध और ज्ञान से गहरा नाता है। किसानों का विकास, स्वास्थ सुविधाएं, पर्यावरण, पेयजल, ऊर्जा, कृशि उत्पादकता, खाद्य प्रसंस्करण, षिक्षा सहित सभी बुनियादी विकास षोध के माध्यम से अव्वल हो सकते हैं। भारत में अब षोध का माहौल तेजी से उभरता हुआ दिख रहा है। भौतिक और अंतरिक्ष विज्ञान में षोध दुनिया में चमकदार हुआ है मगर अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देषों से भारत को अभी चुनौती मिल रही है। हालांकि साल 2013 में वैज्ञानिक षोध के मामले में भारत 9वें स्थान पर था तब यह तय किया गया था कि 2020 तक लक्ष्य 5वें स्थान का रहेगा जिसे तय समय से एक वर्श पहले ही हासिल कर लिया गया। अब सरकार ने 2030 तक इस क्षेत्र में तीसरे स्थान पर पहुंचने का लक्ष्य सुनिष्चित किया है। विज्ञान से जुड़े षोध में भारत ने दुनिया के कई बड़े देषों मसलन जापान, फ्रांस, इटली, कनाडा और आॅस्ट्रेलिया जैसे देषों को पीछे छोड़ा मगर बरसों से उच्च षिक्षा में षोध और नवाचार को लेकर चिंता रही है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मामले में न केवल खानापूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि देष भर में सभी प्रारूपों में विष्वविद्यालयों की संख्या 800 से अधिक है मगर सैकड़ों विष्वविद्यालयों ने इनोवेषन काउंसिल गठित करने के सरकार की पहल को आगे बढ़ाने में साथ अभी भी नहीं दिया है।
रिसर्च एण्ड डवलेपमेंट (आरएण्डडी) पर सबसे ज्यादा धन अमेरिका खर्च करता है उसके बाद चीन दूसरे नम्बर पर है जबकि तीसरे पर जापान और चैथे पर जर्मनी आता है। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि जिस देष ने षोध पर जितना ज्यादा धन खर्च किया वह विकास के मामले में उतने ही बड़े पायदान पर होता है। भारत में संसाधनों के साथ जागरूकता की कमी प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। विदेष की तुलना में यहां षोध व अनुसंधान कम किये जाते हैं। हालांकि बीते कुछ वर्शों से स्थिति बदली है और षोध पर सरकारी निवेष की दर भी बढ़ी है पर अनुकूल नहीं। पिछले दो दषक के आंकड़े यह इषारा करते हैं कि षोध के मामले में भारत जीडीपी का 0.6 फीसद से 0.7 फीसद खर्च करता है जबकि इस मामले में अमेरिका 2.8 प्रतिषत और चीन 2.1 प्रतिषत पर है। इतना ही नहीं छोटा सा देष दक्षिण कोरिया अपनी कुल जीडीपी का 4.2 फीसद निवेष करता है। ऐसे ही आंकड़े इज़राइल में भी देखे जा सकते हैं। उक्त से यह अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत में षोध कितना बड़ा मुद्दा है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में षोध और अनुसंधान को प्रमुख दी तो नतीजे स्पश्ट दिखाई दे रहे हैं जबकि षिक्षा, चिकित्सा व अन्य बुनियादी विकास यही पिछड़ापन नित नई समस्या पैदा किये हुए है। बड़ी खूबसूरत कहावत है कि जिस देष में फौजियों पर षोध होगा उसकी फौजी ताकत बढ़ी रहेगी। जाहिर है जहां षोध कम होगा वहां विकास की गंगा कम बहेगी। दौर बदलाव का है ऐसे में हर क्षेत्र नवाचार और नये ज्ञान के साथ पुख्ता नहीं होगा तो समस्याएं बनी रहेंगी। इस बात को इस उदाहरण से समझना आसान है कि दुनिया में कोरोना माहमारी बन चुकी है और अभी तक न तो इसके लिए अनुकूल दवा और टीका की खोज हो पायी है और न ही इसे फैलने से रोक पाया जा रहा है। जाहिर है समस्या बड़ी है पर इसी अनुपात में षोध और अनुसंधान बड़ा होता तो इसका दायरा इतना विकराल रूप न लेता। भारत में षोध कार्य को बढ़ावा देने के लिए कई जतन किये जा रहे हैं लेकिन आज भी देष में हो रहे षोध की न केवल मात्रा बल्कि गुणवत्ता भी संतोशजनक नहीं है।
