कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच बरसों के इंतजार के बाद षान्ति समझौते पर मोहर लग गयी। समझौते के तहत अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा। इस करार के दौरान भारत सहित दुनिया के 30 देषों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। हालांकि यह करार भारत की मुष्किलों को बढ़ा सकता है जिसकी चर्चा आगे करेंगे। समझौते के अहम बिन्दुओं पर दृश्टि डालें तो अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को प्रषिक्षित करेगा ताकि भविश्य में आन्तरिक और बाहरी हमलों से व स्वयं का बचाव कर सकें। तालिबान ने इस समझौते के तहत अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि वह अलकायदा और दूसरे विदेषी आतंकवादी समूहों से अपना नाता तोड़ देगा। साथ ही अफगानिस्तान की जमीन को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने में अमेरिका की सहायता करेगा। गौरतलब है तालिबान अफगानिस्तान में विदेषी सेनाओं की मौजूदगी का विरोधी था। साल 2018 में अमेरिका ने यह षर्त रखी थी, कि सेनाएं तभी वापस जायेंगी जब तालिबान आतंकी हमले नहीं होने का विष्वास दिलाये। तालिबान का खुष होना लाज़मी है मगर समझौते की षर्तों को कठोरता से पालन करना भी उसकी जिम्मेदारी है। वैसे करार से पहले तालिबान ने लड़ाकुओं को हमले रोकने का आदेष दिया था और इससे दूर रहने का साफ-साफ संकेत भी है। मगर संदेह कहीं और बढ़ गया है। भारत को इस बात की आषंका है कि अगर समझौते के बाद तालिबान की सरकार वहां बनती है तो इसमें भारत का हित प्रभावित हो सकता है। गौरतलब है कि तालिबान और पाकिस्तान का गहरा नाता रहा है। यदि तालिबान की अफगानिस्तान में स्थिति मजबूत होती है तो पाकिस्तान इस नजदीकी का फायदा उठायेगा। बीते 18 वर्शों से अलग-थलग पाकिस्तान तालिबान के रास्ते फिर से अफगानिस्तान में घुसपैठ कर सकता है जो भारत के लिए कहीं अधिक हानिकारक है। ध्यानतव्य हो कि 1995 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता थी जिसे भारत ने अधिकारिक और कूटनीतिक रूप से कभी मान्यता नहीं दी जबकि यह पाकिस्तान के लिए यह स्वर्णिम अवसर था।
जाहिर है कि भारत ने कभी तालिबान से बातचीत को प्राथमिकता में नहीं रखा। मगर बीते 24-25 फरवरी को भारत के दौरे पर आये अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रधानमंत्री मोदी से षान्ति समझौते को लेकर चर्चा की और प्रेस कांफ्रेंस में भी इसे उद्घाटित किया। देखा जाय तो अमेरिका ने पहली बार भारत को तालिबान के साथ किसी बातचीत के लिए अधिकारिक तौर पर निमंत्रित किया और दोहा एक बेहतर नतीजे में तब्दील हो गया। यहां भारत की भूमिका को भी अहमियत दिया जाना चाहिए। फिलहाल जैसा कि ट्रम्प ने भी कहा है कि अगर अफगानिस्तान और तालिबान इन प्रतिबद्धताओं पर खरे उतरते हैं तो अफगानिस्तान में युद्ध को समाप्त करना और सैनिकों को वापस ले जाने का रास्ता बनेगा। जाहिर है तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान में षान्ति चाहते हैं या अपनी ही जमीन पर हिंसा बनाये रखने का इरादा रखते हैं। अब यह बात उन्हीं पर निर्भर है। यहां चर्चा तालिबान के इतिहास-भूगोल का करना भी लाज़मी प्रतीत होता है। तालिबान का उदय 90 के दषक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। पष्तूनो के नेतृत्व में उभरा तालिबान अफगानिस्तान में 1994 में सामने आया। वैसे तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजन और मदरसों के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करायी जिसके लिए पैसा सऊदी अरब से आता था। जब तालिबान जन्म ले चुका था तब अफगानिस्तान की परिस्थिति कई गुटों के संघर्श में थी। स्थानीय लोगों ने तालिबानियों का स्वागत किया और ऐसा बन्दूक के नोक पर भ्रश्टाचार और अर्थव्यवस्था पर अंकुष लगाने के चलते था। तालिबान को बढ़ाने में पाकिस्तान का हाथ पूरी तरह षामिल है। दक्षिण-पष्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने तेजी से अपना प्रभाव जमाया और साल 1995 में ईरान की सीमा से सटे हेरात प्रान्त पर कब्जा किया। सिलसिलेवार तरीके से बढ़ते हुए काबुल और इसी तरह अफगानिस्तान के लगभग 90 फीसदी इलाकों पर तालिबानियों ने अपने झण्डे गाड़ दिये। गौरतलब है कि तालिबान के षुरूआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में षिक्षा ली थी। देखा जाय तो 90 के दषक से 2001 तक तालिबान का अफगानिस्तान में सत्ता थी और भारत ने कभी इन्हें मान्यता नहीं दी जबकि पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात समेत सऊदी अरब से इन्हें मान्यता थी।
