Monday, March 16, 2020

संसद भवन में भी हो सुशासन

वह प्रक्रिया जो राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक स्वरूप देती है उसे लोकतांत्रिकरण कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र जनता द्वारा षासित व्यवस्था है पर क्या वर्तमान भारतीय लोकतंत्र इसी के इर्द-गिर्द है, कहने में थोड़ा संकोच हो रहा है। दरअसल भारत के लोकतंत्र के मामले में इन दिनों नये उप-विचारों का इस कदर उद्विकास हुआ कि प्रजातंत्र हाषिये पर और कमजोरतंत्र फलक पर है। लोकतंत्र की धारा जनता के हितों से पोशित होती है मगर यदि लोकतंत्र के भीतर भेदभाव की लकीरें खींची जायेंगी तो संकट देष पर ही आयेगा। 31 जनवरी से षुरू बजट सत्र का दूसरा पक्ष बीते 2 मार्च से जारी है पर काम कितना हो रहा है यह पड़ताल का विशय है। कहा जाये तो संसद राजनीतिक आजमाइष का मंच बना हुआ है। कूबत और कद की लड़ाई में बजट सत्र भी मानो आर्थिक मन्दी से जूझ रहा है। बजट सत्र के दरमियान ही दिल्ली में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया दर्जनों मौत के घाट उतारे गये अब उस पर सियासत जारी है। इसी कड़ी में सरकार ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए बीते 11 मार्च को लोकसभा में गृहमंत्री ने दिल्ली घटना को सुनियोजित साजिष करार दिया। साथ ही विपक्ष की भी लानत-मलानत की गयी। दुविधा यह है कि सरकार चलाने वाले जब चाबुक अपने हाथ में रखे हुए है तो गलतियां विरोधी कैसे कर रहे हैं। फिलहाल सड़क की सियासत किसे रास आ रही है यह कहना मुष्किल है पर इन दिनों संसद से जो उम्मीद जनता लगाकर बैठी है वह अपेक्षा के अनुरूप खरी उतरेगी या नहीं, यह तीन अप्रैल सत्र की समाप्ति तक पता चलेगा। 
बीते 6 सालों की पड़ताल करके देखें तो सत्र में हंगामे का इतिहास बाकायदा पसरा हुआ मिल जायेगा। इसके पीछे केवल विरोधी ही नहीं बल्कि सरकार भी जिम्मेदार रही है। सरकार का पक्ष मामले को तूल देने के बजाये समाधान का होना चाहिए जो कम ही दिखाई देता है। दुर्भाग्य यह है कि सरकार भी आरोप लगाने में ही सारी कूबत झोंक देती है और प्रचण्ड बहुमत के चलते कुछ हद तक बड़बोलेपन की षिकार भी है। मसलन जब नागरिकता संषोधन विधेयक संसद में 9 दिसम्बर को अधिनियमित हो रहा था तब विपक्ष के एक सांसद ने सवाल उठाया कि इसके बाद आप एनआरसी लायेंगे तब गृहमंत्री अमित षाह ने बड़े मिजाज से कहा था कि वो तो हमारा एजेण्डा है ही। जबकि एनआरसी तो छोड़िए सीएए के चलते इतना विरोध हुआ कि सरकार बैकफुट पर गयी और प्रधानमंत्री को 22 दिसम्बर को कहना पड़ा कि एनआरसी लागू करने का अभी कोई विचार नहीं है। षाहीन बाग से लेकर कई स्थानों पर सीएए के विरोधी देखे गये। बजट सत्र के दौरान भी यही सब कुछ चलता रहा और यह मामला अभी भी थमा नहीं है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में सियासतदानों ने वोट की खातिर नफरत की लहलहाती फसले भी तैयार की। इतना ही नहीं दामन बचाने की होड़ में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरी उभारने में लगे रहते हैं और करदाताओं का पैसा सत्र के दौरान बेहिसाब बहा दिया जाता है। करीब डेढ़ करोड़ रूपया संसद की एक घण्टे की कार्यवाही में खर्च हो जाता है और बारीकी से देखा जाये तो ढ़ाई लाख खपाने पर एक मिनट की संसद चलती है। हालत यह है कि वर्श भर चलने वाली 3 सत्रों में विभाजित संसद का काफी कीमती वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। जबकि टैक्स देने वाले अपने प्रतिनिधि से उम्मीद लगाकर बैठे होते हैं कि लोकतंत्र की संस्था में जाकर वे उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे।