गौरतलब है कि आज से 50 साल पहले देष में लगभग 50 प्रतिषत वैज्ञानिक अनुसंधान विष्वविद्यालयों में होते थे जो धीरे-धीरे कम होते चले गये। इसके पीछे एक बड़ी वजह धन की उपलब्धता की कमी भी बताई जाती है। समय के साथ युवा वर्ग की दिलचस्पी षोध में कम व अन्य क्षेत्रों में अधिक हो गयी है। सर्वे यह भी बताते हैं कि महिलाओं के एक हिस्से का षिक्षा ग्रहण करने का एक मात्र उद्देष्य डिग्री हासिल करना है ऐसा ही लक्ष्य कुछ युवा वर्गों में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा समाज की बेड़ियां भी षोध कार्यों तक पहुंचने में रूकावट बनती रही हैं। सीएसआईआर का एक सर्वे से पता चलता है कि एक साल में 3 हजार से अधिक षोधपत्र तैयार होते हैं मगर इनमें कोई नया आईडिया या विचार नहीं होता। विष्वविद्यालय तथा निजी व सरकारी क्षेत्र की षोध संस्थाओं में सकल खर्च भी कम होता चला गया जिससे षोध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों खतरे में पड़ गयी। कई निजी विष्वविद्यालय ऐसे मिल जायेंगे जहां बड़े तादाद में युवा रिसर्च तो कर रहे हैं मगर इसकी मूल वजह डिग्री हासिल करना है। अमेरिका के ओहियो स्टेट, मिषिगन व प्रिंसटन जैसे दर्जनों विष्वविद्यालय के षोध अमेरिकी विकास की दिषा और दषा आज भी तय करते हैं जबकि भारत में मामूली संस्थाओं को छोड़कर अन्यों की स्थिति इस तरह नहीं कही जा सकती। हकीकत यह है कि जीडीपी का एक फीसद भी षोध पर खर्च नहीं किया जा रहा है। वैज्ञानिक तो इसे 2 फीसद तक बढ़ाने की मांग बरसों से कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि उभरते परिदृष्य और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में षोध से ही समाधान सम्भव होगा और विकास की तुरपाई हो पायेगी। हालांकि सरकार इस मामले में सक्रिय दिखाई देती है। विदेषों में एक्सपोजर और प्रषिक्षण प्राप्त करने के उद्देष्य से विद्यार्थियों के लिए ओवरसीज़ विजिटिंग इलेक्ट्रेाल फेलोषिप प्रोग्राम चलाया जा रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डिजिटल अर्थव्यवस्था, स्वास्थ प्रौद्योगिकी, साइबर सुरक्षा और स्वच्छ विकास को बढ़ावा देने हेतु इण्डिया-यूके साइंस एण्ड इनोवेषन पाॅलिसी डायलाॅग के जरिये षोध को आपसी बढ़ावा मिल रहा है। इसके अलावा दर्जनों प्रकार के संदर्भ वैष्विक स्तर पर षोध से जोड़े जा रहे हैं।
सवाल उठता है कि विष्वविद्यालय उद्योग की तरह क्यों चलाये जा रहे हैं जबकि भारत विकास की धारा और विचारधारा के ये निर्माण केन्द्र हैं। बाजारवाद के इस युग मे सबका मोल है पर यह समझना होगा कि षिक्षा अनमोल है बावजूद इसके बोली इसी क्षेत्र में ज्यादा लगायी जाती है। षोध की कमी के कारण ही देष का विकासात्मक विन्यास भी गड़बड़ाता है। भारत में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वाले अभ्यर्थी षोध के प्रति उतना झुकाव नहीं रखते जितना पष्चिमी देषों में है। भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी और षोध के मामले में ये और निराष करता है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं।




सुशील कुमार सिंह
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Sunday, March 8, 2020