भारत की मूल चिंता दक्षिण एषिया में अमन-चैन और बीते दो दषकों में जो द्विपक्षीय सम्बंध उभरे हैं उसे लेकर कहीं अधिक है। भारत पहले से ही अफगानिस्तान में अरबों डाॅलर की लागत से कई बड़ी परियोजनाएं पूरी कर चुका है और कईयों पर अभी काम चल रहा है। आंकड़े इंगित करते हैं कि वह अफगानिस्तान को लगभग 3 अरब डाॅलर की मदद कर चुका है जिसके चलते वहां संसद भवन, सड़क और बांध आदि का निर्माण हुआ है। इन दिनों अफगानिस्तान के भीतर भारत की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़े हुए दर पर है और इसकी वजह साफ-साफ देखी जा सकती है। भारत अफगानिस्तान के अन्दर वर्तमान में भी कई मानवीय और विकास से सम्बंधित परियोजनाओं पर काम कर रहा है। 116 सामुदायिक विकास परियोजना इसमें षामिल हैं जिसका क्रियान्वयन वहां के 31 प्रान्तों में देखा जा सकता है। षिक्षा, स्वास्थ, कृशि, सिंचाई, पेयजल, खेल, आधारभूत संरचना आदि इसमें षामिल हैं। काबुल के षहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर काम हो रहा है। इसके अतिरिक्त जल पूर्ति तंत्र, विष्वविद्यालय, पुस्तकालय, पाॅलिटेक्निक, राश्ट्रीय कृशि विज्ञान आदि का भी निर्माण में भारत सहयोग कर रहा है। उक्त को ध्यान में रखकर भारत की चिंता गैर वाजिब नहीं है। इसके अलावा ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेष किया हुआ है। इसके चलते भारत, अफगानिस्तान, मध्य एषिया, रूस और यूरोप के देषों से व्यापार मजबूत करने की फिराक में है। इसे चीन के वन बेल्ट, वन रोड़ की काट के तौर पर भी देखा जाता है। गौतरलब है कि भारत वन बेल्ट, वन रोड़ का विरोधी है। भारत की चिंता है कि यदि तालिबानी सत्तासीन होंगे तो उपरोक्त योजनाएं व परियोजनाएं खतरे में पड़ सकती हैं और अफगानिस्तान के रास्ते अन्यों तक उसकी पहुंच बाधित हो सकती है।
खतरा यहीं तक नहीं है अमेरिका और तालिबान के बीच षान्ति वार्ता अफगानिस्तान में मौजूद सरकार के लिए भी कठिनाई पैदा कर सकता है। अमेरिकी व विदेषी सैनिकों की वापसी की स्थिति में तालिबान अपनी जड़ें फिर मजबूत कर सकता है और ऐसा करने में बदनाम पाकिस्तान सहारा दे सकता है। फिलहाल अमेरिका और तालिबान की षान्ति वार्ता के एक दिन बाद ही अफगानिस्तान के राश्ट्रपति ने यह एलान किया कि तालिबानी कैदियों को नहीं छोड़ेंगे जो समझौता लागू करने में आड़े आ सकता है। वैसे देखा जाय तो अफगानिस्तान में लगभग 20 सालों से चल रहे युद्ध को खत्म करने के लिए अमेरिका वर्शों से पूरा जोर लगा रहा है। गौरतलब है अलकायदा द्वारा साल 2001 में अमेरिका पर किया गया हमला तत्पष्चात् अमेरिकी सेना का अफगानिस्तान के भीतर ओसामा बिन लादेन की खोज इनकी उपस्थिति का मूल कारण बना। हालांकि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एटबाबाद में मारा गया था। दो टूक यह कि 20 हजार सैनिकों के वापसी की चिंता अमेरिका को बरसों से परेषान कर रही थी षान्ति वार्ता उसी का नतीजा है। भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है। पड़ताल बताती है कि जब सोवियत संघ की सेना की वापसी हुई थी तब अफगानिस्तान संघर्शों में लिप्त हो गया था और यही दौर तालिबान की पैदाइष का भी था। और अब अमेरिका की सेना दो दषक की उपस्थिति के बाद आगामी चैदह महीने में वापस हो जायेगी। इसे देखते हुए अफगानिस्तान सहित दक्षिण एषिया की षान्ति बरकरार रहेगी इसे लेकर चिंता गहरा जाती है। ऐसे में भारत इस समझौते से आषा तो रखता है पर संदेह से षायद परे नहीं है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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