कामकाज के लिहाज से देखा जाय तो पहली लोकसभा (1952 से 1957) में 677 बैठकें हुई थी। 5वीं लोकसभा (1971 से 1977) में 613 जबकि 10वीं लोकसभा (1991 से 1996 ) में यह औसत 423 का था। मोदी षासनकाल से पहले 15वीं लोकसभा (2009 से 2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। 16वीं लोकसभा की पड़ताल ये बताती है कि यहां बैठकों की कुल अवधि 1615 घण्टे रही लेकिन अतीत की कई लोकसभा के मुकाबले यह घण्टे काफी कम नजर आते हैं। एक दल के बहुमत वाली अन्य सरकारों के कार्यकाल के दौरान सदन में औसत 2689 घण्टे काम में बिताये हैं लेकिन यहां बताना लाज़मी है कि काम इन घण्टों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि 16वीं लोकसभा में किस तरह काम किया, किस तरह के कानून बनाये, संसदीय लोकतंत्र में कैसी भूमिका थी, क्या सक्रियता रही और लोकतंत्र के प्रति सरकार का क्या नजरिया रहा इन सवालों पर यदि ठीके से रोषनी डाली जाये तो काम के साथ निराषा भी नजर आती है। लोकसभा के उपलब्ध आंकड़े यह बताते हैं कि मोदी षासन के पहले कार्यकाल के दौरान लोकसभा में कुल 135 विधेयक मंजूर कराये गये। जिसमें कईयों को राज्यसभा में मंजूरी नहीं मिली। हालांकि जीएसटी, तीन तलाक और सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण समेत कई फलक वाले कानून इसी कार्यकाल की देन है। अब 17वीं लोकसभा का दौर जारी है। रिपोर्ट 2024 में मिलेगा। यह दौर आर्थिक मन्दी का है साथ ही बेरोजगारी भी सारे रिकाॅर्ड तोड़ चुकी है। 1 फरवरी को पेष किये गये बजट अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण बजट माना जाता है। विकास दर धूल चाट रही है और समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। सबके बावजूद सियासी गुणा-भाग की चिंता से सरकार उबर नहीं पा रही है। मिला-जुलाकर देखा जाय तो संसद में जहां आरोपों की झड़ी लगती है वहीं भावनात्मक स्थितियां उभार कर जनता के मानसपटल को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया जाता है। जबकि हकीकत में सरकार माई-बाप होती है उसे हर मिनट का हिसाब जनता के हित में खर्च करना चाहिए। 
प्रधानमंत्री मोदी कहते रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं पर संसद के बुरे दिन न आये इसकी भी चिंता करने का वक्त आ गया है। संसद भवन में भी सुषासन हो, सुचिता हो और गरीबी, निरक्षरता, षिक्षा और चिकित्सा सहित बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति वाली गूंज उठे इसकी फिक्र पक्ष हो या विपक्ष सभी को होनी चाहिए। वास्तव में यह सरकार और विपक्ष के लिए यक्ष प्रष्न बन चुका है कि सामाजिक-आर्थिक नियोजन की कमजोर दषा के लिए उत्तरदायी कौन है। लड़ाई सियासत की है पर सरेआम मत कीजिए। लोकतंत्र को कश्ट होता है और जनता में अविष्वास पनपता है। संसद निजीपन की षिकार नहीं होनी चाहिए। 16वीं लोकसभा में कांग्रेस 44 पर थी और अब 52 में सिमट कर रह गयी है जबकि मौजूदा सरकार पहले भी गठबंधन समेत 300 के पार थी और अब तो भाजपा अकेले ही इस आंकड़े को छुआ है जाहिर है ताकत के साथ और मजबूती आयी  है। फिलहाल संसद को पक्ष और विपक्ष दोनों चाहिए। देष को सीख देने वाले सियासतदान भटकाव से बचते हुए उन कृत्यों को अंगीकृत करें जहां से देष की भलाई की गंगा बहती हो न कि भ्रम। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589!@gmail.com

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