महिलाओं की शैक्षणिक यात्रा का पूरा समाजशास्त्र

विवेचनात्मक पक्ष यह कहता है कि आधुनिक भारत में महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति एक यात्रा के तौर पर जिस राह पर चली उसे अभी और चैड़ा करना बाकी है। षैक्षणिक हालात यह इषारा करते हैं कि आधी दुनिया कहलाने वाली महिलाओं को पूरी तरह षैक्षणिक स्थिति सुधारने में अभी और जोर लगाने की जरूरत है। भारतीय राश्ट्रीय षिक्षा या षोध तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक सामुदायिक सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी से निहित षिक्षा न हो। ठीक उसी भांति षैक्षणिक दुनिया तब तक पूरी नहीं कही जा सकती जब तक स्त्री षिक्षा की भूमिका पुरूश की भांति सुदृढ़ नहीं हो जाती। आज यह सिद्ध हो चुका है कि अर्जित ज्ञान का लाभ कहीं अधिक मूल्य युक्त है। ऐसे में समाज के दोनों हिस्से यदि इसमें बराबरी की षिरकत करते हैं तो लाभ भी चैगुना हो सकता है। देखा जाय तो 19वीं सदी की कोषिषों ने नारी षिक्षा को उत्सावर्धक बनाया। इस सदी के अन्त तक देष में कुल 12 काॅलेज, 467 स्कूल और 5,628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे जबकि छात्राओं की संख्या साढ़े चार लाख के आस-पास थी। औपनिवेषिक काल के उन दिनों में जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराईयां व्याप्त थीं और समाज भी रूढ़िवादी परम्पराओं से जकड़ा था। बावजूद इसके राजाराम मोहन राय तथा ईष्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे इतिहास पुरूशों ने नारी उत्थान को लेकर समाज और षिक्षा दोनों हिस्सों में काम किया। नतीजे के तौर पर नारियां उच्च षिक्षा की ओर न केवल अग्रसर हुईं बल्कि देष में षैक्षणिक लिंगभेद व असमानता को भी राहत मिली। हालांकि मुस्लिम छात्राओं का अभाव उन दिनों बाखूबी बरकरार था। वैष्विक स्तर पर 19वीं सदी के उस दौर में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी में लड़कियों के लिए अनेक काॅलेज खुल चुके थे और कोषिष की जा रही थी कि नारी षिक्षा भी समस्त षाखाओं में दी जाये।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह आधार बिन्दु तय हो चुका था कि पूर्ववत षैक्षणिक व्यवस्थाओं के चलते यह सदी नारी षिक्षा के क्षेत्र में अतिरिक्त वजनदार सिद्ध होगी। सामाजिक जीवन के लिए यदि रोटी, कपड़ा, मकान के बाद चैथी चीज उपयोगी है तो वह षिक्षा ही हो सकती थी। सदी के दूसरे दषक में स्त्री उच्च षिक्षा के क्षेत्र में लेडी हाॅर्डिंग काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय की स्थापना इस दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम था। आजादी के दिन आते-आते प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विष्विद्यालय आदि में अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 42 लाख के आस-पास हो गयी ओर इतना ही नहीं इनमें तकनीकी और व्यावसायिक षिक्षा का भी मार्ग प्रषस्त हुआ। इस दौर तक संगीत और नृत्य की विषेश प्रगति भी हो चुकी थी। 1948-49 के विष्वविद्यालय षिक्षा आयोग ने नारी षिक्षा के सम्बंध में कहा था कि नारी विचार तथा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्षित कर चुकी है, अब उेस नारी आदर्षों के अनुकूल पृथक रूप से षिक्षा पर विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता के दस बरस के बाद छात्राओं की संख्या कुल 88 लाख के आस-पास हो गयी और इनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्रों में दिखने लगा। वर्तमान में स्त्री षिक्षा सरकार, समाज और संविधान की कोषिषों के चलते कहीं अधिक उत्थान की ओर हैं। नब्बे के दषक के बाद उदारीकरण के चलते षिक्षा में भी जो अमूल-चूल परिवर्तन हुआ उसमें एक बड़ा हिस्सा नारी क्षेत्र को भी जाता है। वास्तुस्थिति यह भी है कि पुरूश-स्त्री समरूप षिक्षा के अन्तर्गत कई आयामों का जहां रास्ता खुला है वहीं इस डर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आपसी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
आज आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गये हैं। इसी के अनुपालन में षिक्षा और दक्षता का विकास भी बदलाव ले रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पछाड़ दिया है और इस सच से भी किसी को गुरेज नहीं होगा कि परम्परागत षिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है। अब विकट स्थिति यह है कि नारी से भरी आधी दुनिया मुख्यतः भारत को षैक्षणिक मुख्य धारा में पूरी कूबत के साथ कैसे जोड़ा जाये। बदलती हुई स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा चोटी स्त्री षिक्षा पर होगा। यद्यपि विज्ञान के उत्थान और बढ़ोत्तरी के चलते कई चमत्कारी उन्नति भी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 1947 से 1980 के बीच उच्च षिक्षा में स्त्रियों की संख्या 18 गुना बढ़ी है और अब तो इसमें और तेजी है। कुछ खलने वाली बात यह भी है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर की जो षिक्षा व्यवस्था है उससे देष पीछे हैं। विष्वविद्यालय जिस सरोकार के साथ षिक्षा व्यवस्था को अनवरत् बनाये हुए हैं उससे तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि संचित सूचना और ज्ञान मात्र को ही यह भविश्य की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में लगे हैं। इससे पूरा काम तो नहीं होगा। कैरियर के विकास में स्त्रियों की छलांग बहुआयामी हुई है पर इसके साथ पति, बच्चों, परिवार के साथ तालमेल बिठाना भी चुनौती रही है। काफी हद तक उनकी सुरक्षा को लेकर भी चिन्ता लाज़मी है। बावजूद इसके आज पुत्री षिक्षा को लेकर पिता काफी सकारात्मक महसूस कर रहे हैं। 
2011 की जनगणना के अनुसार 65 फीसदी से अधिक महिलाएं षिक्षित हैं पर सषक्तिकरण को लेकर संषय अभी बरकरार है इसके पीछे एक बड़ी वजह नारी षिक्षा ही हैं परन्तु जिस भांति नारी षिक्षा और रोजगार को लेकर बहुआयामी दृश्टिकोण का विकास हो रहा है। अंदाजा है कि भविश्य में ऐसे संदेह से भारत परे होगा। सषक्तिकरण की प्रक्रिया में षिक्षा की भूमिका के साथ साध्य और साधन की मौजूदगी भी जरूरी है साथ ही सामाजिक-आर्थिक विकास को भी नहीं भूला जा सकता है। समाज के विकास में स्त्री भूमिका को आज कहीं से कमतर नहीं आंका जाता मगर यह आज भी पूरी तरह कई किन्तु-परन्तु से परे भी नहीं है। 2011 की जनगणना में निहित धार्मिक आंकड़ों का खुलासा मोदी सरकार द्वारा किया गया था जिसे देखने से पता चलता है कि लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है। सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि सिक्ख, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को इस स्तर पर बेहद सचेत होने की आवष्यकता है इसमें भी स्थिति सबसे खराब सिक्खों की है जहां 47.44 फीसद महिलाएं हैं जबकि हिन्दू महिलाओं की संख्या 48.42 वहीं मुस्लिम महिलाएं 48.75 फीसदी हैं। केवल इसाई महिलाओं में स्थिति ठीक-ठाक और पक्ष में कही जा सकती है। देखा जाय तो स्त्रियों से जुड़ी दो समस्याओं में एक उनकी पैदाइष के साथ सुरक्षा का है, दूसरे षिक्षा के के साथ कैरियर और सषक्तिकरण का है पर रोचक यह है कि यह दोनों तभी पूरा हो सकता है जब पुरूश मानसिकता कहीं अधिक उदार के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की है। हालांकि वर्तमान में अब ऐसे आरोपों को खारिज होते हुए भी देखा जा सकता है क्योंकि स्त्री सुरक्षा और षिक्षा को लेकर सामाजिक जागरूकता तुलनात्मक कई गुना बढ़ चुकी है।
मानव विकास सूचकांक को तैयार करने की षुरूआत 1990 से किया जा रहा है। ठीक पांच वर्श बाद 1995 मे जैंडर सम्बंधी सूचकांक का भी उद्भव देखा जा सकता है। जीवन प्रत्याषा, आय और स्कूली नामांकन तथा व्यस्क साक्षरता के आधार पर पुरूशों से तुलना किया जाए तो आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि नारियों की स्थिति को लेकर अभी भी बहुत काम करना बाकी है। विकास की राजनीति कितनी भी परवान क्यों न चढ़ जाए पर स्त्री षिक्षा और सुरक्षा आज भी महकमों के लिए यक्ष प्रष्न बने हुए हैं। स्वतंत्र भारत से लेकर अब तक लिंगानुपात काफी हद तक निराषाजनक ही रहा है। हालांकि साक्षरता के मामले में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। वर्तमान मोदी सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ से लेकर कई ऐसे कार्यक्रमों को विकसित करने का प्रयास किया है जिससे कि इस दिषा में और बढ़त मिल सके फिर भी कई असरदार कार्यक्रमों और परियोजनाओं को नवीकरण के साथ लाने की जगह आगे भी बनी रहेगी साथ ही उनका क्रियान्वयन भी समुचित हो जिससे कि षैक्षणिक दुनिा में नारी को और चैड़ा रास्ता मिल सके।


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Friday, March 6, 2020

समझौते को लेकर आशा के साथ संदेह भी

कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच बरसों के इंतजार के बाद षान्ति समझौते पर मोहर लग गयी। समझौते के तहत अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा। इस करार के दौरान भारत सहित दुनिया के 30 देषों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। हालांकि यह करार भारत की मुष्किलों को बढ़ा सकता है जिसकी चर्चा आगे करेंगे। समझौते के अहम बिन्दुओं पर दृश्टि डालें तो अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को प्रषिक्षित करेगा ताकि भविश्य में आन्तरिक और बाहरी हमलों से व स्वयं का बचाव कर सकें। तालिबान ने इस समझौते के तहत अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि वह अलकायदा और दूसरे विदेषी आतंकवादी समूहों से अपना नाता तोड़ देगा। साथ ही अफगानिस्तान की जमीन को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने में अमेरिका की सहायता करेगा। गौरतलब है तालिबान अफगानिस्तान में विदेषी सेनाओं की मौजूदगी का विरोधी था। साल 2018 में अमेरिका ने यह षर्त रखी थी, कि सेनाएं तभी वापस जायेंगी जब तालिबान आतंकी हमले नहीं होने का विष्वास दिलाये। तालिबान का खुष होना लाज़मी है मगर समझौते की षर्तों को कठोरता से पालन करना भी उसकी जिम्मेदारी है। वैसे करार से पहले तालिबान ने लड़ाकुओं को हमले रोकने का आदेष दिया था और इससे दूर रहने का साफ-साफ संकेत भी है। मगर संदेह कहीं और बढ़ गया है। भारत को इस बात की आषंका है कि अगर समझौते के बाद तालिबान की सरकार वहां बनती है तो इसमें भारत का हित प्रभावित हो सकता है। गौरतलब है कि तालिबान और पाकिस्तान का गहरा नाता रहा है। यदि तालिबान की अफगानिस्तान में स्थिति मजबूत होती है तो पाकिस्तान इस नजदीकी का फायदा उठायेगा। बीते 18 वर्शों से अलग-थलग पाकिस्तान तालिबान के रास्ते फिर से अफगानिस्तान में घुसपैठ कर सकता है जो भारत के लिए कहीं अधिक हानिकारक है। ध्यानतव्य हो कि 1995 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता थी जिसे भारत ने अधिकारिक और कूटनीतिक रूप से कभी मान्यता नहीं दी जबकि यह पाकिस्तान के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। 
जाहिर है कि भारत ने कभी तालिबान से बातचीत को प्राथमिकता में नहीं रखा। मगर बीते 24-25 फरवरी को भारत के दौरे पर आये अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रधानमंत्री मोदी से षान्ति समझौते को लेकर चर्चा की और प्रेस कांफ्रेंस में भी इसे उद्घाटित किया। देखा जाय तो अमेरिका ने पहली बार भारत को तालिबान के साथ किसी बातचीत के लिए अधिकारिक तौर पर निमंत्रित किया और दोहा एक बेहतर नतीजे में तब्दील हो गया। यहां भारत की भूमिका को भी अहमियत दिया जाना चाहिए। फिलहाल जैसा कि ट्रम्प ने भी कहा है कि अगर अफगानिस्तान और तालिबान इन प्रतिबद्धताओं पर खरे उतरते हैं तो अफगानिस्तान में युद्ध को समाप्त करना और सैनिकों को वापस ले जाने का रास्ता बनेगा। जाहिर है तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान में षान्ति चाहते हैं या अपनी ही जमीन पर हिंसा बनाये रखने का इरादा रखते हैं। अब यह बात उन्हीं पर निर्भर है। यहां चर्चा तालिबान के इतिहास-भूगोल का करना भी लाज़मी प्रतीत होता है। तालिबान का उदय 90 के दषक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। पष्तूनो के नेतृत्व में उभरा तालिबान अफगानिस्तान में 1994 में सामने आया। वैसे तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजन और मदरसों के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करायी जिसके लिए पैसा सऊदी अरब से आता था। जब तालिबान जन्म ले चुका था तब अफगानिस्तान की परिस्थिति कई गुटों के संघर्श में थी। स्थानीय लोगों ने तालिबानियों का स्वागत किया और ऐसा बन्दूक के नोक पर भ्रश्टाचार और अर्थव्यवस्था पर अंकुष लगाने के चलते था। तालिबान को बढ़ाने में पाकिस्तान का हाथ पूरी तरह षामिल है। दक्षिण-पष्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने तेजी से अपना प्रभाव जमाया और साल 1995 में ईरान की सीमा से सटे हेरात प्रान्त पर कब्जा किया। सिलसिलेवार तरीके से बढ़ते हुए काबुल और इसी तरह अफगानिस्तान के लगभग 90 फीसदी इलाकों पर तालिबानियों ने अपने झण्डे गाड़ दिये। गौरतलब है कि तालिबान के षुरूआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में षिक्षा ली थी। देखा जाय तो 90 के दषक से 2001 तक तालिबान का अफगानिस्तान में सत्ता थी और भारत ने कभी इन्हें मान्यता नहीं दी जबकि पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात समेत सऊदी अरब से इन्हें मान्यता थी। 
भारत की मूल चिंता दक्षिण एषिया में अमन-चैन और बीते दो दषकों में जो द्विपक्षीय सम्बंध उभरे हैं उसे लेकर कहीं अधिक है। भारत पहले से ही अफगानिस्तान में अरबों डाॅलर की लागत से कई बड़ी परियोजनाएं पूरी कर चुका है और कईयों पर अभी काम चल रहा है। आंकड़े इंगित करते हैं कि वह अफगानिस्तान को लगभग 3 अरब डाॅलर की मदद कर चुका है जिसके चलते वहां संसद भवन, सड़क और बांध आदि का निर्माण हुआ है। इन दिनों अफगानिस्तान के भीतर भारत की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़े हुए दर पर है और इसकी वजह साफ-साफ देखी जा सकती है। भारत अफगानिस्तान के अन्दर वर्तमान में भी कई मानवीय और विकास से सम्बंधित परियोजनाओं पर काम कर रहा है। 116 सामुदायिक विकास परियोजना इसमें षामिल हैं जिसका क्रियान्वयन वहां के 31 प्रान्तों में देखा जा सकता है। षिक्षा, स्वास्थ, कृशि, सिंचाई, पेयजल, खेल, आधारभूत संरचना आदि इसमें षामिल हैं। काबुल के षहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर काम हो रहा है। इसके अतिरिक्त जल पूर्ति तंत्र, विष्वविद्यालय, पुस्तकालय, पाॅलिटेक्निक, राश्ट्रीय कृशि विज्ञान आदि का भी निर्माण में भारत सहयोग कर रहा है। उक्त को ध्यान में रखकर भारत की चिंता गैर वाजिब नहीं है। इसके अलावा ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेष किया हुआ है। इसके चलते भारत, अफगानिस्तान, मध्य एषिया, रूस और यूरोप के देषों से व्यापार मजबूत करने की फिराक में है। इसे चीन के वन बेल्ट, वन रोड़ की काट के तौर पर भी देखा जाता है। गौतरलब है कि भारत वन बेल्ट, वन रोड़ का विरोधी है। भारत की चिंता है कि यदि तालिबानी सत्तासीन होंगे तो उपरोक्त योजनाएं व परियोजनाएं खतरे में पड़ सकती हैं और अफगानिस्तान के रास्ते अन्यों तक उसकी पहुंच बाधित हो सकती है। 
खतरा यहीं तक नहीं है अमेरिका और तालिबान के बीच षान्ति वार्ता अफगानिस्तान में मौजूद सरकार के लिए भी कठिनाई पैदा कर सकता है। अमेरिकी व विदेषी सैनिकों की वापसी की स्थिति में तालिबान अपनी जड़ें फिर मजबूत कर सकता है और ऐसा करने में बदनाम पाकिस्तान सहारा दे सकता है। फिलहाल अमेरिका और तालिबान की षान्ति वार्ता के एक दिन बाद ही अफगानिस्तान के राश्ट्रपति ने यह एलान किया कि तालिबानी कैदियों को नहीं छोड़ेंगे जो समझौता लागू करने में आड़े आ सकता है। वैसे देखा जाय तो अफगानिस्तान में लगभग 20 सालों से चल रहे युद्ध को खत्म करने के लिए अमेरिका वर्शों से पूरा जोर लगा रहा है। गौरतलब है अलकायदा द्वारा साल 2001 में अमेरिका पर किया गया हमला तत्पष्चात् अमेरिकी सेना का अफगानिस्तान के भीतर ओसामा बिन लादेन की खोज इनकी उपस्थिति का मूल कारण बना। हालांकि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एटबाबाद में मारा गया था। दो टूक यह कि 20 हजार सैनिकों के वापसी की चिंता अमेरिका को बरसों से परेषान कर रही थी षान्ति वार्ता उसी का नतीजा है। भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है। पड़ताल बताती है कि जब सोवियत संघ की सेना की वापसी हुई थी तब अफगानिस्तान संघर्शों में लिप्त हो गया था और यही दौर तालिबान की पैदाइष का भी था। और अब अमेरिका की सेना दो दषक की उपस्थिति के बाद आगामी चैदह महीने में वापस हो जायेगी। इसे देखते हुए अफगानिस्तान सहित दक्षिण एषिया की षान्ति बरकरार रहेगी इसे लेकर चिंता गहरा जाती है। ऐसे में भारत इस समझौते से आषा तो रखता है पर संदेह से षायद परे नहीं है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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